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सूत्रकृतांग सूत्र
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इसके सिवाय, दूसरे अनेक प्रलोभन हैं। किसी पवित्र जीवन व्यतीत करने वाले उत्तम साधुको देखकर राजा, अमात्य तथा ब्राह्मण- : क्षत्रिय उसे घेर कर उसे आदर-पूर्वक अपने यहां निमंत्रित करते हैं । वे कहते हैं; "हे महर्षि ! हमारे ये रथ-वाहन, स्त्री, अलंकार, शरया श्रादि सब पदार्थ आप ही के हैं । आप कृपा करके उनको स्वीकार ... करें, जिससे हमारा कल्याण हो.। यहां आने से श्रापके व्रत का भंग नहीं होता और इन पदार्थों को स्वीकार करने में आपको कोई . दोप नहीं लगता क्योंकि आपने तो बडी तपश्चर्या की है । यह सब सुनकर भिक्षुजीवन तथा तपश्चर्या से ऊबे हुए निर्बल मन के भिनु, चढाव पर चढते हुए बूढे बैल की भांति अध-बीच में ही जाते हैं और काम भोगों से लुभाकर संसार में फिर पड़ जाते हैं।
कितने ही भिक्षुओं में पहिले से ही प्रात्मविश्वास की कमी होती है । स्त्रियों से तथा गरम (प्रासुक) पानी पीने के कठोर नियमों से वे कब हार जावेंगे इसका उनको श्रात्मविश्वास नहीं होता। वे पहिले से ही ऐसा मौका था पड़ने पर जीवन निर्वाह में कटिनाई न हो इसके लिये वैद्यक, ज्योतिष श्रादि श्राजीविका के साधन लगा रखते हैं । ऐसे सनुप्यों से कुछ होने का नहीं क्योंकि बिघ्न श्रावे उस समय उनका सामना करने के बइले, वे पहिले से लगा रखे हुए साधनों का आश्रय ले बैठते हैं। मुमुक्षु को तो प्राण हथेली में लेकर निःशंक होकर अचल रहते हुए अपने मार्ग पर आगे बढना चाहिये । [१-७]
. भिन्तु को विभिन्न यांचार-विचार के परतीर्थिक-परवादियों के आक्षेपों का भी सामना करना पड़ता है। ऐसे समय अपने मार्ग में दृढ निश्चय से रहित भिक्षु घबरा जाता है और शक्ति बन जाता है।