Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra
Author(s): Gopaldas Jivabhai Patel
Publisher: Sthanakvasi Jain Conference

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Page 151
________________ १३१ णय संखयमाहु जीवियं, तह वि य वालजणों पग भई । बाले पापेहि मिज्जई, इति संखाय मूणी ण मज्जई || जीवन की साधना फिर नहीं हो सकती, ऐसा बुद्धिमान् बारबार कहते हैं; तो भी मूढ मनुष्य पापों में लीन रहते हैं। ऐसा जानकर मुनि प्रमाद न करे । [ २-२ - २१ |.. 'महयं पलिगोव जाणिया, जाविय वंदणपूयणा इहं । सुहुम सल्ले दुरुद्धरे, विउमन्ता पयहिज्ज संभव - ॥ इस संसार के वन्दन - पूजन को कीचड का गड्ढा समझो - यह कांटा प्रति सूक्ष्म है, बडी कठिनाई से निकलता है; इसी लिये विद्वान् को उसके पास तक न जाना चाहिये । [२-२-११] ari वणिएहि आहियं, धारेन्ति राइणिया इदं । एवं परमा महन्वया, अक्खाया उ सराइभोयणा || दूर देशान्तर से व्यापारियों द्वारा लाये हुए रत्न राजा ही धारण कर सकते हैं । इसी प्रकार रात्रि भोजन त्याग से युक्त इन महानतों को कोई बिरले ही धारण कर सकते हैं । [२-३-३] चाहे जहा व विच्छए, अबले होई गवं पचोइए । से अन्तसो अप्पथामए, नाइव हे अवले वसीयई || एवं कामेसणं विल, अज्ज सुए पयहेज्ज संथवं । कामी कामे कामए, लद्वे वा वि अल कण्हुई || 2 • बजे बैल को मार-कूट कर चलाने पर भी वह तो श्रयिल ही होता जता है और अन्त में वजन होने के बढ़ते थक कर पर

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