Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra
Author(s): Gopaldas Jivabhai Patel
Publisher: Sthanakvasi Jain Conference

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Page 154
________________ १३८ । जं किंचुवक्कम जाणे, आउखैमस्स अप्प णो । तस्सेव अन्तरा खिप्पं, खिक्खं सिक्खेज्ज पण्डिए॥ अपने जीवन के कल्याण का जो उपाय जान पड़े, उसे बुद्धिमान मनुष्य को अपने जीवन में ही तुरन्त सीख लेना चाहिये । [.-१५] सुयं मे इदमेगेसि, एयं वीरस्स वीरियं । सातागारवाणिहुए, उवसन्ते निहे चरे । बुद्धिमान पुरुषों से मैंने सुना है कि सुखशीलता का त्याग करके, कामनाओं को शान्त करके निरीह होना ही वीर का बीरत्व है। [८-१८] जे या बुद्धा महाभागा, वीरा असमतदसिणो । असुद्धं तेसिं परकन्तं, सफलं होई सबसो॥ जिन्होंने वस्तु का तत्त्व समझा नहीं है, ऐसे मिथ्या-दृष्टिवाले मनुष्य भले ही पूज्य माने जाते हो और धर्माचरण में वीर हो तो भी उनका सारा पुरुषार्थ अशुद्ध होता है, और उससे उनका बन्धन ही होता है। [८-२२] जे य बुद्धा महाभागा वीरा सम्मतदसिणो । सुद्धं तेसिं परकन्तं, अफलं होई सव्यसो ॥ परन्तु, जिन्होंने वस्तु का तत्त्व समझ लिया है, ऐसे साग्यगूदृष्टिबाले वीर मनुष्यों का पुरपार्थ शुद्ध होता है और वे बन्धन को प्राप्त नहीं होते। [--२३] . . तेसि पि न तवो सुद्धो, निक्खन्ता जे महाकुला। जं नेवन्ने वियाणन्ति, न मिलोग पवेज्जए ।

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