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तेरह क्रियास्थान
रोग और वृद्धावस्था आदि संकटों से घिर जाये तब अथवा यों ही वे खाना-पिना छोड़ देते हैं और जिसके लिये स्वतः नग्नावस्था स्वीकार की थी, मुंडन कराया था, स्नान और दंत प्रज्ञालन त्याग दिया था, छतरी और जूते त्याग दिये थे, भूमिशय्या या पाट पर सोना स्वीकार किया था, केश लोच किये थे, ब्रह्मचर्य पालन किया था, दूसरों के घर भिक्षा मांगी थी - वह भी मिले या न मिले इसको महत्त्व नहीं दिया था, मानापमान, श्रवहेलना, निंदा, अवज्ञा, तिरस्कार, तर्जन, ताड़ना सहन किये थे और अनेक अनुकूल-प्रतिकूल इन्द्रिय स्पर्श सहन किये थे— उस वस्तु की चित्त में श्राराधना करते हैं । इसके बाद जब श्रन्तिम श्वासोच्छ्वास चलता हो तब वे अनन्त, सर्वोत्तम, व्याघातरहित, श्रावरणहीन, सम्पूर्ण और परिपूरित उत्तम .' केवल ज्ञानदर्शन प्राप्त करते हैं, तथा सिद्ध, बुद्ध और मुक्त होकर 'परिनिर्वाण' को प्राप्त होते हैं और सब दुःखों का अन्त करते हैं ।
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कितने ही भगवन्तों को अन्तिम शरीर होता है, तब दूसरे पूर्व कर्मों के कारण दिव्य ऋद्धि, द्युति, रूप, वर्ण, गन्ध, स्पर्श, देह, श्राकृति, तेज, प्रकाश, पराक्रम, यश, बल, प्रभाव तथा सुख से युक्त देवगति को प्राप्त होते हैं । यह गति और स्थिति कल्याणमय होती है । भविष्य में भी वे भद्र अवस्था को ही प्राप्त होंगे।
यह स्थान आर्य है, शुद्ध है और सब दुःखों को क्षय करने का . मार्गरूप है ।
[ श्रव मिश्र नामक तृतीय स्थान का वर्णन करते हैं । ]
कितने ही मनुष्य अल्प इच्छा, आरम्भ तथा परिग्रह वाले होते
हैं, वे धर्मिष्ट धर्मपूर्वक श्राजीविका चलाते हैं; वे सुशील, सुव्रती तथा