Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra
Author(s): Gopaldas Jivabhai Patel
Publisher: Sthanakvasi Jain Conference

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Page 136
________________ - - .. १/"wnMAurrrrrr.u".ran ).... ... . ... . . . .1 0 ... ..... .... . ..... . .. ... १२०] सूत्रकृतांग सूत्र An A ns... air-Ans . . .... ... .... - और वाणी के दोप जानने वाला हो तो उसे धर्मापदेश देने मात्र ही से कोई दोष नहीं लगता। जो भितु महाव्रत, अणुव्रत, कर्म प्रवेश के पंचद्वार (पाँच महापाप), और संघर तथा विरति अादि श्रमण धर्म को जानकर कर्मके लेशमात्र से दूर रहता है, उसे मैं श्रमण कहता गोशालक-हमारे सिद्धान्त के अनुसार ठंडा पानी पीने में, बीज आदि धान्य खाने में, अपने लिये तैयार किये हुए ग्राहार खाने में और स्त्री-संभोग में अकेले विचरने वाले तपस्वी को दोप नहीं लगता | [७] पाईक- यदि ऐसा हो तो गहस्थों को भी श्रमण ही कहना चाहिये क्योंकि वे भी ऐसा ही करते हैं ! बीज धान्य खाने वाले और ठंडा पानी पीनेवाले भिक्षुओं को तो मात्र आजीविका के लिये ही भिनु हुए समझना चाहिये । संसार का त्याग कर चुकने पर भी वे संसार का अन्त नहीं कर सकते, ऐसा मैं मानता हूं। [८-१०] गोशालक-ऐसा कहकर तो तू सब ही. वाड़ियों का तिरस्कार करता है। आईक-सभी वादी अपने मत की प्रशंसा करते हैं और प्रतिवादी का तिरस्कार करके अपने मत को प्रतिपादन करते हैं। वे कहते हैं कि तत्त्व तो हमारे पास ही है, अन्य किसी के पास नहीं । परन्तु मैं तो सिर्फ झूठी मान्यता का ही तिरस्कार करता हूं किसी मनुष्य का नहीं । जैन निर्ग्रन्थ दूसरे वादियों के समान किसी के रूप की हंसी करके

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