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सूत्रकृतांग सूत्र
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अनुसार निर्दोष अन्न भिक्षा के द्वारा प्राप्त करके खाते हैं । वे श्रासन पर स्थिर रहकर ध्यान करते हैं; भिक्षु की प्रतिमा के बारह प्रकार का तप करते हैं, और चे सोने-बैठने में भी नियमबद्ध होते हैं । उनको शरीर से ममता नहीं होती और वे बाल, दाढ़ी, मूछ, रोम, नत्र आदि शरीर के संस्कारों से रहित होकर विचरते हैं। वे वस्त्र तक नहीं पहनते, खाज खुजाते नहीं, थूकते भी नहीं हैं
टिप्पणी- भिक्षु की बारह प्रतिमाएँ- पहिली, एक मास तक अन्न और जल की एक दत्ति (गृहस्थ या दाता अन्न-जल दे तब एक धार में श्रावे उतना ही ) लेना । इसी प्रकार दूसरी, तीसरी, चौथी पांचवीं, छठी और सातवीं प्रतिमा में क्रमशः एक एक मास बढाते हुए एक एक दत्ति बढाना । roat प्रतिमा, सात रात्रि और एक दिन तक बिना पानी पिये एकान्तर उपवास करे, पारनेमें केवल श्रोसामन पिये, गांव के बाहर रहे, चित या बाजू से सोवे, उकडू 話 1 नौवीं प्रतिमा - समय थाठवीं के बराबर ही है, इसमें भी उकड़ रहकर टेढी लकडी के समान सिर, पैर और पीठ जमीन को छुवे इस प्रकार सोधे । दसवीं भी आठवीं के समान ही पर बैठने में गोदोहासन और वीरासन से संकुचित होकर बैठे। ग्यारहवीं में एक रात और एक दिन बिना जल के दो उपवास ( छह भत्त-छः बार भोजन न
करना) करके और गाँव के बाहर हाथ बारहवीं प्रतिमा में तीन उपवास करके किनारे बैठकर आँखे न मीचे ।
लम्बा करके रहे । एक रात्रि नदी के
इस प्रकार की निर्दोष और पुरुषार्थमय चर्या के अनुसार जीवन
बिताते हुए बहुत वर्षों तक श्रमण जीवन व्यतीत करने पर जब शरीर
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