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तृतीय अध्ययन
-(८)भिक्षु-जीवन के विन
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श्रीसुधर्मास्वामी आगे कहने लगे____ अनेक मनुष्य आवेश में प्राकर, कठिनाइयों का पहिले विचार न करके, भिक्षु-जीवन स्वीकार कर बैठते हैं। बाद में जब एक के बाद एक कठिनाइयों आती जाती हैं, तब वे हताश हो जाते हैं तथा शिथिल हो पड़ते हैं। अनेक भिक्षु हेमन्त की ठंड या ग्रीप्म की गरमी से घबरा उठते हैं, अनेक भिक्षा मांगने को जाते हुए खिन्न हो जाते हैं। गलियों में कटकने कुत्ते उनको देखकर काटने दौडते हैं और अनेक प्रसंस्कारी लोग उनको चाहे जैसे शब्द सुना-सुना कर उनका तिरस्कार करते हैं। वे कहते हैं; " काम करना न पडे इसलिये साधु बने !" दूसरे उनको " नागे, भिखारी, अधम, मुंडिया गंदे, निकम्मे या अपशुकने " कहकर गाली देते हैं। उस समय निर्बल मन का भिक्षु शिथिल हो जाता है। जब डांस-मच्छर काटते हैं और घास की नोक चुकती हैं, तब तो अपने भिक्षु--जीवन की सार्थकता के विषय तक में शंका होने लगती है परलोक सी तो शायद कोई वस्तु ही नहीं होगी और मौत ही सवका अन्त हो तो !' दूसरे कितने ही बालों को उखाडने के कारण धवरा जाते हैं; अथवा ब्रह्मचर्य पालन न कर सकने से हार हाते हैं। सिवाय इसके, अनेक बार