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तीसरा अध्ययन
-(०)आहार-विचार
श्री सुधर्मास्वामी बोले-निर्दोष आहार के सम्बन्ध में भगवान् महावीर के पास से सुना हुआ उपदेश कह सुनाता हूँ। '
कितने ही जीव अपने कर्मों से प्रेरित होकर विविध पदार्थों की योनिरूप पृथ्वी में वनस्पतिरूप में अपने अपने बीज और उत्पत्ति. स्थान के अनुसार उत्पन्न होते हैं। वनस्पति के दूसरे चार प्रकार होते हैं; (१) सिरे पर लगने वाले-ताड, आम आदि; (२) कंदबालू आदि; (३) पर्व-गन्ना आदि (४) स्कन्ध-मोगरा श्रादि ।
(१) वे वनस्पति-जीव पृथ्वी में वृक्षरूप उत्पन्न होकर पृथ्वी का रस खींचते हैं। वे उन पृथ्वी शरीर के सिवाय दूसरे जल, तेज, वायु और वनस्पति शरीरों का भक्षण करते हैं । इस प्रकार वे त्रसस्थावर प्राणों को शरीर रहित करके उनका नाश करते हैं। फिर अपने भक्षण किये हुए और उसी प्रकार स्वचा से भक्षण करते हुए शरीरों को वे पचाकर अपने रूप बना लेते हैं इस प्रकार वे वृक्ष पृथ्वी में उत्पन्न होकर पृथ्वी के आधार पर रहते हैं और बढ़ते हैं। उन वृक्षों की जड, शाखा, डाली, पत्ते, फूल आदि विविध वर्ण, गंध, रस: स्पर्श तथा प्राकृति के और विविध प्रकार के शारीरिक परमाणु