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१०]
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सूत्रकृतांग सूत्र
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हो ऐसी रागद्वेष पूर्ण प्रवृत्तियों में दिखाया हुया वीर्य अर्थात् पराक्रम, संसार को प्राप्त करानेवाले कर्म (बंधन) के कारण होने से । त्याज्य है । [1]
__ अब, बुद्धिमान् मनुष्यों के अक्रम वीर्य को कहता हूँ; उसे सुन । बुद्धिमान् मनुप्य जानते हैं कि मनुष्य ज्यों ज्यों अधिक पाप करता जाता है, त्यो त्यों चित्त की अशुभता (अशुदि) बढती जाती है और मनुष्य अधिकाधिक वैरों में बंधाता हुआ अन्त · में दुःखों को प्राप्त करता है । और स्वर्ग श्रादि स्थान भी नित्य नहीं हैं; कुटुम्बियों और मित्रों का सहवास भी अनित्य है । इसलिये, समझदार लोग समस्तः मोह-ममत्व का त्याग करके सर्व शुभ धर्मयुक्त और श्रेष्ठ पुरुषों के बताये हुए मुक्ति के मार्ग को लेजाने वाले श्रार्थ धर्म की शरण लेकर, पाप-कर्म का कांटा' मूल से निकाल फेंकने के लिये धर्म के अनुसार प्रबल पुरुषार्थ करते हैं। कारण यह कि अपने कल्याण का जो उपाय मालुम हो,' उसे बुद्धिमान् अपने जीवन में तुरन्त सीख लेते हैं । [१-१५]
ऐसा बुद्धिमान् मनुष्य अपनी बुद्धि से या दूसरे के पास से धर्म का रहस्य समझ कर उसमें पूर्णरूप से प्रयत्नशील होने के लिये, घरवार, छोडकर निकल पड़ता है। कछुया जैसे अपने अंगों को शरीर मेंसमेट लेता है, वैसे ही वह सब पापवृत्तियों हाथ-पैर आदि कर्मेन्द्रियों
और पांचों ज्ञानेन्द्रियों सहित मन और उसके दोपों को समेट लेता है; सब प्रकार के सुखों का त्याग करता है; और कामनाओं से शांत होकर · आसक्ति से रहित होकर मोक्षमार्ग में ही प्रबल पुरुषार्थ करता है। यही वीरत्वं धर्मवीर का है। [१५-१८]