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सूत्रकृतांग सूत्र ..
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कुछ ऐसे आक्षेप करते हैं- 'सुख भी क्या कभी दुःख देने वाले साधनों से प्राप्त होता होगा? तब तुम प्रात्यन्तिक सुख की प्राप्ति के लिये ऐसे दुःख देने वाले कठोर साधनों का याचरण क्यों करते हो ? यह तो तुम्हारा बिलकुल उल्टा ही मार्ग है !" [६-७]
ऐसे ही दूसरे कहते हैं-"स्त्रियों के साथ काम-भोग सेवन करने में क्या दोष है जो तुम उसका त्याग करते हो ? उसमें तुमको कोई पीडा नहीं होती और न कोई पाप ही लगता है, प्रत्युत दोनों को शांति होती है !' [८-१२]
. परन्तु महाकामी नास्तिकपुरुषों के ऐसे शब्द सुनकर त्रुद्धिमान् भिक्षु डांवाडोल होकर अपने साधनमार्ग के विषय में अश्रद्धालु न बने। जगत् में विविध मान्यता और प्राचार वाले पुरुप अपने को श्रमण कहाते फिरते हैं। उनके ऐसे लुभानेवाले या आक्षेप करने वाले शब्द सुनकर भिक्षु धवरा न उठे। वर्तमान सुख में ही हुवे हुए वे मूर्ख मनुष्य नहीं जानते कि श्रायुष्य और जवानी तो क्षणभंगुर हैं। अन्त समय में ऐसे मनुष्य जरूर पछताते हैं। इस लिये बुद्धिमान् मनुष्य तो, समय है तब तक प्रबल पुरुषार्थ से दुस्तर काम-भोगों में से निकल कर, सन्त पुरुषों के बताए हुए मार्ग के अनुसार संसार-प्रवाह से मुक्त होने का प्रयत्न करे। जो काम-भोग तथा पूजन-सत्कार की इच्छा का त्याग कर सके हैं, वे ही इस मोक्षमार्ग में स्थित रह सके हैं, यह याद रहे। [१३-१७ ] .
ऐसे अनेक अन्तर-बाह्य विन्न और प्रलोभन मुमुक्षु के मार्ग में आते हैं। सब को प्रथम से ही समझ लेने वाले भिक्षु, उनके अचानक श्रा पड़ने पर भी नहीं घबराता । अनेक कच्चे भिक्षु इन विघ्नों के न श्राने तक तो अपने को महासूर मानते रहते हैं, पर बाद में तो