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प्रत्याख्यान
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मन,
वचन और
संक्षेप में जैसा कि
हो, जिसमें अच्छे-बुरे का ज्ञान न हो, तथा जो काया की सब क्रियाएं विचार से न करता हो; श्राप कहते हैं उसे स्वप्न में रहने वाले मनुष्य के समान भी होश न हो, वह मनुष्य पापकर्म करता है, और उसको उसका बन्धन होता है, ऐसा क्यों कहा जाता है ?
उत्तर में आचार्य ने कहा- मैंने कहां वही सच है क्यों कि जो मनुष्य पृथ्वी काय से लेकर त्रसकाय तक के छः काथों के प्रति इच्छापूर्वक व्रतनियम ( प्रत्याख्यान ) से पापकर्म रोकता नहीं है या त्याग करता नहीं है, वह मनुष्य उन जीवों के प्रति सतत् पापकर्म करते ही रहते हैं । जैसे कोई क्रूर मनुष्य किसी के घर में घुस जाने और उसे मार डालने का मौका पाने का रातदिन सोते-जागते उसीका विचार करता रहता हो तो क्या वह उस मनुष्य के प्रति दोषी नहीं है ? भले ही फिर वह यह न पापकर्म करता है । इसी प्रकार मूढ़ और स्वयं न जानते हुए भी रातदिन सोते-जागते सव जीवों के प्रति
समझता हो कि वह अविवेकी मनुष्य भी
दोषी है ।
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इस पर वह वादी उत्तर में कहने लगा- श्रापका कहना ठीक नहीं हैं । जगत् में अनेक जीव ऐसे हैं कि जिनको हम सारे जीवन में देखते ही नहीं, सुनते ही नहीं, स्वीकार करते नहीं और जानते नहीं है; तो फिर प्रत्येक के प्रति ( पापकर्म नियमपूर्वक त्याग नहीं दिया इस लिये ) रातदिन सोते-जागते मनुष्य दोषी है, ऐसा क्यों कहा जाता है ? इसी प्रकार जो मनुष्य यह नहीं जानता कि वह क्या करता है, वह पाप कर्म करता है, ऐसा क्यों कहा जाता है ?
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