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आहार-विचार
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(३) और इसी प्रकार दूसरे कितने ही जीव अन्त के जल में जलरूप उत्पन्न होते हैं और उनका रस खाकर जीते हैं ।
( ४ ) और भी कितने ही जीव उसी जल में त्रस जीवरूप उत्पन्न 'होते हैं और उसका रस खाकर जीते हैं ।
इसी प्रकार निकाय वायुकाय और पृथ्वीकाय के विविध प्रकारों में कुछ निम्न गाथाओं से समझे जावे
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मिट्टी, कंकर, रेती, पत्थर शिला और खनिज नमक; लोहा, कधीर ताम्बा शीशा, चाँदी, सोना और हीरा ॥ १ ॥ हरताल हिंगलू, मेनसिल, पारा, सुरमा, प्रवाल;
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अभ्रक के स्तर, भोडल की रेती और मणि के प्रकार ||२॥ गोमेद, रुचक, अंक, स्फटिक, लोहितात;
मरकत, मसारगल्ल, भुजमोचक, इन्द्रनील (आदि ) ||३|| चन्दन, गेरुक, हंसगर्भ, पुलक सौगन्धिकः
चन्द्रप्रभ, वैडूर्य, जलकांत और सूर्यकान्त ॥ ४ ॥
इस प्रकार विविध प्रकार की उत्पत्ति, स्थिति और वृद्धि वाले
सब जीव विविध शरीरों में उत्पन्न होकर विविध शरीरों का आहार करते हैं । ( और उन प्राणों की सदा हिंसा किया करते हैं ) इस प्रकार अपने बांधे हुए कर्मों द्वारा प्रेरित हो कर उन कर्मों के कारण और उन कमों के अनुसार वे बार बार अनेक गति, स्थिति और परिवर्तन को प्राप्त होते रहते हैं
इसलिये, श्राहार के सम्बन्ध में इतना कर्म-बन्ध जान कर श्राहार के विषय में सावधान होश्रो और अपने कल्याण में तत्पर रहकर, सम्यक् प्रवृतिवाले बनकर, हमेशा ( इस कर्मचक्र में से मुक्ति प्राप्त करने के लिये) पुरुषार्थं करो ।
- ऐसा श्री सुधर्मास्वामी ने कहा ।