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रत्न-उपरत्न नग-नगीना सम्पूर्ण ज्ञान
रत्न सम्राट पं. कपिल मोहन
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नम्र सूचन इस ग्रन्थ के अभ्यास का कार्य पूर्ण होते ही नियत समयावधि में शीघ्र वापस करने की कृपा करें. जिससे अन्य वाचकगण इसका
उपयोग कर सकें.
रत्न उपरत्न
और
नग नगीना ज्ञान
रत्नों का मनुष्य के जीवन से बहुत गहरा सम्बन्ध है। मनुष्य सदा से ही तेज गति से उन्नति की ओर जाना चाहता है। साथ ही वह छोटी-बड़ी विपत्तियों से बचते हुए भविष्य में घटित होनेवाली बातों के विषय में भी जानने की इच्छा करता है और यह सब रत्नों द्वारा सम्भव है। लेकिन बाजार में ढेरों पुस्तकें उपलब्ध होने के बावजूद भी सामान्य पाठक-जिज्ञासु निराश रहता है कि उसे संक्षिप्त रूप से रत्न-उपरत्न या उसके पहनने योग्य नग-नगीनों की एक सम्पूर्ण जानकारी सहज में नहीं मिल जाती।
रत्नसम्राट पं. कपिल मोहन जी इस विषय के जाने-माने विशेषज्ञ हैं जिनके निर्देश में रत्नों के पहनने से सदैव ही जनता ने लाभ उठाया है। इन्होंने अपने अर्जित ज्ञान को इस पुस्तक में बहुत ही सरल ढंग से बताकर इस ज्ञान की ओर अग्रसर पाठकों पर उपकार किया है।
-प्रकाशक
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"रत्नों, ग्रहों, स्वरविद्या, मन्त्र,
तन्त्र, यन्त्र एवं मालाओं से
अनिष्ट निवारण तथा उपचार में IBE संलग्न प्रेमी पाठकों की सेवा में
रणधीर प्रकाशन की उत्कृष्ट प्रस्तुति
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रत्न उपरत्न
और
না নানা কান
लेखक :
पं. कपिल मोहन जी (रत्नसम्राट, नवग्रह यन्त्र निर्माता, शुद्ध तान्त्रिक सामग्री विशेषज्ञ)
मूल्य : 50.00
रणधीर प्रकाशन, हरिद्वार
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प्रकाशक : रणधीर प्रकाशन
रेलवे रोड (आरती होटल के पीछे) हरिद्वार-२४९४०१ फोन : (०१३३) ४२६२९७-४२६१९५
वितरक : रणधीर बुक सेल्स
रेलवे रोड, हरिद्वार फोन : ४२८५१०
मुख्य विक्रेता : १. गगनदीप पुस्तक भण्डार
एस.एन. नगर, (निकट हरमिलाप भवन)
हरिद्वार २. सचदेवा बुक डिपो
गोविन्दपुरी, हरिद्वार
संस्करण : प्रथम, सन् २००१
शब्द सज्जा : जे के प्रिन्टोग्राफर्स, दिल्ली
फोन : ३९३३९९५, ३९५९०२३
मुद्रक : राजा आफसेट प्रिंटर्स
विकास मार्ग, दिल्ली-९२
© रणधीर प्रकाशन
RATAN UPRATAN & NAG NAGINA GYAN
Written by : Pt. Kapil Mohan Ji Published by: Randhir Prakashan, Hardwar (India)
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१. रत्न क्या है ?
अनुक्रम
रत्नों का महत्व
रत्नों के विषय में पुराणों का कथन स्वर्गलोक की मणियाँ
पाताल लोक की सर्पमणियाँ
पृथ्वीलोक के रत्न
ग्रहों के राशि क्षेत्र में रत्न
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१३
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सौर मण्डल का मनुष्य पर प्रभाव
२. रत्नों से ग्रहों का सम्बन्ध
ग्रहों के प्रभावी रत्न प्रमुख धातुएँ और रत्न
परस्पर मित्र व शत्रु रत्न
२८
भारतीय जन्म मास के आधार पर धारण करने योग्य रत्न
२९
३०
३०
अंग्रेजी जन्म महीने के आधार पर धारण करने योग्य रत्न भारतीय जन्म राशि के आधार पर धारण करने योग्य रत्न पाश्चात्य मत से जन्म राशि के आधार पर धारण करने योग्य रत्न ३१ पाश्चात्य मत से सूर्य राशि के आधार पर धारण योग्य रत्न पाश्चात्य मतानुसार विभिन्न ग्रहों के विभिन्न धारणीय रत्न रत्नों के प्रतिकूल / अनुकूल की परीक्षा
३१
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रत्न शुभाशुभ परीक्षा चक्र
३. रत्नों के रंगों का हमारे जीवन से सम्बन्ध
लाल रंग (संचालक-सूर्य)
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बैंगनी रंग (संचालक-शनि) हरा रंग (संचालक-बुध) आसमानी रंग (संचालक-गुरु) पीला रंग (संचालक-मंगल) नारंगी रंग (संचालक-चन्द्र) नीला रंग (संचालक-शुक्र) ४. अनिष्ट ग्रहों की शान्ति के लिए रत्न एवं उपरत्न सूर्य-रल माणिक्य (Ruby) चन्द्र-रत्न मोती (Peari) मंगल-रत्न मूंगा (Coral) बुध-रत्न पन्ना (Emerald) गुरु-रत्न पुखराज (Topaz) शुक्र-रत्न हीरा (Diamond)
शुक्र के उपरत्न शनि-रत्न नीलम (Sapphire) राहु-रत्न गोमेद (Zircon) केतु-रल लहसुनिया (Cat's Eye Stone) ५. रत्नों को धारण करने का वैदिक सिद्धांत सूर्य रत्न 'माणिक्य' की धारण विधि चन्द्र रत्न 'मोती' की धारण विधि मंगल रत्न 'प्रवाल' मूंगा की धारण विधि बुध रत्न पन्ना' की धारण विधि गुरू रत्न 'पुखराज' की धारण विधि शुक्र रत्न 'हीरा' की धारण विधि शनि रत्न 'नीलम' की धारण विधि राहु रत्न 'गोमेद' की धारण विधि
केतु रत्न 'वैदूर्य' (लहसुनिया) की धारण विधि ६. लग्न के अनुसार रत्न धारण का विचार मेष लग्न वृष लग्न
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मिथुन लग्न, कर्क लग्न सिंह लग्न कन्या लग्न, तुला लग्न वृश्चिक लग्न, धनु लग्न मकर लग्न, कुम्भ लग्न मीन लग्न
लग्नानुसार रत्न धारण करने की विधि ७. रत्नों की उत्पत्ति के आधार पर रत्न धारण ८. रत्नों के भेद
भारतीय उपरत्न ८४ प्रकार के उपरत्न उन्नतीस मोहरे, बनावटी रत्न गढ़े हुए रत्न, संश्लिष्ट रत्न ९. नवरत्न और उनका प्रयोग १. माणिक्य रत्न (Ruby)
माणिक्य का उपरत्न लालड़ी
माणिक्य के अन्य उपरत्न २. मोती रत्न (Pearl) ३. मूंगा रत्न (Coral) ४. पन्ना रत्न (Emerald) ५. पुखराज रत्न (Topaz, Yellow Sapphire) ६. हीरा सर्वोत्तम रत्न (Diamond) ७. नीलम रत्न (Blue Sapphire) ८. गोमेद रत्न (Zircon, Hessonite) ९. लहसुनिया (Cat's Eye) हकीक रत्न
सुलेमानी पत्थर १०. रत्नों के प्रभाव की अवधि
सूर्यरत्न माणिक्य (Ruby) चन्द्र रत्न मोती (Pearl)
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मंगल रत्न मूंगा (Coral) बुध रत्न पन्ना (Emerald) बृहस्पति रत्न पुखराज (Topaz, Yellow Sapphire) शुक्र रत्न हीरा (Diamond) शनि रत्न नीलम (Blue Sapphire) राहु रत्न गोमेद (Hessonite) केतु रत्न लहसुनिया (Cat's Eye)
दोषी रत्नों से भी शुभ फल ११. मुख्य उपरत्न और उनका प्रभाव
गार्नेट, पितौनिया फिरोजा या हरिताश्म हकीक, क्राइसों प्रेज, चन्द्रकान्त मणि वैदूर्य या लहसुनिया, स्फटिक, सार्डोनिक्स क्राइसोलाइट, पेरीडॉट ऐलेग्जैण्ड्राइट, अम्बर टुर्मेलिन, कार्नेलियन, मार्बोडस जेड, ओपल
लाजवर्त, मैलाकाइट, एमीथिस्ट १२.शुद्ध रत्नों के स्थान पर
उपरत्न, संग एवं मोहरे सूर्य उपरत्न-लालड़ी (Garnet) चन्द्र उपरत्न-शंखमुक्तादि (Moon Stone) मंगल उपरत्न-विद्रुममूल (Malachite) बुद्ध उपरत्न-पन्ने के संग (Peridot) गुरु उपरत्न-पुखराज के संग (Amber) शुक्र उपरत्न-हीरे के संग (Opal, Florite Zircom) शनि उपरत्न-नीलम के संग (Amethyst) राहु उपरत्न-गोमेद के संग (Tursawa) केतु उपरत्न-लहसुनिया के संग (Alekzendrite) लालड़ी मणि, सफेद पुखराज मणि
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or
له
or
سه بسه
or
بسه
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घृतमणि या जबरजद्ध तेलमणि या उदउक, भीष्मक या अमृतमणि ओपल मणि या उपलक (Opal) स्फटिक मणि (Crystal) हकीक (Agate) पारस मणि (Philosphers Stone) उलूक मणि लाजावर्त या वर्तकमणि (Lapis Lazuli) मासर मणि या एमनी (Agate, Eye Agate)
भीष्मक मणि १३. रत्नों के कटाव
कृत्रिम व संश्लिष्ट रत्न रत्नों की रंगाई
रत्नों का तौल १४. रत्न खरीदते समय सावधानियाँ
रत्नों की पहचान
प्रकाश तथा रंगों का प्रभाव १५. रोग में रत्न और ज्योतिष विचार
शीतज्वर, सिरदर्द मुँहासे, मसूड़ों में क्षय दुर्घटना तथा मोच कंठ शूल, गलसुआ, रक्ताल्पता (एनीमिया) अपेण्डिसाइटिस पथरी, एलर्जी एक्जीमा, जलन शिराशोथ, पोलियो फोड़ा, उपदंश नजला-जुकाम, पाद-दोष आन्त्रशोथ, नेत्रशोथ उच्च रक्तचाप, पक्षाघात
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सूर्याघात ( लू लगना), इनफ्लूएंजा निमोनिया, हिस्टीरिया, हर्निया
शोथ
दाँत दर्द या दन्त क्षय, यकृत मधुमेह, त्वचा शोथ (डर्मेटाइटिस)
अतिसार
मुँह में छाले, सर्दी-जुकाम, वर्णांधता
कब्ज, हृदय रोग
ऐंठन - मरोड़ (क्रैम्प )
परागज ज्वर, एड्स सबलबाय, गठिया
नपुंसकता
मलेरिया, अनिद्रा
कैंसर, रक्त कैंसर
पेप्टिक अल्सर टायफाइड, पीलिया
मस्तिष्क ज्वर, तपेदिक
ग्रन्थिल ज्वर, आधे सिर में दर्द, दमा
कुकर खाँसी
मायोपिया, ब्रेन ट्यूमर
सफेद दाग
घेंघा, गैंगरीन, शीत दंश
मिरगी, अन्धापन
कमर दर्द, गंजापन, बवासीर
स्मृति दोष, स्वर भंग ( आवाज फटना)
मोतियाबिन्द, चिकन पॉक्स
मस्तिष्क विकार, प्रमस्तिष्कीय रक्तस्राव
हैजा
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रत्न क्या है? रत्न शब्द का शाब्दिक अर्थ होता है-श्रेष्ठ। अतः रत्न शब्द सर्वत्र श्रेष्ठता का ही द्योतक होता है किन्तु आभूषणों में प्रयोग किए जाने वाले जिन रत्नों का उल्लेख प्रस्तुत पुस्तक में किया गया है, यदि उनके विषय में विचार किया जाए तो रत्न प्राय: दो प्रकार के होते हैं-खनिज रत्न और जैविक रत्न। खनिज रत्न उन रत्नों को कहते हैं जो खानों से प्राप्त होते हैं । पृथ्वी के गर्भ में विभिन्न रासायनिक द्रव्य विद्यमान रहते हैं। इन रासायनिक द्रव्यों में विभिन्न तापक्रम के द्वारा विभिन्न प्रकार की रासायनिक क्रियाएँ निरन्तर होती रहती हैं। इसी के परिणामस्वरूप पृथ्वी के गर्भ में विभिन्न रत्नों का जन्म होता है। हीरा, माणिक, पन्ना, नीलम, पुखराज, गोमेद, लहसुनिया खनिज रत्न होते हैं। इनकी उत्पत्ति और प्राप्ति खानों से होने के कारण ही इन्हें खनिज रत्न कहा जाता है।
रत्नों की दूसरी श्रेणी में जैविक रत्न आते हैं । जैविक का अर्थ हुआजीव के द्वारा उत्पन्न किया गया। इस श्रेणी में दो ही रत्न आते हैं-मूंगा और मोती। इनकी रचना विभिन्न समुद्री कीटों द्वारा समुद्रों के गर्भ में की जाती है। हमारे प्राचीन शास्त्रों के अनुसार रत्न और उपरत्नों की कुल संख्या चौरासी मानी गई है। इनमें माणिक, मोती, मूंगा, हीरा, पन्ना, नीलम, पुखराज, गोमेद और लहसुनिया इन नौ रत्नों को नवरत्न माना गया है और शेष को उपरत्न माना गया है किन्तु इनके अतिरिक्त कुछ अन्य उपरत्न भी होते हैं। ___यहाँ हम इस विषय में अधिक विस्तार में न जाकर केवल इतना ही कहना पर्याप्त समझते हैं कि रत्नों का प्रयोग प्रायः दो प्रकार से किया जाता है। एक तो लोग शौकिया तौर पर आभूषणों को जड़वाकर शोभा वृद्धि के
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★ रल उपरत्न और नग नगीना ज्ञान * लिए धारण करते हैं। दूसरा इसके साथ ही ज्योतिषीय विचार से भी इन रत्नउपरत्नों का विशेष महत्व है। हमारे प्राचीन शास्त्रों की ऐसी मान्यता है कि सभी रत्न तथा उपरत्नों में एक प्रकार की दैवी शक्ति निहित होती है। जिसके आधार पर ये धारक की ग्रह-बाधाओं को दूर कर उसके जीवन में सुख तथा शान्ति की स्थापना करते हैं। जहाँ तक रत्न और ग्रह-बाधा का प्रश्न है इस विषय में हमारा मत है कि रत्न और उपरत्न व्यक्ति की ग्रह-बाधाओं को दूर करने में पूरी तरह से समर्थ होते हैं। मैंने अपने ५० वर्षों के जीवन काल में अनेकों व्यक्तियों के अनिष्ट ग्रह निवारण हेतु उन्हें रत्न बतलाए, यन्त्र पूजा, पाठ इत्यादि बताए जिनसे प्रत्येक आदमी ने अपनी-अपनी श्रद्धा के अनुसार भरपूर लाभ उठाया। उन्हीं अनुभवों के आधार पर एवं अपने प्रेमी पाठकों के अनुरोध पर इस प्राचीन ज्ञान को इस पुस्तक रूप में प्रकाशित किया गया है।
रत्नों का महत्व ज्योतिष और रत्न का आपस में बहुत गहरा सम्बन्ध है। मनुष्य सदा से ही तेज गति से उन्नति की ओर जाना चाहता है। सभी प्रकार की छोटी-बड़ी विपत्तियों से बचना चाहता है तथा वर्तमान समय में मनुष्य अपने जीवन में आने वाली घटनाओं के सम्बन्ध में जानना चाहता है। अत: ऋषियों महर्षियों ने भावी जीवन के सम्बन्ध में जानकारी हेतु अनेकों सिद्धान्तों को बनाया है।
जिसमें-ज्योतिष विद्या, सामुद्रिक शास्त्र, तान्त्रिक एवं रमल शास्त्र आदि प्रमुख है।
इस विश्व व ब्रह्माण्ड की सभी वस्तुएँ लगातार चलती रहती हैं। जिससे सभी वस्तुएँ एक दूसरे को निश्चित रूप से किसी-न-किसी अंश में प्रभावित करती हैं। सौरमण्डल में स्थित ग्रह नक्षत्रों पर तथा भू-मण्डल पर स्थित प्राणियों एवं वस्तुओं पर विशेष प्रभाव पड़ता है। यह विज्ञान द्वारा भी प्रमाणित है।
सौरमण्डल का प्रत्येक ग्रह एक विशिष्ट वर्ण का प्रकाश प्रसारित करता है। उसकी किरणें उसी वर्ण में प्रसारित होकर सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के कण-कण को स्पर्श करती हैं। जिससे सृष्टि के सभी प्राणी भी उन किरणों
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★ रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान ★
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से प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाते हैं । अतः शिशु जन्म लेते ही उन ग्रह नक्षत्रों की छाया से प्रभावित हो जाता है। शिशु जन्म के समय जिन ग्रह नक्षत्रों की किरणों से प्रभावित होता है वह प्राणी अपने सम्पूर्ण जीवन काल में उन्हीं ग्रह नक्षत्रों या तारा पृथ्वी के जितना ही समीप होता है वह पृथ्वी को पृथ्वी के प्राणियों व वस्तुओं को तथा वनस्पतियों को अपनी किरणों से उतना ही अधिक प्रभावित करता है । दूर स्थित ग्रह नक्षत्रों व तारों की किरण भूमण्डल पर आते-आते क्षीण हो जाती है, अतः इनका प्रभाव कम हो जाता है ।
मनुष्य के जीवन संचालन में ग्रहों की किरणों का बड़ा ही महत्वपूर्ण योगदान है परन्तु यह आवश्यक नहीं कि प्रत्येक ग्रह की किरणें प्रत्येक मनुष्य को हर समय लाभ पहुँचायें या हानि । अतः ग्रहों की किरणों के प्रभाव न होने से मानव ही नहीं अपितु सम्पूर्ण सृष्टि ही हीनता से ग्रसित हो जाती है । कभी-कभी एक से अधिक ग्रह की किरणों का प्रभाव पड़ता है जो सामूहिक रश्मियों के होने के कारण लाभदायक भी हो सकता है और हानिकारक भी ।
अतः विभिन्न प्रकार के रत्न विभिन्न ग्रहों की किरणों को अपने में शोषित करने की क्षमता रखते हैं। कौन सा रत्न किस ग्रह की किरणों को प्रभावहीन करने की क्षमता रखता है; यह ज्ञान विद्वानों द्वारा विशेष अनुभवों व अनुसन्धानों के द्वारा निश्चय किया जा चुका है। अतएव आज के वैज्ञानिक युग में ही नहीं अथवा ऐतिहासिक काल से ही ग्रहों के कष्ट को दूर करने के लिए हम रत्नों को धारण करते आये हैं ।
रत्नों के विषय में पुराणों का कथन
स्वर्गलोक की मणियाँ
स्वर्गलोक की मणियों के चार प्रकार हैं - १. रुद्रमणि, २. स्यमन्तकमणि, ३. चिन्तामणि और ४. कौस्तुभमणि । सर्वप्रथम यही चार मणियाँ उत्पन्न हुई और इन्हें चार देवों ने धारण कर लिया ।
रुद्रमणि – रुद्रमाली स्वर्णमय, ऊर्ध्वसूत्र, तीन धार की पीत वर्ण और वैश्य जाति की है। इसके स्वामी भगवान् शिव शंकर है। सोने के समान इस
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★ रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान* रुद्रमणि में तीन सफेद लकीरें जनेऊ के जैसी होती हैं। एक समय जब शिवपार्वती पर्वतों में विहार कर रहे थे, उस समय पार्वती ने अपने सब आभूषण उतारकर रख दिये। मेरु पर्वत पर शिव के यज्ञोपवीत की छाया पड़ी तो वह पर्वत तीन सूत्रों में बँध गया। यह सब प्रभु की माया थी। एक ही रंग के सफेद सूत्र में ब्रह्मा, विष्णु, महेश स्थित हैं। शिवजी ने वह माला अपने गले में डाल ली और हरि स्मरण के काम में लाये। यह मणि सभी प्रकार के सुख, सम्पत्ति और आनन्द देने वाली है। जिस स्थान पर लक्ष्मी हो वहाँ यह मणि गिर जाती है। उस स्थान जमीन के भीतर से स्वर्ण, चाँदी, रत्नों आदि की प्राप्ति होती है। यह मणि उसी को प्राप्त हो सकती है जिस पर भोलेनाथ कृपा कर दें और जो भाग्यशाली हों। नहीं तो इसके दर्शन भी दुर्लभ हैं।
स्यमन्तकमणि-स्यमन्तकमणि चारों वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र) की नीले रंग वाली कुछ श्याम वर्ण लिये और इन्द्रधनुष के समान चमकदार होती है। यह इन्द्रलोक में अधिष्ठित है तथा सूर्यदेव इस मणि के स्वामी हैं। देवेन्द्र इस मणि को धारण किये हैं। श्रीमद्भागवत में वर्णित है कि सत्राजित ने सूर्य की उपासना कर उनके द्वारा यह मणि प्राप्त की है। सत्राजित के भाई प्रसेनजित ने उससे वह मणि ले ली। प्रसेनजित शेर के द्वारा मारा गया तत्पश्चात जाम्बवान शेर को मार कर गुफा में ले गया। श्री कृष्ण जी इस मणि के द्वारा कलंकित हुए और वे जाम्बवान की पुत्री जाम्बवती से विवाह करके उस मणि को दहेज में ले आये और सत्राजित को प्रदान की। जब श्रीकृष्ण का विवाह सत्यभामा के साथ हुआ तो पुन: वह मणि सत्राजित ने दहेज में श्रीकृष्ण को देनी चाही, परन्तु वह मणि श्रीकृष्णजी ने न लेकर सत्राजित को लौटा दी। सत्राजित जब हस्तिनापुर गया तो शतधन्वा ने उसे मारकर वह मणि प्राप्त कर ली। जब श्रीकृष्ण को इस बात का ज्ञात हुआ तो शतधन्वा ने अक्रूरजी को स्यमन्तकमणि दे दी। अक्रूरजी काशी में तीर्थयात्रा पर आये। वहीं पर श्रीकृष्णजी का भी आगमन हुआ तथा अक्रूरजी ने श्रीकृष्णजी से क्षमा माँगकर वह मणि उन्हें दे दी। इस मणि को श्रीकृष्णजी ने इन्द्र को दे दी, फिर इन्द्र ने इसे धारण कर लिया। इस मणि की प्रमुख विशेषता है कि यह प्रतिदिन स्वर्ण उगलती है और समस्त रोगों को हर लेती है। जो कोई भी इस
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★ रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान * मणि को धारण करता है उसे ऐच्छिक फल प्राप्त होते हैं। यह मणि नीले रंग और श्याम वर्ण से युक्त होती है। बड़े से बड़े भाग्यवान व्यक्ति को भी इस मणि की प्राप्ति बहुत दुर्लभ है।
चिन्तामणि-चिन्तामणि मन की चिन्ताओं से मुक्ति दिलाने वाली, ब्राह्मण वर्ण और श्वेत रंग की है। इसके देवता ब्रह्मदेव हैं । चन्द्रमा के समान शोभायमान इस रत्न को पाकर ब्रह्मदेव ने इसे ग्रहण कर लिया। इसकी उत्पत्ति के सम्बन्ध में यह कथा है कि उत्तर दिशा में हिमालय पर्वत पर मणिपुर देश है, वहीं पर यह मणि उत्पन्न हुई। वहाँ एक राजा निष्कपट भाव से राज करते थे। उनके पास चिन्तामणि देख कर एक असुर ईर्ष्या भाव से भर गया और उस राजा से युद्ध में विजयी होकर उस मणि को अपने वक्षःस्थल पर धारण किया। इस मणि के मिल जाने से वह अहंकारी हो गया। तब ब्रह्माजी ने उसका अहंकार दूर करने के लिये बहुत स्नेह से उससे वह मणि ले ली और वह अपने पास रख ली। उसे धारण करते ही ब्रह्माजी समस्त प्रकार की चिन्ताओं से मुक्त हो गये और सभी इच्छित कार्य पूर्ण हुए । मनुष्यों को इस मणि के दर्शन भी दुर्लभ होते हैं।
कौस्तुभमणि-कौस्तुभमणि का रंग लाल कमल के समान होता है। यह क्षत्रिय वर्ण की है और इसके स्वामी भगवान् विष्णुजी हैं। यह करोड़ों सूर्यों के समान प्रकाशमान हैं। देवताओं तथा असुरों द्वारा समुद्र-मन्थन के समय निकले चौदह रत्नों में लक्ष्मीजी के साथ ही कौस्तुभमणि भी निकली। यह मणि रूप, गुण तथा तेज से शोभायमान थी। लक्ष्मी ने तीनों देवों में भगवान् विष्णु का सात्विक पाकर वरण किया तो लक्ष्मीजी के पिता समुद्र ने ब्राह्मण का वेश बनाकर भगवान् को विधिपूर्वक कन्यादान किया और थाल को रत्नों से भरकर उस पर कौस्तुभमणि रखकर दहेज में दिया। चूँकि इस मणि में अत्यधिक तेज था, अत: लाल रंग तथा क्षत्रिय वर्ण की इस कौस्तुभमणि से भगवान् विष्णु का तेज और भी बढ़ गया। मनुष्यों को इसका भी दर्शन दुर्लभ है।
स्वर्गलोक की इन चारों मणियों की कथा सुनाने के पश्चात महर्षि पराशर ने कहा-हे राजन, इन चारों मणियों से सम्बन्धित समस्त बातें बताने
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* रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान ★ के बाद शिवजी ने पार्वतीजी से कहा कि इन मणियों की परछाई भी जिन देवताओं और मनुष्यों पर पड़ जाये वे बहुत भाग्यवान होते हैं। मणियों के सम्बन्ध में सुनकर पार्वतीजी ने कहा-हे नाथ! कृपया पाताल लोक की सर्पमणियों के सम्बन्ध में भी कुछ बतायें और वह मनुष्यों को किस प्रकार प्राप्त हो सकती हैं।
पाताल लोक की सर्पमणियाँ भगवान् शंकर ने कहा-पाताल लोक में नौ जाति के सर्प होते हैं और उनके रंग भी भिन्न-भिन्न होते हैं। जैसे-लाल, काला, पीला, गुलाबी, हरा, श्वेत, नीला, मटिया, दूधिया। इन सर्पो का जो रंग होता हैं उसी रंग की मणि भी होती है। यह मणियाँ सभी वर्गों की तथा सूर्य के समान प्रकाशवान होती हैं। वासुकी नाग का सर्प इन सब सर्यों का स्वामी है। यह कभी-कभी पृथ्वी के घने जंगलों में आता है, फिर किसी व्याल नाम के सर्प को मणि देता तथा प्रसन्नतापूर्वक मणि की रोशनी में इधर-उधर घूमता, नाचता, खुश होता तथा पनः मणि को मुँह में रखकर पाताल वापस चला जाता है। बहुत भाग्यवान व्यक्तियों में से कोई दुर्लभ व्यक्ति की व्याल सर्प को प्रसन्न करके मणि को प्राप्त कर पाते हैं। सर्पमणि को कैसे प्राप्त करें? इसे प्राप्त करने का उपाय यह है कि पहले जिस वन में मणिधारी सर्प पाये जाते हैं उनकी तलाश करें। ये प्रमुखतया उत्तरप्रदेश के घनघोर, सुनसान जंगलों में पाये जाते हैं। कुछ पर्वतों जैसे विन्ध्याचल पर्वत की श्रेणियों में भी इनका स्थान होता है। मणिधारी व्याल सर्प को प्रसन्न करने के लिए, इत्र, अबीर, मिठाईयाँ, सफेद वस्त्र, फूल, कस्तूरी, सुगन्धित जल लेकर उस वन में जायें जहाँ व्याल सर्प हों वहाँ पर सर्प की बाँबी के समीप इन वस्तुओं को एक वस्त्र पर रख दें। जिस स्थान पर वह मणि रखता हो वहाँ पर सफेद वस्त्र पर पुष्पों को बिछाकर उस पर दूध से भरा बर्तन तथा सुगन्धित द्रव्य रखें जिसमें केशर, केवड़ा, गुलाब जल तथा अन्य सुगन्धित द्रव्य मिले हों।
इत्र, अबीर, चन्दन तथा मिठाईयों से पूर्ण एक थाल पूर्व सामग्री से थोड़ी दूरी पर रखें और शुद्ध हृदय से यह कार्य चार-पाँच दिनों तक करें इस कार्य से व्याल प्रसन्न हो जायेगा। यथासम्भव पाँचवें दिन वासुकी सर्प आयेगा।
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★ रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान * उस समय मणि का प्रकाश बहुत तीव्र होगा, वहाँ दो व्याल सर्प बैठे हुए दिखायी देंगे। तब दूर से ही मृदुवाणी में प्रार्थना करें। वासुकी सर्प ईश्वर के परम सेवक हैं, पृथ्वी पर सबके कार्यों को सिद्ध करते तथा बहुत दानी होते हैं । तत्पश्चात, वासुकी सर्प उस मनुष्य को अपनी भक्ति करते हुए देखकर प्रसन्न होते हैं तथा मणि उपहारस्वरूप अपने भक्त को प्रदान करते हैं।
