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सूत्रकृतांग के सुभाषित चित्तमन्तमाच वा, परिगिज्झ किसामवि । ... अन्नं वा अणुजाणाई, एवं दुक्खा ण मुच्चई ॥...
जब तक मनुष्य (कामिनी कांचन आदि) सचित्त या अचित्त पदार्थों में आसक्ति रखता है, तब तक वह दुःखों से मुक्त नहीं हो सकता। [१-१-२]
. सयं तिवायए पाणे, अदुवाऽन्नेहिं घायए। . . हणन्तं वाऽणुजाणाइ, वेरं वड्ढइ अप्पणो ॥ ..
जब तक मनुष्य (अपने सुख के किये ) अन्य प्राणियों की . हिंसा करता रहता या करते हुये को भला समभता है, वह अपना 'वैर बढाता रहता है । [१-१-३]
एवं खु नाणिगो सारं, जन हिंसई किंचण । अहिंसासमयं चेव एतावन्तं वियाणिया ॥
ज्ञानी के ज्ञान का सार यही है कि वह किसी की हिंसा नहीं करता । अहिंसा का सिद्धान्त भी तो ऐसा ही है। (१-४-१०)
संबुज्झह किं न बुझंह ! संबोही खलु पेच दुल्लहा। . णो हूवणमंति राइओ, नो सुलभं पुणरावि जीवियं ।। :
जागो! समझते क्यों नहीं ? मृत्यु के बाद ज्ञान प्राप्त होना दुर्लभ है। बीती हुई रात्रियां नहीं लौटती और मनुष्य-जन्म भी फिर 'मिलना सरल नहीं है । [२-१-१]