Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra
Author(s): Gopaldas Jivabhai Patel
Publisher: Sthanakvasi Jain Conference

View full book text
Previous | Next

Page 130
________________ .... v W Prvvvvvvvvv Avvvvr~-~VvvvvvvirmwWV varvvvvvvvvvvvv nnn . .. . . . . .. ...... . n nnnnnnnnnnnrn.... - - - ११४] सूत्रकृतांग सूत्र . प्राचार्य ने उसके उत्तर में कहा- कोई मनुष्य पृथ्वी काय से लेकर अस काय तक के छः कायों (जीवों के प्रति ऐसा नियम करता है कि मैं मात्र पृथ्वीकाय जीवों को मार कर ही काम चलाऊँगा; तो वह मनुष्य पृथ्वीकाय के प्रति ही दोपी है । परन्तु शेष कार्यों (जीवों) के प्रति निर्दीप है किन्तु जो मनुष्य छकायों में से किसी के प्रति भी कोई मर्यादा या नियम नहीं करता और छः ही प्रकार के जीवों से अपना काम चलाता है, वह मनुष्य तो छः ही प्रकार के जीवों के प्रति दोपी ही है न ? यह मनुष्य जीव का उदाहरण है। उसको पांचों इन्द्रिय सहित समर्थ करण और तर्कविचार किया जा सके ऐसी संज्ञा शक्ति है। परन्तु पृथ्वी काय से लेकर वनस्पति काय तक के जीव तो ऐसी संज्ञाशक्ति से रहित होते हैं । इसी प्रकार कई स जीव भी ऐसे हैं जिनमें कुछ कराने के लिये, दूसरा करता हो उसे अनुमति देने के लिये जरा भी तर्कशक्ति, प्रज्ञाशक्ति या मन या वाणी की शक्ति नहीं होती। वे सब मढ़ जीव भी किसी भी जीव के प्रति हिंसादि पापकर्म से नियमपूर्वक विरक्त न होने से, सबके प्रति समान दोपी हैं । और उसका कारण यह है कि सब योनियों के जीव एक जन्म में संज्ञावाले होकर, अपने किये कर्मों के कारण ही दूसरे जन्म में असंज्ञी बनकर जन्म लेते हैं। असंही होकर फिर से संज्ञी होते हैं। . अतएव संज्ञावाले होना या न होना अपने किये हुए कर्मों का ही ।। फल होता है। इससे असंज्ञी अवस्था में जो कुछ पापकर्म होते हैं, उसकी जवाबदारी भी उनकी ही है। __ इसलिये, संज्ञी या असंझी जो कोई जीव हैं, वे सब जब तक नियमपूर्वक पापकर्म दूर नहीं करते, तब तक वे पापकर्मों के सम्बन्ध

Loading...

Page Navigation
1 ... 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159