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सूत्रकृतांग सूत्र
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टिप्पणी-भिनु को अन्नपान को प्राप्त करने में ‘गवेपणा', स्वीकार ..
करने में ग्रहणेपणा' और उसको भागने में परिभोगपणा से सावधान रहना चाहिये । भिदान की गवेपणा में वह दाता (गृहस्थ ) सम्बन्धी १६ उद्गम दाप और ग्राहक (साधु) के १६ उत्पादन दोप छोडे । ग्रहणपणा के दाता और ग्राहक के . इस दोष छोड़े और परिभोगेपणा के बाप साधु भिवान भोगते समय छोड़े।
५६ उद्गमदोप---(१) आधार्मिक-जी भोजन गृहस्थ ने सब सम्प्रदायों के साधुओं को उद्देश्य कर बनाया हो। (२) उद्देशिक-साधु के थाने पर उसके लिये ही मिश्रण कर (गुड-घी आदि से ) बनाया हो। (६) पूर्तिकर्भ-अाधाकर्मिक आदि से मिश्रित । (४) मिश्रकर्म- थोड़ा अपने लिये थोडा साधु के लिये इस प्रकार मिश्रित पहिले से ही पकाचे। (५) स्थापना कर्म-साधु श्रावेगा तब उसे दूंगा ऐसा सोच कर अलग रखा हुआ । (६) प्राभृतिक-संकल्प करके उपहारस्य दी हुई भिक्षा । (७) प्रादुष्करण-प्रकाश . करके अंधेरे में से लाकर भिक्षा देना। () क्रीत-साधु के लिये खरीदी हुई। (6) प्रामित्य-उधार लाकर दी हुई। (१०) परावृत्त-अपने यहां का हल्का पडोसी को देकर उससे बदले में अच्छा लाकर देना। (11) अभ्याहृत-अपने घर अथवा गांव से लाकर साधु के स्थान पर लाकर देना। (१२) उभिन्न-कोठा कोठी में लीप कर बंद किया हुआ... उखाड़ कर देना। (१३) मालाहृत -माल-मचान आदि .. ऊँची जगह पर रखा हुग्रा नलैनी आदि से उतार कर देना । -
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