इस प्रकार सब कार्य करते हुए अन्त में जब तक सर्प मणि न दे दे, तब तक वह व्यक्ति विनती करता रहे। इस विनती को स्वीकार करके सर्प मणि को छोड़कर पाताल वापिस चला जाता है किन्तु जब तक सर्प पाताल में चला न जाये तब तक मणि का स्पर्श भी न करें। जो व्यक्ति सर्प को मारकर या किसी भी प्रकार का कष्ट देकर मणि लेते हैं वे सात जन्मों तक कष्ट व दुःख भोगते हैं। जबकि जिन व्यक्तियों को व्याल सर्प प्रसन्नतापूर्वक मणि देते हैं वे व्यक्ति मणि से प्रभावित होने के कारण धन-धान्य, अन्न, वस्त्र, पुत्र आदि सम्पूर्ण सुखों से परिपूर्ण रहते हैं।
सर्पमणि के प्राप्त होने पर लाभ-सर्पमणि की पूजाकर धारण करने से तन्त्र-मन्त्र, जादू, मूंठ, भूत-प्रेत आदि का कुछ भी प्रभाव नहीं होता, भूत-भविष्य का ज्ञान प्राप्त होता है, समस्त प्रकार की बीमारियाँ नष्ट हो जाती है। मणि को मुँह में रखने से जमीन में गड़ा खजाना ज्ञात हो जाता है, इसके प्रभाव से सभी सुखी जीवन व्यतीत करते हैं। जिस नगर में यह सर्पमणि होती हैं वहाँ पर अन्न तथा धन में वृद्धि होती जाती है । इस मणि को नदी में लेकर चलने से रास्ता ज्ञात हो जाता है। सर्पमणि सभी गुणों, वर्ण, रूप
और तेज में अतिश्रेष्ठ होती है। सर्पमणि को अन्धेरे में रखने से तेज विद्युत के समान प्रकाश उत्पन्न होता है।
पृथ्वीलोक के रत्न अग्निपुराण, शुक्रनीतिसार, बृहन्नारदीयसंहिता तथा अन्य पुराणों आदि में रत्नों को ग्रहण करने का माहात्म्य और उसका विधान विस्तृत रूप में पाया जाता है। रत्नों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में प्रचलित है कि अम्बरीष नामक राजा महान विद्वान और देव, गौ, विप्र, ऋषियों का पूजक और प्रजापालन में दत्तचित्त रहा। एक दिन वह स्नानादि करके, वस्त्र, आभूषण पहन, स्वयं रत्नों
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★ रल उपरत्न और नग नगीना ज्ञान * को धारण कर और समस्त रत्नों को अलग-अलग पात्रों में सजा कर राजसभा में ले आया। राजसभा के मध्य रत्नों की चमक-दमक और सुन्दरता तथा आकर्षण देख कर गहन सोच में लीन हो गया कि ईश्वर ने इन रत्नों को कैसे उत्पन्न किया। उसने सभा में उपस्थित सभी सभाजनों (विप्र, ऋषि और महापुरुषों) से कहा-आप लोग इन रत्नों तथा उपजातियों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में कुछ बतायें। किन्तु किसी से भी राजा के प्रश्न का उत्तर नहीं मिला।
उसी क्षण राजसभा में महर्षि पराशर पधारे। फिर राजा ने उनसे भी यही प्रश्न किया। महर्षि पराशर ने कहा-हे राजन! रत्नों की गाथा अठारह पुराणों और चारों वेदों में विस्तार से वर्णित है। मैं संक्षेप में उसका वर्णन करता हूँ। एक बार प्रभु शिवशंकर जी से पार्वती जी ने प्रश्न किया-हे स्वामी कैलाशपति! मणि रत्न, उपरत्न, संग, मोहरा कैसे उत्पन्न हुए, इन पर ग्रहों का प्रभाव कैसे पड़ा और इन्हें धारण करने वाले मनुष्यों पर ये किस प्रकार अपना चमत्कार या प्रभाव दिखाते हैं, इन सबका वर्णन कीजिये। प्रभु शिवजी ने प्रसन्नतापूर्वक मणियों, रत्नों आदि के सम्बन्ध में कथा कही।
यह सभी रत्न व उपरत्न पत्थर ईश्वर के ही रूप हैं। महर्षि पराशरजी ने राजा अम्बरीष से कहा-राजन् ! भगवन् ! सदाशिव ने माँ पार्वती के पूछने पर रत्नों का सविस्तार वर्णन किया जिसे मैंने सूक्ष्म में बताया। जिस पर इन रत्नों, उपरत्नों, पत्थरों एवं मोहरों की छाया पड़ती है वह मनुष्य धन्य हो जाता है। विधि-विधान के अनुसार इनके पहनने खाने आदि से मनुष्य मृत्युलोक में भी स्वर्गतुल्य सुख प्राप्त करता है।
स्वर्गलोक की विभिन्न चमत्कारी मणियों तथा पाताल-लोक की सर्पमणियों के सम्बन्ध में समस्त बातों का वर्णन करने के पश्चात महर्षि पराशर राजा अम्बरीष से कहते हैं-हे नरेश! अब मैं पृथ्वी पर पाये जाने वाले रत्नों तथा उसकी अन्य जातियों का वर्णन करता हूँ
प्राचीनकाल में एक बलि नाम का राजा बहुत निर्दयी मायावी असुर था। वह देवताओं से द्वेष रखता था, इन्द्र का आसन हथियाने के लिये उसने सौ अश्वमेध यज्ञ किये। जब इन्द्र देव युद्ध में कई बार उनसे पराजित हुए तो
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★ रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान * इन्द्र देव तथा समस्त देवता विष्णु भगवान् के पास गये और बलि से मुक्ति दिलाने की प्रार्थना की। भगवान् विष्णु ने कहा कि यज्ञ बेदी में बलि की भेंट देने से ही यह सम्भव है। ऐसा कहकर भगवान् विष्णु ब्राह्मण का रूप धारण करके राजा बलि के यज्ञ में पहुँचे तथा उससे आपने साढ़े तीन डग पृथ्वी माँगी। अपने तीन डगों में ही भगवान् ने तीनों लोकों को माप लिया तथा शेष आधे डग में उन्होंने बलि का शरीर माँगा। राजा बलि असुर अवश्य था किन्तु वह सत्यवादी और दानवीर भी था। दानवीर बलि यह जानकर कि वह ब्राह्मण कोई और नहीं स्वयं भगवान् विष्णु हैं उसने सहर्ष ही अपना शरीर भगवान् विष्णु को अर्पित कर दिया। प्रभु के चरणों का स्पर्श पाते ही बलि का शरीर हीरे में परिवर्तित हो गया। तत्पश्चात देवेन्द्र ने अपने शस्त्र 'वज्र' के माध्यम से उसके शरीर पर प्रहार किया तो उसके शरीर के सब अंगों तथा प्रत्येक तत्त्व से विभिन्न वर्गों के रत्नों की उत्पत्ति हुई। भगवान् शंकर ने अपने चार त्रिशूलों पर बारह राशियों एवं नौ ग्रहों को स्थिर करके बलि के दिव्य शरीर को मृत्युलोक में गिराया। ग्रहों व राशियों ने बलि के जिस-जिस अंग पर अपना अधिकार किया वे अंग ही उन ग्रहों व राशियों के लिये रत्न की खानें बनी। पृथ्वी पर यही रत्न मनुष्यों को उनके ग्रहानुसार फल देते हैं तथा लाभप्रद सिद्ध होते हैं। इन समस्त रत्नों का सार इस प्रकार है
१. देवेन्द के वज्र प्रहार से जो रक्त बलि के शरीर से निकल कर
पृथ्वी पर जहाँ गिरा वहाँ माणिक्य रत्नों की खानें उत्पन्न हुईं। यह रत्न सूर्य ग्रह का है। २. चन्द्र ग्रह ने असुर के चित्त को हरकर आठ स्थानों पर स्थित किया-१. स्वाति नक्षत्र, २. शंख, ३. सर्प, ४. शूकर, ५. गज, ६. मीन, ७. सीप और ८. सीप। राजा बलि का मन आठ स्थानों
पर स्थित होने के कारण इनसे आठ प्रकार के मोती उत्पन्न हुए। ३. राजा बलि के मस्तिष्क से निकला रक्त समुद्र में जाकर गिरा और
विद्रूममणि या रत्न उत्पन्न हुआ। ४. बलि के शरीर का पित्त पृथ्वी पर जहाँ गिरा वहाँ पन्ना रत्न की
खानें उत्पन्न हुई।
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* रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान * ५. बलि के शरीर का कटा हुआ माँस जहाँ गिरा वहाँ पर पुखराज
रत्न की खानें हुईं। ६. बलि के वज्र से कटे सिर के टुकड़े जहाँ गिरे वहाँ पर हीरे की
खानें उत्पन्न हुई जो कि सब रत्नों में श्रेष्ठ स्थान रखता है। ७. बलि के नेत्रों की पुतलियों के टुकड़े जहाँ गिरे वह स्थल नीलम
रत्न की खानें बन गयीं। ८. बलि के मेदा से गोमेद रत्न उत्पन्न हुआ। ९. देवताओं ने बलि के जनेऊ को तोड़ा तब उससे लहसुनिया रत्न
की उत्पत्ति हुई। १०. बलि के शरीर की कटी हुई नसें पृथ्वी पर जहाँ-जहाँ गिरी वहाँ
से फिरोजा उपरत्न उत्पन्न हुआ इसे वैदूर्य मणि भी कहते हैं। ११. बलि के नेत्रों से चन्द्रज्योति के समान सफेद चन्द्रकान्त मणि की
उत्पत्ति हुई। १२. घृतमणि बलि की काँख से उत्पन्न हुई। १३. बलि के शरीर की त्वचा से तेलमणि उत्पन्न हुई। १४. बलि के कफ से उपलकमणि की उत्पत्ति हुई। १५. बलि के पसीने से स्फटिकमणि पैदा हुआ। १६. उसके कटे हुए सिर और वायुवीर्य के मिलकर गिरने से पृथ्वी पर
अमृतमणि उत्पन्न हुई। १७. बलि का हृदय टुकड़ों में विभाजित होकर उत्तरपर्वतों के शिखर
पर गिरा जहाँ वह पारसमणि के रूप में उत्पन्न हुआ। एक समय भगवान् शंकर और माता पार्वती वहाँ पहुँचे और तपस्या के लिये समाधि में लीन हो गये। उनके वहाँ से प्रस्थान के समय पारसमणि ने सिर झुकाकर निवेदन पूर्ण होकर कहा-हे भोलेनाथ, जब से आप यहाँ पधारे हैं मेरे सारे कष्टों का निवारण हो गया। लोहा, वज्रमणि अर्थात् हीरे के समान कठोर होता है मुझे उसी का भय है अत: यह वरदान दीजिये कि दोनों मिलकर एकरूप हो जायें। वरदान देकर शिव-पार्वती कैलाश पधारे। पारसमणि को बहुत
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★ रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान ★
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आनन्द हुआ ।
१८. बलि की जिह्वा कटकर नदियों व पर्वत पर गिरी जहाँ पर उलूकमणि उत्पन्न हुई।
१९. बलि का मुकुट और केश द्रोण पर्वत पर गिरे । स्वर्णमुकुट व केश से मिलकर वर्तक मणि उत्पन्न हुई। रामायणानुसार जब लक्ष्मण जी शक्ति के प्रभाव से मूर्छित हुए थे तब सुषेण वैद्यजी ने द्रोण पर्वत से संजीवनी बूटी मँगायी। हनुमानजी को बूटी लेने भेजा गया किन्तु हनुमानजी बूटी को पहचान न पाने के कारण पूरे पर्वत को ही उठा लाये जिससे लक्ष्मणजी की मूर्छा दूर हुई । तब प्रसन्न होकर श्री रामजी ने हनुमानजी को वर्तक मणि (लाजावर्त) का स्वामी बना दिया ।
२०. बलि के मल-मूत्र से मासर मणि उत्पन्न हुई। इसके स्वामी असुर हैं । इस मणि को एमनी भी कहते हैं ।
२१. बलि के वीर्य से भीष्मक मणि की उत्पत्ति हुई। इस प्रकार पृथ्वीलोक में बलि के शरीर - अंगों व तत्त्वों से इक्कीस रत्नों की उत्पत्ति हुई ।
ग्रहों के राशि क्षेत्र में रत्न
भारतीय ज्योतिष शास्त्रानुसार मानव जीवनयापन करने के लिए सात प्रमुख ग्रह हैं - १. सूर्य, २. चन्द्रमा, ३. मंगल, ४. बुध, ५. बृहस्पति, ६. शुक्र, ७. शनि ।
राहु-केतु दोनों छाया ग्रह हैं अतः ये भी मानव जीवन को परोक्ष या अपरोक्ष रूप से अवश्य ही प्रभावित करते हैं ।
बृहस्पति, मंगल और चन्द्रमा ये मनुष्य के बाह्य व्यक्तित्व को प्रभावित करते हैं। जबकि शुक्र, बुध, सूर्य और शनि मनुष्य के आन्तरिक व्यक्तित्व को प्रभावित करते हैं ।
सूर्य मनुष्य की आत्मा को, चन्द्रमा मन को, मंगल धैर्य को, बुध वाणी को, बृहस्पति ज्ञान को, शुक्र वीर्य को और शनि सम्वेदना का प्रतिनिधित्व करता है । प्रत्येक ग्रह किसी न किसी गुण को या किसी न किसी दोष को
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* रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान * संचालित करता है। जिससे मनुष्य जीवन प्रभावित होता है।
सौर मण्डल का मनुष्य पर प्रभाव
जैसा कि सब जानते हैं कि सभी ग्रह नक्षत्र व तारे अपनी किरणें पृथ्वी पर फेंकते हैं और पृथ्वी पर स्थित सभी जीव-निर्जीव वस्तुओं की क्रिया को संचालित करते हैं और ये वस्तुएँ उन किरणों को आपस में समाहित कर लेती हैं। अतः रत्नों का प्रभाव हमें अधिक महसूस होता है क्योंकि रत्नों से निकलने वाला रंग गहन अवस्था में होता है। रंगीन किरणों का गहन अवस्था में प्राप्त होना ही ज्योतिषीय दृष्टिकोण से रत्नों के मूल्य व महत्त्व को बढ़ाता
उदाहरणत: काँच के पीले टुकड़े और पुखराज में मुख्य अन्तर यही है कि पुखराज में जितनी औसत में पीली रश्मियाँ घनीभूत हैं उतनी काँच के पीले टुकड़े में नहीं होती, अत: पीले काँच के टुकड़े से निकली रश्मियों से उतना लाभ नहीं होता जितना कि पुखराज से निकली रश्मियों से होता है।
जो ग्रह जितना हमारे समीप होते हैं उनकी रश्मियाँ हमें उतना ही प्रभावित करती है और जो ग्रह जितने दूर होते हैं उनकी रश्मियाँ उतना ही कम प्रभावशाली होती हैं।
उदाहरणतः सूर्य ग्रह ग्रीष्म ऋतु में ठीक हमारे ऊपर चमकता है। अतः उसकी किरणें सीधे पृथ्वी पर पड़ती हैं और उनकी गर्मी का प्रभाव हम सभी पृथ्वीवासियों पर निश्चित रूप से पड़ता है। इसी कारण हम सब सूर्य की किरणों के तीव्र ताप से व्याकुल होते हैं और यही कारण है कि सभी को सर्दी का मौसम अधिक पसन्द होता है क्योंकि शीत ऋतु में सूर्य तिर्यक दिशा में हो जाता है। अतः सूर्य कि किरणें पृथ्वी पर सीधी नहीं पड़तीं, तिरछी पड़ती हैं। परिणामस्वरूप सूर्य की गर्मी अधिक तेज नहीं लगती वरन् अच्छी लगती है। इसी प्रकार अन्य ग्रह अपने ग्रह मार्ग में चक्कर काटते हुए पृथ्वी के ठीक ऊपर आते हैं और हमें अधिक प्रभावित करते हैं और शरद ऋतु के सूर्य के समान पृथ्वी से तिरछा या दूर होने पर हमें ग्रहों की किरणें कम प्रभावित करती हैं।
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* रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान * शिशु जब अपनी माँ के गर्भ से जन्म लेता है तो पूर्ण रूप से निर्विकार व रश्मिविहीन होता है, परन्तु पृथ्वी पर आते ही वह पृथ्वी के वायुमण्डल के सम्पर्क में आ जाता है और उसी क्षण ग्रहों की रश्मियाँ उस शिशु के निर्विकार शरीर को आच्छादित कर प्रभावित करती हैं। उस समय जिस ग्रह
की रश्मियाँ घनीभूत होती हैं उस ग्रह की रश्मियों का प्रभाव सर्वाधिक रूप में होता है और जिस ग्रह की रश्मियाँ क्षीण होती हैं उस ग्रह का प्रभाव शिशु पर कम पड़ता है। अतः शिशु जिस ग्रह की रश्मियों से सबसे पहले आच्छादित होता है उस ग्रह का प्रभाव उस शिशु को जीवन भर प्रभावित करता है। सभी ग्रहों की रश्मियाँ अलग-अलग होती हैं। अतः सूर्य-लाल रंग की, चन्द्रमानारंगी रंग की, मंगल-पीले रंग की, बुध-हरे रंग की, बृहस्पतिआसमानी रंग की, शुक्र-नीले रंग की, शनि-बैगनी रंग की रश्मि या किरणें छोड़ता है।
इसी प्रकार प्रत्येक रत्न एक ग्रह विशेष की किरणें ग्रहण करके धारक व्यक्ति के शरीर में पहुँचाता है। ज्योतिषियों तथा प्राचीन ऋषि महर्षियों ने अपने अनुभव के आधार पर निश्चय किया कि किस ग्रह की कितनी रश्मि शक्ति मनुष्य के लिए कल्याणकारी व जीवनदायी होती है तथा दूसरे किस ग्रह की रश्मियों का कैसा सामन्जस्य उसके लिए कल्याणकारी होगा। इसी आधार पर उन्होंने विभिन्न ग्रहों के लिए विभिन्न रत्न धारण करने का परामर्श दिया है। कारण कि एक विशिष्ट रत्न में एक विशिष्ट ग्रह की रश्मियों को अपने में शोषित करने की प्रबल शक्ति होती है। जिस प्रकार एक वस्तु से दूसरी वस्तु में विद्युत प्रवाहित करना सम्भव होता है उसी प्रकार वह रत्न उन विशेष रश्मियों को शोषित कर मानव शरीर में प्रवाहित कर देता है।
जिस प्रकार जिस पौष्टिक तत्व की कमी से शरीर कमजोर और रोगग्रस्त हो जाता है तो उसकी पूर्ति के लिए डाक्टर दवाईयाँ खाने को बताता है। ठीक उसी प्रकार जो ग्रह व्यक्ति के लिए कष्टकारक होता है उस व्यक्ति को बहुत मुसीबत व कठिनाईयों का सामना करना पड़ता है व हानि होती है। इसके निवारण के लिए अमुक व्यक्ति के उस ग्रह को सबल बनाने के लिए उससे सम्बन्धित विशिष्ट रत्न को पहना जाता है। जिसमें उस ग्रह की
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* रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान * रश्मियों को शोषित करने की प्रबल क्षमता होती है। अतः वह व्यक्ति उस रत्न को धारण कर उसके द्वारा उस दुर्बल ग्रह की क्षीण रश्मि को पूरा कर उसके प्रभाव को सबल बनाता है। इसलिए कमजोर ग्रह की पुष्टता के लिए उससे सम्बन्धित रत्न को धारण किया जाता है।
सूर्य-इसमें राजदूतावास, जुआ, सट्टा, वस्त्र का व्यापार, जवाहरात का कारोबार, दवाइयाँ, फोटोग्रॉफी, ऊनी वस्त्र, चाय का रोजगार, इंजीनियरिंग व विद्युत सम्बन्धी कार्य करना अति उत्तम है। यह बड़े भाई का गुण पितृ, यश, दाँयी आँख, कार्य, ज्ञान, आत्मा, प्रभाव, आरोग्य, मन की शुद्धता को बढ़ाता है तथा हृदय, पीठ, नाड़ी, राज्य कृपा व हड्डियों का प्रतिनिधित्व करता है।
_चन्द्रमा-यह स्मरण शक्ति, भावनाएँ मनोविकार, बाँयी आँख, फेफड़े, छाती, माता, यश, मन, बुद्धि, सम्पत्ति, मातृ चिन्ता, कृषि कर्म, निन्दा, ललित कलाओं के प्रति प्रेम आदि तथा औषधि क्षेत्र में व अनाज के व्यापार आयातनिर्यात, रेलवे, जहाज, श्वेत रंग की वस्तु, चाँदी, मोती आदि का प्रतिनिधित्व करता है।
मंगल-वीरता, धैर्य, साहस, युद्ध, लूटमार, प्रदोष, गर्भ, प्रदर, रक्तपित्त, वायु खुजली, हड्डी के आन्तरिक तत्व, मज्जा, पुलिस विभाग, सेना विभाग स्वदेश प्रेम व रक्षा कार्य आदि का प्रतिनिधित्व करता है।
बुध-बुद्धि तत्व का स्वामी होने के कारण बुद्धि पर, शरीर में वक्ष, वाणी, मस्तिष्क, शिरोभाग, अन्त:संरचना, वायु तथा रक्त दोष, भौतिक कष्ट आदि पर प्रभाव डालता है। परिणाम स्वरूप स्मृति ह्रास, शिरो रोग, उन्मत्तता, श्वास काल, वाणी दोष, मुख, कण्ठ विकार तथा श्वास रोग व बुरी कल्पनायें तथा व्यवसाय, बैंक, बीमा शेयर से युक्त व्यसाय और विद्या के क्षेत्र में ज्योतिष ज्ञान वाग्मिता मनोविज्ञान आदि पर बुध का प्रभाव है।
बृहस्पति-बृहस्पति का क्षेत्र निम्न व्यवसायों पर प्रभाव डालता है। जैसे-नौकरी, लोकसभा, विधान सभा की सदस्यता, न्यायाधीश, लेखक, प्रकाशक, काव्य, राज्य कृपा तथा महत्वपूर्ण पद को प्राप्त कराने वाला है। साथ ही मांगलिक कार्य, शिक्षा, तीर्थ यात्रा, धार्मिक कार्य, वेद पाठन, स्वर्ण,
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★ रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान ★
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फसल, पुत्र, ज्ञान, वातरोग, शरीर पुष्टता, कण्ठ रोग, योनि रोग, मैत्री गुण, यन्त्र - मन्त्र भक्ति, संकट में धैर्यता, सहायता करने की भावना, सादा रहनसहन आदि क्षेत्रों पर प्रभाव रखता है ।
शुक्र - शुक्र के क्षेत्र निम्न हैं । वस्त्र, रत्न, भूषण, धन, इत्र, पुष्प, सुगन्धित द्रव्य, गीत, काव्य, कोमलता, यौवन, वैभव, साहित्य चर्चा, वशीकरण, इष्ट की सिद्धि, कला प्रेम, मधुर वाणी, गायन, वादन, फर्नीचर, स्त्री सम्बन्धकार, वायुयान, कामाग्नि, कामेच्छा, हँसी मजाक, नृत्य, विलास, वीर्य रमण, शैया स्थान, विवाह, इन्द्रजाल, आँख, रक्त, कफ, स्त्री दुख । यह रोग में प्रमेह, वीर्य विकार, मन्द बुद्धि, पुरुषार्थ, नर्स प्रशिक्षण, अधिकारी स्वतन्त्रता, व्यवसाय, प्राचीन संस्कृति का अभिमान, स्टेशनरी, मिष्ठान, व्यभिचार, मद्य उद्योग, अण्डाशय, उदर दाह, कन्या, सन्तान आदि पर प्रभाव डालता है ।
शनि -- शनि शरीर के वात संस्थान, पुंसत्व, स्नायु, मण्डल और गुह्य प्रदेश को विशेष रूप से प्रभावित करता है। जिस कारण से प्रेरित होकर मनुष्य आपराधिक कृत्य, चोरी, डकैती, ठगी, कुसंगति, पारिवारिक कलह तथा वैर विरोध की उत्पत्ति करता है ।
यदि शनि शुभकारक स्थिति में हो तो काले रंग, लोहा व्यवसाय, यन्त्रिकी, तैलीय पदार्थ, चर्म उद्योग आदि में सहायक होता है तथा बुद्धि विकास पाकर मनुष्य सिद्ध सन्त, संन्यासी, वकील, दार्शनिक और योगी भी बन जाते हैं ।
राहु-कुतर्क करना, दूसरों की गलतियाँ निकालना, भ्रम, अफवाहें फैलाना, प्रचार विभाग, पूर्वजों का गुणगान, लॉटरी लगाना, आकस्मिक कार्य, गड़ा हुआ धन मिलना ।
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रत्नों से ग्रहों का सम्बन्ध
रत्नों और ग्रह का आपस में घनिष्ठ सम्बन्ध है। सौर मण्डल में स्थित सभी ग्रह नक्षत्र व तारे अपनी रश्मियाँ भूमण्डल पर फैलाते हैं जिनका प्रभाव इस भूमण्डल के प्रत्येक प्राणियों, वनस्पतियों व खनिजों के जीवन पर पड़ता है तथा ये सभी प्राणियों, वनस्पतियों व खनिजों के जीवन तथा क्रिया कर्म को अपनी रश्मि के द्वारा प्रभावित कर संचालित करते हैं । ग्रह से निकलने वाली ये रश्मियाँ देखने में सफेद लगती हैं परन्तु ये सात रंगों से युक्त होती हैं । उदाहरण के लिए सूर्य की किरणों से आप भली-भांति परिचित हैं यह किरणें देखने में सफेद रंग की न होकर सात रंगों का समिश्रण होता है। आसमानी, पीला, लाल, नीला, बैगनी, हरा, नारंगी आदि रंग की किरणें होती हैं। इसकी झलक वर्षा के मौसम इन्द्रधनुष के रूप में देखी जाती है। वर्षा के मौसम में जल की बूँदों से होकर जब सूर्य की किरणें पृथ्वी पर आती हैं तो ये किरणें सात रंग में विभक्त होकर इन्द्रधनुष का रमणीक व मनोहारी दृश्य उपस्थित करती हैं। इसे हम काँच के त्रिकोणाकार खण्ड द्वारा भी सूर्य की किरणें पार कर सादे कागज पर डालकर देखते हैं तो किरणें सात रंगों में स्वतः विभक्त दिखायी देती हैं । अतः जब हम कोई वस्तु देखते हैं तो वे इन्द्रधनुष की तरह सात रंगों में क्यों नहीं दिखाई देती है ? इसका कारण यह है कि जब हम सूर्य किरणों के ऊपर लाल कपड़े डालते हैं तो वह लाल रंग लाल कपड़े के बाहर कर देता है शेष छः रंगों को अपने अन्दर सोख लेता है। अतः ये लाल रंग की रश्मियाँ जब हमारी आँख के अन्दर जाती हैं तो वह कपड़ा लाल रंग का दिखाई देने लगता है। इसी प्रकार जो भी वस्तु जिस रंग में हम देखते हैं वह वस्तु अपने दिखने वाले रंग को बाहर फेंककर शेष रंगों
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★ रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान ★ को अपने में समा लेती है। जिससे वह वस्तु उस रंग में दिखाई देती है। __अतः अब प्रश्न उठता है कि जो वस्तुएँ सफेद दिखाई देती हैं वे किसी रंग की क्यों नहीं दिखाई देती? इसका यह कारण यह है कि श्वेत रंग उन्हीं वस्तुओं का होता है जिनका अपना कोई रंग नहीं होता। वे किसी भी रंग में रंगी नहीं जाती व निर्लेप अवस्था में रहती हैं। इसी कारण श्वेत रंग की वस्तुएँ शुद्ध पवित्र एवं सात्विक मानी जाती हैं।
इसी प्रकार जब कोई वस्तु सातों रंगो को अपने अन्दर समा लेती है अर्थात् प्रकाश की सातों रंग की किरणें उसी में समाविष्ट हो जाती है तथा अपने अन्दर से किसी किरण का कोई भी अंश बाहर नहीं फेकती तो वह वस्तु काले रंग की दिखाई देती है। अत: काली दिखाई देने वाली वस्तु में स्वार्थपरता होती है। त्याग की भावना नहीं होती, उसे लेना आता है, देना नहीं। इसी कारण काले रंग को ज्यादा लोग पसन्द नहीं करते हैं। काले रंग की वस्तुओं को पसन्द करने वाले व्यक्ति तामसिकवृत्ति व भोग प्रवृत्ति के होते हैं।
ग्रहों के प्रभावी रत्न विशेष ग्रह के लिए विशेष रत्न अनुभवी ऋषियों महर्षियों द्वारा सुनिश्चित किये हैं। ये रत्न जिन विशेष ग्रहों का प्रतिनिधित्व करते हैं उन ग्रहों की रश्मियों का प्रभाव यदि क्षीण होकर अपने प्रभावित व्यक्ति को हानि पहुँचाता है तो विशेष रत्न को धारण करने से उक्त ग्रह की रश्मियाँ सशक्त होकर प्रभावी व्यक्ति को लाभ पहुँचाने लगती हैं। अतः अशक्त ग्रह शान्ति के लिए निम्न रत्न धारण करने से लाभ होता हैग्रह का नाम
रत्न १. सूर्य
माणिक्य २. चन्द्रमा
मोती ३. मंगल
मूंगा ४. बुध
पन्ना ५. बृहस्पति
पुखराज
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६. शुक्र ७. शनि
८. राहु
९. केतु
प्रमुख धातुएँ और रत्न
जिस प्रकार रत्न ग्रहों का प्रतिनिधित्व करते हैं । उसी प्रकार धातु भी ग्रहों का प्रतिनिधित्व करते हैं, जो निम्न प्रकार हैं
प्रतिनिधि धातु
स्वर्ण
चाँदी
स्वर्ण
स्वर्ण, काँसा
चाँदी
चाँदी
लोहा, सीसा पंच धातु
पंच धातु
पंचधातु - स्वर्ण, चाँदी, ताँबा, काँसा और लोहा आदि मिलाकर बराबर-बराबर जो पदार्थ बनाया जाता है, वह पंचधातु कहलाता है। पंचधातु की अंगूठी भी बनायी जाती है।
ग्रह का नाम
१. सूर्य
२. चन्द्रमा
३. मंगल
४. बुध
५. बृहस्पति
६. शुक्र ७. शनि
★ रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान ★
हीरा
नीलम
गोमेद
लहसुनियाँ
८. राहु ९. केतु
परस्पर मित्र व शत्रु रत्न
प्रायः देखने में आता है आजकल एक व्यक्ति एक नहीं बल्कि कईकई अंगूठियों को पहनता है। कई महापुरुष आठ-दस अँगूठी पहनते हैं। अतः रत्न धारण करते समय यह सदा ही ध्यान रखना चाहिए कि रत्न जड़ित जिन अंगूठियों को हम धारण कर रहे हैं वे रत्न आपस में एक दूसरे के मित्र हैं या शत्रु । यदि वे रत्न आपस में शत्रु हैं तो उनका प्रभाव आपस में तो टकराएगा
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।
रत्न
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१. हीरा
* रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान *
२९ ही और आपको हानि भी होगी। यदि ये रत्न मित्र हैं तब दोनों ही मिलकर पहनने वाले को लाभ पहुँचायेंगे। अत: निम्न वर्णन से रत्न धारक को स्पष्ट ज्ञात हो जाएगा कि कौन-कौन रत्न एक दूसरे के शत्रु अथवा मित्र हैं| मित्र
शत्रु
समानदर्शी पन्ना, नीलम
माणिक्य, मोती मूंगा, पुखराज २. मोती माणिक्य, पन्ना हीरा, मूंगा ३. मूंगा माणिक्य, मोती, पुखराज पन्ना
हीरा, नीलम ४. पन्ना माणिक्य, हीरा
मोती
मूंगा, पुखराज ५. नीलम पन्ना, हीरा
नीलम, पुखराज
मूंगा ६. माणिक्य मोती, मूंगा, पुखराज हीरा, नीलम पन्ना | ७. गोमेद पन्ना, नीलम, हीरा माणिक्य, मोती मूंगा, पुखराज । ८. लहसुनिया | पन्ना, नीलम, हीरा | माणिक्य, मोती | मूंगा, पुखराज
ज्योतिषीमतानुसार किस व्यक्ति को कौन सा रत्न धारण करना अच्छा होगा यह निश्चित करने की कई विधियाँ हैं। जैसे-मास के आधार पर, लग्न राशि के आधार पर आदि जिनका वर्णन निम्न हैभारतीय जन्म मास के आधार पर धारण करने योग्य रत्न
मास का नाम धारक रत्न का नाम १. चैत
कपिश मणि (Jasper) २. बैशाख हीरा (Diamond) ३. ज्येष्ठ
पन्ना (Emerald) ४. आषाढ़ प्रवाल अर्थात् मूंगा (Coral) ५. श्रावण माणिक्य या लालड़ी (Ruby) ६. भाद्रपद हरितोत्पल (Spiral Ruby) ७. आश्विन नीलम (Sapphire) ८. कार्तिक रत्नोपल (Opal) ९. मार्गशीर्ष पुखराज (Topaz) १०. पौष
फिरोजा (Turquoise)
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३०
* रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान ★ ११. माघ
तामड़ी या रक्तमणि (Goriest) १२. फाल्गुन नीलराग मणि (Emethyst) १३. पुरुषोत्तम मास पुरुषोत्तम मास में जन्म लेने वाले व्यक्ति को
(मलमास या नवरत्नों की चौकी अंगूठी में जड़वाकर
अधिक मास) पहनना चाहिये। अंग्रेजी जन्म महीने के आधार पर धारण करने योग्य रत्न
मास का नाम धारक रत्न का नाम १. जनवरी मूंगा २. फरवरी
ऐमिथिस्ट ३. मार्च
एक्वामरीन ४. अप्रैल
हीरा ५. मई
पन्ना ६. जून
सुलेमान ७. जुलाई
माणिक्य ८. अगस्त
गोमेद ९. सितम्बर
नीलम १०. अक्टूबर
चन्द्रकान्त ११. नवम्बर
पुखराज १२. दिसम्बर
लहसुनिया भारतीय जन्म राशि के आधार पर धारण करने योग्य रत्न
राशि का नाम धारणीय रल का नाम १. मेष
त्रिकोण दूंगा २. वृष
हीरा एवं षट्कोण पन्ना ३. मिथुन
पंचकोण पन्ना या मोती
गोल मोती अथवा नीलम ५. सिंह
गोल माणिक्य ६. कन्या
पन्ना
४. कर्क
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७. तुला ८. वृश्चिक
९. धनु
१०. मकर
११. कुम्भ १२. मीन
राशि का नाम
१. मेष
२. वृष
३. मिथुन ४. कर्क
५. सिंह
६. कन्या
पाश्चात्य मत से जन्म राशि के आधार पर धारण करने
योग्य रत्न
७. तुला
८. वृश्चिक
९. धनु
१०. मकर
★ रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान ★
श्वेत पुखराज
मूँगा
पीत पुखराज
नीलम
११. कुम्भ १२. मीन
लहसुनिया अथवा फिरोजा
गोमेद
धारणीय रत्न का नाम
एक्वामरीन एवं कार्नेलियन
हायसिन्थ
काल्सडनी
एमराल्ड
टोपाज
क्राइसोलाइट
सारडोनिक्स
जैस्पर एवं टोपाज
क्राइस प्रेज
रुबी एवं ओनिक्स
एमेथिस्ट
हैलिओट्रोप
पाश्चात्य मत से सूर्य राशि के आधार पर धारण योग्य रत्न
किस समय में जन्म लेने वालों की कौन-कौन सी राशि होती है । इसका वर्णन करते हुए पाश्चात्य ज्योतिष शास्त्रानुसार सूर्य राशि के आधार पर धारण करने योग्य उपरत्नों का वर्णन निम्न प्रकार है
१. २० जनवरी से १९ फरवरी तक 'कुम्भ राशि
धारणीय रत्न
३१
वैक्रान्त (Turmaline)
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* रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान ★ धारणीय उपरत्न
शेषमणि (Onyx) २. २० जनवरी से २० मार्च तक 'मीन' राशि धारणीय रत्न
नीलराग मणि, एक्वामेरीन
(Amethyst) धारणीय उपरत्न
कपिश मणि (Jasper) ३. २१ मार्च से १९ अप्रैल तक 'मेष' राशि धारणीय रत्न
कपिश मणि (Jasper) धारणीय उपरत्न
माणिक्य (Ruby) ४. २० अप्रैल से १९ मई तक 'वृष' राशि धारणीय रत्न
हीरा (Diamond) धारणीय उपरत्न
पुखराज (Topaz) ५. २० मई से २० जून तक 'मिथुन' राशि' धारणीय रत्न
सुलेमानी पत्थर, पन्ना
(Agate Emerald) धारणीय उपरत्न
लाल विक्रान्त (Red
Turmaline) ६. २१ जून से २० जुलाई तक 'कर्क' राशि धारणीय रत्न
विद्रुम, सुलेमानी पत्थर
(Aquamarine, Agate) धारणीय उपरत्न
पन्ना (Emerald) ७. २१ जुलाई से २१ अगस्त तक 'सिंह' राशि धारणीय रत्न
लालड़ी माणिक्य (China
Ruby) धारणीय उपरत्न
नीलम (Sapphire) ८. २२ अगस्त से २२ सितम्बर तक 'कन्या' राशि धारणीय रत्न
सार्डोनिक्स, कार्नेलियन एवं
गुलाबी पुखराज (Paridot) धारणीय उपरत्न
हीरा (Diamond)
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* रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान * ९. २३ सितम्बर से २२ अक्टूबर तक 'तुला' राशि धारणीय रत्न
नीलम (Sapphire) धारणीय उपरत्न
गोमेद (Zircone) १०. २३ अक्टूबर से २२ नवम्बर तक 'वृश्चिक राशि धारणीय रत्न
रत्नोपल मणि (Opal) धारणीय उपरत्न
सुलेमानी पत्थर (Agate) ११. २३ नवम्बर से २० दिसम्बर तक 'धनु' राशि धारणीय रत्न
पुखराज (Topaz) धारणीय उपरत्न
नीलराग मणि (Amethyst) १२. २१ दिसम्बर से १९ जनवरी तक 'मकर' राशि धारणीय रत्न
फिरोजा (Turquoise) धारणीय उपरत्न
लहसुनियाँ तथा गोमेद
(Zircone) पाश्चात्य मतानुसार विभिन्न ग्रहों के विभिन्न धारणीय
रत्न एवं धातु ग्रह का नाम रत्न का नाम
धातु का नाम नीलम
स्वर्ण चन्द्र राक क्रिस्टल
चाँदी मंगल
लोहा ब्लडस्टोन
पारस गुरू कार्नोलियन
रांगा एमराल्ड
ताँबा ओनिक्स
सीसा
सूर्य
हीरा
बुध
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★ रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान ★
रत्नों के प्रतिकूल/अनुकूल की परीक्षा विधि - कौन - सा रत्न धारण करना शुभकारक होगा या हानिकारक, इसके जानने के लिए निम्न विधि बहुत ही सरल है। नीचे एक चक्र बनाया गया है, जिसमें ८१ कोष्ठ चक्र हैं, जिसके कोष्ठकों में भिन्न-भिन्न अंक लिखे हुए हैं।
३४
६०
४३
२
६६
m
रत्न शुभाशुभ परीक्षा चक्र
६
५९
१ ५२
७३ ४
३१ ५७
२९
७
७१
५८
६१
१८
४४
२८ ३
२१
५६
४५
५४
४२
१७
८
१५
९
४८
२६
४७
६३
२३
४०
१३ ७४
५१
२७
५५
४१
५
५०
२२
३५
३२
१४
११
७०
३७
१०
६८
४९
२५ ६९
३३
१२
६५ ७५ ३४ ७८ १९ ८० ३९ ६७ ७६
धारणीय रत्न को जानने के लिए अपने दाहिने हाथ की अंगुली को चक्र के किसी एक कोष्ठ में रखें । उस कोष्ठ में जो अंक लिखा हो उसमें ३ से भाग दें। यदि शेष १ बचे तो जो रत्न आप खरीदने के लिए तैयार हैं वह शुभ फल देने वाला है, २ अंक शेष बचे तो वह रत्न मध्यम फल देने वाला है । इसके अतिरिक्त कोई अन्य अंक शेष बचता है तो वह अशुभ फल को देने वाला है।
2
२४
७९
२०
३६
१६
2
३०
८१
५३
७२
४६
६४
३८
७२
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रत्नों के रंगों का हमारे जीवन से सम्बन्ध
रंगों का हमारे जीवन में विशेष महत्त्व है, जो पूरे ब्रह्माण्ड में पाया जाता है। बिना रंगों व किरणों के हम इस संसार की कल्पना भी नहीं कर सके। सर आइजक न्यूटन जब २३ वर्ष के थे तब उन्होंने सूर्य की सफेद-सी दीखने वाली रोशनी को ग्लास प्रिज्म में से गुजारा तो पाया कि दूसरी तरफ से सात अलग-अलग रंग के प्रकाश निकल रहे थे। साबुन का बुलबुला व इन्द्रधनुष भी सात रंग दर्शाते हैं। लाल, नारंगी, पीला, हरा, नीला, आसमानी और बैंगनी।
ये सात रंग मुख्य हैं। बाकी सब मिश्रित (गौण) हैं, जैसे-काला, सलेटी, मैहरून, भूरा, परपल, लैवेण्डर आदि। इन सभी रंगों का उद्गम स्थान सूर्य है। सूर्य की किरणों के बिना पृथ्वी वर जीव नहीं रह सकता है। हमारे शरीर में भी सूर्य की सात किरणें सम्मिलित हैं। मानव-शरीर कोशिका व कोशिका-तन्त्र का जाल है। प्रत्येक कोशिका अलग-अलग रंगों से बनी है। हम इन्हीं सात रंगों से पैदा होते हैं, जीते हैं और बढ़ते हैं। यही रंग हमारे शरीर को स्वस्थ व सन्तुलित बनाए रखने में सहायक हैं। मानव-शरीर का रंग भी कम या ज्यादा अर्थात् गड़बड़ा जाए तो तरह-तरह की बीमारियाँ पैदा हो जाती हैं। इन रंगों की पूर्ति के लिए कई तरीके हैं परन्तु प्राचीन समय से ही रत्नों को रंगों की पूर्ति का सीधा व सरल तरीका माना है, जिनका वर्णन निम्नलिखित है
लाल रंग (संचालक-सूर्य) यह अग्नि, ताकत एवं धैर्य का प्रतीक है। इसका रंग लड़ाई-झगड़ा या
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★ रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान ★
वाद-विवाद को दर्शाता है। लाल बत्ती के प्रयोग का अर्थ दुर्घटना से बचाना है । लाल बत्ती में लाल रंग पुलिस द्वारा ट्रेफिक में प्रयुक्त होता है । फायर ब्रिगेड, डाक गाड़ी, एम्बुलैन्स, इंजन आदि सभी लाल रंग में होते हैं । रेडक्रॉस लाल रंग का होता है। भारत में व्यापारी बहीखाता लाल रंग का रखते हैं ताकि किसी प्रकार का नुकसान न हो ।
लाल रंग मुख्यतः ताकत प्रदान करता है । यह दुर्घटना से बचाव व खतरे के बारे में बताता है । इसी कारण पूरे संसार में लाल रंग की महत्ता अत्यधिक है तथा इसे दुर्घटना से बचाव, झगड़ा रोकना, आग बुझाना एवं कानून व्यवस्था बनाए रखने व बुरी नजर से बचाने के लिए प्रयुक्त किया जाता है ।
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लाल रंग सूर्य के द्वारा संचालित होता है। सूर्य राजा है। जिनका सूर्य तेज होता है वे उच्च पदाधिकारी आदि बनते हैं । वे साहसी, क्रियाशील तथा आशावादी होते हैं ।
लाल रंग की कमी के कारण शरीर में कई तरह की बीमारियाँ हो जाती हैं, जैसे- मानसिक रोग, कम दिखना, ऐनेमिक, सिर दर्द आदि । सर्दियों में लाल रंग के कपड़े शरीर को गर्म रखने में सहायक होते हैं । अस्पतालों में अधिकतर लाल कम्बल रोगी को इसलिए दिया जाता है ताकि मरीज जल्दी ठीक हो ।
लाल रंग की अधिकता भी नुकसानदायक है। जैसे - आँखों की बीमारी, जलन, फोड़ा आदि हो जाते हैं तब ठण्डे रत्न, चन्द्रकान्त मणि, नीलम, पुखराज आदि में से एक या दो पत्थरों के प्रयोग से रोगी ठीक हो जाते हैं
बैंगनी रंग (संचालक - शनि)
यह रंग वायु तत्त्व है। यह रंग व्यक्ति को मेहनती, सुरक्षात्मक, धैर्यपूर्वक कार्य करना, मितव्ययी, स्थिरता, आत्म-नियन्त्रण आदि प्रदान करता है । यह रंग ठण्डा भी होता है। अतः व्यक्ति भी ठण्डा करके कोई भी चीज खाना या ठण्डी वस्तुओं को पसन्द करता है । यह रंग अध्यात्म के क्षेत्र व शोध के क्षेत्र में बढ़ावा देता है ।
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★ रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान * बैंगनी रंग की कमी से हमारे शरीर में लकवा, बहरापन, साईटिक, जोड़ों का दर्द, पागलपन, मिरगी, उल्टी, सिरदर्द आदि हो जाते हैं। ल्यूकोड्रमा के निवारण के लिए बैंगनी रंग का नीलम सहायक है।
बैंगनी रंग वायु तत्त्व है और वायु का संचालक शनि । स्वाभाविक है कि आवागमन का मालिक भी शनि है। अत: सड़क दुर्घटनाएँ व मौत का जिम्मेदार बैंगनी रंग उर्फ शनि है।
हरा रंग (संचालक-बुध) हरा रंग पृथ्वी तत्त्व से सम्बन्धित है। यह बसन्त ऋतु का प्रतीक है। नए जीवन को प्रदान करता है। जीने के नए आयाम तैयार करता है। खुशियाँ, जिन्दादिली प्रदान करता है। निराशा में आशा लाता है। हरे रंग से प्रभावित जातक कुछ न कुछ नयापन चाहते हैं। लापरवाह, अविश्वसनीय, मेहनती होते हैं । समय की ताक में रहते हैं । हरा रंग मानसिक स्तर के बारे में बताता है तथा दिमाग पर नियन्त्रण रखता है। हरा रंग 'आगे बढ़ो' का संकेत है। इसलिए ट्रैफिक में हरा रंग 'चलते रहो' को दर्शाता है।
हरे रंग की कमी से शरीर में गैस, दस्त, पेप्टिक अल्सर, अस्थमा, हृदय रोग आदि हो जाते हैं। हरा रंग बुद्धि, व्यापार चातुर्य को बढ़ावा देता है।
आसमानी रंग (संचालक-गुरु) यह आकाश का रंग है। यह रंग-प्रेम, संगीत, धर्म, दया व शान्ति का प्रतीक है। इसका संचालक बृहस्पति वैवाहिक जीवन की सुख-समृद्धि के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है। यह ठण्डा रंग है। यदि आपका बेडरूम आसमानी हो तो नींद गहरी व अच्छी आएगी। पागल व्यक्ति को नियन्त्रित करने के लिए आसमानी रंग की जरूरत होती है। हिस्टीरिया से पीड़ित औरतों के निवारण के लिए आसमानी रंग बहुत महत्त्वपूर्ण है। मिरगी के दौरे वाले मरीजों के लिए आसमानी रंग चिकित्सा अति उपयोगी होती है। गर्मियों में आसमानी रंग के कपड़े पहनने से शरीर में ज्यादा गर्मी नहीं बढ़ती।
आसमानी रंग ग्लैण्ड्स, मोटापा, सिद्धान्तों पर नियन्त्रण रखता है।
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* रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान * चन्द्रकान्त मणी, टोपाज, पुखराज आदि शरीर के अन्दर आसमानी रंग पहुँचाने के सीधे व सरल तरीके हैं। आसमानी रंग की कमी के कारण-गले का रोग, टाइफाईड, हैजा, प्लेग, हिस्टीरिया, पीलिया, दस्त, दाँत का दर्द, टान्सिल्स आदि हो जाते हैं।
पीला रंग (संचालक-मंगल) यह रंग अग्नि का तत्त्व है तथा शरीर में गर्मी को बराबर बनाए रखता है। इसका रत्न मूंगा है और स्वामी मंगल है। यह विलक्षणता का प्रतीक है। पीला रंग वैज्ञानिक मानसिकता का द्योतक है। यह सम्पत्ति तथा सुखद वैवाहिक जीवन देता है।
___ मूंगा पहनने से व्यक्ति के अन्दर की हीनभावना समाप्त हो जाती है। प्रजनन के समय मूंगा पहनने से किसी प्रकार की बुरी नजर का डर नहीं रहता तथा प्रसव में कष्ट कम होता है।
यह रंग व्यक्ति को साहसी, अभिलाषी बनाता है। पीले रंग की कमी के कारण पेट में दर्द, किडनी में दर्द, पीलिया, रक्त-विकार, प्लूरीसी, निराशा आदि बीमारियाँ हो जाती हैं।
नारंगी रंग (संचालक-चन्द्र) यह रंग जल तत्त्व है। यह विवाह के देवता का रंग है; इसीलिए शादी के समय भारत में केसरिया/नारंगी रंग के कपड़े पहने जाते हैं। यह रंग उच्च अभिलाषा का प्रतीक है। इसका रत्न मोती है। यह प्रिज्मीय रंग नारंगी है। चन्द्र जन्म से लेकर सात साल तक तो पूरी तरह मानव-शरीर पर नियन्त्रण रखता है। अतः बच्चे की हर क्रिया-कलाप में चन्द्र का हाथ होता है।
सूर्य मानव-शरीर में जान देता है तो चन्द्र मानव-शरीर में ऊर्जा संचारित करता है। नारंगी रंग मनुष्य को मीठा स्वभाव, धैर्यवान, सहनशील, बहस से दूर, दयालु बनाते हैं। जीवन में उतार-चढ़ाव भी देखने पड़ते हैं।
नारंगी रंग ठण्डा होता है। अतः सीधा व सरल तरीका मोती पहनाने से गर्मी से पैदा हुए कष्ट निवारण में सहायक है, जैसे-हृदय रोग आदि। नारंगी
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* रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान * रंग की कमी से बुखार, कफ, खांसी, जुकाम, मानसिक विकृति, लीवर, पेशाब में गड़बड़ी, दस्त आदि हो जाते हैं।
नारंगी रंग को ब्रोन्काइटिस (साँस उठना) गीला कफ, जुकाम, बुखार, गाल ब्लेडर स्टोन, किडनी, स्त्रियों के मासिक धर्म की गड़बड़ी में कष्ट निवारक माना गया है।
नीला रंग (संचालक-शुक्र) यह रंग जल तत्त्व है। इसका रत्न हीरा है। इस रंग की कमी के कारण गुप्तांगों में तकलीफ, नपुंसकता, मधुमेह, स्त्रियोचित रोग, चर्म रोग, प्रजनन अंगों में बीमारियाँ आदि हो जाती हैं।
यह रंग व्यक्ति में संगीत व कला के प्रति रुचि पैदा करता है। यह रंग शक्ति प्रदान करता है तथा जातक भी शान्ति की चाह अधिक रखता है। इस रंग की अधिकता वाले मित्रवत्, समझौतावादी, सामाजिक होते हैं।
इस रंग की अधिकता वाली वस्तुएँ सुन्दर होती हैं। आँखों को भली लगती हैं क्योंकि यह शुक्र नियन्त्रित रंग है।
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अनिष्ट ग्रहों की शान्ति के लिए रत्न एवं उपत्न
शुभ ग्रहों के प्रभाव में वृद्धि और अनिष्ट ग्रहों के कुप्रभाव के निवारण हेतु उपयुक्त ग्रह रत्न (नग) धारण करना अत्यन्त लाभदायक सिद्ध होते हैं। अपनी जन्म कुण्डली में स्थित ग्रहों की स्थिति एवं अपनी राशि के अनुसार ही उपयुक्त रत्न (नग) का चयन करना चाहिए, अन्यथा कई बार लाभ की अपेक्षा गलत नग धारण करने से हानि की सम्भावना हो जाती है। धारण करने की विधि, उपयोगादि का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है
सूर्य-रत्न माणिक्य (Ruby) संस्कृत में इसे माणिक्य, पद्मराग, हिन्दी में माणक, मानिक, अंग्रेजी में रुबी कहते हैं सूर्य रत्न होने इस ग्रह रत्न का अधिष्ठाता सूर्यदेव हैं।
पहचान विधि१. असली माणिक्य लाल सुर्ख वर्ण का पारदर्शी, स्निग्ध, कान्तियुक्त __ और कुछ भारीपन वजन लिए होते हैं अर्थात् हथेली में रखने से हल्की उष्णता एवं सामान्य से कुछ अधिक वजन का अनुभव
होता है। २. काँच के पात्र में रखने से इसकी हल्की लाल किरणें चारों ओर
से निकलती दिखाई देंगी। ३. गाय के दूध में असली माणिक्य रखा जाए तो दूध का रंग गुलाबी
दिखलाई देगा। धारण विधि-माणिक्य रत्न रविवार को सूर्य की होरा में, कृतिका, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा नक्षत्रों, रविपुष्य योग में सोने अथवा ताँबे की
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* रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान *
४१ अँगूठी में जड़वाकर तथा सूर्य के बीजमन्त्रों द्वारा अँगूठी अभिमन्त्रित करके अनामिका अँगुली में धारण करना चाहिए। इसका वजन ३, ५ अथवा ९ रत्ती के क्रम से होना चाहिए।
सूर्य बीज मन्त्र-ओं, हां, ह्रीं, ह्रौं सः सूर्याय नमः।
धारण करने के पश्चात् गायत्री मन्त्र की तीन माला का पाठ; हवन एवं सूर्य भगवान को विधिपूर्वक अर्घ्य प्रदान करना तथा ताम्र बर्तन, कनक, नारियल, मानक, गुड़, लाल वस्त्रादि सूर्य से सम्बन्धित वस्तुओं का दान करना चाहिए।
विधिपूर्वक माणिक्य धारण करने से राजकीय क्षेत्रों में प्रतिष्ठा, भाग्योन्नति, पुत्र सन्तान लाभ, तेजबल में वृद्धिकारक तथा हृदय रोग, चक्षुरोग, रक्त विकार, शरीर दौर्बल्यादि में लाभकारी होता है।
मेष, कर्क, सिंह, तुला, वृश्चिक एवं धनु राशि अथवा इसी लग्न वालों को मानक धारण करना शुभ लाभप्रद करता है अथवा जिनकी चन्द्र कुण्डली में सूर्य योगकारक होता हुआ भी प्रभावी न हो रहा हो, उन्हें भी माणिक्य धारण शुभ रहता है।
चन्द्र-रत्न मोती (Pearl) चन्द्र-रत्न मोती को संस्कृत में मौक्तिक, चन्द्रमणि इत्यादि, हिन्दीपंजाबी में मोती एवं अंग्रेजी में पर्ल (Pearl) कहा जाता है। मोती या मुक्ता रत्न का स्वामी चन्द्रमा है।
पहचान-शुद्ध एवं श्रेष्ठ मोती गोल, श्वेत, चिकना, चन्द्रमा के समान कान्तियुक्त, निर्मल एवं हल्कापन लिए होता है।
परीक्षा१. गोमूत्र को किसी मिट्टी के बर्तन में डालकर उसमें मोती रातभर
रखें, यदि वह अखण्डित रहे तो मोती को शुद्ध (सुच्चा) समझें। २. पानी से भरे शीशे के गिलास में मोती डाल दें यदि पानी से
किरणें सी निकलती दिखलाई पड़े, तो मोती असली जानें । सुच्चा मोती के अभाव में चन्द्रकान्त मणि अथवा सफेद पुखराज धारण
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४२
* रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान * किया जा सकता है।
असली शुद्ध मोती धारण करने से मानसिक शक्ति का विकास, शारीरिक सौन्दर्य की वृद्धि, स्त्री एवं धनादि सुखों की प्राप्ति होती हैं। इसका प्रयोग स्मरण शक्ति में भी वृद्धिकारक होता है।
रोग शान्ति-चिकित्सा शास्त्र में भी मोती या मुक्ता भस्म का उपयोग मानसिक रोगों, मूर्छा-मिरगी, उन्माद, रक्तचाप, उदर-विकार, पथरी, दन्तरोगादि
में।
__धारण विधि-मोती चाँदी की अंगूठी में शुक्ल पक्ष के सोमवार को पूर्णिमा के दिन, चन्द्रमा की होरा में गंगा जल, कच्चा दूध व पाण्डुलादि में डुबोते हुए 'ओं श्रां श्रीं श्रौं सः चन्द्रमसे नमः' के बीज मन्त्र का पाठ ११,००० की संख्या में करने के पश्चात् धारण करना चाहिए। तदुपरान्त चावल, चीनी, क्षीर, श्वेत फल एवं वस्त्रादि का दान करना शुभ होगा।
__ मोती २, ४, ६ अथवा ११ रति का अनामिका या कनिष्ठका अंगुली में हस्त, रोहिणी अथवा श्रवण नक्षत्र में सुयोग्य ज्योतिषी द्वारा बताए गए मुहूर्त में धारण करना चाहिए। मेष, वृष, मिथुन, कर्क, कन्या, तुला, वृश्चिक, मीन राशि/लग्न वालों को मोती शुभ रहता है।
चन्द्रमा का उपरल : चन्द्रकान्त मणि (Moon Light Stone)यह उपरत्न चाँदनी जैसे चमक लिए हुए चन्द्रमा का 'उपरत्न' (मोती का पूरक) माना जाता है। इसको हिलाने से, इस पर एक दूधिया जैसी प्रकाश रेखा चमकती है। यह रत्न भी मानसिक शान्ति, प्रेरणा, स्मरण शक्ति में वृद्धि तथा प्रेम में सफलता प्रदान करता है। लाभ की दृष्टि से चन्द्रकान्त मणि मलाई के रंग का (सफेद और पीले के बीच का) उत्तम माना जाता है। इसे चाँदी में ही धारण करना चाहिए।
मंगल-रत्न मूंगा (Coral) इस संस्कृत में अंगारकमणि तथा अंग्रेजी में कोरल (Coral) कहते हैं।
गोल, चिकना, चमकदार एवं औसत से अधिक वजनी, सिन्दूरी से मिलते-जुलते रंग का मूंगा श्रेष्ठ माना जाता है। इसका स्वामी ग्रह मंगल है।
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★ रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान ★
परीक्षा
१. असली मूँगे को खून में डाल दिया जाए तो उसके चारों ओर गाढ़ा रक्त जमा होने लगता है ।
४३
२. असली मूँगा यदि गौ के दूध में डाल दिया जाए तो उसमें लाल रंग की झाई सी दीखने लगती है ।
श्रेष्ठ जाति का मूँगा धारण करने से भूमि, पुत्र एवं भ्रातृ सुख, नीरोगता आदि की प्राप्ति होती है। इसके अतिरिक्त रक्त विकार, भूत-प्रेत बाधा, दुर्बलता, मन्दाग्नि, हृदय रोग, वायु-कफादि विकार, पेट विकारादि में मूँगे की भस्म अथवा मिट्टी का प्रयोग किया जाता है । मेष, कर्क, सिंह, तुला, वृश्चिक, मकर, कुम्भ व मीन राशि एवं लग्न वालों को सुयोग्य ज्योतिषी के परामर्शानुसार धारण करना लाभप्रद होगा ।
धारण विधि - शुक्ल पक्ष के मंगलवार को प्रातः मंगल की होरा में मृगशिरा, चित्रा या धनिष्ठा नक्षत्र में सोने या तांबे के अंगूठी में जड़वाकर, बीज मन्त्र द्वारा अभिमन्त्रित करके अनामिका अंगुली में ६, ८, १० या १२ रत्ती के वजन में धारण करना कल्याणकर होता है। धारणोपरान्त मंगल स्तोत्र एवं मंगल ग्रह का दान करना शुभ होता है ।
?
