Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra
Author(s): Gopaldas Jivabhai Patel
Publisher: Sthanakvasi Jain Conference

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Page 155
________________ .१३६ प्रसिद्ध कुल में उत्पन्न होकर जो भिक्षु बने हैं और महातपस्वी हैं; यदि उनका तप भी कीर्ति की इच्छा से किया गया हो तो वह शुद्ध नहीं है । जिसे दूसरे न जानते हों, वही सच्चा तप है । अपनी प्रशंसा कभी न करे । [ ८-२४ ] अप्प पिण्डास पाणासि अयं मासेज्ज सुव्वए । खन्तेऽभिनिव्बुडे दन्ते, वीतगिद्धी सया जए ॥ सुव्रत धारण करने वाला थोड़ा खाय, थोड़ा पिये और थोड़ा बोले; तमायुक्त, निरातुर, जितेन्द्रिय, और कामनारहित होकर सदा प्रयत्नशील रहे । [८-२५] ल कामे ण पत्येज्जा, विवेगे एवमाहिए । आयरियाई सिक्खेज्जा, बुद्धाणं अन्तिर सया | प्राप्त काम-भोगों में इच्छा न रखना विवेक कहा जाता है । अपना आचार हमेशा बुद्धिमानों के पास से सीखे | [ ६-३२] . सुस्सुसमाणो उवासेज्जा, सुप्पन्नं सुतवस्सियं । वीरा जे अत्तपन्नेसी, धीमन्ता जिइन्दिया || प्रायुक्त, तपस्वी, पुरुषार्थी, आत्मज्ञान के इच्छुक, धृतिमान और जितेन्द्रिय गुरु की सेवा सदा मुमुत्तु करे । [६-३३] अगि सदफासेस, आरम्भेसु अणिस्सिए । सव्वं तं समयातीत, जमेयं लवियं बहु | शब्दादि विषयों में अनासक्त रहे और निंदित कर्म न करे

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