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तेरह क्रियास्थान
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चलाते हुए रहते हैं। . .
उनके हाथ प्राणियों के खून से भरे रहते हैं। वे चण्ड, रुद्र और साहसिक होते हैं। ये कपटपूरी, दुष्ट चारित्री, दुराग्रही असाधु . होते हैं। वे हिंसा से लेकर परिग्रह तक और क्रोध से लेकर मिथ्या
मान्यता (अठारह पापस्थान) तक के पापों में लीन रहते हैं। ये सब
प्रकारके स्नान, मर्दन, गंध, विलेपन, माल्य, अलंकार तथा शब्द, : स्पर्श, रूप, रस, और गन्ध आदि विषयों में फंसे रहते हैं। वे सब
प्रकार के यानवाहन (गाड़ी, रथ, ग्याना, डोली, बग्गी, पालखी आदि) .. और शयनासन आदि सुखसामग्री भोगने-बढ़ाने से अवकाश नहीं - पाते। जीवनभर वे खरीदने-बेचने में, माशा-अाधा. माशा तोलने में
या रुपये आदि के व्यापार से फुरसत नहीं पाते। वे जीवनभर चांदी, - सोना, धन, धान्य, मणि, मोती, प्रवाल आदि का मोह नहीं छोड़ते । . वे जीवनभर सब प्रकार के खोटे तोल-बाट काम में लाने से नहीं • रुकते। वे जीवनपर सब प्रकार की प्रवृत्तियों और हिंसाओं से, सब ... कुछ करने कराने से, पकाने-पकवाने से, खांडने-कूटने से,. मारने
पीटने से, दूसरों को बन्धन प्रादि के दुःख देने से निवृत्त नहीं होते।
वे जीवनभर ऐसे ही दोपयुक्त, ज्ञान के ढंकने वाले, बन्धन के कारण, । दूसरों को परिताप उत्पन्न करने वाले आदि अनार्य कर्मों से निवृत्त नहीं होते।
इस प्रकार अपने ही सुख के लिये जीवन को भोगते हुए वे अकारण ही चावल, दाल तिल्ली, मूंग आदि वनस्पति के जीवों और उसी प्रकार पक्षी, पशु और सादि प्राणियों की हिंसा करते हैं। .. अपने बाह्य परिवार-नौकर चाकर, दासदासी, किसान या .... श्राश्रित श्रादि के प्रति वे अत्यन्त क्रूरतापूर्ण कठोर व्यवहार करते हैं।