Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra
Author(s): Gopaldas Jivabhai Patel
Publisher: Sthanakvasi Jain Conference

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Page 59
________________ ४३] धर्म वे सब माता-पिता, भाई पत्नी, पुत्र, और पुत्र वधु - रक्षा करने नहीं आते। ऐसा समझ कर वह ममता को छोड़ कर जिन भगवान् के परम मार्ग को स्वीकार करता है । मनुष्य के विवेक और वैराग्य की सच्ची परीक्षा तो इसी में है कि वह प्राप्त हुए कामभोगों के प्रति श्राकर्षित न हो। ऐसा विवेक और वैराग्य उत्पन्न होने . के बाद वह अधिकारी मनुष्य धन-सम्पत्ति, पुत्र, कुटुम्बी, ममता और शोक का त्याग करके संसार से अलग (निरपेक्ष) होकर सन्यासी चने । [ १–७, ३२ ] - बाद में, उस मुमुक्षु को तेज प्रज्ञावान्, पूर्ण तपस्वी, पराक्रमी, आत्मज्ञान के इच्छुक, धृतिमान्, तथा जितेन्द्रिय सद्गुरु की शरख प्राप्त करना चाहिये क्योंकि ज्ञानप्रकाश प्राप्त करने के लिये गृहसंसार का त्याग करनेवाले उत्तम सत्पुरुष ही मुमुक्षु मनुष्यों की परम शरण हैं । वे सब बन्धनों से मुक्त होने के कारण जीवन की तथा विषयों की आकांक्षा और सब प्रकार की पाप ऐसे सद्गुरु की शरण लेकर वह निर्ग्रन्थ हुए मार्ग में पुरुषार्थ करे । [३२-३४] 1 प्रवृत्तियों से रहित होते हैं । महामुनि महावीरं के बताए 'पृथ्वी (जल) अग्नि, वायु, वनस्पति, चंडज, पोतज, जरायु, रसज स्वेदज और उद्भिज इस प्रकार जीवों के छः भेद हैं । उनको जानकर विद्वान् मनुष्य मन वचन और काया से उनकी हिंसा और अपने सुख के लिये उनके परिग्रह का त्याग करे । उसी प्रकार उसे झूठ, मैथुन और चोरी को भी महापाप समझकर छोड़ देना चाहिये । क्रोध, मान, माया लोभ और भी जगत् में कर्म-बन्ध के कारण है; इनका भी त्याग ऐसा जानकर करे । [ ८-११] 1 i T

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