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उपसंहार
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धर्म पालन करनेवाला या तो कृतकृत्य हो जाता है अथवा उत्तम गति को प्राप्त करता है । इसलिये, मनुष्य देह प्राप्त करके, कर्म-नाश हो ऐसा पराक्रम प्रकट करके, इन्द्रियों के प्रवाह को रोक कर विकार. रहित होने का प्रयत्न करो क्योंकि इसके बिना धर्म मार्ग में आचरण असंभव है | स्त्री यादि काम भोग को फँसाने की जाल के समान हैं जो स्त्री-सेवन नहीं करते, वे फिर संसार में मुक्त ( के समान ) हैं । विपयेच्छा का अन्त करने वाले पुरुष मनुष्यों के चक्षुरूप हैं, इसलिये 'अन्त' को प्राप्त करने के लिये ही प्रयत्न करो । देखो, शस्त्रों का अन्त ( धार ) ही काम करता है और पहिया भी अन्त ( धुरी ) पर ही घूमता है । बुद्धिमान् मनुष्य वस्तुओं के अन्त (जैसे, गांव का अन्त - बाहर रहना; आहार का अन्त- रूखा-सूखा खाना; वैसे ही इच्छाओं का अन्त ) को सेवन करते हैं क्योंकि उससे ही संसार का अन्त हो सकता है । [ १३, २२, ८ -२२ ]
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इस प्रकार जिसने पूर्व के कर्मों को नष्ट कर दिया है और नये नहीं बंधने दिये, वही महावीर फिर जन्म-मरण नहीं प्राप्त करता । वायु जिस प्रकार अनि को पार कर जाती है, उसी प्रकार वह मनोरम कामभोगों को पार कर जाता है । उसे तो फिर कोई संकल्प ही नहीं रहता, उसी प्रकार जीने-मरने की इच्छा भी नहीं रहती ।
व तो वह जगत् का चक्षुरूप होता है । अपने कर्मों के कारण मोक्ष - मार्ग का वह उपदेश देता है । वह उपदेश प्राणियों की योग्यता के अनुसार भिन्न भिन्न होता है । उसको मान आदर की चाहना नहीं होती । जो मनुष्य शुद्ध परिपूर्ण, और सर्वोत्तम धर्म का उपदेश देता. हो और स्वयं धर्म का स्थान बना हो, उस प्रज्ञावान् तथागत के लिये व दूसरा जन्म ( पूर्वजन्म) ही क्यों ? [ ८-१०-१, १६-२० ]