Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra
Author(s): Gopaldas Jivabhai Patel
Publisher: Sthanakvasi Jain Conference

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Page 138
________________ 20maithua ... n iaBACinemianimaAakaniindianana HONOR M ... ....... ................. AmruMAaen .. ..... . .... . १२२] सूत्रकृतांग सूत्र :. ..my विचरते हैं। ये अपने व्यापार के अर्थ भीड़ इकट्ठी करते हैं, परन्तु उनका लाभ चतुर्गतिक संसार है क्योंकि ग्रासक्ति का फल तो दुःख ही होता है। फिर उनको सदा लाभ ही होता है, ऐसा भी नहीं है। और वह भी स्थायी महीं होता। उनके व्यापार में तो सफलता और निष्फलता दोनों ही. होती हैं। तब यह रक्षा करने वाला ज्ञानी श्रमण तो ऐसे लाभ की साधना करता है जिसका आदि होता है पर अन्त नहीं। ऐसे ये अहिंसक, सब जीवो पर. अनुकम्पा करने वाले, धर्भ में स्थित और कर्मी का विवेक प्रकट करने वाले भगवान् की तुम अपने अकल्याण को साधने वाले व्यापारियों से समानता करते हो, यह • तुम्हारा अज्ञान ही है। - . ' नये कर्म को न करना और अबुद्धि का त्याग करके पुरान कर्मों को नष्ट कर देना' ऐसा उपदेश ये रक्षक भगवान् देते हैं। यही ब्रह्मव्रत कहा जाता है। इसी लाभ की . इच्छावाले वे श्रमण हैं; मैं स्वीकार करता हूं। [२०-३५] बौद्ध-खोल के पिंड को मनुष्य जानकर भाले से छेद डाले और उसको आग पर सेके अथवा कुमार जान कर तूमड़े को ऐसा करे तो हमारे मत के अनुसार उसको प्राणि-वध का पाप लगता है। परन्तु, खोल का पिंड मान कर कोई श्रावक, मनुष्य को भाले से छेद कर आग पर सेके अथवा तूमड़ा मानकर कुमार को ऐसा करे तो हमारे मत के अनुसार उसको प्राणि-वध का पाप नहीं लगता है और इसके द्वारा बाहों का पारना होता है।

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