Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra
Author(s): Gopaldas Jivabhai Patel
Publisher: Sthanakvasi Jain Conference

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Page 133
________________ सदाचारघातक मान्यताएँ [ ११७ ऐसा कुछ भी न कहे; जो अपने लिये तैयार किया हुया ग्राहार खाते हैं, वे कर्मों से बंधते हैं, ऐसा भी न कहे; स्थूल, सूक्ष्म और कार्माण आदि शरीरों में ही ( सब प्रवृत्तियों की) शक्ति है, ऐसा भी न कहे या उन शरीरों में कुछ शक्ति नहीं है, ऐसा भी न कहे; क्योंकि इन दोनों में से एक पक्ष भी लेने से व्यवहार या पुरुषार्थं नहीं घट सकता । [ ४-११ ] टिप्पणी- - आत्मा चेतन है और शरीर जड़, किन्तु इससे यह न माना जावे कि इन दोनों के बीच कोई सम्बन्ध नहीं । यदि शरीर के जड़ होने से उसको अक्रिय मानें तो मात्र आत्मा शरीर के बिना कुछ नहीं कर सकता; और यदि शरीर को ही सक्रिय मानें और आत्मा को निर्लिप्त कूटस्थ मानें तो फिर चेतन जीव ( आत्मा ) अपनी क्रियाओं के लिये जवाबदार नहीं रहता । अब, नीचे की वस्तुएं हैं ही ऐसा मानना चाहिये अन्यथा व्यवहार या पुरुषार्थ नहीं घट सकता । जैसे लोक थोर लोक नहीं हैं, ऐसा निश्चय न करे किन्तु ऐसा निश्चय करे कि लोक और अलोक हैं । जीव और जीव द्रव्य हैं । उसी प्रकार धर्म-अधर्म, बन्ध-मोत, पुण्यपाप, कर्मों का उपादान और निरोध कर्मों का फल और उनका नाश, क्रिया-प्रक्रिया, क्रोध-मान, माया-लोभ, राग-द्वेष, चातुर्गतीय संसार, देव देवी, सिद्धि-सिद्धि सिद्धों का स्थान विशेष (सिद्धशिला) साधु-साधु और कल्याण तथा पाप हैं, ऐसा ही निश्चय करे, इससे अन्यथा नहीं । कल्याण या पाप इनमें से एक ही को स्वीकार करने से व्यवहार या पुरुषार्थ घट नहीं सकता । जो श्रमण और विवेकी पंडित इन दोनों में से एक ही को स्वीकार करते हैं, वे कर्म से होने वाले बन्धन को नहीं जानते । [३२-२३] .

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