भौम बीज मन्त्र - ॐ क्रां क्रीं, क्रौं सः भौमाय नमः । शारीरिक स्वास्थ्य एवं कुण्डली में मंगल नीच राशिस्थ हो तो सफेद मूँगा भी धारण किया जाता है ।
बुध-रत्न पन्ना (Emerald)
'पन्ना' बुध ग्रह का मुख्य रत्न है । संस्कृत में मरकतमणि, फारसी में जमरूद व अंग्रेजी में इमराल्ड (Emerald) । पन्ना रत्न हरे रंग, स्वच्छ, पारदर्शी, कोमल, चिकना व चमकदार होता है ।
परीक्षा
१. शीशे के गिलास में साफ पानी और पन्ना डाल दिया जाए तो हरी किरणें निकलती दिखाई देंगी।
२. शुद्ध पन्ने को हाथ में लेने पर वह हल्का, कोमल व आँखों को
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★ रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान ★ शीतलता प्रदान करता है। गुण-'पन्ना' धारण करने से बुद्धि तीव्र एवं स्मरण शक्ति बढ़ती है। विद्या, बुद्धि, धन एवं व्यापार में वृद्धि के लिए लाभप्रद माना जाता है। पन्ना सुख एवं आरोग्यकारक भी है। यह रत्न जादू-टोने, रक्त विकार, पथरी, बहुमूत्र, नेत्र रोग, दमा, गुर्दे के विकार, पाण्डु, मानसिक विकलतादि रोगों में लाभकारी माना जाता है।
धारण विधि-यह नग शुक्ल पक्ष के बुधवार को आश्लेषा, ज्येष्ठा, रेवती, पू.फा., अथवा पुष्य नक्षत्रों में अथवा बुध की होरा में सोने की अंगूठी में दाएँ हाथ की कनिष्ठिका (छोटी) अंगुली में बुध ग्रह के बीज मन्त्र से अभिमन्त्रित करते हुए धारण करना चाहिए। इसका वजन ३, ६, ७ रत्ती होना चाहिए।
बुध बीज मन्त्र-ओं ब्रां ब्रीं ब्रौं सः बुधाय नमः।
वृष, मिथुन, सिंह, कन्या, मकर व मीन राशि वालों को विशेष लाभप्रद रहता है।
गुरु-रत्न पुखराज (Topaz) पुखराज गुरु (बृहस्पति) ग्रह का मुख्य रत्न है। संस्कृत में इसे पुष्प राजा, हिन्दी में पुखराज व अंग्रेजी में टोपाज (Topaz) कहते हैं।
पहचान विधि-जो पुखराज स्पर्श में चिकना, हाथ में लेने पर कुछ भारी लगे, पारदर्शी, प्राकृतिक चमक से युक्त हो वह उत्तम कोटि का माना जाता है।
परीक्षा१. जहाँ किसी विषैले कीड़े ने काटा हो, वहाँ पर असली पुखराज
घिस कर लगाने से विष उतर जाता है। २. चौबीस घण्टे कच्चे दूध में रखने के बाद यदि चमक में अन्तर न
पड़े तो पुखराज असली होगा। इत्यादि। गुण-पुखराज धारण करने से बल, बुद्धि, स्वास्थ्य एवं आयु की वृद्धि होती है। वैवाहिक सुख, पुत्र सन्तान कारक एवं धर्म-कर्म में प्रेरक
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★ रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान ★ होता है। प्रेत-बाधा का निवारण एवं स्त्री के विवाह सुख की बाधा को दूर करने में सहायक होता है।
औषधि प्रयोग-इसको वैद्य के परामर्शानुसार केवड़ा एवं शहदादि के साथ देने से पीलिया, तिल्ली, पाण्डु रोग, खांसी, दन्त रोग, मुख की दुर्गन्ध, बवासीर, मन्दाग्नि, पित्त, ज्वरादि में लाभदायक होता है।
धारण विधि-पुखराज रत्न ३, ५, ७, ९ या १२ रत्ती के वजन का सोने की अंगूठी में जड़वा कर तर्जनी अंगुली में धारण करें, सुवर्ण या ताम्र बर्तन में कच्चा दूध, गंगा जल, पीले पुष्पों से एवं "ॐ ऐं क्लीं बृहस्पतये नमः" के बीज मन्त्र द्वारा अभिमन्त्रित करके धारण करना चाहिए। मन्त्र जप संख्या १९,०००।
___ यह नग शुक्ल पक्ष के गुरुवार की होरा में अथवा गुरुपुष्य योग में या पुनर्वसु, विशाखा, पूर्वाभाद्रपद नक्षत्र में धारण करना चाहिए।
पुखराज धनु, मीन राशि के अतिरिक्त मेष, कर्क, वृश्चिक राशि वालों को लाभप्रद रहता है। धारण करने के पश्चात् गुरु से सम्बन्धित वस्तुओं का दान करना शुभ होता है।
गुरु का उपरत्न सुनैला—इसे पुखराज का उपरत्न माना जाता है। पुखराज मूल्यवान होने के कारण सुनैला को उसके पूरक के रूप में धारण किया जा सकता है। श्रेष्ठ सुनैला हल्के पीले रंग (सरसों के जैसा पीलापन) का होता है। कई बार पुखराज से अधिक पीलापन लिए होता है तथा आंशिक मात्रा में पुखराज के समान ही उपयोगी होता है। धारण विधि पुखराज के समान ही होगी।
शुक्र-रत्न हीरा (Diamond) शुक्र ग्रह का मुख्य प्रतिनिधित्व 'हीरा' है। संस्कृत में इसे वज्रमणि, हिन्दी में हीरा तथा अंग्रेजी में डायमण्ड (Diamond) कहते हैं। हीरा अत्यन्त चमकदार प्रायः श्वेत वर्ण का होता है।
___ पहचान-अत्यन्त चमकदार, चिकना, कठोर, पारदर्शी एवं किरणों से युक्त हीरा असली होता है।
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* रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान *
परीक्षा
१. धूप में यदि हीरा रख दिया जाए तो उसमें से इन्द्रधनुष जैसी
किरणें दिखाई देती हैं। २. तोतले बच्चे के मुँह में रखने से बच्चा ठीक से बोलने लगता है। ३. अन्धेरे में जुगनू की भान्ति चमकता है।
गुण-हीरे में वशीकरण करने की विशेष शक्ति होती है। इसके पहनने से वंश-वृद्धि, धन-लक्ष्मी व सम्पत्ति की वृद्धि, स्त्री एवं सन्तान सुख की प्राप्ति व स्वास्थ्य में लाभ होता है। वैवाहिक सुख में भी वृद्धिकारक माना जाता है।
औषधीय गुण-हीरे की भस्म शहद-मलाई आदि के साथ ग्रहण करने से अनेक रोगों में लाभ होता है जैसे-दौर्बल्यता, नपुंसकता, वायु प्रकोप, मन्दाग्नि, वीर्य विकार, प्रमेह दोष, हृदय रोग, श्वेत प्रदर, विषैला व्रण, बच्चों में सूखा रोग, मानसिक कमजोरी इत्यादि।
__ धारण विधि-शुक्ल पक्ष के शुक्रवार वाले दिन, शुक्र की होरा में, भरणी, पुष्य, पूर्वाफाल्गुनी, पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र, एक रत्ती या उससे अधिक वजन का हीरा सोने की अंगूठी में जड़वा कर शुक्र के बीज मन्त्र “ॐ द्रां, द्रीं, द्रौं सः शुकाय नमः" का १६,००० की संख्या में जाप करके शुभ मुहूर्त में धारण करना चाहिए। हीरा मध्यमा अंगुली में धारण करना चाहिए। धारण करने के दिन शुक्र ग्रह से सम्बन्धित वस्तुएँ जैसे दूध, चांदी, दही, मिश्री, चावल, श्वेत वस्त्र, चन्दनादि का दान यथाशक्ति करना चाहिए।
हीरा (धारण करने की तिथि से) सात वर्ष पर्यन्त प्रभावकारी बना रहता है। हीरा वृष, मिथुन, कन्या, तुला, मकर, कुम्भ राशि वालों को लाभदायक रहता है।
शुक्र के उपरत्न फिरोजा-नीले आकाशीय रंग जैसा यह नग शुक्र का उपरत्न माना जाता है। यह रत्न भूत, प्रेत, दैवी आपदा तथा आने वाले कष्टों से धारक की रक्षा करता है। यदि इस रत्न को कोई भेंटस्वरूप प्राप्त करके पहनेगा तो अधिक प्रभावशाली रहेगा। हल्के-प्रखर चमकदार रंग वाला रत्न उत्तम होता
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★ रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान * है। कोई भी कष्ट या रोग आने से पहले यह रत्न अपना रंग बदल लेता है। नेत्र रोग, सौन्दर्य, सिर दर्द, विषादि रोगों में विशेष लाभकारी रहता है।
ओपल (Opal)- यह भी शुक्र का अन्य उपरत्न है, इसको धारण करने से सदाचार, सदचिन्तन तथा धार्मिक कार्यों की ओर रुचि रहती है।
शनि-रत्न नीलम (Sapphire) नीलम शनि ग्रह का मुख्य रत्न है। हिन्दी में नीलम तथा अंग्रेजी में सैफायर (Saphire) कहते हैं।
पहचान-असली नीलम चमकीला, चिकना, मोरपंख के समान वर्ण जैसा, नीली किरणों से युक्त एवं पारदर्शी होगा।
परीक्षा१. असली नीलम को गाय के दूध में डाल दिया जाए तो दूध का रंग
नीला लगता है। २. पानी से भरे कांच के गिलास में डाला जाए नीली किरणें दिखाई
देंगी। ३. सूर्य की धूप में रखने से नीले रंग की किरणें दिखाई देंगी।
गुण-नीलम धारण करने से धन-धान्य, यश-कीर्ति, बुद्धि चातुर्य, नौकरी, व्यवसाय तथा वंश में वृद्धि होती है। स्वास्थ्य सुख का लाभ होता है।
ध्यान रहे, बहुधा नीलम चौबीस घण्टे के भीतर ही प्रभाव करना शुरू कर देता है। यदि नीलम अनुकूल न बैठे तो भारी नुकसान की आशंका हो जाती है। अतएव परीक्षा के तौर पर कम से कम ३ दिन तक पास रखने पर यदि बुरे स्वप्न आएँ, रोग-उत्पन्न हो या चेहरे की बनावट में अन्तर आ जाए तो नीलम मत पहनें।
रोग शान्ति-नीलम धारण करने या औषधि रूप में ग्रहण करने से दमा, क्षय, कुष्ट रोग, हृदय रोग, अजीर्ण, मूत्राशय सम्बन्धी रोगों में लाभकारी है।
धारण विधि-नीलम ५, ७, ९, १२ अथवा अधिक रत्ती के वजन का, पंचधातु, लोहे अथवा सोने की अंगूठी में शनिवार को शनि की होरा में
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* रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान * एवं पुष्य, उभा, चित्रा, स्वाति, धनिष्ठा या शतभिषा नक्षत्रों में शनि के बीज मन्त्र “ॐ प्रां. प्री. प्रौं. सः शनये नमः" मन्त्र से २३,००० की संख्या में अभिमन्त्रित करके धारण करें। तत्पश्चात् शनि की वस्तुओं का दान दक्षिणा सहित करना कल्याणकारी होगा।
राहु-रत्न गोमेद (Zircon) राहु रत्न गोमेद को संस्कृत में गोमेदक, अंग्रेजी झिरकन (Zircon) कहते हैं । गोमेद का रंग गोमूत्र के समान हल्के पीले रंग का, कुछ लालिमा तथा श्यामवर्ण होता है। स्वच्छ, भारी, चिकना गोमेद उत्तम होता है तथा उसमें शहद के रंग की झांई भी दिखाई देती है।
पहचान विधि-सामान्यतः गोमेद उल्ल अथवा बाज की आँख के समान होता है तथा गोमूत्र के समान, दल रहित अर्थात् जो परतदार न हों, ऐसे गोमेद उत्तम होंगे। शुद्ध गोमेद को २४ घण्टे तक गोमूत्र में रखने से गोमूत्र का रंग बदल जाएगा।
धारण विधि-गोमेद रत्न शनिवार को शनि की होरा में, स्वाती, शतभिषा, आर्द्रा अथवा रविपुष्य योग में पंचधातु अथवा लोहे की अंगूठी में जड़वाकर तथा राहु में बीज मन्त्रों द्वारा अंगूठी अभिमन्त्रित करके दाएँ हाथ की मध्यमा अंगुली में धारण करना चाहिए। इसका वजन ५, ७, ९ रत्ती का होना चाहिए।
राहु बीज मन्त्र- 'ॐ भ्रां भ्रीं, ध्रौं सः राहवे नमः"।
धारण करने के पश्चात् बीजमन्त्र का पाठ हवन एवं सूर्य भगवान् को अर्घ्य प्रदान कर नीले रंग का वस्त्र, कम्बल, तिल, बाजरा आदि दक्षिणा सहित दान करें।
विधिपूर्वक गोमेद धारण करने से अनेक की बीमारियाँ नष्ट होती हैं, धन-सम्पत्ति, सुख, सन्तान वृद्धि, वकालत व राजपक्ष आदि की उन्नति के लिए अत्यन्त लाभकारी है। शत्रु-नाश हेतु भी इसका प्रयोग प्रभावी होता है।
जिनकी जन्म कुण्डली में राहु १, ४, ७, ९, १०वें भाव में हो, उन्हें गोमेद रत्न पहनना चाहिए। मकर लग्न वालों के लिए गोमेद शुभ होता है।
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* रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान * केतु-रत्न लहसुनिया (Cat's Eye Stone)
केतु-रत्न लहसनिया को संस्कृत में वैदूर्य, हिन्दी में लहसुनिया, अंग्रेजी में (Cat's Eye Stone) कहते हैं। यह नग अंधेरे में बिल्ली की आँखों के समान चमकता है। लहसुनिया ४ रंगों में पाया जाता है। काली तथा श्वेत आभा युक्त लहसुनिया जिस पर यज्ञोपवीत के समान तीन धारियाँ खिंची हों, वह वैदूर्य ही उत्तम होता है।
पहचान१. असली लहसुनिया को यदि हड्डी के ऊपर रख दिया जाए तो
वह २४ घण्टे के भीतर हड्डी के आर-पार छेद कर देता है। २. असली वैदूर्य में ढाई या तीन सफेद सूत्र होते हैं, जो बीच में
इधर-उधर घूमते हिलते रहते हैं।
धारण विधि-लहसुनिया रत्न बुधवार के दिन अश्विनी, मघा, मूल नक्षत्रों में रविपुष्य योग में पंचधातु की अंगूठी में कनिष्ठका अंगुली में धारण करें। धारण करने से पूर्व केतु के बीज मन्त्र द्वारा अंगूठी अभिमन्त्रित करें। ५ रत्ती से कम वजन का नहीं होना चाहिए। प्रत्येक ३ वर्ष पश्चात् नई अंगूठी में लहसुनिया जड़वाकर उसे अभिमन्त्रित कर धारण करना चाहिए।
केतु बीज मन्त्र-"ॐ त्रां स्त्री स्त्रौं सः केतवे नमः"।
रत्न धारण करने के पश्चात् बुधवार को ही किसी श्रेष्ठ ब्राह्मण को तिल, तेल, कम्बल, धूर्मवर्ण का वस्त्र, सप्तधान्य (अलग-अलग रूप में) यथाशक्ति दक्षिणा सहित दान करें।
विधिपूर्वक लहसुनिया धारण करने से भूत प्रेतादि की बाधा नहीं रहती है। सन्तान सुख, धन की वृद्धि एवं शत्रु व रोग नाश में सहायता प्रदान करता है।
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रत्नों को धारण करने का वैदिक सिद्धांत
सूर्य रत्न 'माणिक्य' की धारण विधि
माणिक्य धारण करने के लिए ३ रत्ती से अधिक वजन के माणिक्य को ५ रत्ती से अधिक वजन वाली ताँबे मिश्रित स्वर्ण की अंगूठी में जड़वाना चाहिए। जो सोने की अंगूठी बनवाने में समर्थ न हों उन्हें ताँबें की ही अंगूठी बनवानी चाहिए। क्योंकि सूर्य का प्रतिनिधि धातु ताँबा ही है। माणिक्य के अभाव में लालड़ी आदि किसी अन्य उपरत्न को जड़वाना चाहिए। अंगूठी का मध्य भाग छिद्रयुक्त होना चाहिए। जिससे रत्न का निचला भाग उँगली की त्वचा से स्पर्श करता रहे । दायें हाथ की अनामिका उँगली को सूर्य की उँगली मानते हैं।
अंगूठी रविवार के दिन पुष्य नक्षत्र या कृतिका, उत्तरा फाल्गुनी एवं उत्तराषाढ़ नक्षत्र में दिन में प्रात: नौ बजे से बारह बजे के मध्य अँगूठी तैयार करानी चाहिए। अँगूठी तैयार हो जाने पर उसी दिन उपरोक्त नक्षत्र में ही अथवा अन्य किसी रविवार को पुष्य कृतिका, उत्तरा फाल्गुनी या उत्तराषाढ़ नक्षत्र में प्रातः नौ बजे से बारह बजे के मध्य रत्न जड़ित अंगूठी को यथाविधि पूजन करने के पश्चात् ही धारण करना चाहिये।
पूजन विधि-पाँच तोले चाँदी का एक सूर्यासन बनवाते हैं तथा सवा दो ग्राम वजन के सोने की सूर्य की प्रतिमा बनवाते हैं। मूर्ति को आसन में प्रतिष्ठित कर उसके पास ही रत्न जड़ित अंगूठी को रखते हैं, तत्पश्चात् सूर्य की प्रतिमा व अंगूठी को षोडशोपचार पूजन कर सूर्य के मन्त्र द्वारा अँगूठी को अभिमन्त्रित करते हैं।
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★ रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान ★
सूर्य मन्त्र - ॐ श्री कृष्णेन रजसा वर्तमानो निवेशयन्न मतम्मर्त्यञ्चहिरण्येन सविता रक्षेना देवीयाति भुवनानि पश्यन् ॥ श्री सूर्याय नमः ॥
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तत्पश्चात् अँगूठी के रत्न में सूर्य की प्राण-प्रतिष्ठा सुयोग्य कर्मकाण्डी विद्वान् द्वारा करानी चाहिये । पूजन प्राण-प्रतिष्ठा, हवन आदि कर्म समाप्त होने के बाद ब्राह्मण “ ॐ ह्रीं हं सः सूर्याय नमः स्वाहा " मंत्र द्वारा अँगूठी व यजमान को अभिषिक्त कर यजमान के दायें हाथ की अनामिका अँगुली में अँगूठी को पहना दें।
५१.
तत्पश्चात् यजमान सूर्यासन, सूर्य की मूर्ति तथा माणिक्य या इसके उपरत्न का एक छोटा सा नग यथाशक्ति दक्षिणा के साथ उस कर्मकाण्डी ब्राह्मण को दान देना चाहिये । जो व्यक्ति चाँदी का सूर्यासन व सूर्य की मूर्ति की प्रतिमा बनवाने में असमर्थ हों उन्हें चाहिये रत्न जड़ित अँगूठी शुक्लपक्ष के किसी रविवार के दिन सूर्योदय के समय धारण करें। धारण करने से पूर्व अँगूठी को कच्चे दूध या गंगा जल में डूबोकर रखना चाहिये। तत्पश्चात शुद्ध जल से स्नान कर पुष्प, चन्दन और धूपबत्ती से पूजन कर निम्न मन्त्र का सात हजार बार (७,००० बार जाप करना चाहिये ।
मन्त्र - ॐ घृणिः सूर्याय नमः ।
फिर इस अँगूठी को दाहिने हाथ की अनामिका अंगूली में पहनना चाहिये ।
उपरोक्त विधि से धारण की गई सूर्य रत्न जड़ित अँगूठी सूर्य के द्वारा उत्पन्न अनिष्ट प्रभाव को नष्ट कर मनोकामना को पूर्ण करती है तथा सुख सम्पत्ति आदि की वृद्धि होती है।
चन्द्र रत्न 'मोती' की धारण विधि
मोती ४ रत्ती का होना चाहिये तथा उसे २, ४, ६, या ११ रत्ती के वजन वाली चाँदी की अँगूठी में जड़वाना चाहिये। मोती को चाँदी के अतिरिक्त अन्य किसी भी धातु में नहीं जड़वाना चाहिये । अँगूठी को बायें हाथ की तर्जनी या कनिष्ठिका अँगुली में पहननी चाहिये तथा अँगूठी में मोती इस
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★ रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान ★
प्रकार जड़ा हो कि मोती का निचला भाग अँगुली की त्वचा को स्पर्श करता
रहे ।
अँगूठी सूर्योदय से दस बजे तक के बीच में रविवार या बृहस्पतिवार को बनवानी चाहिये । बन जाने पर जिस सोमवार को श्रवण नक्षत्र, रोहिणी, पुष्य, हस्त अथवा श्रवण नक्षत्र पड़ता हो उस दिन सुबह १० बजे के बाद निम्न विधि के अनुसार अँगूठी का पूजन व प्राण-प्रतिष्ठा करनी चाहिये ।
अँगूठी की प्राण-प्रतिष्ठा के लिये ४ तोला या ७ रत्ती के चाँदी का चन्द्रासन बनवाकर अँगूठी को उस पर रखे तथा समीप ही पहले से बना हुआ चाँदी का चन्द्र यन्त्र भी रखें। फिर शोडषोपचार विधि द्वारा अँगूठी का विधिवत् पूजन करें। इसके बाद चन्द्र यन्त्र से उसे अभिषिक्त करके "ॐ सौं सोमाय नमः” मन्त्रोच्चारण करते हुये घी, प्रियगुं, तिल तथा गुग्गुल की ७०० आहुति देकर हवन करना चाहिये । तत्पश्चात् चन्द्र मन्त्र " ॐ इमं देवा असपत्न सुबध्वं महते क्षेत्राय ज्येष्ठयाय महतेजान राजया येन्ये द्रन्द्रियाय इमममुष्यं पुत्रमस्यव्विशऽएव वोऽभिः राजा सोमो ऽस्माकं ब्राह्मणाना राजा " । " श्री चन्द्राय नमः " का उच्चारण करते हुये अँगूठी के मोती में चन्द्रमा की प्राण-प्रतिष्ठा करनी चाहिये और अँगूठी को धारण करना चाहिये ।
44
अँगूठी पहनने के तुरन्त बाद ही चन्द्रासन, चन्द्रयन्त्र, बाँस की डालिया, श्वेत पुष्प, श्वेत वस्त्र, दही, चीनी, घी, चावल, शंख, कपूर, एक छोटा सा मोती का दाना और सम्भव हो तो एक सफेद बैल कर्मकाण्ड करने वाले ब्राह्मण को दान करना चाहिये । उपर्युक्त विधि द्वारा मोती पहनने से त्वचा रोग, उदर रोग, दाँतों के रोग, पायरिया, रक्तचाप, मुख, ज्वर, हृदय रोग आदि शान्त होते हैं और चन्द्रमा की शक्ति बढ़ती है तथा मनोकामना पूर्ण होती है ।
उपर्युक्त विधि द्वारा अँगूठी का पूजन करने में जो व्यक्ति असमर्थ हों, उन्हें शुक्ल पक्ष के सोमवार के दिन अपनी पूजा उपासना करने के बाद यह मन्त्र " ॐ सौं सोमाय नमः" का ११,००० बार जप करने के बाद सायंकाल में चन्द्र दर्शन के बाद अँगूठी को धारण करने पर लाभ होगा।
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★ रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान * मंगल रत्न 'प्रवाल' मूंगा की धारण विधि
कुछ व्यक्ति मूंगे की माला भी बनाकर पहनते हैं तथा अंगूठी भी। मूंगा कम से कम ८ रत्ती का और अधिक से अधिक ९, ११ अथवा १२ रत्ती के मूंगे को कम से कम ६ रत्ती स्वर्ण अंगूठी में जड़वाना चाहिये। मंगलवार के दिन मेष या वृश्चिक राशि पर चन्द्रमा हो अथवा मृगशिरा, चित्रा, धनिष्ठा अथवा अनुराधा नक्षत्र हो तब प्रातःकाल से ११ बजे के मध्य सोने की अंगूठी बनवाकर मूंगे को इस तरह जड़वाना चाहिये कि मूंगे का निचला भाग अँगुली की त्वचा से स्पर्श करता रहे । अँगूठी तैयार होने के बाद प्रातः ११ बजे भौम यज्ञ कराना चाहिये। इसके लिये ताम्रपत्र पर खुदे मंगल यंत्र पर मूंगे जड़ित अंगूठी रखकर उसका विधिनुसार पूजन करें, फिर मंगल मन्त्र"ॐ अग्निर्मूर्द्धा दिवः ककुत्पतिः पृथिव्याऽअयम्। अपाय रेता ७ सि जिन्वति। श्री भौमाय नमः।" का यथाशक्ति जप करना चाहिये। फिर ब्राह्मण द्वारा 'ॐ भौं भौमाय नमः'। मन्त्र का जप करते हुये ७०० आहुति देकर हवन करें। इसके बाद अंगूठी में मंगल ग्रह की प्राण-प्रतिष्ठा कर बायें हाथ की मध्यमा अँगुली में अंगूठी को धारण करना चाहिये। उस कर्मकाण्ड करने वाले ब्राह्मण को लाल वस्त्र, गुड़, गेहूँ तथा यथाशक्ति दान कर भौम यन्त्र को भी दान कर देना चाहिये।
उपर्युक्त प्रकार से धारण की गई अँगूठी मंगलकृत अनिष्ट को नष्ट कर जीवन को सुखपूर्ण बनाती है।
बुध रत्न 'पन्ना' की धारण विधि ___ अंगूठी में जड़वाने के लिये ३ रत्ती से जितना ऊपर अर्थात् जितना अधिक वजन का पन्ना होगा उतना ही शुभकारी होता है। किसी भी दशा में पन्ना का वजन ३ रत्ती से कम नहीं होना चाहिये और अंगूठी का वजन भी ३ रत्ती से कम नहीं होना चाहिये। बुधवार के दिन मिथुन या कन्या राशि की प्रबलता पर अथवा आश्लेषा, ज्येष्ठा अथवा रेवती नक्षत्र व बुध के या सूर्य के नवमांश में बुध हो तो प्रातः सूर्योदय से लेकर मध्यान्ह दस बजे के बीच सोने की अंगूठी में पन्ना जड़वा कर तैयार करवानी चाहिये तथा अँगूठी इस प्रकार
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* रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान * बनी हो कि पन्ना का निचला भाग अँगुली त्वचा से स्पर्श करता रहे।
जिस बुधवार को अंगूठी बनवाई जाये उसी बुधवार को दिन में ११ बजे सर्वतोभद्रचक्र बनाकर उसके ऊपर चाँदी से बना कलश स्थापित करें। कलश की विधिवत् पूजा-अर्चना करने के बाद कलश के भीतर अंगूठी रख दें और निम्नलिखित मन्त्र द्वारा अंगूठी को अभिमन्त्रित करें"हां कौं द्रं ग्रह नाथाय बुधाय स्वाहा।"
अथवा "ॐ हवां हवीं बुं ग्रहनाथ बुधाय नमः।" ६ तोले वजन के चाँदी के पत्र पर खुदे बुध यन्त्र का विधिवत् पूजन करें। फिर "ॐ उबुधस्वाग्ने प्रति जागृहिं त्वमिष्टा पूर्ते स● ७ सृजेथा मयञ्च । अस्मिन्तसधस्ये अध्युत्तर स्मिन्विश्वेदेवा यजमानश्च सीदेतः"। श्री बुधाय नमः । मन्त्र द्वारा ४,००० आहुतियाँ देकर हवन करें। इसके बाद अंगूठी को कलश से निकाल कर यन्त्र पर रखकर कलश के जल द्वारा अभिषेक करते हुये अँगूठी में बुध की प्राण-प्रतिष्ठा करें। इसके उपरान्त फिर बुध मन्त्र से अँगूठी को अभिमन्त्रित करते हुये दायें हाथ की कनिष्ठका या अनामिका अँगुली में धारण करना चाहिये। अन्त में बुध यन्त्र, पन्ना का एक नग, स्वर्ण कस्तूरी, कांस्य, चावल तथा नीला अथवा हरा रंग का वस्त्र यथाशक्ति दक्षिणा के साथ कर्मकाण्ड कराने वाले ब्राह्मण को दान कर देना चाहिये।
उपरोक्त विधि अनुसार धारण करने से पन्ना जड़ित अंगूठी बुध द्वारा उत्पन्न कष्टों को नष्ट कर विद्या, बुद्धि एवं धन की वृद्धि कर जीवन को सुखमय बनाती है।
गुरू रत्न 'पुखराज' की धारण विधि
अँगूठी बनवाने के लिये ४ रत्ती से अधिक वजन का पुखराज ५, ७, ८, १०, १२, १४, रत्ती का शुभ होता है तथा ६, ११, १५ रत्ती वजन का पुखराज हानिकारक होता है। पुखराज को सोने की अंगूठी में जड़वाना चाहिये और सोने की अंगूठी ४, ८, १०, १२, १४ रत्ती की होनी चाहिये।
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★ रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान ★
५५ बृहस्पतिवार को पुष्य नक्षत्र में प्रातः सूर्योदय से ११ बजे के बीच पुखराज की अंगूठी बनवानी चाहिये तथा ११ बजे तक ही तैयार हो जानी चाहिये। चाँदी के पत्तर पर खुदा गुरू यंत्र जिसमें मध्य में एक पुखराज का नग जड़ा हो उसे स्थंडल पर रखकर चने की दाल द्वारा अष्ट मण्डल का निर्माण करना चाहिये। इसके ऊपर जल से परिपूर्ण कलश स्थापित करना चाहिये, फिर उसे अभिषेक कर "ॐ बृहस्पतेऽअति यदर्योऽअहथुिमद्विभाति क्रतुमज्जुनेषु। यद्दीदयच्छऽऋतु प्रजाततदस्मासु द्रविणं धेहि चित्रम्। श्री गुरूवे नमः" का यथाशक्ति जाप करें। इसके बाद "ॐ ऐं श्रीं बृहस्पतये नमः" नामक मन्त्र का उच्चारण करते हुये ४,५०० आहुति देकर हवन करना चाहिये। फिर अंगूठी में बृहस्पति की प्राण प्रतिष्ठा कर शुभ मुहूर्त में दायें हाथ की तर्जनी अथवा अनामिका अँगुली में धारण करना चाहिये। अंगूठी धारण करने के बाद कर्मकाण्ड कराने वाले ब्राह्मण को स्वर्ण, पुखराज, हल्दी, चने की दाल, पीला पुष्प, शक्कर, पीला वस्त्र तथा गुरू यन्त्र को यथाशक्ति दक्षिणा के साथ दान करना चाहिये।
इस प्रकार विधिवत् धारण की गयी अंगूठी गुरूकृत अनिष्ट प्रभाव को नष्ट करती है।
शुक्र रत्न हीरा' की धारण विधि
अँगूठी में जड़वाने के लिये हीरा १ रत्ती से कम वजन का नहीं होना चाहिये। १ रत्ती से जितना अधिक वजन का हीरा होगा उतना अधिक शुभकारी होगा तथा अंगूठी भी सोने की होनी चाहिये और ७ रत्ती से कम नहीं होनी चाहिये। सोने के अलावा और कोई अन्य धातु नहीं होनी चाहिये।
हीरे की अंगूठी शुक्रवार के दिन भरणी, पूर्वाफाल्गुनी अथवा पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र में ही या जब शुक्र, वृष, तुला या मीन राशि पर हो तब प्रातः सूर्योदय से ११ बजे के मध्य तैयार करवानी चाहिये। इसके बाद यज्ञमण्डल का निर्माण कर उसमें पंचकोणाकार शुक्रस्थण्डल बनाना चाहिये। ७ तोले वजन के चाँदी के पत्तर पर खुदा शुक्र यन्त्र जिसमें एक छोटा सा हीरा जड़ा हो स्थण्डल पर स्थापित करना चाहिये। उसी जगह हीरा जड़ित स्वर्ण अंगूठी
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* रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान * रखकर "ॐ ऐं जगीं शुक्राय नमः"। मन्त्र का उच्चारण करते हुये ४,००० बार जाप कर यन्त्र को अभिषिक्त करना चाहिये तथा शुक्र मन्त्र "ॐ अन्नात्परि तो रस ब्राह्मणा व्यपिवत्क्षत्रं पयः सोमं प्रजापति ऋतेन सत्यमिन्द्रियं विपान ॐ शुक्र मधसे इन्द्रस्येन्द्रियमिदं पयोऽमृत मधु। श्री शुक्राय नमः"। मन्त्र का १६,००० बार जाप करें या विद्वान पण्डित से करवायें। इसके उपरान्त अंगूठी के हीरे में शुक्र की प्राण-प्रतिष्ठा करके अपने दायें अथवा बायें हाथ ही अंगुली में धारण करना चाहिये। इसके बाद कर्मकाण्ड कराने वाले ब्राह्मण को शुक्रयन्त्र गाय, हीरा, चाँदी, चावल, घृत, कपूर, श्वेत वस्त्र तथा यथाशक्ति दक्षिणा के साथ दान करना चाहिये।
शनि रत्न 'नीलम' की धारण विधि
जब शनि मकर अथवा कुम्भ राशि में हो या तुला राशि के उच्चस्थान में या जिस शनिवार को श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा, पूर्वा, भाद्रपद, उत्तराषाढ़ा, चित्रा, स्वाति या विशाखा नक्षत्र हो, उस दिन ही नीलम को खरीद कर स्वर्ण, लोहा, रांगा, सीसा या पंचधातु (सोना, चाँदी, रांगा, सीसा और ताँबा) की अँगूठी में जड़वाना चाहिये। अंगूठी के लिये धातु का वजन ९ रत्ती से कम नहीं होना चाहिये तथा नीलम ४ रत्ती से कम का नहीं होना चाहिये। इससे जितना अधिक वजन का हो लाभ देने वाला है। साधारणत: ५ अथवा ७ रत्ती वजन का नीलम अधिक शुभ माना जाता है। अंगूठी तैयार होने के बाद शनिवार के दिन ही उपर्युक्त वर्णित नक्षत्रों व राशियों में शनि मण्डप बनाकर शनियज्ञ करते हुये “ॐ ऐं ह्रीं श्नैश्चराय नमः" का उच्चारण करते हुये ६,००० बार आहुति देनी चाहिये। इसके बाद धनुषाकार शनिस्थण्डल बनाकर व नौ तोले चाँदी के पत्तर पर निर्मित शनि यन्त्र को स्थापित करना चाहिये। शनियन्त्र में एक छोटा सा नीलम जड़ा होना चाहिये।
