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दूसरा अध्ययन
तेरह क्रियास्थान
. (१) ......... श्री सुधर्मास्वामी कहने लगे- ... ... ... .. हे आयुग्मान् ! भगवान् महावीर के पास क्रियास्थान (कर्मबन्धन
के स्थान) के सम्बन्धमें सुना हुया उपदेश मैं यथाक्रम तुझे कहता हूँ। .. उसमें मुख्यतः धर्म और अधर्म दो स्थानों का वर्णन है। धर्म का
स्थान उपशम युक्त और अधर्म का उसके विपरीत होता है।
. जीव दूसरे जीवों-नारकी, तिथंच (पशु-पक्षी), मनुष्य और देव के प्रति १३. प्रकार से पाप करता है, इससे उसको कर्म का बन्धं होता है। इस कारण वे क्रियास्थान कहलाते हैं। वे निम्न हैं- .
(१) अर्थदंड प्रत्ययिक क्रियास्थान--कुछ 'अर्थ' (प्रयोजन) के किये हुए पाप से प्राप्त होने वाला क्रियास्थान । जैसे कोई अपने या अपनों (माता-पिता आदि कुटुम्वी और मित्र परिचित जग) के लिये बस स्थावर जीवों की हिंसा करे, करावे या अनुमति दे।
... (२) अनर्थदंड प्रत्ययिक बिना कुछ प्रयोजन के किये हुए पाप ___ से प्राप्त होने वाला क्रिया स्थान । जैसे कोई अविवेकी मूर्ख मनुष्य 1. बिना किसी प्रयोजन के स-स्थावर की हिंसा करे करावे या अनुमति दे।