Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra
Author(s): Gopaldas Jivabhai Patel
Publisher: Sthanakvasi Jain Conference

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Page 110
________________ ६४] सूत्रकृतांग सूत्र खुद या दूसरों से छिना लेते हैं। ऐसा करके वे महापाप कर्मों से अपनी अधोगति करते हैं । दूसरे बिना कारण ही सब कुछ करते हैं और इस तरह अपनी धोगति करते हैं । . कितने ही मनुष्य किसी श्रमण अथवा ब्राह्मण को श्राया देख उसे चले जाने का इशारा कर देते हैं # - अथवा उसे कठोर वचन सुनाते हैं । भिक्षार्थ श्राये हुए को कुछ देने के बदले में वे उसे कहते हैं कि मजदूरी करना पड़े या कुटुम्ब का पालन न कर सकता हो या आलसी बेकार नीच मनुष्य होने के कारण श्रमण होकरं भटकता फिरता है । वे नास्तिक लोग इस जीवन की पापी जीवन:की प्रशंसा करते हैं। उन्हें परलोक से कुछ मतलब नहीं। वे तो अपने सुख के लिये दूसरों को चाहे जैसे दुःख देते हैं पर जरा भी फिर कर देखते तक नहीं । वे बड़ी बड़ी प्रवृत्तियाँ और पापकर्म करके मनुष्य जीवनके उत्तमोत्तम कामभोगों को भोगते हैं । खान पान, वस्त्र, शयन आदि सब कुछ उनको समय पर चाहिये । नहा धोकर बलिकर्म करके, कौतुक ( नजर - दृष्टि दोष आदि का उतार ) मंगल (स्वर्ण, दहि, सरसों श्रादि मांगलिक वस्तुओं का प्रातः में स्पर्श श्रादि) और प्रायश्चित (रात्रि के कुस्वमादि के या प्रातः उठते समय के अपशकुन के निवारणार्थ ) से निवृत होकर, बाल काढकर, कंठमाला, कंदोरा, हार आदि मणिस्वर्णादि से अपना श्रृंगार करके वे मालायुक्त मुकुट को धारण करते हैं । उनका शरीर दृढ अवयवों का होता हैं । वे नये बढ़िया कपड़े पहनते हैं और अंगों पर चन्दन कां लेप करते हैं । वे सुशोभित तथा किलों से सुरक्षित भवनों में सुशोभित सिंहासनों पर बैठकर, सुन्दर स्त्रियों और दादासियों के बीच में सारी रात दीपकों --- "

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