शनियन्त्र पर अंगूठी को रखकर ही नीलम में शनि की प्राण-प्रतिष्ठा करनी चाहिये। फिर "ॐ शन्नोदेवीरभिष्टय आपो भवन्तु पीतये। शय्योरभिस्त्रवन्तु नमः । श्री शनैश्चराय नमः। मंत्र का २३,००० की संख्या में जाप करना चाहिये। इसके पश्चात् अंगूठी को अपने दाहिने हाथ की
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* रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान * मध्यमा अँगुली में धारण कर पूर्णाहुति देनी चाहिये। इसके बाद शनियन्त्र, काले रंग की गाय, भैंस, सरसों का तेल, तेल, तिल, पान, लोहा तथा काले रंग का वस्त्र यथाशक्ति दक्षिणा के साथ कर्मकाण्डी ब्राह्मण को दान देना चाहिये तथा संध्या समय में दीप, बलि, भैरव पूजन एवं दीप दान आदि कर्म करना चाहिये। इस विधि से धारण की गई अँगूठी शनि के अनिष्ट प्रभाव को दूर करती है।
राहु रत्न 'गोमेद' की धारण विधि
अंगूठी बनवाने के लिये गोमेद ४ रत्ती से अधिक वजन का होना चाहिये। किन्तु ६, ७, १०, ११, १३ अथवा १६ कैरेट का गोमेद धारण नहीं करना चाहिये। अंगूठी पंचधातु या लोहे की होनी चाहिये। जिस दिन भी स्वाति, शतभिषा अथवा आर्द्रा नक्षत्र हो उस दिन प्रातः सूर्योदय से १० बजे तक बनवानी चाहिये। ११ बजे के बाद राहु यज्ञ करवाना चाहिये। इसके लिये सर्वप्रथम राहु का स्थण्डल बनाकर उस पर ११ तोले वजन के चाँदीपत्तर पर खुदा राहु यंत्र जिसमें कि गोमेद का एक टुकड़ा हो स्थापित करना चाहिये। फिर उस पर अंगूठी रखकर विधिवत् पूजा-अर्चना कर उसमें प्राणप्रतिष्ठा करनी चाहिये। फिर राहु मन्त्र “ॐ क्रों क्रीं हुँ हुँ टं टंक धारिणै राहतै स्वाहा" मन्त्र का उच्चारण करते हुये १,००० बार आहुति देनी चाहिये। तत्पश्चात् मध्याह्न काल में योगिनी चक्र बनाकर दीप दान करना चाहिये तथा "ॐ कयानश्चित्र आभुवदुती सदा वृधः सखा। कथाशचिष्ठया कृतः। श्री राहवे नमः।" मन्त्र का उत्तम कर्मकाण्डी ब्राह्मण से १८,००० की संख्या में जाप करवाना चाहिये, फिर अपराह्न साढ़े तीन (३.३०) बजे के लगभग अँगूठी को अपने बायें हाथ की मध्यमा अंगुली में धारण करना चाहिये। इसके बाद राहु यन्त्र, नीले रंग का वस्त्र, कम्बल, तिल, तैल, लोहा, अभ्रक को यथाशक्ति दक्षिणा के साथ ब्राह्मण को दान देना चाहिये।
केतु रत्न वैदूर्य' (लहसुनिया) कीधारण विधि
अंगूठी बनवाने के लिये वैदूर्य मणि भी ५ रत्ती से कम वजन की नहीं
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★ रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान * होनी चाहिये। अधिक इच्छानुसार जितना भी लें शुभकारी होगी। किन्तु २, ४, ११ या १३ रत्ती के वजन का वैदूर्य धारण करना निषिद्ध है। भारतीय मत से वैदूर्य पंचधातु या लोहे की अंगूठी जो कि ७ रत्ती से कम वजन की न हो में जड़वाना उपयुक्त होगा। पाश्चात्य मत से ५ अथवा ७ कैरेट के वजन का वैदूर्य चाँदी की अंगूठी में जड़वाना शुभ होता है।
जिस किसी भी दिन मेष, धनु अथवा मीन का चन्द्रमा हो अथवा अश्विनी मघा या मूल नक्षत्र हो या किसी भी बुधवार या शुक्रवार को सायंकाल में सूर्यास्त के समय रात्रि के आठ बजे के मध्य अंगूठी तैयार करवानी चाहिये।
अंगूठी तैयार होने के दूसरे दिन प्रात:काल ९ बजे केतु का मण्डप बनाकर केतु स्थण्डिल का निर्माण करें। सात तोले वजन के चाँदी के पत्तर पर पूर्व निर्मित केतु यन्त्र को जिसमें वैदूर्य मणि के छोटे टुकड़े को भी जड़ा गया हो, रखना चाहिये। इसके ऊपर वैदूर्य जड़ित अंगूठी को रखना चाहिये। अंगूठी में केतु की प्राण-प्रतिष्ठा कर शोडषोपचार विधि से पूजन करना चाहिये। फिर “ॐ हीं क्रू क्रूररूपिण्यै केतवे ऐं सौं स्वाहा"। मन्त्र का उच्चारण करते हुये २,७०० आहुति देकर हवन करना चाहिये। हवन के पश्चात् "ॐ केतु कृण्वन्नकेतवे पेशो मयर्याऽअपेशसे समुषदिभर जायथाः। श्री केतवे नमः"। मंत्र का १७,००० की संख्या में जाप कराना चाहिये। उसके बाद दायें हाथ की मध्यमा अँगुली में अंगूठी को धारण कर पूर्णाहुती करनी चाहिये। इसके बाद केतु रत्न, कम्बल, शस्त्र, कस्तूरी, तिल, तैल, काला वस्त्र, काले पुष्प, लौह तथा यथाशक्ति दक्षिणा के साथ कर्मकाण्ड करने वाले ब्राह्मण को दान देना चाहिये।
उपरोक्त विधि अनुसार धारण करने से अंगूठी केतुजन्य अनिष्ट को दूर कर शत्रु भय को भी नष्ट करती है तथा यश, तेज, धन एवं बल की वृद्धि करते हुये मनोकामनाओं को पूर्ण करती है।
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लग्न के अनुसार रत्न धारण का विचार
रत्न धारण करने से जो ग्रह बलवान होता है, उसके बल का लाभ किस विषय में मनुष्य को प्राप्त होता है, इस बात का समाधान उस ग्रह की कुण्डली में आधिपत्य द्वारा किया जाना चाहिए।
जिन भावों का वह बलान्वित किया हुआ ग्रह स्वामी होगा, रत्न धारण करने से वह बल पाएँगे और फलस्वरूप व्यक्ति को उन भावों का फल आदि पुष्ट और स्थायी रूप में प्राप्त होगा। जैसे मेष लग्न वाला व्यक्ति यदि पुखराज धारण करेगा, तो उससे उसका नवम् भाव और उसका स्वामी गुरु बल पाएँगे, जिसके परिणामस्वरूप उसके सम्बन्ध राज्याधिकारियों से सुधर जाएँगे और वह अधिक राज्यकृपा का पात्र बन जाएगा। उसकी उन्नति के मार्ग में आने वाली सभी बाधाओं का निराकरण हो जाएगा। धर्मों-कर्मों में रुचि बढ़ेगी। विभिन्न लग्नों में विविध रत्न धारण करने से किन-किन वस्तुओं की उपलब्धि होती है, इसका विवरण निम्न प्रकार से समझ लें
मेष लग्न १. मंगल-आयु तथा स्वास्थ्य में वृद्धि, बुद्धि, धन, यश आदि सभी की
वृद्धि करेगा। २. शक्र-धन तथा व्यापार, स्त्री (पत्नी) की आय तथा उसके स्वास्थ्य
एवं विद्या की वृद्धि करेगा। वाणी के विकार नष्ट होंगे। ३. बुध-अकाल मृत्यु से रक्षा होगी। ऋणी नहीं रहने देगा तथा स्वास्थ्य
को सुधारेगा। ४. चन्द्र-माता के स्वास्थ्य के लिए लाभकारी रहेगा। जनता में लोकप्रियता
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★ रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान ★ बढ़ाएगा तथा घरेलू सुखों में वृद्धि करेगा। ५. सूर्य-मंत्रणा-शक्ति को बढ़ाएगा। राज्य की ओर से अनुकूलन और
लाभ प्रदान करेगा। पुत्र-प्राप्ति में सहायता देगा और भाग्य में वृद्धि
करेगा। ६. गुरु-राज्याधिकारियों को अनुकूल बनाएगा और राज्यसत्ता की प्राप्ति
कराएगा। धन, आयु और स्वास्थ्य में वृद्धि करेगा। पारिवारिक समस्याओं को दूर करेगा। उन्नति देगा तथा भाग्य को उज्जवल करेगा और सम्पत्ति का लाभ देगा। आयु की वृद्धि करेगा। पूरे परिवार को लाभ प्रदान करेगा।
यदि मेष लग्न वाले व्यक्ति माणिक्य, मूंगा और नीलम धारण करें तो इन रत्नों की संयुक्तशक्ति उनके लिए अनुकूल रहेगी।
वृष लग्न १. शुक्र-ऋण को कम करेगा। शत्रु बाधा को कम करेगा। धन का लाभ
कराएगा। २. बुध-अकस्मात् धन-प्राप्ति में सहायक होगा। विद्या में उन्नति, वाणी
के दोषों का शमन, मंत्रणा तथा ज्ञानशक्ति में वृद्धि और परीक्षाओं में
सफलता दिलाएगा। ३. चन्द्र-धन की वृद्धि करेगा। दीर्घायु प्रदान करेगा। पुरुषार्थ बढ़ाएगा
और बाहु को बलान्वित करेगा। ४. सूर्य-सभी प्रकार के सुखों में वृद्धि करेगा। मकान, वाहनादि की
प्राप्ति कराएगा। जनता में सम्मान और लोकप्रियता बढ़ाएगा, राज्य की
ओर से सम्मान में वृद्धि कराएगा। ५. मंगल-व्यापार में वृद्धि, राज्य की ओर से सम्मान, रक्षा-विभाग के
अधिकारियों से सम्पर्क तथा नौकरी आदि में पदोन्नति दिलाता है। ६. गुरु-शुभ यज्ञीय कर्मों में भी प्रवृत्ति बढ़ाता है। आयु में वृद्धि करता है
और धन को बढ़ाता है। ७. शनि-धन, मान्य और भाग्य को बढ़ाएगा। शारीरिक कान्ति बढ़ाकर
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* रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान * चेहरे पर उज्ज्वलता लाता है। वृष लग्न वाले नीलम, पन्ना और हीरा पहनें तो लाभप्रद होगा।
मिथुन लग्न १. बुध-मानसिक शान्ति रहती है। धन और सुख-सामग्री बढ़ेंगे। विद्या
और बुद्धि में उन्नति होगी। पिता की आयु में वृद्धि होगी। २. चन्द्र-चन्द्र के बलान्वित होने से धन में वृद्धि, मन में शान्ति की प्राप्ति
और विद्या में वृद्धि होती है। ३. सूर्य-आयु में वृद्धि, छोटे भाइयों की आयु की वृद्धि, मित्रों की प्राप्ति
और सम्मान और राज्यकृपा की प्राप्ति होती है। ४. शुक्र-भोग-विलास और रति-सुख की प्राप्ति, भाग्य में वृद्धि होती
५. मंगल-केवल लाभ की दृष्टि से इसे धारण किया जा सकता है, किसी
और उद्देश्य से नहीं। ६. गुरु-गुरु सप्तम और दशम भावों का स्वामी बनता है। गुरु को बलवान
किया जाना राजसत्ता की प्राप्ति से बहुत सहायक होता है। ७. शनि-यह मुख्यतया भाग्य भवन का फल करेगा, भाग्य को बढ़ाएगा।
आयु और राज्यकृपा की वृद्धि करेगा। मिथुन लग्न वालों के लिए हीरा व पन्ना लाभप्रद होगा।
कर्क लग्न १. चन्द्र-चन्द्र लग्न का स्वामी होगा। इसके बलान्वित होने से धन, यश,
आयु सभी की वृद्धि होगी। २. सूर्य-अधिकार की प्राप्ति, धन और विद्या की वृद्धि तथा वाणी के
दोषों का निवारण होता है। ३. बुध-बुध का पीड़ित और निर्बल अवस्था में रहना ही अभीष्ट है,
क्योंकि निर्बल रहकर, बुध विपरीत राजयोग की सृष्टि करेगा। यदि बुध, सूर्य, मंगल अथवा गुरु लग्न के मित्रों के प्रभाव में हों, तो पन्ना
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* रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान * धारण करने की कोई आवश्यकता नहीं है। यदि बुध अकेला है और शनि राहु से प्रभावित है, तो फिर पन्ने द्वारा बलान्वित किए जाने पर
जीवन के अनेक क्षेत्र में लाभ होगा। ४. शुक्र-सुख में वृद्धि होगी। वाहनादि की प्राप्ति होगी। जनता का
सहयोग प्राप्त होगा। मन में उल्लास बढ़ेगा। मंगल-मंगल योगकारक रूप से बलवान होकर धन, पदवी, मान देगा। सूझबूझ में वृद्धि करेगा। पिता के धन और भाग्य में वृद्धि होगी। राज्यकृपा अधिक मात्रा में प्राप्त होगी। धन, सम्मान और सुख प्राप्त
होगा। ६. गुरु-धन और सम्मान में वृद्धि होगी। सुख में भी वृद्धि होगी। शत्रुओं
से सन्धि की दिशा में प्रगति होगी। ७. शनि-यदि कुण्डली में शनि पीड़ित हो और आयु के ह्रास का प्रश्न
हो, तो शनि को बलवान किया जाना लाभदायक है, इससे अनेक क्षेत्रों में लाभ होगा। कर्क लग्न वालों के लिए मोती व मूंगा का प्रयोग लाभप्रद होगा।
सिंह लग्न १. सूर्य- इस राशि में सूर्य लानेश बनता है। सूर्य के बलवान होने से धन,
आयु, स्वास्थ्य की आपूर्ति, सभी दिशाओं में उन्नति होगी। २. बुध-धन, आयु और विद्या में वृद्धि होगी। भाषण-कला में वृद्धि होगी
तथा सूद से आय बढ़ेगी। ३. शुक्र-आयु तथा मान में वृद्धि होगी। मित्रों से अत्यधिक सम्पर्क
बढ़ेंगे। ४. मंगल-भाग्य में वृद्धि होगी, राज्याधिकारियों की ओर से सहयोग
प्राप्त होगा और पदोन्नति होगी। ५. गुरु-पुत्र, धन और भाग्य में वृद्धि होगी। ६. शनि-स्वास्थ्य और आयु की वृद्धि होगी। व्यापार में उन्नति होगी,
किन्तु धन के मामले में अधिक आशा नहीं रखनी चाहिए।
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★ रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान * ७. चन्द्र-पारिवारिक, आर्थिक और मानसिक शान्ति प्राप्त होगी।
सिंह लग्न वालों के लिए माणिक्य व मूंगा लाभप्रद होगा।
कन्या लग्न १. बुध-यज्ञीय कार्यों में प्रवृत्ति बढ़ेगी। राजसत्ता की सम्भावना बढ़ जाएगी।
स्वास्थ्य में सुधार होगा। २. शुक्र-राज्यकृपा की प्राप्ति होगी, धन की वृद्धि होगी। गायन कला
तथा विद्या में उन्नति होगी। ३. मंगल-बली होकर मंगल आयु की विशेष वृद्धि करेगा। ४. गुरु-सुख-सामग्री की विशेष उन्नति देगा। व्यापार में वृद्धि करेगा
और मानसिक शान्ति मिलेगी। ५. शनि-स्वास्थ्य एवं पुत्र धन की वृद्धि होगी। ६. चन्द्र-चन्द्र लाभेश बनता है। बलवान चन्द्र आय में वृद्धि करेगा तथा
बच्चों के विवाह में सहायक होगा। ७. सूर्य-राज्याधिकारियों से सम्बन्ध स्थापित करेगा। स्वास्थ्य और व्यापार
में वृद्धि होगी। कन्या लग्न वालों के लिए पन्ना व हीरा लाभप्रद होगा।
तुला लग्न १. शुक्र-आयु और स्वास्थ्य के लिए विशेष शुभकर होगा। २. मंगल-मंगल द्वितीयाधिपति तथा सप्तमाधिपति बनता है। ३. गुरु-आयु व स्वास्थ्य के लिए शुभ है। धन और सुख की भी वृद्धि
करेगा। शत्रु मित्र बन जाएँगे। ४. शनि-शनि चतुर्थ और पंचम भावों का स्वामी राजयोग कारक ग्रह ____होगा। बलवान शनि धन, पद्वी, सुख सभी में वृद्धि लाएगा। ५. बुध-यह भाग्य में वृद्धि और धर्म में रुचि उत्पन्न करेगा। ६. सूर्य-सूर्य के बलवान बनने से लाभ में वृद्धि होगी। ७. चन्द्र-राज्यसत्ता की प्राप्ति होगी, पुरुषार्थ में वृद्धि होगी, मानसिक
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* रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान * शक्ति बढ़ेगी और धन की वृद्धि होगी। तुला लग्न वालों को हीरा व मोती लाभप्रद होगा।
वृश्चिक लग्न १. मंगल-पुरुषार्थ में वृद्धि होगी। शत्रुओं की संख्या में कमी होगी। छोटे
भाइयों से लाभ प्राप्त होगा। २. गुरु-द्वितीय तथा पंचम भाव के स्वामी के बलवान होने पर जीवन के
अनेक क्षेत्रों में सफलता मिलेगी। लाभ होगा और सम्मान मिलेगा। ३. शनि-धन में विशेष वृद्धि की आशा कदापि न करें। मित्रों से लाभ
तथा सुख प्राप्त होगा। ४. शुक्र-आयु में वृद्धि, व्यापार में उन्नति तथा रति-क्रिया में सुख की
प्राप्ति होगी। ५. बुध-विद्या की शक्ति प्राप्त होगी तथा सम्बन्धियों से सहयोग बढ़ेगा। ६. चन्द्र-पिता की आयु, स्वास्थ्य और धन में वृद्धि होगी। मानसिक
शक्ति प्रदान होगी। ७. सूर्य-सात्त्विक कर्मों का उदय होगा, रोगों से छुटकारा होगा।
वृश्चिक लग्न वालों के लिए मोती, मूंगा व माणिक्य लाभप्रद रहेगा।
धनु लग्न १. गुरु-गुरु लग्नेश और चतुर्थेश बनता है और बलान्वित होकर घर में
सुख-सामग्री की विशेष उन्नति अथवा वृद्धि करेगा। धन और सम्मान
भी बढ़ाएगा। २. शनि-शनि दूसरे व तीसरे भाव का स्वामी बनता है। शनि के बलान्वित
किए जाने पर धन में किसी विशेष वृद्धि की आशा न करनी चाहिए, क्योंकि शनि की मूल त्रिकोण राशि तृतीय भाव में पड़ती है। मित्रों से
सहयोग व धन प्राप्त होगा। ३. मंगल-भाग्य को चमकाएगा, सुख में वृद्धि करेगा। परिवार के लिए
शुभकारक सिद्ध होगा।
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★ रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान * ४. शुक्र-शत्रुओं से सन्धि होगी। पत्नी के स्वास्थ्य में वृद्धि होगी। भोग
विलास से सन्तुष्टि मिलेगी। शत्रुओं से लाभ मिलेगा। ५. बुध-राज्य की ओर से सहयोग तथा सहायता प्राप्त होगी। धार्मिक
कार्यों में रुचि बढ़ेगी। ६. चन्द्र-चन्द्रमा अष्टमेश बनता है। इसके बलवान किए जाने पर धन में
वृद्धि होगी। मन शान्त व अनुसंधान कार्यों में सफलता मिलेगी। धनु लग्न वालों के लिए माणिक्य लाभप्रद होगा।
मकर लग्न १. शनि-शनि के बलवान किए जाने पर आयु, स्वास्थ्य, धन, विद्या सभी
में वृद्धि होगी। वाणी में सुधार होगा। २. गुरु-पारिवारिक लोगों को लाभ पहुँचेगा। मित्रों से अधिक लाभ की
आशा करनी चाहिए। ३. मंगल-जमीन-जायदाद से लाभ होगा। ४. शुक्र-सुख में विशेष वृद्धि, धर्म में विशेष रुचि तथा आकस्मिक रूप
से अपार धन की प्राप्ति होगी। ५. बुध-सुख और शान्ति में वृद्धि होगी। पदोन्नति होगी। धन मिलेगा
तथा रति-विलास का आनन्द बढ़ेगा। ६. चन्द्र-चन्द्रमा सप्तमेश बनता है। इसे बलवान करने पर व्यापार,
राज्यकृपा तथा धन में वृद्धि होगी। मन को अत्यधिक शान्ति मिलेगी। ७. सूर्य-यह अनुसंधान कार्यों में सफलता देगा और उत्तम स्वास्थ्य प्रदान
करेगा। मकर लग्न वालों के लिए हीरा व नीलम पहनना लाभप्रद होगा।
कुम्भ लग्न १. शनि-धन में वृद्धि करेगा, व्यय को कम करेगा और स्नायु को बल
देगा। पुत्र की आयु तथा भाग्य में वृद्धि करेगा, क्योंकि लग्नेश और द्वादशेश बननता है।
दगा। पुनको अधि तयेगभन्या कोक करुगे, क्षीरकला को आस
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* रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान ★ २. गुरु-लाभ भवनों का स्वामी होने पर गुरु ग्रह वाले को पुखराज धारण
करने से उत्तम पत्नी मिलती है। राज्यकृपा तथा वाहन की प्राप्ति होती
है। ३. मंगल-धन, सम्मान, आयु, धन तथा पुरुषार्थ में वृद्धि होगी किन्तु यह
तभी धारण करना चाहिए, जब राशि से सम्बन्धित ग्रहों और कुंडली में उनके स्थान का सही निर्णय हो जाए तथा पुखराज धारण करना लाभदायक
सिद्ध हो। ४. शुक्र-शुक्र के बलवान होने पर हीरा राजयोग अर्थात् धन और पदवी
को दिलाएगा, साथ ही वाहनादि का सुख भी प्रदान करेगा। दुःखों को
सुखों में बदल देगा। ५. बुध-यह अनुसंधान कार्यों में वृद्धि की प्रखरता दिलाएगा। स्त्री-सुख
भी प्राप्त होगा। ६. चन्द्र-चन्द्रमा षष्ठेश बनने पर भी धन की वृद्धि कराएगा और स्वास्थ्य
में अद्वितीय वृद्धि करेगा। ७. सूर्य-यहाँ सूर्य सप्तम का स्वामी बनता है तथा बलवान बनाया गया
सूर्य पत्नी के कुल को तथा पत्नी को उच्चस्तरीय बनाता है। स्त्री की आयु में वृद्धि करता है। कुम्भ लग्न वालों के लिए भी नीलम व हीरा पहनना उपयुक्त रहेगा।
मीन लग्न १. गुरु-गुरु लग्नेश और दशमेश बनाता है तथा व्यक्ति को राज्यकृपा से विभूषित करता है। शुभ कर्मों के प्रति प्रवृत्ति बढ़ाता है। पुत्र के भाग्य
को उज्ज्वल करता है तथा धन-धान्य से भर देता है। २. मंगल-यह धन तथा विद्या की वृद्धि करेगा। आयु और स्वास्थ्य को
बढ़ाएगा। ३. शुक्र-सुख-शान्ति में वृद्धि करेगा। पदोन्नति और धन देगा। रति
क्रिया में विशेष रुचि उत्पन्न करेगा। ४. बुध-व्यक्ति में बौद्धिक और मानसिक शक्ति बढ़ती है। स्त्री के
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* रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान * सम्मान में वृद्धि होती है। ५. चन्द्र-धन में विशेष वृद्धि होगी। पुत्र की आयु और स्वास्थ्य में वृद्धि
होगी। स्मृति शक्ति बढ़ेगी। ६. शनि-स्वास्थ्य में सुधार होगा, शत्रु कम होंगे और पिता को अधिक
सम्मान की प्राप्ति होगी। ७. सूर्य-धन और सम्मान की वृद्धि होगी। रोगों का शमन होगा। परिवार
में शान्ति बनी रहेगी। सुख और सौभाग्य प्राप्त होगा। मीन लग्न के लिए पुखराज व मोती धारण करना लाभप्रद होगा।
लग्नानुसार रत्न धारण करने की विधि
रत्न का कार्य सम्बन्धित ग्रह की शक्ति की बढ़ोत्तरी करना ही है। अर्थात् रत्न कभी भी शक्ति कम नहीं करता। अतः रत्न पहनने से पहले ज्योतिष के निम्नांकित सिद्धान्त भी ध्यान में रखें
म रत्न के विरोधी रत्न को कभी नहीं पहनना चाहिए बल्कि मित्र
रत्न यदि आवश्यक हो तो लिया जा सकता है। - जन्म कुण्डली में वक्री और मार्गी ग्रह भी देखना चाहिए क्योंकि
पापी वक्री ग्रह की शान्ति जरूरी है। * जन्म कुण्डली में उदय-अस्त भी देखना चाहिए क्योंकि अस्त
ग्रह से सम्बन्धित नग पहनने से ग्रह की शक्ति बढ़ती है। * कुण्डली में ग्रह की दृष्टि, दशा और अंतरदशा का भी ध्यान
रखना चाहिए। र कुण्डली में ग्रह का अंश भी देखना चाहिए। * यदि पुरुष अपने बायें हाथ में नग पहनेगा तो उसकी स्त्री को
लाभ मिलेगा। ठीक इसके विपरीत स्त्री दायें हाथ में नग धारण
करेगी तो उसके पुरुष को लाभ मिलेगा। - हाथ की प्रत्येक उंगली क्रमशः तर्जनी-गुरु, मध्यमा-शनि,
अनामिका-सूर्य, कनिष्ठा-बुध का प्रतिनिधित्व करती है जैसेहीरा यदि लाभकर हो तो उसे तर्जनी में पहन लिया जाए तो शुक्र
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★ रत्न उपरल और नग नगीना ज्ञान * उच्च का होकर लाभ ज्यादा करेगा। - निम्नलिखित क्रम से प्रत्येक ग्रह एक-दूसरे का बल नष्ट करता
है-सूर्य का बल शनि से, शनि का मंगल से, मंगल का बुध से, गुरु का शुक्र से, शुक्र का चन्द्र से, बुध का गुरु से, चन्द्र का
मंगल से नष्ट होता है। - निम्नलिखित क्रम से ग्रह एक-दूसरे से अधिक बलवान माने
जाते हैं-शनि से मंगल, मंगल से बुध, बुध से गुरु, गुरु से शुक्र, शुक्र से चन्द्र, चन्द्र से भौम, सूर्य से शनि, केतु सबका बल कम
करता है। * निम्न प्रकार से ग्रहों का दोष शमन होता है-राहु का दोष बुध
से, मंगल-बुध-राहु-शनि का दोष गुरु से, राहु तथा बुध का दोष शनि से, मंगल-बुध-गुरु-शुक्र-शनि-राहु का दोष चन्द्रमा से, बुध-शनि एवं राहु का दोष मंगल से, मंगल-बुध-शनि-राहु का दोष शुक्र से होता है। राहु-बुध-शनि-शुक्र-गुरु-मंगल एवं चन्द्र का दोष सूर्य से होता है। उत्तरायण का सूर्य सब दोषों का शमन
करता है। इस प्रकार ज्योतिष में रत्नों का महत्त्वपूर्ण योगदान है।
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रत्नों की उत्पत्ति के आधार पर रत्न धारण
अग्निपुराण में वर्णित है कि दधीचि की अस्थियों से जब अस्त्र निर्माण किया गया तब जो छोटा भाग जमीन पर गिरा उनसे चार खदानें हीरे की उत्पन्न हुई। इसी प्रकार कुछ पुराणों में कहना है कि मन्दराचल द्वारा समुद्रमन्थन से जो अमृत उत्पन्न हुआ, उसकी जो बूंदें जमीन पर गिरीं वह सूर्य किरणों द्वारा सूखकर यथाप्रकृति रेत के कणों में मिलकर पृथ्वी पर विभिन्न प्रकार के रत्न उत्पन्न हो गये। एक पुराण कथाकार का कहना है कि बलनामक एक दैत्य था, उसने देवताओं को हरा दिया, परन्तु देवताओं ने बुद्धिमत्ता से काम लिया उन्होंने उसे पशु रूप धारण करने को कहा, वह दैत्य खुश हो पशु रूप में परिवर्तित हो गया, तब देवताओं ने धोखे से उसका वध कर दिया। उसके शरीर के विभिन्न टुकड़े पृथ्वी पर गिर गये। इस प्रकार विभिन्न प्रकार के रत्नों की उत्पत्ति हुई। गरुड़ पुराण में कहा गया है कि बल दैत्य की हड्डियाँ जिस स्थान पर गिरी या जिस प्रदेश व पहाड़ों पर गिरी उन स्थानों पर इन्द्रधनुष जैसी चकाचौंध कर देने वाली हीरे की खानें हो गयीं।
__उस असुर की दन्त पंक्तियाँ जो सारे ब्रह्माण्ड में फैल गयी थीं, समुद्रादि स्थानों में गिर कर सीपियाँ के रूप में परिवर्तित हो गयीं। वैसे तो मोती निम्न जानवरों की अस्थियों द्वारा निर्मित होता है परन्तु सीप का मोती सबसे सच्चा मोती माना गया है। इसका अधिक महत्त्व है।
पद्मराग माणिक्य-बल दैत्य का रक्त सूर्य की किरणों से शोभित होकर आकाश मार्ग में घूम रहा था कि रावण ने उसकी राह रोककर उसे सिंहलद्वीप की नदी में गिरने को विवश किया, जिस नदी के किनारे सुपारी के पेड़ हैं । तत्पश्चात और उसमें पद्मराग माणिक्य उत्पन्न होने लगे तभी से
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* रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान *
उसे नदी का नाम रावण-गंगा पड़ गया।
मरकत पन्ना-नागराज वासुकी, दैत्य के पित्त को लेकर आकाश मार्ग से जा रहे थे, रास्ते में गरुड़ ने उन पर हमला कर दिया, तो नागराज ने दैत्य के पित्त को वहीं सुरभित माणिक्य पर्वत की गुफाओं में रखा। वहीं पर पन्ना की खानें उत्पन्न हो गयीं।
इन्दु (नील)-राक्षस की दोनों आँखें भी उसी देश में गिरं जाने के कारण सागर तट की उस भूमि पर इन्दु मणि अर्थात् नील मणि उत्पन्न हो गयी।
वैदूर्य (लहसुनिया)-उस बल दैत्य के भेदने से विभिन्न रंगों के वैदूर्य उत्पन्न हो गये।
__ पुष्पराग पुखराज-दैत्य के शरीर की खाल हिमालय पर्वत पर गिरने से पुखराज की उत्पत्ति हुई।
वैक्रान्त (कर्केतन)-दैत्य के नाखून हवा में उड़कर कमलवन में जा गिरे वहाँ पर कर्केतन की उत्पत्ति हुई।
गोमेद (भीष्म रल)-बल दैत्य का वीर्य हिमालय के उत्तर भू-भाग में गिरा जहाँ पर गोमेद की उत्पत्ति हुई।
लाजवर्तादि पुलकादि-दैत्य बल के शरीर के अंग, बांहें आदि उत्तर प्रदेश की जिन नदियों एवं तराई स्थानों में गिरे वहाँ पर गुंजा, सुरमा, मधु, कमलनाल के वर्ण वाले गन्धर्व एवं प्रकाशमय पुलक रत्न आदि की उत्पत्ति हुई।
अकीक (रुधिराक्ष)-अग्नि ने उस दैत्य के रूप को नर्मदा नदी में ले जाकर प्रवाहित किया इस कारण उसमें रुधिराक्ष मणियाँ उत्पन्न हो गयीं।
मूंगा (प्रवाल-विद्रुम)-दैत्य की आँतों को जहाँ-जहाँ देशों में डाला गया। वहाँ-वहाँ उसकी आँतों के प्रभाव से मूंगे की उत्पत्ति हुई।
स्फटिक (मणि)-इस प्रकार दैत्य बल की चर्बी जिन स्थानों पर डाली गयी वहाँ स्फटिक मणि की खानें उत्पन्न हुईं जैसे चीन, नेपाल, कावेरी, विन्ध्य, यवन आदि देशों में यह होता है।
इस प्रकार रत्नों की उत्पत्ति उस बल दैत्य के अंगों से हुई। इन पौराणिक बातों को ध्यान में रखते हुए एक उपचार-तालिका भी रत्नों को
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| दाँतों से
★ रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान *
७१ धारण करने के लिये प्रस्तुत है
रत्न उत्पत्ति का अंग उपचार प्रयोग १. हीरा | हड्डी से हड्डी के रोगों को नष्ट करता है। २. मोती
| पायारिया आदि रोगनाशक। ३. माणिक्य | रक्त से रक्त-रोगनाशक, रक्तवर्धक। ४. पन्ना
| पित्त से पित्त प्रकोप में लाभप्रद। ५. इन्दुनील | नेत्रों से नेत्र रोग के लिये हितकारी। ६. लहसुनिया गर्जन से स्वरभंग में लाभप्रद। ७. पुखराज खाल से कुष्ठादि चर्मरोग में लाभकारी। ८. वैक्रान्त नाखून से नख-दोष हारक। ९. गोमेद | वीर्य से प्रेम आदि, वीर्य विकार नाशिक। १०. लाजवंति | तेज से
पाण्डु रोग में उपयोगी, नेत्र ज्योतिप्रद। ११. अकीक | रूप से कान्तिप्रद, सिद्धि आदि में उपकारक। १२. स्फटिक | मेद, चर्बी से कार्पा, क्षय, प्लीहा, आदि में उपयोगी।
ग्रहों के अनुसार नवरत्नों को इस प्रकार धारण किया जाता हैग्रह
| ग्रह
रल माणिक्य
चन्द्र
मोती मंगल प्रवाल
बुध
पन्ना गुरु पुखराज
हीरा नीलम
राहु-केतु लाजवन्ति राहु लहसुनिया केतु गोमेद
रत्न
सूर्य
शुक्र
शनि
★★
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रत्नों के भेद
रत्न शब्द का अभिप्राय-रत्न शब्द का प्रयोग श्रेष्ठ के अर्थ में किया जाता है । जो भी पदार्थ अपने वर्ग में श्रेष्ठ हो उसे रत्न की संज्ञा दी जाती है ।
'रत्न' एवं 'मणि' शब्द का प्रयोग पत्थर तथा मोती आदि के लिये किया जाता है। वस्तुतः मोती भी रत्न की श्रेणी में आता है । परन्तु इसकी उत्पत्ति और आकृति तथा घनत्व भिन्नता के कारण वह रत्न न होकर भी भिन्न नाम से जाना जाता है ।
