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तेरह क्रियास्थान
के प्रकाश में नाच गान और बाजों के मधुर पालाय के साथ काम. भोगों में उत्तम भोगों को भोगते रहते हैं। . ..
...... वे एक को बुलाते हैं कि चार पांच मनुष्य बिना कहे दौड़ .
प्राते हैं और कहने लगते हैं कि, 'हे देवों के प्रिय ! कहिये, हम . . क्या करें ?' ऐसा देख कर अनार्य पुरुष कहते हैं, 'अरे ! यह मनुष्य
तो देव है, उसे देव भी पूजते हैं । वह तो देवों को भी जिलाने वाला हैं और : दूसरे भी अनेक उसके अधार पर. जीते हैं.' परन्तु उसको देख कर आर्य पुरुष सोचते हैं कि, 'ये अत्यन्त क्रूर कर्मों में प्रवृत्त हुए मुर्ख असंख्य पापकर्मों के द्वारा जी रहे हैं और
असंख्य पापकर्भ बांध रहे हैं। वे अवश्य ही दक्षिणायन में कृष्णपक्ष .. में मरेंगे और नरक को प्राप्त होंगे। आगे भी वे ज्ञान प्राप्त न कर
सकेंगे। . . .... ..।
... कितने ही भितु कितने ही गृहस्थ और कितने ही तृष्णातुर
संसारी इन सुखों और ऐश्वर्यों की कामना करते रहते हैं। परन्तु यह ...अधर्मस्थान अनार्य है, अशुद्ध है, सदा अपूर्ण है, अन्यायों पर प्रतिष्ठित
है, संयम रहित है, मोक्षमार्ग से विरुद्ध है, सब दुःखों को क्षय करने के मार्ग से विरुद्ध है, अत्यन्त मिथ्या है और अयोग्य है। . .
अब मैं धर्मरूप द्वितीय स्थान का वर्णन करता हूँ, उसे सुना
: इस जगत् में सर्वत्र अनेक मनुष्य अपने अपने कर्मों के अनुसार विविध कुलों में विविध ऐश्वर्य के साथ जन्म लेते हैं। उनको छोटेबड़े घर, खेत, कम-ज्यादा नोकर चाकर होते ही हैं। ऐसी स्थिति मेंजन्म लेकर भी कितने ही इन सब पदार्थों को दुःखरूप जानकर,