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· कर्मनाश
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तिरस्कार करना. पापरूप है। अतएव, मुमुक्षु किसी प्रकार का अभिमान .किये बिना, अप्रमत्त होकर, साधु पुरुषों द्वारा बताए हुए
संयम-धर्भ में समान वृत्ति से पूरी शुद्ध रहे तथा प्रारम्भ में चाहे जैसी कठिनाइयों ा पड़े तो भी दूर का विचार करके, अपने मार्ग . में अचल होकर विचरे । इस प्रकार जो सतत् संयम-धर्भ का सम्पूर्ण
रीति से पालन कर सकता है तथा सर्व प्रकार की त्रासक्ति दूर होने " से जिसकी प्रज्ञा सरोवर के समान निर्मल हो गई है, ऐसा मुनि,
धर्म तथा प्रवृत्तियों का अन्त प्राप्त कर सकता है और संसार के · पदार्थों में ममत्व रखनेवाले तथा अपनी कामना पूर्ण न होने से
शोक-ग्रस्त दूसरे संसारियों को उपदेश द्वारा मार्ग बता सकता है। संसार के समस्त प्राणियों को, सुख-दुःख. में अपने समान जान कर, सर्व प्रकार की हिंसा से निवृत्त हुआ वह मुनि अपने अन्त समय
के पहिले ही ज्ञान प्राप्त करके कृतकृत्य हो जाता है।" इसलिये, - संसार के पदार्थों को इस लोक में तथा परलोक में भी दुःख देनेवाले
और क्षणभंगुर जान कर, घर का त्याग करके बाहर चले . आयो । . पदार्थों में प्रासक्ति तथा संसार के वन्दन-पूजन का कांटा अति सूक्ष्म
है और अत्यन्त कष्ट से दूर हो सकता है। इसलिये, बुद्धिमान पुरुप संसार के संसर्ग का त्याग करके अकेले होकर मन-वचन पर अंकुश रख कर, समाधि तथा तप में पुरुषार्थी बने । [१-१२]
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. परन्तु इस प्रकार सब सम्बन्धों का त्याग करके अकेला , फिरना अति कठिण है। अकेले विचरने वाले भिक्षु को निर्जन स्थानों . में या सूने घर में निवास करना होता है। वहां भूमि ऊंची-नीची
होती है, डांस-मच्छर होते हैं- सादि भयंकर प्राणयों का भी वहां . वास होता है। इस पर उसको घबरा कर, दरवाजे बन्द करके या