अंग्रेजी में रत्नों को प्रीशियस स्टोन या बहुमूल्य रत्न और उपरत्नों को सेमी प्रीशियस स्टोन यानी अल्पमोली रत्न कहा जाता है। और ये प्रशंसनीयता ही रत्नों की श्रेष्ठता का पर्याय है ।
रत्नों के प्रकार और भेद - रत्नों की उत्पत्ति, प्राप्ति स्थान और देशान्तर की भिन्नता के कारण इनको तीन भागों में बाँटा गया है
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१. पाषाण रत्न : चट्टानों तथा शिलाखण्डों एवं नदियों के तल से प्राप्त रत्न, जैसे हीरा, माणिक्य, नीलम अकीक आदि ।
२. प्राणि रत्न : मूँगा तथा मोती जैसे कुछ रत्न जिनकी उत्पत्ति जीवों या प्राणियों द्वारा की जाती है ।
३. वनस्पति रत्न : इस वर्ग में कहरुवा जैसे अश्मी भूत रत्न आते हैं । प्राकृतिक रत्नों के विशेष गुण – उपरोक्त तीनों प्रकार के रत्नों में विशेषकर खनिज वर्ग के रत्न कठोर, चिकने और चमकदार होते हैं । प्रकाश
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* रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान ★
७३ रश्मियों के परिवर्तन की इनमें अद्भुत क्षमता होती है। इसलिये ये प्रकाश में आते ही झिलमिलाने लगते हैं। कई रत्नों में स्वयं की आभा होती है और वे रात में चमकते हैं। सभी रत्नों का अपना रूप रंग होता है जो प्रकाश के सम्पर्क में आने पर द्विगुणित हो जाता है। तराशने पर यह और सुन्दर हो जाते
हैं।
सघन घनत्व तथा चिकनेपन के कारण जलवायु का इन रत्नों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता और ये लम्बे समय तक ज्यों के त्यों रहते हैं।
नवरल-सामान्य दृष्टि से देखा जाये तो रत्नों की श्रृंखला बहुत विशाल है। जिसमें भारतीय मतानुसार चौरासी रत्न और हजारों की संख्या में उपरत्न हैं। लेकिन नवरत्न की महिमा अलग है। माणिक्य, हीरा, पुखराज, मोती, नीलम, पन्ना, मूंगा, गोमेद तथा वैदूर्य (लहसुनिया) ही नवरत्नों की श्रेणी में आते हैं।
इन नौ रत्नों को सौरमण्डल के नौ ग्रहों का प्रतिनिधि माना गया है। यही कारण है कि इनको विधिवत धारण करने से फल की प्राप्ति शीघ्र होती
भारतीय उपरत्न नवरत्नों के समान ही रंग-रूप और आकृति लेकिन घनत्व तथा गुणदोष में न्यूनाधिक उपरत्न भी आधुनिक खनिज और भूगर्भशास्त्रियों ने खोज निकाले हैं। आजकल कृत्रिम रत्न भी प्रयोगशालाओं में बनाये जाते हैं। परन्तु ऐसे रत्न जो उपरत्न कहलाते हैं वे वास्तव में खनिज, जैविक तथा वनस्पति ही है।
वैक्रान्त, सूर्यकान्त, लाजवर्द, चन्द्रकान्त, फिरोजा आदि खनिज तथा शुक्ति, शंख, प्राणि और कहरुवा जैसे वनस्पति रत्न अपने गुण प्रभाव के कारण उपरत्नों की श्रेणी में गिने जाते हैं। इनका उपयोग भी रत्नों की तरह धारण करने और औषधि के रूप में सेवन करने में किया जाता है। खनिजशास्त्रीयों ने भारत सहित अन्य देशों ने काफी खोजबीन और गहन अनुसन्धान के द्वारा उपरत्नों की खोज की। भारतीय उपरत्नों के निम्नलिखित
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★ रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान ★ प्रकार हैं।
माणिक्य के उपरत्न-माणिक्य के चार उपरत्न हैं-१. सौगन्धिक, २. तामड़ा, ३. मैसूरी माणिक्य तथा ४. सूर्यकान्त।
नीलम के उपरत्न-नीली, लाजवर्द, फिरोजा और कटैला-ये चार रत्न नीलम के उपरत्न हैं।
पुखराज के उपरत्न-स्फटिक, नरम पुखराज, सुनैला, धुनैला और टाटरी-ये चार रत्न पुखराज के उपरत्न हैं।
पन्ना का उपरत्न-जबरजद, बैरुज, पन्नी, मरगज-ये चार रत्न पन्ना के उपरत्न हैं।
मोती के उपरत्न-सीप, चन्द्रकान्त, सूर्याश्म और ओपल-ये चार रत्न मोती के उपरत्न हैं।
समुद्र में पैदा होने वाली और नदी में पैदा होने वाली ये दो प्रकार की सीप होती हैं। समुद्र में उत्पन्न होने वाली सीप उत्तम मानी गयी है। क्योंकि इस सीप में मोती होता है।
हीरे के उपरत्न-जिरकॉन, वैक्रान्त, फेल्सर तथा फ्लोराइट-ये हीरे के उपरत्न कहे जाते हैं।
लहसुनिया (वैदूर्य) के उपरत्न-अलक्षेन्द्र (अलक्जेन्ड्राइट), कर्केराक, श्येनाक्ष और व्याघ्राक्ष-ये चार रत्न लहसुनिया के उपरत्न हैं।
मूंगे के उपरत्न–प्रवालमूल तथा राताश्म-ये दो रत्न मूंगे के उपरत्न
गोमेद के उपरत्न-तुरसावा, जिरकॉनये दो रत्न गोमेद के उपरत्न
८४ प्रकार के उपरत्न साधारणत: कुछ लोग कुछ प्रसिद्ध रत्नों से ही परिचित हैं। उन रत्नों के प्रभाव और प्रसिद्धि से ही प्रभावित होकर धारण लेते हैं। परन्तु उनके उपरत्न नहीं जानते हैं। यहाँ पर चौरासी उपरत्नों की गणना की जाती है। उनका परिचय उपरत्नों के नवरत्नों के रंग नाम सहित निम्नलिखित है
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★ रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान ★
१. माणिक्य : लाल रंग, रत्न शिरोमणि, सूर्य से प्रभावित । २. हीरा : सफेद, पीला, नीला आदि रंग, शुक्र से प्रभावित । ३. पन्ना : हरा रंग, बुध से प्रभावित ।
४. नीलम : गहरा नीला, आसमानी रंग, शनि से प्रभावित । ५. मोती : नीला, सफेद, लाल आदि रंग, चन्द्र से प्रभावित । ६. लहसुनिया : लहसुन की तरह रंग, राहु से प्रभावित । ७. मूँगा : लाल सिन्दूरिया रंग, मंगल से प्रभावित । ८. पुखराज : पीला, सफेद, नीला रंग, गुरु से प्रभावित । ९. गोमेद : लाल, धूमिल रंग, केतु से प्रभावित । १०. लालड़ी : गुलाब की तरह रंग ।
११. साँबोर : हरा रंग, भूरी रेखा ।
१२. जज़ेमानी : जर्दी लिये भूरा रंग, रेखा सहित । १३. अलेमानी : भूरे रंग पर रेखा ।
१४. सुलेमानी : काले रंग पर सफेद रेखा ।
१५. दुर्रेनफज़ : कच्चे धान्य की तरह का रंग । १६. बंसी : हल्का हरा पॉलिश रहित ।
१७. पितोनिया : हरे रंग पर लाल बिन्दु |
१८. मरगज : आब रहित, पन्ने की जाति का ।
१९. बेरुज : सब्ज हल्का ।
२०. लिलि : थोड़ा जरद, नीलम की हल्की जाति का ।
२१. सिन्दूरिया : श्वेत रक्त, मिश्र वर्ण ।
२२. मकनातीस : धूमिल श्वेत, चमकदार ।
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२३. मरियम : सफेद पॉलिश किया हुआ ।
२४. फिरोजा : आसमानी रंग, मुसलमानों में प्राय: पहना जाता है ।
२५. एमेनी : गहरा लाल स्याही जैसा रंग ।
२६. ज़बरजद : सब्जी, निर्मल रंग ।
२७. ऑपेल : विविध वर्ण ।
२८. तुरमली : पुखराज की जाति, पाँच प्रकार का रंग ।
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* रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान ★ २९. नर्म : पीलापन लिये लाल रंग। ३०. सुनेला : सुवर्ण में धूमिल वर्ण । ३१. धुनेला : उक्त वर्ण में जरा सा ही अन्तर। ३२. कटेला : बैंगनिया रंग। ३३. सितारा : विविध वर्ण पर सुवर्ण बिन्दू। ३४. स्फटिक : बिल्लोर सफेद। ३५. गोदन्त : साधारण पित्त, गाय के दन्त की तरह। ३६. तामड़ा : स्याही जैसा लाल रंग। ३७. लुधिया : मंजीठ की तरह लाल। ३८. हालन : मटमैला गुलाबी, हिलता है। ३९. सिजरी : सफेद के ऊपर श्याम वर्ण वृक्ष का आभास। ४०. मुवेनफज़ : सफेद रंग में बालों की तरह रेखायें। ४१. कहरवा : पीला रंग, कपूर की जाति का। ४२. झरना : मटिया रंग, पानी देने से सारा पानी झर जाता है। ४३. संगे बंसरी : सुर में उपयोगी होता है। ४४. दाँतला : पित्त प्रमुख सफेद, शंख की तरह। ४५. मँकड़ी : इसी जन्तु की जाति का रंग और जाली। ४६. संखिया : शंख की तरह सफेद। ४७. गुदड़ी : प्रायः फकीरों के उपयोग में आता है। ४८. काँसला : हरित, श्वेत वर्ण। ४९. जिफरी : हरित, आसमानी-सा। ५०. हदीद : भूरेपन सहित काला रंग। ५१. हवास : सुनहरा, हरित रंग। ५२. सींगली : काला-लाल मिश्रित। ५३. देडी : काला, खरल-कटोरी में उपयुक्त। ५४. हकीक : अनेक रंग, लकड़ी की मूंठ में ज्यादा उपयोगी। ५५. गौरी : रत्न के तौल के लिये उपयोगी। ५६. सीपा : काला रंग, मूर्तियों में उपयोगी।
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★ रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान ★
ওও ५७. सीमाक : लाल, पीला, मटमैला, सफेद, पीले, गुलाबी छींटे भी। ५८. मूसा : सफेद-मटिया, खरल बनती है। ५९. तुरसावा : गुलाबी, पीत मिश्रित। ६०. अहवा : गुलाबी रंग पर बिन्दु। ६१. लाजावर्त : (लाजवरद) लाल रंग सोने के बिन्दु। ६२. कुदूएत : काला रंग, सफेद-पीले बिन्दु। ६३. आवरी : कालापन लिये सोने सा। ६४. चीती : सुनहरी बिन्दु, सफेद रेखा। ६५. संगेसम : अंगूरी और सफेद, कपूरी। ६६. मारवर : बाँस की तरह, लाल-श्वेत रंग मिश्र। ६७. लॉस : मारवर की जाति का धूमिल। ६८. दानाफिरंग : पिश्ते की तरह हल्का रंग। ६९. कसौटी : काला रंग (शालग्राम की तरह)। ७०. दारचना : दालचीनी का रंग, तस्वीह (माला में काम आता है)। ७१. हव्मीकुल-वाहार : हरे, पीलेपन सहित, जल में जन्म। ७२. पनघट : थोड़ा हरा-काला। ७३. आमलिया : कालापन एवं गुलाबीपन। ७४. डूर : कत्थई रंग। ७५. तिलेवर : काले रंग पर सफेद छींटा। ७६. खारा : हरेपन सहित काला। ७७. सीरखड़ी : मटिया रंग, घाव पर उपयोगी। ७८. ज़हरमोरा : सफेद सहित हरा (विषहर)। ७९. राव : लाल-सा लहसुनी रंग, रात्रि के ज्वर का नाशकारी है। ८०. सोहनमक्खी : नीला रंग। ८१. हजरते ऊद : सफेद मिट्टी जैसा रंग। ८२. सुरमा : काला रंग। ८३. पायजहर : बाँस की तरह रंग। ८४. पारस : काला रंग, सोना बनता है।
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* रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान *
उन्नतीस मोहरे इसी प्रकार शास्त्रों में उन्नतीस मोहरे भी बताये गये हैं जो ऐसा ही फल देते हैं। यहाँ जानकारी हेतु इनके नाम दिये जाते हैं१. मंगलमुखी
२. मोहनी मोहरा ३. जगजीत मोहरा
४. कष्टी मोहरा ५. नजर मोहरा
६. लहरी मोहरा ७. त्रिवेणी
८. शिवसुलोचनी ९. गौरी शंकर
१०. मारु मोहरा ११. सुलेमानी मोहरा १२. खजरी मोहरा १३. जहरी मोहरा
१४. विग्रही १५. सूर्यमुखी
१६. चन्द्रमुखी १७. जवाहर मोहरा १८. हल्दिया मोहरा १९. सूढिया मोहरा
२०. सिन्धी मोहरा २१. बच्छ नागी
२२. मोर मोहरा २३. सर्प मोहरा
२४. पायणहर मोहरा २५. संखिया
२६. नक्षत्री.मोहरा २७. अलमनिया
२८. अग्निशोषण २९. जलतैर मोहरा।
बनावटी रत्न असली रत्नों की नकल तैयार करने का प्रचलन बहुत पुराना है। मिस्र में प्राचीन काल से ही नकली मूल्यवान रत्न बनाये जाते थे। सन् १७५८ में बियना के जोसफ स्ट्रासरे ने एक ऐसा काँच का आविष्कार किया जो कटाई के बाद हीरे जैसा लगता है। इस प्रकार के नकली रत्नों के व्यापार पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया था। फिर भी पेरिस आदि बड़े शहरों में नकली रत्नों का व्यापार बड़े धड़ल्ले से होता है। सन् १९४५ तक चेकोस्लोवाकिया में नकली काँच के गहनों का व्यापार चरम सीमा पर था। बाद में बावेरिया में भी इस प्रकार के उद्योग शुरू हो गये। उस समय काष्ट्यूम ज्वेलरी के लिये सस्ते
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* रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान * किस्म के काँच का प्रयोग होता था। नकली रत्न बनाने के लिये गहरे और मोटे काँच का प्रयोग, जिनका उच्च परावर्तनांक होता था, इस्तेमाल किया गया था। इस प्रकार नकली रत्नों के रंग रूप भी बिल्कुल असली रत्नों के समान लगते हैं। परन्तु इन रत्नों का भौतिक वर्तनांक विशेषकर कठोरता और चमक असली रत्नों की अपेक्षा कम होती थी। इसी कारण आज के वैज्ञानिक युग में असली रत्नों जैसा कोई भी नकली रन नहीं बना पाते हैं। जिनकी कठोरता, गुरुत्व और परावर्तनांक असली रन जैसा हो। परन्तु १९वीं शताब्दी के अन्त में एक फ्रांसिसी केमिस्ट ने काफी समय तक नकली माणिक्यों का व्यापार किया तथा एक अन्य फ्रांसिसी उत्पादक ने ओपल की नकल सफलता से तैयार की। ओपल रत्न की विशेषता इसकी रंग-चमक से है। जिसकी नकल करना बहुत कठिन है। हीरे की नकल तैयार करने के लिये जिरकॉन का उपयोग किया जाता है।
गढ़े हुए रत्न रत्नों के व्यापार में सबसे चौंकाने वाली बात है कि जब दो या तीन प्रकार के रत्नों को आपस में चिपकाकर गढ़ दिया जाता है। इसे फैब्रिकेशन कहते हैं। उदाहरणतः ऊपरी सतह और निचली सतह के बीच में कुछ ऐसे काँच के टुकड़े परत बनाकर मिला दिये जाते हैं कि एक रंगहीन रत्न भी रंगीन चमक बिखेरने लगता है। कभी-कभी किसी कठोर पत्थर की ऊपरी सतह पर मूल्यवान रत्न का चौखटा जमा दिया जाता है।
संश्लिष्ट रत्न संश्लिष्ट रत्न प्राकृतिक रूप से नहीं बनते। इन्हें प्रयोगशालाओं और कारखानों में बनाया जाता है। इसकी रासायनिक संरचना प्राकृतिक रत्नों के अनुसार ही होती है। संश्लिष्ट रत्नों की प्रथम उत्पत्ति सन् १८३० में हुई थी। आभूषणों में जड़ने के लिये छोटे-छोटे संश्लिष्ट रत्न बनाने की परम्परा उसी समय शुरू हुई। १९वीं शताब्दी में वस्नील नामक वैज्ञानिक ने किफायती ढंग से संश्लिष्ट रत्न बनाने की प्रक्रिया खोज निकाली। असली रत्नों जैसे भौतिक
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* रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान *
गुण और वर्तनांक वाले संशिलष्ट रत्नों को उसी पाउडर से बनाया जाता था जिससे असली रत्न बने होते थे। पाउडर अत्यधिक उच्च तापमान पर भट्टी पर पिघलाया जाता था। इतने तापमान पर जब पाउडर पिघलता था तो उसकी बूंदें नीचे गिरने पर गोल या लम्बे आकार के पारदर्शी रत्नों जैसी संरचना ग्रहण कर लेती थीं। इन संशिलष्ट रत्नों की आन्तरिक रचना प्राकृतिक और पारदर्शी रत्नों जैसे होती है। बाहरी सतह की चमक को छोड़कर रत्न के भौतिक गुण भी असली रत्न से मिलते-जुलते थे। दो सौ से पाँच सौ कैरेट वजनी रत्नों को बनाने में मात्र तीन-चार घण्टे लगते थे। फिर तो अच्छे कारीगरों द्वारा इन रत्नों पर चोट या कोई आन्तरिक दबाव दिये बिना, छोटेछोटे रत्न काटकर तैयार किये जाते थे।
सन् १९५५ में अमेरिका और स्वीडन में संश्लिष्ट बहत्तर हीरों का निर्माण सफलतापूर्वक किया गया है। जिसमें उच्चताप प्रणाली की सहायता लेकर मानव निर्मित हीरे बनाये गये। सन् १९७० में सभी रत्नीय गुणों से युक्त और बड़े साइज की हीरों का उत्पादन हुआ। परन्तु इनकी उत्पादन लागत इतनी ज्यादा थी कि व्यावसायिक तौर पर हीरों का उत्पादन स्थगित कर दिया गया। परन्तु संश्लिष्ट हीरे औद्योगिक तथा वैज्ञानिक कार्यों के लिये बहुत उपयोगी सिद्ध हुए। आज अनेक संश्लिष्ट रत्न ऐसे हैं जो भूगर्भ से पैदा नहीं होते या प्राकृतिक रूप से जिनका कोई सम्बन्ध नहीं है। फिर भी बाजार में इनका भाव ऊँची कीमतों में हैं क्योंकि इनकी चमक असली रत्नों जैसी ही होती है।
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नवरत्न और उनका प्रयोग
१. माणिक्य रत्न (Ruby) माणिक्य रत्न को सोनरत्न और वसुरत्न भी कहते हैं। इसका स्वामी सूर्य है। संस्कृत में इसे माणिक्य के अतिरिक्त पद्मराग, शोण तथा लोहित रत्न भी कहते हैं। हिन्दी में माणिक, मणि, फारसी में याकूत, अंग्रेजी में रूबी
और उर्दू में चुन्नी कहकर पुकारते हैं । माणिक मणि की खानें सर्वप्रथम उत्पन्न हुई। इनकी खानें गंगा नदी, विन्ध्याचल, हिमालय, स्याम, बर्मा, श्रीलंका और पश्चिम में काबुल में तथा वनों में भी पायी जाती हैं। इसका रंग रक्त के समान, सुर्ख लाल कमल के समान होता है। आजकल छाया भेद के आधार पर सुर्ख रंग इसकी पहचान बन गयी है। लाल कमल के अतिरिक्त माणिक्य का रंग गुलाबी कमल, रोली, सिन्दूर, लाख, अनार के बीज, टेसू, सिंगरीफ, केले का पुष्प, गुंजा, कल्पवृक्ष के पुष्पों के रंगों के समान भी होता है।
असली माणिक्य की पहचान--इस माणिक्य को गाय के दूध में छोड़ देने से दूध का रंग गुलाबी हो जाता है और कमल की कली पर रख देने से वह बिल्कुल खिल जाती है। यही असली माणिक्य होने के लक्षण हैं। सूर्य की रोशनी में माणिक्य को शुभ्र चाँदी के पात्र में तथा मोती में रखने से मणि इन्हें लाल कर देगी। माणिक्य को हाथ पर रखने से सुर्सी छा जाये तथा उसे काँच के किसी बर्तन में रखने से उसमें से चारों तरफ लाल किरणें निकलें तो वह भी शुद्ध माणिक्य है।
माणिक्य रत्न के गुण, लाभ व दोष-इसके गुण पाँच प्रकार के हैं-अच्छे रंग, और अच्छे आकार का पानीदार, साफ, चिकना, चमकीला
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८२
रत्न नाम
स्वामी राशि
ग्रह
१. माणिक्य सूर्यकान्त सूर्य लालड़ी
२. मोती
३. मूँगा
४. पन्ना
५. पुखराज
६. हीरा
७. नीलम
८. गोमेद
उपरल
चन्द्रकान्त चन्द्र
शंखमुक्ता
तामड़ा
विद्रुम
★ रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान ★
जबरजद्द बुध
संगपन्नी
संग
तुरसावा
कैटला शनि
संगलीली
९. लहसुनिया संग
सुनहला बृहस्पति धनु
कहरवा
गोदन्ती
सिंह
मंगल मेष,
जिरकॉन शुक्र वृषभ, संगतुरमुली
तुला
मकर
कर्क
वृश्चिक
मिथुन,
कन्या
राहु कुम्भ
केतु मीन
जन्म तिथि
१५ अग. से १४ सितं.
१५ जुलाई से १५ अग.
१५ मई से १४ जून,
१५ अक्तू. से १४ नवं.
१५ जन. से १४ फर.
नवरत्न
१५ नवं. से १४ दिसं., ६ रत्ती
१५ अप्रैल से १४ मई
न्यूनतम धातु
वजन
३ रत्ती
स्वर्ण
१५ जून से १४ जुलाई, ३ रत्ती
१५ सितं. से १४ अक्तू.
१५ दिसं. से १४ जन.
१५ फर. से १४ मार्च
२ रत्ती
३ रत्ती
१ रत्ती
४ रत्ती
चाँदी
लोहा,
सीसा
पंचधातु
१५ मार्च से १४ अप्रैल ४ रत्ती पंचधातु
४ रत्ती
स्वर्ण
सोना व
कांसा
चाँदी
सोना,
चाँदी
माणिक ही धारण करना चाहिये । इसे अँगूठी में जड़वाकर, भुजा में भुजबन्द में जड़वाकर तथा गले में माला बनवाकर पहनना चाहिये ।
इसे धारण करने से वंशवृद्धि, सुख-सम्पत्ति की प्राप्ति और अन्न, धन का संग्रह अधिक होता है । इससे भय बीमारियाँ तथा अनेक दुःख व कष्ट दूर होते हैं । विप्र वर्ण और सफेद रंग की झाईंवाली माणिक्य को ब्राह्मण धारण करें तो वह वेदपाठी, बुद्धिमान और सुखी होता है। क्षत्रिय वर्ण की मणि ब्राह्मण को बुद्धिमान और वीर बनाती है तो क्षत्रिय को विजय प्राप्त कराती
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★ रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान *
एक दृष्टि में धारण स्थान
धारण समय
अवधि
धारण मन्त्र
दायें हाथ की अनामिका
सूर्योदय
४ वर्ष
ॐ ह्रां ह्रीं ह्रौं सः सूर्याय नमः ॐ श्रां श्रीं श्रौं सः चन्द्राय नमः
दायें हाथ की कनिष्ठका
सन्ध्या
२ वर्ष १ माह २७ दिन या जब तक न टूटे ३ वर्ष ३ दिन
दायें हाथ की अनामिका
दायें हाथ की कनिष्ठका
३ वर्ष
सूर्योदय के एक घण्टे बाद सूर्योदय के दो घण्टे बाद सूर्योदय से एक घण्टा पूर्व प्रातः
दायें हाथ की तर्जनी
४ वर्ष ३ माह १८ दिन । ७वष ७ वर्ष
दायें हाथ की कनिष्ठका
ॐ क्रां क्रीं क्रौं सः भौमाय नमः ॐ ब्रां ब्रीं ब्रौं सः बुधाय नमः ॐ ग्रां ग्री गौं सः गुरूवे नमः ॐ द्रां द्रीं द्रौं सः शुक्राय नमः ॐ प्रां प्रीं प्रौं स: शनये नमः ॐ भ्रां भ्रीं श्रौं सः राहुवे नमः ॐ रां प्री स्रौं सः केतुवे नमः
दायें हाथ की मध्यमा
दायें हाथ की मध्यमा
सूर्योदय से दो ५ वर्ष घण्टे पूर्व सायं से दो घण्टे ३ वर्ष बाद अर्द्धरात्रि ३ वर्ष
दायें हाथ की मध्यमा या कनिष्ठका
है। वैश्य वर्ण का माणिक्य पीले रंग की आभा (चमक) लिये होता है। यदि ब्राह्मण इसे धारण करें तो भी उसे लाभ ही लाभ होता है। शूद्र वर्ण का माणिक्य शूद्र ही धारण करे तो उसे सुख सम्पत्ति तथा आनन्द की प्राप्ति होती है। यह मणि श्याम रंग की चमक लिये होती है।
दोषपूर्ण माणिक्य धारण करना निषेध है। यह स्वयं के लिये तथा परिवारजनों के लिये कष्टदायक सिद्ध होता है साथ ही सुख-सम्पत्ति का भी नाश करता है। इसके दस दोष निम्नलिखित हैं
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* रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान * १. माणिक्य में यदि काला, सफेद तथा शहद जैसे छींटे हों तो काले
छींटे से दुःख, सफेद से बेइज्जती या बदनामी और शहद के
समान छींटे से आयु, धन, सुख-सम्पत्ति सबका विनाश होता है। २. यदि माणिक्य में जाले जैसा निशान हो तो कलह की वजह से धन
और स्थान नष्ट होता है। ३. चमक से रहित माणिक्य सुन्न कहलाता है। इसे धारण करने से
भाई को कष्ट व दुःख होता है। ४. माणिक्य में गड्ढा हो तो शरीर दुर्बल करता है। ५. माणिक्य यदि धुएँ के रंग जैसी हो तो उसे पहनने से अचानक ही
बिजली से आघात लगता है या बिजली गिरती है। ६. जिस माणिक्य में बहुत दोष और अवगुण हों तो उसे कभी धारण
नहीं करना चाहिये क्योंकि वह मृत्युकारक होता है। ७. दूध के समान माणिक्य को दूधक कहते हैं इससे पहनने से पशु
का नाश होता है। ८. पृथ्वी के मटमैले रंग के समान माणिक से पेट के विकार उत्पन्न
होते हैं तथा पुत्र की उत्पत्ति में बाधा होती है। ९. दो रंग की चमक लिये माणिक्य को पहने से धारक के पिता को
और स्वयं उसे दुःख प्राप्त होता है। १०. माणिक्य में चिटकापन हो और उसके टूटने की सम्भावना हो तो
धारण करने वाले को शस्त्र से चोट लगती है और लड़ाई के मैदान
से भागने का कलंक लगता है। माणिक्य का परिचय पर्यावाची शब्द :सं. माणिक्य, पद्मराग, कुरुविन्द, वसुरत्न, रत्नायक,
लोहित, रविरत्न, लम्मी पुण्य, सौगन्धिक इत्यादि। हिन्दी : लाल, चुन्नी, माणिक्य। मराठी एवं बंगला : माणिक्य।
तेलगु : माणिक्यम्। फारसी : याकूत।
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* रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान * अरबी : लालबदख्शा। अंग्रेजी : रूबी (Ruby)। परिचय : माणिक्य गहरे लाल रंग का पारदर्शी (अर्थात् आर
पार देखने वाला) पत्थर है और चमकने वाला होता
है। हीरे के बाद यह सबसे ठोस रत्न है। माणिक्य के प्रकार-वैसे तो माणिक्य का वास्तविक रंग लाल होता है। फिर भी कई एक माणिक्यों में हल्के और गहरे रंग की आशायें भी होती हैं। इसलिये भी माणिक्य कई तरह का होता है। जैसे
१. सिंगरफ के रंग के समान का। २. सिन्दूर के रंग के समान का। ३. बीरबहुटी के रंग के समान का। ४. लाख के रंग के समान का। ५. लाल कमल के फूल के रंग के समान का। ६. गुलाबी रंग के समान का।
शास्त्रों के अनुसार माणिक्य की कई प्रकार की जातियाँ होती हैं। जैसे१. पद्मराग-यह अग्नि में जले सोने की तरह लाल रंग का चमकदार,
दीप्त आग की भाँति, अत्यन्त सुगन्ध वाला, यह मीठा होता है। २. सौगन्धिक-यह माणिक्य सरस तथा चकोर पक्षी के आँख की
तरह या फिर अनार के दाने की भाँति यह किंशुक के फूल की
तरह का होता है। ३. नील गन्धि- यह माणिक्य मूंगा, आलता, ईगुर अथवा कमल के
वर्ण का नीलाभ्य चमकने वाला होता है। ४. कुरुविन्द-यह माणिक्य पद्मराग व सौगन्धिक माणिक्य की
आभा से युक्त परन्तु इनसे छोटा व जल की तरह होता है। ५. जामुनिया-यह माणिक्य लाल कनेर के फूल के वर्ण का या
लाल रंग के जामुन की भाँति आभायुक्त होता है। माणिक्य की पहचान-सबसे अच्छा माणिक्य चिकना, पारदर्शक,
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* रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान * सुन्दर आकर्षक व पानीदार मृदु, गुरु, सुडौल व लाल रंग का होता है अर्थात् हाथ में लेने पर हल्का-हल्का गरम का आभास होता है।
माणिक्य के प्राप्ति स्थान-माणिक्य रत्न प्राय: बर्मा, श्रीलंका, अफगानिस्तान तथा हिन्द चीन में अधिकांश प्राप्ति होती है। सबसे श्रेष्ठ माणिक्य ब्रह्मदेश के मोगोका नामक खान का होता है। मोगोका माणिक्य गुलाबी रंग का चमकदार व अकर्मकपूर्ण होता है लेकिन बहुमूल्य होता है। दक्षिण भारत में भी कामियन नामक जगह पर तथा टैगानिका (अफ्रीका) में माणिक्य की खान है, भारत का माणिक्य अपारदर्शक, श्याम नील, आभामय, गंदला रंग का मृदु होता है। अफ्रीका का माणिक्य लाल वर्ण, नीलाभ तथा किसी-किसी में पीली आभा होती है। माणिक्य के गुण व दोष की परख १. माणिक्य के वजन के सौगुने दुग्ध में माणिक्य को डाल देने पर या तो
दूध लाल रंग का हो जायेगा अथवा दूध से लाल रंग की किरणें उत्पन्न
होती दिखायी देती प्रतीत होंगी। २. माणिक्य को हाथ में रखने पर थोड़ा सा गर्म का आभास होगा। ३. गोल व लम्बा आकृति का माणिक्य सबसे अच्छा होता है। ४. सबसे अच्छा माणिक्य कमल की पंखुडियों में रखने पर चमकने लगता
५. सबसे श्रेष्ठ माणिक्य को पत्थर पर रगड़ने पर पत्थर तो घिस जाता है
लेकिन माणिक्य नहीं घिसता और न ही माणिक्य पर किसी भी प्रकार
का बुरा प्रभाव पड़ता है। बल्कि चमकने ही लगता है। ६. प्रातःकाल सूर्य के प्रकाश में माणिक्य को रखने पर उससे लाल रंग की
किरणें चारों तरफ उत्पन्न होकर चमकने लगती हैं। ७. रात्रि में उत्तम माणिक्य सूर्य की तरह चमकने लगता हैं। ८. सबसे अच्छा माणिक्य पारदर्शक होता है। ९. सबसे अच्छा माणिक्य समान अंगों व अवयव वाला होता है। १०. हाथ में लेने पर सबसे अच्छा माणिक्य अन्य माणिक्य की तुलना में
अधिक वजनदार होता है।
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माणिक्य के अन्य दोष - माणिक्य में निम्न दोष भी पाये जाते हैं, दोषयुक्त धारण कभी नहीं करना चाहिये, क्योंकि इससे लाभ तो मिलता नहीं अपितु हानि ही होती है ।
१. अशुद्ध माणिक्य चमकदार नहीं होता है। इससे किसी भी प्रकार की किरणें नहीं दिखायी पड़तीं । अतः इसे सुन्न माणिक्य भी कहते हैं ।
२. जो शर्करा के समान अथवा बालूकण के समान किरकिरा हो या चुरचुरा हो ।
३. दूधक: जिस माणिक्य का रंग दुग्ध वर्ण का हो अर्थात् उस पर इसके रंग के तरह छींटे हों ।
४. मटमैला : जिस माणिक्य का रंग खराब - सा प्रतीत हो ।
५. त्रिशूल: जिसमें त्रिकोण, त्रिभुज या त्रिशूल की तरह का चित्र
हो ।
६. रंगाधिक्य : जिनमें दो या दो से अधिक रंग हों ।
७. जालक : जिस माणिक्य में रेखायें टेढ़ी-मेढ़ी खींची होकर मकड़ी का जाल सा बनाती हों ।
८. धूम्रक : जिस माणिक्य में धुयें के रंग के समान रंग हो ।
९. हल्कापन : जो माणिक्य अपने आकार के अनुसार से ज्यादा भारी होने के बदले हल्का हो ।
१०. चीरित : जिस माणिक्य में धन (+) का निशान की तरह कटा हो अथवा चीरा लगा हो ।
११. गड्ढा : जिस माणिक्य में गड्ढा हो या फिर टूटा हुआ हो । १२. शहद : जो माणिक्य शहद के रंग के समान का हो अथवा इस पर शहद की भाँति छींटे हों ।
१३. परत : जिस माणिक्य में अभ्रक की परत सी दिखायी देती हो । नकली (इमीटेशन) माणिक्य - जिस तरह अन्य रत्नों में नकली रत्न पाये जाते हैं। वैसे ही माणिक्य भी नकली पाया जाता है। नकली माणिक्य प्रायः दो प्रकार के होते हैं - १. नकली (इमिटेशन) माणिक्य, २ .
