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सूत्रकृतांग सूत्र
सरलता से प्रसन्न हो सके ऐसे सज्जन होते हैं । वे कई प्रकार की हिंसाथों से मुक्त होते हैं. किन्तु कई हिंसाओं से जीवन भर मुक्त नहीं होते। इसी प्रकार अनेक दूसरे ऐसे दोपमय कर्मों से मुक्त होते हैं और दूसरे कितने से मुक्त नहीं होते ।
जैसे, कितने ही श्रमणोपासक (गृहस्थ ) जीव और जीव तत्त्वों के सम्बन्ध में जानते हैं, पाप-पुण्य के भेद को जानते हैं, कर्म ग्रात्मा में क्यों प्रवेश करते हैं (श्राश्रव), और कैसे रोके जा सकते हैं ( संवर), उनके फल कैसे होते हैं और वे कैसे नष्ट हो सकते हैं (निर्जरा), क्रिया किसे कहते हैं, उसका अधिकरण क्या है, बन्ध और मोद किसे कहते हैं - यह सब जानते हैं । दूसरे किसी की सहायता न होने पर भी देव, प्रसुर, राक्षस या किन्नर यदि उनको उस सिद्धान्त से विचलित नहीं कर सकते । उनको जैन सिद्धान्त में शंका, कांना और विचिकित्सा नहीं होती। वे जैन सिद्धान्त का अर्थ जान ब्रूक कर निश्चित होते हैं । उनको उस सिद्धान्त में हड्डी - मज्जा के समान अनुराग होता है । उनको विश्वास होता हैं कि, सिद्धांत ही अर्थ और परमार्थ रूप है, और दूसरे सब अनर्थरूप हैं ।" यह जैन उनके घर के द्वार धागे निकले हुए होते हैं । उनके दरवाजे अभ्यागतों के लिये खुले रहते हैं । उनमें दूसरों के घर में या ग्रन्तः पुर में घुस पडने की इच्छा नहीं होती । वे चतुर्दशी, अष्टमी श्रमावस्या और पूर्णिमा को परिपूर्ण पौषध व्रत विधिपूर्वक करते हैं । वे निर्भन्थ श्रमणों को निर्दोष और स्वीकार करने योग्य खान-पान, सेवामुखवास, वस्त्र - पात्र, कम्बल, रजोहरण श्रौपव-भेपज, सोने-बैठने को पाट, शय्या और निवास के स्थान यादि देते हैं । वे अनेक शीलव्रत, गुणव्रत, विरमणव्रत, प्रत्याख्यानत्रत, पौषवोपवास श्रादि तपकर्मों द्वारा श्रात्मा को वासित करते हुए रहते हैं। Į
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