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अधर्मियों का वर्णन
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लिये ही तैयार किया हुआ निर्दोष अन्न- पानी लेने का व्यवहार पालते हैं. परन्तु बाद में वे ऐसी निर्दोष भिक्षा तक का संग्रह करते हैं; अथवा जहाँ स्वादु भिक्षा मिलती हो, ऐसे घर की ओर उत्साह से दौड़ते हैं; अथवा पेट-पूजा की लालसा से धर्मोपदेश देते हैं; श्रथवा अन्न के लिये अपनी या दूसरों की प्रशंसा करते हैं; श्रथवा दूसरों की खुशामद करते हैं । धान के लोलुप सुअर के समान अन्न लोलुप वे भिन्तु अल्प समय में ही आचार भ्रष्ट कुशील और खाली छिलकों के ससान निस्सार हो कर विनाश को प्राप्त होते हैं । सच्चा भिक्षु तो परिचित न हो ऐसे स्थान पर जाकर भिक्षा प्राप्त करने का प्रयत्न करे, और अपनी तपश्चर्या के कारण मान यादर की आकांक्षा न रखे। मुनि का श्राहार तो संयम की रक्षा के लिये ही होता है और इसी प्रकार निर्दोष पानी का उपयोग भी जीवित रहने को ही । कारण यह कि कैसा ही निर्दोष क्यों न हो, फिर भी पानी के उपयोग में कर्मबन्धन तो लगा ही हुआ है। तो भी, कितने ही जैन भिक्षु श्राचार के प्रमाण के अनुसार दूसरों का उपयोग में लिया हुआ, गरम किया हुआ, निर्जीव और निर्दोष ( प्रासुक) पानी मांग ला कर बाद में उसे शरीर तथा कपड़ों की सफाई के लिये
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नहाने-धोने में काम लेते हैं । ऐसे भिक्षु सच्ची भिक्षुता से
पाप दूर होकर
हैं । बुद्धिमान् भिक्षु तो अपने में से सब पूर्णता प्राप्त हो इसके लिये ही शरीर उसने तो सब संगों और सब प्रकार के काम भोगों की
धारण किये
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बहुत दूर
संयम में
रहता है ।
आसक्ति को .