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★ रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान * चेदम (सिंथेटिक) माणिक्य।
सिंथेटिक माणिक्य दूधक में दूधिया रंग का न होकर नीला रंग का होता है। अत: वह घूमता नहीं दिखायी देता। नकली माणिक्य असली माणिक्य से अधिक चमकते हैं। रात्रि में तेज चमकता है।
एक्स किरण में असली व नकली माणिक्य दोनों ही एक समान चमकते हैं परन्तु एक्स किरणें हटा लेने पर नकली माणिक्य चमकता दिखायी देता है। जबकि असली की चमक कम हो जाती है।
माणिक्य का प्रयोग-वैसे माणिक्य का उपयोग ग्रह दोष शान्त्यार्थ अंगूठी रूप में धारण तो करते हैं साथ ही इसका उपयोग दवाई के रूप में क्षय रोग, उदर शूल, कोड़ा चोट, नुकसान, पक्षाघात, जहर प्रभाव, नेत्ररोग व कोहड इत्यादि को दूर करने के लिये भी करते हैं।
माणिक्य का उपरत्न लालड़ी माणिक्य का उपरत्न लालड़ी है।
पर्यायवाची शब्द-सं. सूर्य रत्न। हिन्दी लालड़ी। फारसी लाल। अंग्रेजी स्पाइनेल रेड (Spinal Red)
परिचय-लालड़ी, माणिक्य के अभाव में या जो व्यक्ति अधिक मूल्य के माणिक्य खरीद नहीं सकते उनके द्वारा पहना जाता है। लालड़ी गहरे सुर्ख लाल रंग का, रक्त वर्ण का, सिन्दूरी रंग की आभा के समान, आकर्षक स्वच्छ वर्ण वाला, गुलाब के फूल के रंग के समान, अनार की कली के समान, कषाय वर्ण के, गुलबास के समान सुर्ख श्याम वर्ण वाला तथा हल्के गुलाबी रंग का होता है।
लालड़ी के गुण-लालड़ी स्निग्ध, चमकदार, जलदार, शुद्र रंगवाली, हाथ में लेने के कुछ समय बाद गर्म का अनुभव, पानी में डालने पर लाल रंग की किरणें निकलती हुई दिखायी देना अतः दूध में रखने पर दूध का रंग लाल रंग का दिखायी देना, हाथ में लेने पर सामान्य से ज्यादा भारीपन मालूम देना।
लालड़ी के दोष१. धूमिल तथा अस्पष्ट रंग वाली लालड़ी प्राणनाशक व शरीर को
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* रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान * दुःख देने वाली होती है। २. अपारदर्शी लालड़ी हृदय रोग पैदा करती है। ३. रेखाओं से मकड़ी के जाल की तरह के निशान लालड़ी भी
स्वास्थ्य को खराब करने वाली है। ४. एक रेखायुक्त या छोटी-छोटी रेखाओं से युक्त लालड़ी से शस्त्राघात
का डर होता है। ५. गढ्ढेदार या टूटी हुई लालड़ी पशुधन को खराब करती है। ६. दो रंगों से युक्त या छोटे काले रंगों के निशान से युक्त या शहद के
समान रंग के धब्बे से युक्त, रक्त के समान लाल रंग की धब्बे से युक्त अथवा श्वेत रंग के छोटे-छोटे निशान से युक्त लालड़ी धन,
जन, स्वास्थ्य, यश, मान आदि के लिये हानिप्रद है। लालड़ी के उपरत्न
लालड़ी के भी तीन उपरत्न होते हैं जिन्हें लालड़ी के स्थान पर ग्रहण किया जाता है।
१.संग आतशी : यह बादामी रंग का तथा आतशी रंग का पत्थर है।
इसके ऊपर काले, पीले या गुलाबी रंग के निशान होते हैं। २. संग सिन्दूरिका : यह सिन्दूरी तथा गुलाबी रंग का होता है। ३.संग टोपाज : यह गेरुआ रंग का तथा स्निग्ध पत्थर है।
माणिक्य के अन्य उपरत्न लालड़ी के पश्चात माणिक्य के तीन और उपरत्न होते हैं
१. संग माणिक-यह गुलाबी, लाल, पीले तथा काले रंग का, स्वच्छ, स्निग्ध व हल्की आभायुक्त होता है। यह हिमालय, विन्ध्याचल के शिखरों में व वर्मा, लंका, स्याम आदि में भी पाया जाता है।
२. संग तामड़ा-यह गहरे लाल रंग का होता है। यह भी हिमालय, विन्ध्याचल, अरावली तथा ढुंढार आदि अन्य स्थानों में पाया जाता है।
३. माणिक सिंगली-यह अभ्रक के रंग का तथा चिकना होता है। यह स्याम तथा चीन के देशों में पाया जाता है।
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★ रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान *
२. मोती रत्न (Pearl) यह चन्द्रमा का रत्न है। मोती आठ प्रकार के होते हैं। इनमें सात प्रकार के मोती छेदे नहीं जाते और इच्छित फलप्रद होते हैं। सिर्फ सीप के मोतियों में छेद किये जाते हैं और वे भी शुभ होते हैं । इनमें अच्छे गुणों वाला, कोमल जाति, अण्डे जैसे स्वरूप और स्वाति नक्षत्र में उत्पन्न मोती सोच समझकर और देखकर लेना चाहिये। इनके नाम निम्न प्रकार हैं
१. शंख मोती, २. गजमोती, ३. शुक्ति मोती, ४. सर्पमोती, ५. मीन मोती, ६. आकाश मोती, ७. शूकर मोती, ८. आकाश मोती।
जिस प्रकार मानव शरीर पाँच तत्त्वों से निर्मित है, उसी प्रकार रत्नों की उत्पत्ति भी पाँच तत्त्वों से हुई है। जल के तत्त्व वाला मोती चमकीला और निर्मल, भूमि तत्त्व वाला मोती भारी होगा। आकाश तत्त्व वाला मोती हल्का होता है। वायु तत्त्व के मोती लहरदार, गर्जनशील तथा नीले वर्ण के होते हैं। लंका, भूमध्यसागर तथा सिंहल में श्वेत मोती तथा बसरा, स्याम, दरभंगा में पीले रंग के मोती उत्पन्न होते हैं। पाटल रंग का सिंहल में, सुर्ख मोती दरभंगा में विशेष होता है। दो जाति के मोती गोल व शुद्ध होते हैं। इनके अतिरिक्त मोती खुरदरे, लम्बे, बेडौल, दोषयुक्त और कम चमक वाले होते
सफेद रंग का मोती ब्राह्मण के लिये बुद्धि में वृद्धि करने वाला, पाटल (लाल) मोती क्षत्रियों के लिये उनका तेज बढ़ाने के लिये, पीले मोती वैश्यों के लिये अन्न-धन में वृद्धिकारक तथा श्याम वर्ण के मोती शूद्रों के लिये लाभदायक सिद्ध होते हैं। मोती को पहनने से आनन्द तथा सुख-सम्पत्ति में वृद्धि होती है।
मोती की पहचान१. किसी कपड़े में धान की भूसी लेकर उसमें मोती रखकर मोती
को बहुत तीव्रता से मलें। यदि मोती असली होगा तो वह टूटेगा नहीं व खूब चमकेगा किन्तु यदि मोती का चूर्ण बन जाये तो
नकली मोती होगा। २. दूसरी परीक्षा यह है कि मिट्टी की हाँडी को गाय के मूत्र से भर
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* रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान * दें। उसमें रख मोती अगले दिन यदि वह टूटा हुआ मिले तो उसे अशुद्ध मोती समझें तथा ज्यों का त्यों रहे तो उसे सच्चा मोती
समझना चाहिये। ३. सच्चा मोती पहचानने की एक विधि यह भी है कि गाय के घी
में रख देने से घी पिघलकर बिल्कुल पतला हो जाता है। उपरोक्त विधियाँ प्रयोग करके आप शुद्ध व सच्चे मोती की पहचान कर सकते हैं।
मोती के गुण-मोतियों के छ: गुण होते हैं-चन्द्र के समान चमक, एक बाल के बराबर छिद्र, गोल, चिकना, कोमल, सरस। ये मोती बहुत शुभदायक फल देने वाले होते हैं और ऐसे मोती ही धारण करने चाहिये। मोतियों के छोटे-बड़े होने से कोई फर्क नहीं पड़ता। शुद्ध मोती को पहनने से सात जन्मों के पापों का प्रायश्चित होता है। दूसरों की स्त्रियों के बारे में मन में कोई गलत विचार नहीं आते। यह सुन्दरता में, बल में, बुद्धि में, ज्ञान में, मान में, तेज में वृद्धि करता है तथा शारीरिक कमजोरी को दूर करता है व सब इच्छायें पूर्ण करता है।
मोतियों के दोष-ये दोष चौदह प्रकार के होते हैं१. बिना चमक का मोती 'सुन्न' दोषी कहलाता है। इसे धारण करने
से वैभव नष्ट होकर दरिद्रता आती है। २. मूंगा के समान लाल रंग का मोती दुःख और रोग में वृद्धि करता
है।
३. मोती में किसी प्रकार का भी धब्बा होने से रोग पैदा करता है। ४. छाला दोषी अर्थात् बीच में पोला पड़ा मोती सुख, सौभाग्य और
सम्पत्ति का हरण करता है। ५. टूटा मोती पहनने से कष्ट और किसी शस्त्र से चोट पहुँचना
निश्चित है। ६. जिस मोती में चेचक के समान गड्ढे हों वह कुल हानि और पुत्र
नाश करता है। ७. जिस मोती में लहर के समान रेखा हों उससे मन उद्विग्न होता है।
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★ रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान * ८. त्रिकोण दोषयुक्त मोती पहनने से नपुन्सकता आती है। ९. दुबला-सा मोती पहनने से बल, बुद्धि दोनों नष्ट होती हैं। १०. मोती में चपटापन हो तो उसे धारण करने से बदनामी होती है। ११. ताम्र, माहिल, श्याम तथा सुर्ख वर्ण वाला मोती पहनने से भाई
नष्ट होता है। १२. कौए के जैसे स्याह रंग के धब्बे वाला मोती सत्य का विनाश
करता है। १३. गुलाबी, लाल या काला मस्सायुक्त मोती दुःख प्रदान करता है
ऐसे मोती को मस्सादोषयुक्त मोती भी कहते हैं। १४. 'गिडली' दोषयुक्त मोती में चारों तरफ रेखा पड़ी होती है। इसे
पहनने से हृदय में भय की उत्पत्ति होती है। इन चौदह दोषों से युक्त मोतियों को पहनने से दुःख मिलता है, इसलिये ऐसे मोतियों को कभी नहीं पहनना चाहिये। मोती के प्रकार
आकाशमुक्ता-यह मोती बादलों में उत्पन्न होता है जो उत्पन्न होते ही देवताओं द्वारा हर लिया जाता है । यह सुन्दर मोती साधारण मनुष्य के नेत्रों से नहीं दिख सकता। इसे केवल योगी मानव की दिव्य दृष्टि ही देख सकती है और वही इसे प्राप्त भी कर सकते हैं। जिसके फलस्वरूप उनकी सब इच्छायें पूर्ण हो जाती हैं।
शूकरमुक्ता-यह मोती वाराही वंश के शूकर के कुल में उत्पन्न होता है। यह सब जगह नहीं पाया जाता जहाँ पर शूकर अधिक मात्रा में पाये जाते हैं और जहाँ बहुत दुर्गन्ध आती हो वहाँ कभी-कभी बड़े वाराही शूकर के सिर पर यह मोती होता है। यह मोती गोल, सरसों के समान पीले रंग का और मटकटैया के फल के बराबर होता है। सिर पर धारण करने से मनुष्य को युद्ध में शूरवीर होकर विजय प्राप्त कराता है। सम्भोग के दौरान कमर में शूकरमुक्ता को रखने से स्त्री गर्भवती होकर पुत्र को जन्म देती है। इस मोती को धारण करने से सम्पत्ति, पुत्रसुख तथा स्वरसिद्धि मिलती है।
शुक्तिमुक्ता-स्वाति नक्षत्र की बूंद के सीप में गिरने से यह मोती
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* रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान* उत्पन्न होता है। सीप के मोती शुद्ध और सच्चे होते हैं। भूमध्यसागर में उत्पन्न मोती सफेद, आकर्षक, चन्द्र के समान चमक वाले, चन्द्रग्रह के अनुकूल और ब्राह्मण वर्ण के होते हैं।
शंखमुक्ता-यह मोती पाञ्चजन्य शंख से उत्पन्न होता है। यह अण्डे के समान, चमकहीन तथा पाण्डु रंग का होता है। जिसके पास यह मोती होता है, देवता उसके मित्र होते हैं। उसे संसार के समस्त प्रकार के लाभ मिलते हैं। वह सभी प्रकार की सुख-सम्पत्तियों से सम्पन्न होता है। यह मोती सन्तानप्रद तथा पापों से मुक्त करने वाला और सुख देने वाला कहा गया है।
सर्वमुक्ता-यह मोती नीले रंग का, साफ, चन्द्र के समान कान्तियुक्त होता है। यह वासुकी वंश के सर्पो के फनों पर होता है जो साधारण मनुष्यों के लिये दुर्लभ है। दिव्यदृष्टि वाले भाग्यशाली योगीराज ही इसे प्राप्त कर सकते हैं । जिसे यह प्राप्त होता है उस पर किसी की कुदृष्टि नहीं होती। सब प्रकार के विषैले जीव दूर रहते हैं तथा चोर, शत्रु, डाकिनी, शाकिनी, प्रेतादि सब भाग जाते हैं और सारे रोग नष्ट होकर सब कार्य पूर्ण होते हैं। .. मीनमुक्ता-गोमची के बराबर पाण्डु रंग के, कोमल अंग तथा चमक वाले मणिमुक्ता मछली के पेट से उत्पन्न होते हैं। यह मोती अनेक रोगों को दूर करता है। यदि पानी के अन्दर बैठकर इस मोती को मुँह में रखें तो उसे सब वस्तुयें दिखेंगी। इसे धारण करने वाला ग्रन्थकार, पण्डित और ज्ञानी होता है।
वंशमुक्ता-वंशमुक्ता दुर्लभ मुक्ता है। इस मोती के पैदा होते ही देवता इसे हर लेते हैं। यदि यह किसी को मिल जाये तो उसका पूर्ण रूप से भाग्योदय हो जाता है, उच्च पदवी प्राप्त होती है। यह श्री, वैभव, सुखसम्पत्ति, मान-प्रतिष्ठा, बुद्धि, बल और परिवार में वृद्धि करता है । यह बेर के फल के आकार का, हरे रंग का बहुत कोमल और अनमोल होता है। इसका प्रकाश सूर्य के समान होता है।
गजमुक्ता-आँवले के आकार का, सूर्य, चन्द्र की की हल्की प्रभा के समान रंग वाला यह गजमोती हाथी के कण्ठ-कपोल से उत्पन्न होता है। किसी भाग्यवान व्यक्ति को ही यह मोती प्राप्त हो सकता है। जो इसे प्राप्त
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* रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान * करके धारण करता है उसकी समस्त बाधाओं का समूल नाश हो जाता है। मोती का उपयोग
मोती का प्रयोग भिन्न-भिन्न रूपों में किया जाता है। जो मोती रूपरंग में व आकार में सुन्दर होते हैं। अनेक आभूषण बनवाकर पहने जाते हैं। कुछ लोग केवल मोतियों की माला पसन्द करते हैं, मोती का पाउडर भी शारीरिक सौन्दर्यता व कान्ति को बढ़ाने वाला होता है।
मोती को पहनने से बल, बुद्धि, ज्ञान व सौन्दर्य को बढ़ाता है तथा धन, यश, सम्मान एवं सभी प्रकार की मनोकामनाओं को पूरा करता है। अत: मन शान्त रहता है तथा धार्मिक भावना को पुष्ट करता है।
दोषी मोतियों को औषधि के रूप में प्रयोग करते हैं जैसे टेड़े-मेढ़े, टूटे-फूटे मोती। औषधि रूप में मोती को अनेक रोग पर प्रयोग किया जाता
है।
उदाहरण के लिये हृदय रोग, मूत्रकृच्छ, पथरी, अंश, दन्तरोग, मुख रोग, उदर विकार, पेट दर्द, गठिया, नेत्र रोग, मियादी बुखार, शारीरिक दुर्बलता आदि रोगों को नष्ट करता है।
दक्षिणी भारत में पुत्री की शादी में मोती जड़ा कोई आभूषण या मोती अवश्य देते हैं।
चीन में मृतक के मुख में मोती का दाना रख कर दाह-संस्कार करते हैं। इस प्रकार दाह-संस्कार करने पर मृतक को स्वर्ग मिलता है। ऐसा उनका विश्वास है।
जापानी बौद्धों का विश्वास है कि मोती ईश्वर के द्वारा उत्पन्न किया हुआ है। अत: इसको पास रखने से ईश्वरीय शक्ति प्राप्त होती है।
इसके अतिरिक्त वेदों के अनुसार मोती भस्म सेवन करने से अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष की प्राप्ति होती है।
3. मूंगा रत्न (Coral) मूंगा रत्न का स्वामी मंगल ग्रह है। इसे हिन्दी में मूंगा व फारसी में 'मिरजान' कहते हैं।
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★ रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान ★ मूंगा का स्वामी-यह भुज, हिमालय, शिखर और मानसरोवर में यह विशेषकर मिलता है। इसकी जड़ें और शाखाएँ निकलती हैं। जो सिन्दूरी हिंगुल या गेरुवे रंग की होती हैं। इसका अंग छिपा, नरम काष्ठावान् होता है। ब्राह्मण वर्ग का मूंगा सिन्दूरी, क्षत्रिय वर्ग सिंग्रिफ या हिंगुल के रंग का, वैश्य वर्ण का मूंगा गेरुवा रंग और शूद्र वर्ण का मूंगा श्यामता लिये होता है।
लाभ-मूंगा को घिसकर गर्भिणी स्त्री के पेट पर लेप करने से गर्भपात रुककर पूरे दिन बाद स्वस्थ बालक जन्म लेता है। मूंगा बालक के गले में पहनाने से पेट का दर्द तथा सूखा रोग आदि दूर होते हैं। अच्छे घाट का चमकदार और चिकना मूंगा पहनने से मन प्रसन्न होता है। मूंगा की माला शुभ दिन में पहनने से मिर्गी तथा हृदय रोग दूर होते हैं। सोने के साथ मूंगा का दान करने से मंगल ग्रह कष्ट दूर होता है। मूंगा रत्न के गहने भी पहने जाते हैं। मूंगा का वजन पाँच ठाँक का हो तो वह मणि संसार में सुखभोग, सम्पत्ति देने वाली होती है। इसकी कीमत और रत्नों की अपेक्षा काफी कम है पर इसके गुण अधिक हैं।
मूंगे के दोष-श्वेत छींट वाला, धुना, दोरंग, गड्ढे वाला, धब्बा और चीरवाला तथा लाख के रंग वाला मूंगा दूषित होता है। अंगभंग, गड्ढेदार, दोरंगा मूंगा, सुख सम्पत्ति को नष्ट करता है। श्वेत छींट वाला मूंगा सुखरहित होता है तथा काले धब्बे वाला मूंगा मृत्यु समान कष्ट देता है। अतः इन दोषों से रहित मूंगा अच्छी तरह परख कर लेना चाहिये।
मूंगे का उपयोग-मूंगे के दानों की मालायें व अंगूठी भी बनायी जाती है। चिकित्सा में इसकी भस्म व पिष्टी का उपयोग करते हैं। विशेषकर मूंगा का उपयोग मंगल ग्रह की शान्ति के लिये किया जाता है। मूंगे को धारण करने से निम्न बाधायें दूर भागती हैं-मृगी, नजर दोष, भूत-प्रेत । यह आँधीतूफान आदि के विनाशकारी प्रभाव को नष्ट करता है।
४. पन्ना रत्न (Emerald) यह हरे रंग की मणि होती है। जिसका स्वामी बुध ग्रह है। इस मणि रत्न को हिन्दी में पन्ना, फारसी में जुमुर्रद कहते हैं। यह रत्न हिमाचल,
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* रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान ★ गिरनार, सिन्धुदेश के पूर्व आबू, पूर्व पश्चिम, तुर्किस्तान, महानदी, सोन नदी, आदि जगहों पर पैदा होता है। इनमें गुण और गुणरहित दोनों प्रकार के रत्न मिलते हैं। बड़े-बड़े उद्योगपति या राजा महाराजा ही इसको पहन सकते हैं। कोमल, अंग और नरम संगसिरस के फूल के समान हल्के रंग का पन्ना अति उत्तम होता है। मोर पंख, तोता के समान हरा व धान के खेत या नीम के पत्ती के समान रंग का पन्ना विशेषकर खिल उठता है। हरे जल के समान वाला पन्ना क्षत्रिय को, शुक पंख वाला पन्ना वैश्य को, सिरसपुष्प के समान रंग वाला ब्राह्मण को तथा मोर पंख के समान पन्ना रत्न शूद्र का धारण करना चाहिये।
पन्ने के लाभ-अच्छी चमक व चिकना, साफ अच्छे घाट और हरे रंग का पन्ना गुणवान होता है। कन्या राशि के लिये चन्द्र ग्रह व बुध ग्रह आने पर इसे मन्त्रोभूषित कर धारण करना चाहिये। जो पन्ना सूर्य के प्रकाश में वस्त्र पर रखने से वस्त्र हरे रंग का दिखे वह बुद्धि, शरीरवर्द्धक, एवं बलवान होता है। इसके धारण करने से जादू, टोना, धन सम्पत्ति,वंश वृद्धि, सर्प भूतादि सब बाधायें दूर होती है तथा स्वप्न दोष नहीं होते।
. पन्ने के दोष-पन्ना रत्न धारण करने से पहले परख लेना चाहिये। काँच का पन्ना नेत्रों पर रखने से गर्मी देता है। आँच पर रखने से गल जाता है। घिसने से आभा दब जाती है। हाथ पर रखने से भारीपन महसूस होता है। टोना पन्ना दूषित होता है। (१) पिता के सुख हरने वाला दोरंगा पन्ना दोषी होता है। (२) चुरचुरा अंग वाला पन्ना रुक्ष दोषी होता है। (३) सुन्न वाला श्यामलता लिये पन्ना दूषित होता है। (४) मधुक माविन्द दोष वाला पन्ना माता-पिता की मृत्यु का कारण बनता है। (५) स्वर्णकान्ति पन्ना दोषित सुख हरने वाला आदि पन्ने के दोष हैं।
दोष रहित पन्ना तेज चमकदार आँखों पर लगाने से ठंडक महसूस होती है। हाथ पर लेने से हल्का लगता है। पन्ना सान पर चढ़ाने पर और ज्यादा चमकदार होता है। दोष रहित पाँच ठाँक पन्ने की कीमत पचासों लाख की होती है।
पन्ना का उपयोग-अन्य रत्नों की भाँति पन्ना भी अनेक रोगों व
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★ रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान * कष्टों को दूर करता है। पन्ना रत्न का उपयोग बुध ग्रह की शान्ति के लिये धारण किया जाता है। आभूषण में अंगूठी में जड़वाकर पहनने से धनसम्पत्ति में वृद्धि व भूत-प्रेत, पागलपन, मिरगी, जादू-टोना आदि को दूर करता है। औषधि रूप में ज्वर नाशक, अर्श, सन्निपात, वमन, विष, दमा आदि रोगों को नष्ट करता है।
५. पुखराज रत्न (Topaz, Yellow Sapphire) __ इस रत्न को हिन्दी में पुखराज व फारसी में जर्दयाकूब कहते हैं। इसका स्वामी गुरूग्रह है। केसर, गोरोचन, हल्दी, नींबू, कमरख, सूर्योदय तथा काली मेरूगिरी के समान इसका रंग होता है। यह अधिकतर विन्ध्याचल, हिमालय पर्वत, महानदी, ब्रह्मनदी तुर्किस्तान, ईरान, सीलोन तथा उड़ीसा प्रदेशों में पाया जाता है। सफेद-पीला पुखराज ब्राह्मण को, सुर्ख, पीला पुखराज क्षत्रिय को, काला-पीला शूद्र तथा गहरा पीला पुखराज वैश्य को धारण करना चाहिये।
__ पुखराज के लाभ-चिकना, चमकदार और पानीदार पीले अच्छे रंग और अच्छे घाट का पुखराज लाभकारी होता है । यह रत्न बलबुद्धि, यश, वंश, धन सम्पत्ति आदि की वृद्धि करता है तथा भूत प्रेत रोग आदि दूर करता
दोष-दुरंगा, अबरखी, चीर, सुन्न, दूधक श्याम सफेद तथा लाल छींटे वाला पुखराज दूषित होता है। इसके निम्न दोष हैं-सुन्न पुखराज बन्धुजनों में बैर कराने वाला तथा दूधक पुखराज शरीर पर चोट लगाने वाला तथा क्लेशवर्द्धक होता है। लाल बिन्दु वाला पुखराज धन सम्पत्ति नष्ट करता है। अत: ऐसे दोष वाले पुखराज रत्न नहीं धारण करना चाहिये। गुणयुक्त रत्न धारण करना चाहिये।
पुखराज का उपयोग-पुखराज बृहस्पति ग्रह के दोषों को शान्त करने व उनके यश को बढ़ाने के लिये धारण करते हैं । यह बल, बुद्धि, आयु, स्वास्थ्य, यश, कीर्ति, धन-धान्य आदि की वृद्धि करता है तथा आध्यात्मिक विचारों की वृद्धि करता है।
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★ रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान ★ ६. हीरा सर्वोत्तम रत्न (Diamond)
हीरा रत्न का स्वामी शुक्र ग्रह है। इसे चन्द्रमणि भी कहते हैं । हिन्दी में हीरा, फारसी में आलीमास, महासख्त संग कहते हैं। पृथ्वी के विभिन्न भागों पर पड़े बाले के सिर खण्डे से बने हीरा अनेक रंग और आभा लिए हुए है। अनेक देवी देवताओं ने इन्हें अपनी इच्छा के अनुसार लाल, पीले, हरे, नीले, काले, सफेद हीरे उठा लिए। इसी तरह अन्यान्य सुर, नाग, यक्ष गन्धर्षों ने जैसा अच्छा लगा उठा लिया। देव, दानव, एवं सर्पो ने इस हीरे को उठा कर स्वर्ण शैल पर प्रकाशित किया। शेष पृथ्वी पर गिरा हीरा आठ दिशाओं की आठ खानों में युग-युग प्रमाण से प्रकट हुआ। सतयुग में यह 'हेमज' नाम से मातंग देशों में, त्रेतायुग में उत्तर दिशा में पिण्डी सोरठ देश में, द्वापर युग में पश्चिम दिशा में वेणु मुरारा और कलियुग में दक्षिण दिशा में प्रकट हुआ। जहाँ पर भाग्यवान लोग हों वहाँ इन रत्नों की खान होती है।
हीरे के भेद-हीरा के अनेक भेद कहे हैं। वे उसकी छाया, रंग और वर्ण भेद से हुये हैं। इनमें दधि, दुग्ध, चाँदी, स्फटिक, जल, विद्युत्प्रभा, चन्द्र बगुला, हंस के पंख समान जो सफेद हीरा हो उसे हीरा पानी कहा जाता है। जो हीरा कमल पुष्प, कनेर पुष्प, अनार, गुलाबी, लालड़ी छवि का हो वह कमलपति कहलाता है। सिरस, हरा, धानी, जलंशरद आदि रंगो वाला हीरा वनस्पति कहलाता है। नीलकंठ, अलानी, पुष्प के समान वज्र नील कहलाता है। गेंदा, पुखराज, चम्पावती गुलदावदी, बन्सती रंगवाला हीरा होता है। काले रंग का हीरा श्यामवज्र कहलाता है। आदि हीरे के रंग भेद हैं।
क्षत्रिय के लिये कमलपति गुलाबी हीरा, वैश्य के लिये पीला वनस्पति हीरा, ब्राह्मणों के लिये सफेद हंसपति हीरा और शुद्र के लिये काला तोतिया और नीला हीरा शुभप्रद होता है।
हीरे के लाभ-सुन्दर घाट और अच्छे रंग का चिकना, कठोर हीरा लेकर सूर्य के सामने करने से उसमें इन्द्रधनुष के समान छाया पड़ती है। घी, जल, गरम दूध आदि में सच्चा हीरा डालें तो वह तुरन्त ठण्डा हो जायेगा। ऐसा उत्तम हीरा राजतुल्य माना गया है। सोने चाँदी के जेवर बनवाकर उसमें
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* रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान * हीरा जड़वाकर पहनाना चाहिये। अपने वर्ण का हीरा धारण कर ब्राह्मण सात जन्म तक वेद, पुराण एवं शास्त्र का ज्ञाता होता है। क्षत्रिय अपने वर्ण का हीरा धारण कर रणविजय, शत्रु विनाशकारी व तेजस्वी होता है। तथा पुत्रधन, सुख-सम्पत्ति, बुद्धि पाकर प्रजा को सुखी रखता है। अच्छे गुण वाले हीरे धारण करने से भूत-प्रेत और विषधारी जीव से रक्षा करता है।
हीरे के दोष-दूषित हीरे भयप्रद, सुख सम्पत्ति नाशक होते है। रक्त चिन्ह हीरा हाथी, घोड़े पशु आदि की हानि करता है। लाल धब्बे वाला हीरा धन, वंश, पुत्र आदि का नाश करता है। रेवड़ी रेखा वाला हीरा मृत्युकारक, तिरछी रेखा वाला स्त्री कष्टकारक, छ: कोण वाला हीरा या तेज-धार अष्टकोण साफ हीरे के बीच यदि पैर पड़ जाय तो वह व्यक्ति तत्काल मृत्यु को प्राप्त होता है। पीले निशानवाला हीरा वंशनाशक, अबरखी आभा वाला हीरा रोगप्रद होता है। ऐसे दूषित हीरे नहीं धारण करना चाहिये।
हीरे का उपयोग-हीरे का उपयोग शुक्र ग्रह की शान्ति के लिये आभूषण के रूप में पहना जाता है। हीरा धारण करने से व्यक्ति का आकर्षण बढ़ता है तथा धन, पुत्र व्यापार में वृद्धि होती है। औषधि रूप में मन्दाग्नि, वीर्य हीनता, वीर्य स्खलन, सन्तान हीनता, दुर्बलता आदि रोगों में उपयोग करते हैं।
७. नीलम रत्न (Blue Sapphire) बलि की नेत्र पुतलिकाओं से इन्द्रनील मणि उत्पन्न हुई। जिसके स्वामी शनिदेव हैं। हिन्दी में नीलम, फारसी में नीलाबिल याकूत कहते हैं। यह रत्न हिमालय, सीलोन, विन्ध्यप्रदेश, महानदी, काबुल, मुलतान, कलिंग, सिंहलद्वीप, जावा और ब्रह्मपुत्र में अधिकतर पाया जाता है। यह रत्न महादेव के कण्ठ के समान नीला, नीलकण्ठ के पंख, अफीम, नीलकमल, कोकिला की गर्दन, नीलगिरी की नीली छांह, इन्द्रधनुष के बीच के रंग का नीलम रत्न होता है।
नीलम के लाभ-चिकना, चमकदार, शुद्ध घाट का साफ तथा मोरकंठ और अलजी के समान रंग वाला नीलम अच्छा होता है। असली नीलम दूध
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★ रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान * में रखने पर दूध नीला हो जाता है।
ब्राह्मण के लिये सफेद नीलम तथा क्षत्रिय के लिये गुलाबी, वैश्य के लिये पीला, शूद्र के लिये श्याम रंग का नीलम लाभप्रद होता है। शनिवार के दिन मध्याह्न में स्नानादि कर नीलम को दूध मिश्रित जल से स्नान कराकर चन्दन, अक्षत, धूपदीप, फूल फल आदि से पूजन कर फिर उसे गले या हाथ में पहनें तथा रात में साफ भूमि पर सोयें तथा स्त्री साथ में न हो। यदि रात में बुरा स्वप्न दीखे तो नीलम उतारकर रख दें और यदि अच्छा स्वप्न है तो पहने रखें। यदि शनि की कुदृष्टि या साढ़ेसाती हो तो नीलम पहनना चाहिये। इससे दुःख दरिद्रता दूर होते हैं तथा धन सम्पत्ति आदि की वृद्धि होती है।
नीलम के दोष-डोरिया, चीर, दुरंगा, दूधक, जालदार, सुन्न, मैला, अबरखी बिन्दुयुक्त नीलम दूषित होता है। दुरंगा नीलम शत्रु भय कराता है। चीरवाला नीलम शस्त्राघात होता है। दूधक नीलम घर में दरिद्रता और हानि करता है। सफेद डोरिया युक्त नीलम आँखों में चोट तथा शरीर में दुःख देता है। काले बिन्दु वाला नीलम अपना घर देश छुटाता है। सुन्न नीलम प्रिय बन्धुओं को नष्ट करता है। मेघछांह वाला नीलम मन को मैला करता है। जालयुक्त नीलम शरीर में रोग पैदा करता है आदि ऐसे दोषयुक्त नीलम नहीं धारण करने चाहिये।
नीलम का उपयोग-नीलम का उपयोग शनिग्रह की शान्ति के लिये धारण किया जाता है। इसका उपयोग करने पर परिवार में सुख, शान्ति तथा धन-सम्पत्ति आदि में वृद्धि होती है।
८. गोमेद रत्न (Zircon, Hessonite)
बाली के मद से उत्पन्न रत्न गोमेद कहलाता है। गोमेद रत्न का स्वामी राहुग्रह है। गोमेद रत्न की उत्पत्ति निम्न देशों में होती है। हिमालय और विन्ध्याचल के शिखर पर तथा सरस्वती के किनारे सलिना देश, चीन, बर्मा,
अरब, महानदी, सिन्धु आदि जगहों पर पैदा होता है। इसका वर्ण लाल, पीला, श्यामतामिला, गोमूत्र मधु धूलि-धूसर, अंगारा सूर्य उल्लू या बाज के नेत्रों के समान होता है।
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* रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान *
