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प्रत्याख्यान
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में दोपी ही हैं। और तब तक उनको असंयत, अविरत, क्रियायुक्त
और हिंसक कहना चाहिये। भगवान् महावीर ने उनको ऐसा ही कहा हैं।
- इस पर वह वादी पूछुने लगा तो फिर क्या करने से जीव -- संयत, विरत या पाप कर्म का त्यागी कहा जावे ?...
- उत्तर में प्राचार्य ने कहा--जैसे मुझे कोई मारता है या दुःख ".. देता है तो पीड़ा होती है, उसी प्रकार सब जीवों को भी होता
है, ऐसा समझ कर उनको दुःख देने से नियम पूर्वक विरत होना चाहिये । जब तक मनुष्य विविध पापकों को. करता है, तब तक वह किसी न किसी जीव की हिंसा. करता · ही है। इसलिये, सब पापकर्मों से विरत होकर जीवमात्र की हिंसा और द्रोह करने से रुकना ही सम्पूर्ण धर्म है। यही धर्म ध्रुव है, नित्य है, शाश्वत है और लोक का स्वरूप सम्पूर्ण जान कर सर्वज्ञों ने उपदेश दिया है । इस प्रकार प्रवृत्ति करने वाला जो भिजु पाप से । विस्त होता है, वह संयत, विरत, क्रिया रहित और पंडित कहाता है। - --ऐसा श्रीसुधर्मास्वामी ने कहा । . .
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