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सूत्रकृतांग सूत्र
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से पीटे, मेरा तिरस्कार करे या किसी तरह से कष्ट दे मार डाले या सिर्फ बाल ही उखाडे तो मुझे दुःख होता है, वैसे ही दूसरे जीवों को दुःख होता है । इस लिये, किसी जीव की हिंसा न करें किसी प्राणी को मारे-पीटे नहीं, कष्ट न दे. जवरदस्ती से उससे काम न ले और कष्ट देकर उसको न पाले । जो अरिहंत पहिले को गये हैं, वर्तमान में हैं अथवा भविष्य में होंगे वे सब ऐसा ही कहने और ऐसा ही उपदेश देते हैं । यह धर्म है, शाश्वत है और समग्र लोक का स्वरूप जानकर अनुभवी तीर्थकरों ने कहा 官 1
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ऐसा जानकर वह भिक्षु हिंसा धर्म का पूर्ण पालन करने की इच्छा से हिंसा, परिग्रह यादि पांच महापापों से विरक्त हो जाता है । बस-स्थावर जीवों की तीनों प्रकार से हिंसा नहीं करता और उसी प्रकार कामभोग के पदार्थों का तीनों प्रकार से परिग्रह नहीं करता । वह शब्द, रूप, गंध रस और स्पर्श श्रादि विषयों की मां की त्याग देता है और क्रोध, मान, माया, लोभ, रागद्वेष, कलह निंदा, चुगली यादि को त्याग देता है । वह संयम में प्रीति नहीं करता, कपट से असत्य नहीं बोलता, और मिथ्या सिद्धान्तों में श्रद्धा नहीं रखता । संक्षेप में वह भिक्षु संसार प्राप्ति के पाप-स्थानों से तीनों प्रकार से निवृत्त होकर विरक्त हो जाता है ।
टिप्पणी- पापस्थान अठारह हैं - ( १ ) हिंसा (२) श्रसत्य (३) चोरी (४) मैथुन ( १ ) परिग्रह ( ६ ) क्रोध ( ७ ) मान ( 5 ) माया. ( कपट ) ( 1 ) लोभ (१०) राग ( ११ ) द्वेप ( १२ ) कलह (१३) श्रभ्याख्यान ( झूठा याक्षेप) (११) पैशुन्य (चुगली) (१५) रति-रति (१६) परपरिवाद ( दूसरों की निंदा ) (१७) मायामिथ्यात्व (१८) मिथ्यादर्शनशल्य ( कुगुरु, कुदेव, कुधर्भ को सच्चे मानना )