१०१ गोमेद के लाभ-सच्चा गोमेद रत्न धारण करने से शत्रु सामने नहीं आता। राहु यदि नीच लग्न में हो तो गोमेद धारण करना चाहिये। साफ, सुन्दर घाट का चमकदार छाया वाला चिकना गोमेद ही लेना चाहिये। इसके धारण करने से सुख सम्पत्ति की वृद्धि होती है तथा रोग दूर होते हैं। लाल गोमेद क्षत्रिय के लिये, श्यामतायुक्त शूद्र के लिये, पीला गोमेद वैश्य के लिये तथा ब्राह्मण के लिये श्वेत आभा वाला गोमेद शुभ होता है।
गोमेद के दोष-गोमेद रत्न में कई दोष होते हैं। सफेद बिन्दु वाला गोमेद रत्न शरीर में भय लाता है। बहुदोषी गोमेद स्त्री के सुख नष्ट करता है। लाल बिन्दु गोमेद सन्तान को दुःखी करता है। रूखा गोमेद मान प्रतिष्ठा नष्ट करता है। लाल अंग वाला गोमेद शरीर के अंग भंग करता है। इस प्रकार के दूषित गोमेद नहीं धारण करना चाहिये।
गोमेद का उपयोग-गोमेद रत्न राहु ग्रह को नष्ट करने के लिये धारण किया जाता है तथा चिकित्सा रूप में गर्मी, वायुगोला, ज्वर, दुर्गन्ध, नकसीर, बवासीर, त्वचा रोग पाण्डु आदि रोगों में प्रयोग किया जाता है।
९. लहसुनिया (Cat's Eye) लहसुनिया का स्वामी केतु ग्रह होता है। जिसके ऊपर केतु ग्रह का प्रकोप हो उसे लहसुनिया धारण करना चाहिये। श्रीपुर, महानदी, सौराष्ट्र, त्रिकुट पहाड़, हिमालय, गंगा किनारे सुन्दरवन, अमर कंटक व मंझार देश में लहसुनिया मिलते हैं। इसका रंग श्वेत, सुनहरा, खड़िया, हरा, जर्द काला आदि रंग के होता है। यह रात्रि में चमकता है।
लहसुनिया के लाभ-गुणयुक्त लहसुनिया चिकना, चमकदार अच्छे घाट तथा जनेऊ सूत्र की शुद्ध रेखायुक्त होता है। शुद्ध सूत्र देखकर इसके धारण करने से पुत्र, सम्पत्ति और घर में आनन्द रहता है। नष्ट हुई लक्ष्मी वापस आती है। दरिद्रता दुःख आदि दूर होते हैं। इसके धारण करने से शस्त्र, अपमान तथा भयानक पशुओं से रक्षा होती है। धारणकर्ता शूरवीर शत्रु पर विजय पाता है। ब्राह्मण के लिये श्वेत सूत्र वाला लहसुनिया लाभदायक है। पीले या हरे सूत्र वाला लहसुनिया या वैश्य के लिये, स्वर्ण सूत्रवाला लहसुनिया
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★ रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान * क्षत्रिय के लिये, कृष्ण सूत्र वाला लहसुनिया शुद्र के लिये लाभदायक होता
है।
लहसुनिया के दोष-दूषित लहसुनिया इस प्रकार हैं। रक्त बिन्दु वाला लहसुनिया पुत्र को दुःखी करता है। रक्त दोष वाला गृह क्लेश बढ़ाता है। मधुवन बिन्दु वाला लहसुनिया स्त्री को दुःख पहुँचाता है। सफेद बिन्दु वाला भाईयों को दुःख देता है। काले बिन्दु वाला लहसुनिया प्राण हर लेता है। धब्बा वाला शत्रु भय और लड़ाई में पराजय कराता है। गड्ढादार लहसुनिया उदर रोग पैदा करता है। ऐसा दोषयुक्त लहसुनिया प्राणी को नहीं धारण करना चाहिये।
लहसुनिया का उपयोग-केतु ग्रह की शान्ति के लिये लहसुनिया का उपयोग किया जाता है। लहसुनिया रत्न की अंगूठी बनवाकर पहनें। इसके पहनने से सुख-सम्पत्ति वंश आदि की वृद्धि है। शत्रु का नाश कर भय को दूर करता है।
हकीक रत्न परिचय-यह बालू का यौगिक है। स्फटिक वर्ग का रल होने से इसे 'सिक्थ स्फटिक' भी कहते हैं। इसमें एल्यूमिनियम, आयरन ऑक्साइड आदि पदार्थों का सम्मिश्रण होता है। यह अपारदर्शक पत्थर है। कभी-कभी पारदर्शक हकीक भी देखने को मिलता है। यह लाल, श्याम, श्वेत, पीला व मिश्रित हरित वर्ण लिये मोम जैसी चमक वाला आकर्षक पत्थर है।
सुलेमानी पत्थर सुलेमानी पत्थर का मुस्लिम सभ्यता के अनुसार एक अपना विशिष्ट आध्यात्मिक महत्त्व है। यह हकीक का ही एक भेद है । यह पत्थर श्याम वर्ण का चिकना, वजनदार, शोभनीय व मृदु होता है। यह प्रायः शिवलिंग के आकार का होता है अन्य आकारों में भी पाया जाता है । इस प्रकार के दो और पत्थर भी पाये जाते हैं। जिनका नाम है-अलेमानी, जज़ेमानी।
अलेमानी पत्थर-अलेमानी पत्थर का रंग तैल वर्ण का होता है तथा
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★ रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान * इस पर काले की धारियाँ बनी होती है।
जजेमानी पत्थर-यह पीले रंग की आभा से सफेद रंग का होता है, इस पर काले रंग की धारियाँ होती है।
प्राप्ति स्थान-यह पत्थर काश्मीर की व सिन्धु नदी की तलहटी, नर्मदा नदी तथा सुलेमानी पर्वत के क्षेत्र में पाया जाता है।
सुलेमानी पत्थर का उपयोग-सुलेमान पत्थर को रविवार या मंगलवार के दिन शुभ मुहूर्त में पवित्र जल से धोकर, धूप, लोहबान की धूनी देकर पवित्रतापूर्वक धारण करने से आकस्मिक विपत्तियों से, अग्निभय, भूत-प्रेत बाधा उल्कापात व कुदृष्टि आदि से रक्षा होती है।
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रत्नों के प्रभाव की अवधि प्रत्येक रत्न को धारण करने के लिये एक निश्चित माप और समय तय किया गया है। अत: निश्चित माप का रत्न धारण करना ही लाभप्रद होता है उससे कम या अधिक नहीं। इनके माप निम्न प्रकार होते हैं
सूर्यरत्न माणिक्य (Ruby) यह रत्न जितना बड़ा धारण किया जाये उतना ही उत्तम होता है। ३ रत्ती से कम वजन का माणिक्य धारण करना बेकार है। अतः ३ रत्ती का रत्न उत्तम है तथा माणिक्य जड़े जाने वाले सोने की अंगूठी का वजन ५ रत्ती से कम नहीं होना चाहिये।माणिक्य का प्रभाव अंगूठी में जड़ाने के समय से चार वर्षों तक रहता है। इसके बाद दूसरा माणिक्य जड़वाना चाहिये।
चन्द्र रत्न मोती (Pearl) अंगूठी पहनने के लिये ४ रत्ती का श्रेष्ठ मोती लेना चाहिये। इसके लिये अंगूठी भी सोने या चाँदी की होनी चाहिये अन्य धातु की नहीं। सोने या चाँदी की अंगूठी का वजन ४ रत्ती से कम नहीं होना चाहिये। मोती जब तक टूटे-फूटे नहीं, उसकी आभा बनी रहे, तभी तक प्रभाव रहता
है।
मंगल रत्न मूंगा (Coral) मूंगा कम से कम ८ रत्ती का होना चाहिये तथा ६ रत्ती वजन की सोने की अंगूठी में मढ़वाना चाहिये, वजन इससे ज्यादा हो तो श्रेष्ठ है। इसका
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★ रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान * प्रभाव पहनने के समय से ३ वर्ष ३ दिन तक रहता है। इसके बाद नया मूंगा धारण करना चाहिये।
बुध रत्न पन्ना (Emerald) ३ रत्ती का पन्ना कम प्रभावशाली, ६ रत्ती का पन्ना मध्यम प्रभावशाली होता है । ६ रत्ती से अधिक पन्ना ज्यादा प्रभावशाली होता है । इसे भी सोने की अंगूठी में जड़वाकर पहनना चाहिये। पहनने के दिन से इसका प्रभाव ३ वर्ष तक रहता है। इसके बाद दूसरा धारण करना चाहिये।
बृहस्पतिरत्न पुखराज (Topaz, Yellow Sapphire)
पुखराज कम से कम ४ रत्ती का होना आवश्यक है इससे कम का नहीं। इसे किसी सोने या चाँदी की अंगूठी में मढ़वाकर धारण करना चाहिये। अँगूठी पहनने के दिन से पुखराज का प्रभाव चार साल तीन महीने अट्ठारह दिन तक रहता है।
शुक्र रत्न हीरा (Diamond) ७ रत्ती या इससे ज्यादा सोने की अंगूठी में १ रत्ती से बड़ा हीरा जड़वाकर पहनने से प्रभावशाली होता है अन्यथा नहीं। हीरा जितना बड़ा होगा लाभ भी ज्यादा होगा। इसके लिये सोने की अंगूठी ही होनी चाहिये। अन्य नहीं। हीरा रत्न का प्रभाव सात वर्षों तक रहता है इसके पश्चात दूसरा लेना चाहिये।
शनि रत्न नीलम (Blue Sapphire) नीलम कम-से-कम चार रत्ती वजन या इससे अधिक वजन का होना चाहिये तभी ज्यादा प्रभावशाली होगा। नीलम को पंचधातु या लोहे की अंगूठी में धारण करना चाहिये। वैसे सोने की अंगूठी में भी पहन सकते हैं। नीलम धारण करने के दिन से यह पाँच वर्षों तक प्रभाव बनाये रखता है। इसके बाद दूसरा नीलम लेना चाहिये।
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★ रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान * राहु रत्न गोमेद (Hessonite) गोमेद रत्न कम-से-कम ४ रत्ती के वजन का होना लाभप्रद है। इसको चाँदी की अंगूठी में मढ़वाकर पहन सकते हैं। अंगूठी ४ रत्ती से कम न हो। इसका प्रभाव तीन वर्षों तक रहता है। तत्पश्चात दूसरा गोमेद धारण करना चाहिये।
केतु रत्न लहसुनिया (Cat's Eye)
कम-से-कम ४ रत्ती का लहसुनिया रत्न को कम-से-कम ७ रत्ती वजन की पंचधातु या लोहे की अंगूठी में मढ़वाकर पहनना चाहिये। किसी अन्य धातु की नहीं, अंगूठी का वजन ७ रत्ती से कम नही तथा लहसुनिया चार से कम वजन का नहीं होना चाहिये। पहनने के दिन से इसका प्रभाव तीन वर्षों तक रहता है। इसके बाद बेकार हो जाता है। दूसरा लहसुनिया धारण करना चाहिये।
दोषी रत्नों से भी शुभ फल नवग्रहों के रत्नों में शुद्ध रत्नों को धारण करना ही शुभ बतलाया गया है तथा दूषित रत्न को ग्रहण करना अशुभ बतलाया गया है कारण कि दूषित रत्न धारण करने से मानव को अनिष्ट फल देते हैं। किन्तु शास्त्रों में कहा गया है कि विभिन्न ग्रहों की विभिन्न स्थितियों में उन ग्रहों के दोषी रत्न भी धारण करने से शुभप्रद हो जाते हैं। नवग्रहों के रत्नों के विवेचन के प्रसंग में यह विवेचन भी उचित होगा। अतएव उसे यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है।
माणिक्य-यदि किसी की जन्मकुण्डली में सूर्य, चन्द्र राशि पर स्थित हों तो सफेद छीटायुक्त दोषी माणिक भी उसे लाभप्रद होगा। यदि सूर्य, राहु केतु और शनि से युक्त हो तो काले छींटे वाला माणिक्य धारण करना चाहिये।
मोती-जन्म स्थान में चन्द्र के साथ राहु, केतु एवं शनि होने पर काले दाग वाला दोषी मोती भी लाभप्रद होगा।
मूंगा-जन्म स्थान में मंगल के साथ शनि, राहु, केतु होने पर दोषी
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★ रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान * मूंगा धारण करें तो यह लाभप्रद रहेगा।
पुखराज-सूर्य के साथ गुरू, राहु, केतु, शनि या मंगल की कुदृष्टि हो तो दोषी पुखराज लाभकारी है।
गा-जन्म स्थान में मंगल के साथ शनि, राहु, केतु होने पर दोषी मूंगा पहनने से लाभ होगा।
हीरा-शुक्र ग्रह के साथ केतु, शनि, मंगल या बुध हो तो दोषी हीरा भी शुभ फल देगा।
नीलम-शनि के साथ मंगल, राहु, केतु हो तो दोषी नीलम भी लाभप्रद होगा।
गोमेद-राहु के साथ सूर्य, चन्द्र या मंगल की छाया हो तो दोषी गोमेद शुभ फल देगा।
लहसुनिया-केतु के साथ चन्द्र, सूर्य, मंगल या गुरू की दशा हो तो दोषी लहसुनिया भी लाभकारी होगा।
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मुख्य उपरत्न और उनका प्रभाव
गार्नेट
इसे हिन्दी में याकूत और रक्तमणि के नाम से जाना जाता है। यह उपरत्न लाल रंग का कठोर होता है और इसका अधिपति सूर्य होता है ।
घड़ियों में रत्न (Jewel) के रूप में प्रयोग होने वाले अधिकतर गार्नेट ही होते हैं, परन्तु बहुमूल्य घड़ियों में माणिक्य और नीलम प्रयोग में आते हैं। गार्नेट को धारण करने से सौभाग्य में बढ़ोत्तरी, स्वास्थ्य में आनन्द, मान-मर्यादा, सम्मान, यात्रा में सफलता मिलती है और मन में उत्पन्न विकृतियों को भी दूर करता है।
प्राचीन काल में लोगों का विश्वास था कि गार्नेट का प्रयोग हर प्रकार के जहर से बचाता है, मानसिक चिन्ता दूर करता है और डरावने व भयानक स्वप्न रोकता है। लाल गार्नेट बुखार में बहुत ही लाभदायक होता है और पीले रंग का गार्नेट पीलिया जैसे रोगों से रक्षा करता है । प्राचीन काल से लेकर आज तक गार्नेट के बारे में एक बात पूर्ण रूप से निश्चित है कि इस रत्न को धारण करने वालों को तूफान या बिजली गिरने से जीवन में हानि नहीं पहुँचती और यात्रा में किसी तरह की हानि या कष्ट नहीं होता। इस रत्न की विशेषता है कि यह रत्न सब प्रकार से आने वाले खतरों को झेलता हुआ अपना रंग बदल लेता है तथा विशेष कष्ट आने से पूर्व टूट भी सकता है।
पितौनिया
यह हरे रंग की सूर्यकान्त मणि है। जिसमें लाल रंग की छोटी-छोटी
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* रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान *
१०९ चित्तियाँ पाई जाती हैं। यह एक अपारदर्शक उपरत्न है। ये लाल चित्तियाँ आयरन ऑक्साइड मिश्रण के कारण बनती हैं।
पितौनिया को यदि पानी में भिगोकर चोट आदि पर रखते हैं तो यह खून के रिसाव को बन्द कर देता है और जख्म को शीघ्र भरता है। आधुनिक वैज्ञानिकों ने यह सिद्ध कर दिया है कि इसकी यह विशेषता इसमें आयरन ऑक्साइड का होना है।
यदि इस उपरत्न को चाँदी की चेन में डलवाकर गले में पहना जाए तो यह नकसीर (नाक से खून) का समूल नाश कर देता है और फिर यह बीमारी आजीवन उस जातक को नहीं होती।
फिरोजा या हरिताश्म यह शुक्र का उपरत्न है। हालांकि कभी-कभी गलती से इसको शनि का भी रत्न कहा जाता है। यह अपारदर्शक उपरत्न है।
यह एक मुलायम और चिकना रत्न है और ईरान देश का राष्ट्रीय रत्न है। यह रत्न अधिकतर रक्षा यन्त्र के रूप में प्रयोग आता है और फिरोजा नफरत को शान्त करता है।
विशेषताएँ
यह रत्न मनुष्य के स्वास्थ्य का प्रतीक है। रोग होने पर पीला पड़ जाएगा और मृत्यु होने पर इसका रंग समाप्त हो जाएगा, परन्तु जैसे ही दूसरा स्वस्थ मनुष्य इस रत्न को धारण करेगा तो इस रत्न का अपना असली रंग वापस लौट आएगा।
यह रत्न आने वाले कष्ट को अपने ऊपर ले लेता है और धारण करने वाला बच जाता है, परन्तु इस रत्न का यह गुण तभी फलीभूत होगा जब इसे कोई भेंट के रूप से प्रदान करेगा, अपनी लागत से खरीदा हुआ रत्न फलीभूत नहीं होगा।
अगर इस रत्न के धारक के विरुद्ध कोई षड्यन्त्र हो तो यह अपना रंग बदलकर धारक को पहले से ही सावधान कर देगा।
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★ रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान ★
हकीक यह रत्न कई प्रकार के रंगों में मिलता है। इस रत्न में कई बार स्वाभाविक रूप से आकृतियाँ जैसे-पक्षी, वृक्ष, बादल, घास, पौधे आदि के चिह्न पाए जाते हैं।
प्राचीन काल में वैद्य व हकीम आँख की दवाई इस पत्थर पर ही बनाते थे।
हकीक को यदि बिच्छू के काटे स्थान पर कसकर बाँध दिया जाए तो विष नहीं फैलता और दर्द दूर हो जाता है।
अगर इस रत्न को सिंहनी के बाल से बाँधकर गले में धारण किया जाए तो राज दरबार में सम्मान मिलता है और मान-मर्यादा बढ़ती है। विशेषतया प्रेमी और प्रेमिका का सहयोग मिलता है और कोई मित्र धोखा नहीं देता।
इसका रत्न के रूप में कोई विशेष महत्त्व नहीं है, परन्तु कवच या ताबीज के रूप में आज भी इसका बहुत महत्त्व है।
क्राइसों प्रेज यह अल्पमोली, पारदर्शक रत्न है। इस रत्न की विशेषता यह है कि इसको धारण करने से बुरे और भयानक स्वप्न नहीं आते। भूत-प्रेत जैसी आत्माएँ कष्ट नहीं देतीं। यह रत्न मान-मर्यादा को तो बढ़ाता है परन्तु वह सन्तोषी भी हो जाता है। यह रत्न वाकपटुता भी प्रदान करता है।
सन्धिवात, ग्रन्थिवात और गठिया जैसी बीमारियों के लिए यह रत्न विशेष रूप से फलदायक है।
चन्द्रकान्त मणि इस अल्पमोली रत्न का सम्बन्ध चन्द्रमा से है। यह रत्न पारदर्शक व हल्का दूधिया होता है।
जलोदररोगया दूसरेपानी के रोगों में रक्षावउसकी चिकित्साकरता है।मानसिक प्रेरणा भी देता है और प्रेम में सफलता प्रदान करता है।
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वैदूर्य या लहसुनिया
यह रत्न सट्टा, जुआ, लॉटरी, घुड़दौड़ आदि में सफलता प्रदान कराता है। इस रत्न को धारण करने के बाद रात को भयानक स्वप्न नहीं आते ।
स्फटिक
यह एक अपारदर्शक उपरत्न है जो जमे बर्फ की तरह साफ और सफेद होता है। ऐसी मान्यता है कि सूर्य के सामने रखने पर इस रत्न में से निकली किरणों को शरीर पर डालने से आँखों सम्बन्धी प्रत्येक रोग में लाभ होता है ।
सार्डोनिक्स
यह गहरे लाल - बादामी रंग का अल्पमोली रत्न है । अगर इसे गले में धारण कर लिया जाए तो सब प्रकार के दर्द व पीड़ा से छुटकारा प्राप्त होता है और आत्म-विश्वास को बढ़ाता है। मित्रों से लाभ व विवाह सम्बन्धी प्रसन्नता को निश्चित करता है। कानूनी कार्यों में सफलता प्रदान करता है तथा अनैतिक कार्यविधि से बचाता है ।
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क्राइसोलाइट
यह पीले रंग का पारदर्शक अल्पमोली रत्न है । यह अन्य कई विभिन्न रंगों में मिलता है ।
प्राचीनकाल से लेकर आज तक यह रत्न दूर-दृष्टि और दिव्यदृष्टि के लिए धारण किए जाते हैं। ऐसी मान्यता है कि इस रत्न को धारण करने से दैविक शक्ति प्राप्त होती है और मानसिक शान्ति भी प्राप्त होती है ।
उपरत्नों के
समूह में
पेरीडॉट
यह एक सुन्दर रत्न है। यह एक ही स्वाभाविक
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★ रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान * रंग में पाया जाता है । यह मिस्र देश का राष्ट्रीय रत्न है। इस रत्न का अक्सर दूसरे हरे रंगों से धोखा हो जाता है क्योंकि यह एक पारदर्शक और साफ रत्न है। यह इतना मूल्यवान रत्न नहीं है जितना इस रत्न को देखकर भ्रम हो सकता है।
प्राचीन काल से ही लोग इस रत्न को भूत-प्रेत, जादू-टोने आदि से बचाव करने के लिए धारण करते रहे हैं। इंग्लैंड के सम्राट सप्तम एडवर्ड ने इस रत्न को ताबीज के रूप में धारण किया हुआ है।
ऐलेग्जैण्ड्राइट इस पारदर्शक उपरत्न की प्रमुख विशेषता यह है कि इसमें दो रंग होते हैं। सब रत्नों में सिर्फ यही एक ऐसा रत्न है जिसमें यह विशेषता पाई जाती है। अगर इस रत्न को सूर्य की रोशनी में देखा जाए तो यह रत्न पन्ने के हरे रंग की तरह हरा नजर आएगा, लेकिन रात को बिजली की रोशनी में बैंगनी या गहरे नीले रंग का नजर आएगा क्योंकि हरा और लाल रंग रूस देश के राष्ट्रीय रंग हैं । सन् १८३९ में जब रूस का युवराज २१ वर्ष का हुआ तब यह रत्न रूस में प्राप्त हुआ था और इस रत्न को युवराज के नाम से सुशोभित किया गया था। इसलिए अंग्रेजी में इस रत्न का नाम आज भी बडे "A" से लिखा जाता है।
अम्बर इस रत्न को कहरवा के नाम से भी जाना जाता है। यह अर्द्ध-पादर्शक रत्न खनिज पदार्थ नहीं है परन्तु फिर भी इसकी रत्नों में गिनती होती है। यह रत्न एक वृक्ष की गोंद से बनता है।
___ इस रत्न की विशेषता यह है कि इसको बच्चे के गले में धारण करने से जादू-टोने व भूत-प्रेत का असर नहीं होता। विषैली औषधियों आदि से यह रत्न रक्षा करता है। औषधि के रूप में इस रत्न के प्रयोग अनगिनत हैं। गले को ठण्ड लगने से बचाता है। इसके प्रयोग से घेघा जैसा रोग नहीं हो पाता।
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टुमेलिन इस रत्न में विद्युत के गुण हैं। लाल रंग का यह रत्न माणिक्य की तरह होता है। हरा रंग पन्ने की तरह का होता है।
इसको धारण करने से मनुष्य को भय नहीं होता और शान्त रहता है। इस रत्न की दूसरी विशेषता यह है कि कोई भी दुर्घटना आने से पहले यह रत्न स्वप्न में चेतावनी देता है। व्यापार में लाभ के लिए हरे रंग का टूर्मेलीन बहुत ही शुभ है।
कार्नेलियन यह कैलसेडोनी रत्न-समूह का एक रत्न है जो लाल, पीले और सफेद रंग में पाया जाता है। कई बार दो या दो से ज्यादा रंग भी एक रत्न में मिलते हैं। पैगम्बर मुहम्मद साहब इस रत्न का प्रयोग किया करते थे और उनका यह उपदेश था कि इस रत्न को धारण करने वाला व्यक्ति जीवन के हर क्षेत्र में सफल रहता है।
प्राचीन काल में यह मान्यता थी कि इस रत्न को धारण करने वाले को कोई जादू-टोना नहीं कर सकता। कोई बुरी दृष्टि से नहीं देख सकता जिसको आज के समय में 'नजर लग जाना' कहते हैं। इस रत्न को धारण करने वाला हर प्रकार के रोग से बचा रहता है और प्लेग की बीमारी में तो इस रत्न का और भी अधिक महत्त्व रहता है।
मार्बोडस इस रत्न को गले या अंगुली में धारण करने से क्रोध नहीं आता, घृणात्मक भावनाएँ दूर भागती हैं जबकि कैमिलस का कहना है कि यह रत्न बिजली और तूफान से रक्षा करता है। खून को विषाक्त होने से बचाता है।
स्पेन में इस रत्न का प्रयोग साहस और आवाज बुलन्द करने के लिए किया जाता था। चीनी लोगों का कहना है कि इस रत्न को धारण करने से कभी पेट की बीमारी नहीं हो सकती।
प्राचीन समय में ग्रीक देश की महिलाएँ इस रत्न को आभूषण के रूप
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* रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान ★ में धारण करती थीं। उनका विश्वास था कि इस रत्न को धारण करने से गठिया, सन्धिवात, नाड़ी दर्द जैसे रोग नहीं होते।
इसके धारण करने से मोटर-गाड़ी आदि से दुर्घटना नहीं हो सकती और शायद आज के संसार में यही इस रल की बहुत बड़ी विशेषता है। यह पारिवारिक जीवन में सुख और सफलता के लिए विशेष रत्न है।
जेड यह उपरत्न एक कठोर श्रेणी का रत्न है। यह रत्न अपारदर्शक और अर्द्ध-पारदर्शक होता है। चीन वासियों का कहना है कि जेड प्यास बुझाता है, वाक्पटुता बढ़ाता है।
मध्यकालीन अमेरिकी इस रत्न को पेट व गुर्दो के रोग, मूत्राशय की पथरी आदि के रोगों से मुक्ति पाने के लिए धारण करते थे। मिस्र देश में भी इस रत्न का ताबीज के रूप में प्रचलन था।
विशेष रूप से घुड़दौड़ की सफलता में जेड़ का बहुत महत्त्व है।
ओपल यह मूल्यवान उपरत्न है। रत्नों में सबसे अधिक सुन्दर और रहस्यपूर्ण रत्न है। इसमें इन्द्रधनुष के सभी रंग पाए जाते हैं जो रोशनी पड़ने पर चमक उठते हैं। इस रत्न की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह रत्न अपने धारण करने वाले की चित्तवृत्ति के अनुसार अपने रंग को बदलता है। अगर मनुष्य प्रसन्नचित्त होगा तो यह रत्न लाल रंग का हो जाएगा और अगर यह क्रोधी होगा तो यह रत्न हरे रंग का हो जाएगा आदि।
इसे धारण करने के बाद मनुष्य को आशा बंधी रहती है। जिस समय यह रत्न लालिमा पर हो उस समय कोई भी कार्य करने पर आशा पूर्ण होती है।
यह रत्न धारण करने वालों को बतला देता है कि यह शुभ है या अशुभ। अगर धारण करते समय इस रत्न की चमक बनी रहेगी तो यह रत्न
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११५ उसके लिए शुभ है और अगर धारण करते समय मन्द पड़ जाएगी तो अशुभ ।
लाजवर्त यह गहरे नीले रंग का उपरत्न है। इस उपरत्न पर सुनहरे निशान पाए जाते हैं। ये निशान इस रत्न की रचना के समय सोना मक्खी के पत्थर मिल जाने से आ जाते हैं।
इसे धारण करने से हिम्मत बढ़ती है। विषाद रोग दूर भागते हैं और हर प्रकार से मान-सम्मान व सफलता प्राप्त होती है।
मैलाकाइट ___ हरे रंग का एक अपारदर्शक उपरत्न है। इस रत्न में ताँबा अधिक होता है। इस कारण इस रत्न में हैजा, गठिया व उदरशूल जैसे रोगों से रक्षा करने की ताकत होती है।
एमीथिस्ट इस रत्न को हिन्दी में कटेला कहते हैं। यह बैंगनी रंग का रत्न है। यह जितने गहरे रंग का होगा उतना ही लाभप्रद होगा। सब रत्नों में यही एक ऐसा रत्न है जो कभी अशुभ नहीं होता।
यह रत्न धारक को क्रोध, घृणा, वैमनस्य आदि बुरे कामों से रोकता है और जिससे मानसिक शान्ति और सन्तोष मिलता है।
इस रत्न को गले में धारण करने से मूर्छा सम्बन्धी रोग या नींद न आने के रोग दूर हो जाते हैं।
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शुद्ध रत्नों के स्थान पर जो लोग कीमती रत्न नहीं खरीद सकते उनके लिये नौ खोटी मणियाँ या उपरत्न शास्त्रों में कहा है। जिसके धारण करने से वहीं फल प्राप्त होगा जो बहुमूल्य रत्न से होता है। सूर्य के लिये माणिक रत्न की जगह संग तामड़ा और चन्द्र के लिये मोती की जगह निमरूसीप या शंख का उपयोग किया जा सकता है। इसी तरह मूंगे की जगह शाख मूंगा; बुध के लिये पन्ना की जगह संगवाड़ा, सोनामक्खी; गुरू के लिये पुखराज की जगह कहराव, शुक्र के लिये हीरा की जगह तिरमुली, काँसला; शनि के लिये नीलम की जगह जमुनिया नीली; राहु के लिये गोमेद की जगह तुरसाया; केतु के लिये लहसुनिया की जगह फीरोज आदि उपरत्न काम में लाये जा सकते हैं।
उपरत्न, संग एवं मोहरे ___ वास्तव में रत्न अपने मूल रूप में पाषाण होता है वही विशिष्ट रूपरंग आकार और गुण वाला होकर विभिन्न रत्नों के रूप में परिणत हो जाता है। जैसे सर्वगुण सम्पन्न, सारभूत पाषाण नव प्रकार के भेदों से नवरत्न बन गये हैं। वैसे ही उपरत्नों की श्रेणी में उन्हीं नवरत्नों में अपेक्षाकृत कम गुण वाले रत्न आते हैं। जो निम्न प्रकार के हैं
(१) सूर्यमणि या लालड़ी (२) फिरोजा (३) एमनी (४) भीष्मक या संग ईसव (५) लाजावर्त (६) चन्द्रमणि या पुखराज (७) उलूक मणि (८) तेलमणि या उदउक (९) उपलक या औपल (१०) अमृतमणि आदि इनमें लालड़ी नवरत्नों के नौ उपरत्नों में ही आने से कुल इक्कीस उपरत्न हो जाते हैं।
इन २१ उपरत्नों के भी अपेक्षाकृत कम गुण होने से ८४ 'संग' भेद
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११७ होते हैं। इनके अतिरिक्त २९ मोहरें भी हैं। ये सभी उपरत्न, संग और मोहरे अपने मूल भूत नवरत्नों के अभाव में उनका काम कर देते हैं। मानव की सधनता, निर्धनता देखते हुये विधाता ने इनका निर्माण किया है। कभी-कभी ये कार्य विशेष में रत्नों से भी अधिक कार्यकारी सिद्ध होते हैं। अत: अब इन उपरत्नों के गुण, भेद, लक्षण आदि पर विचार किया जा रहा है।
सूर्य उपरत्न-लालड़ी (Garnet) सूर्य ग्रह स्वामित्व का उपरत्न लालड़ी या माणिक बताया गया है। जो लाल रत्न से उतरकर होता है। इसके तीन संग हैं। जिनके नाम हैं-(१) संग सिंगड़ा (२) संग तामड़ा (३) संग मानिक है।
चन्द्र उपरत्न-शंखमुक्तादि (Moon Stone)
मुक्ता या मोती की छाया वाले शंख से उत्पन्न मोती उपरत्न असली मोती से आधे गुण वाला होता है। जो 'निमरू' कहलाता है।
इसी तरह मोती की जड़ में मोती की सी आभा दीखती है। वह भी मोती की तरह ही लाभकारी है। अत: वह भी उपरत्न में आता है। इसके अलावा शंखजोड़ा इस उपरत्न में आ जाता है। ये कभी-कभी समुद्र से प्राप्त होता है।
मंगल उपरत्न-विद्रुममूल (Malachite)
विद्रुम या मूंगे की जड़ में जो अलग शाखा निकलती है वह 'संगमूंगी' कहलाती है। जो मंगल का उपरत्न है। इसकी यह शाखा लाल होती है और गाँठ तक बहुत से छेद हो जाते हैं। जो तोल में हल्की होती है और मूंगे के समान ही गुण देती है। संगमूंगी चिकना, मूंगिया रंग, लाल या गुलाबी होता है। इसकी खानें नदी या पूर्व पर्वतों या जंगलों में होती हैं।
बुद्ध उपरत्न-पन्ने के संग (Peridot) पन्ने का उपरत्न या टांडा और बेरुसंग नरम, चिकना, चमकदार,
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हरा, सफेद और पीला होता है। जो हिमालय, विन्ध्यप्रदेश, गिरनार, आबू, बर्मा, इरावती नर्मदा आदि नदियों तथा घने जंगलों में पाया जाता है ।
संग पन्नी - यह मोटापन और बीच में सफेद धब्बे लिये होता है । यह बर्मा, हिमालय, स्याम, लंका, नैमिषारण्य में पैदा होता है । यह भी पन्ने की तरह शोभित और लाभप्रद होता है ।
संग मरगज - यह चिकना हरे रंग का सफेदी लिये होता है । जो खम्भात, यमुना प्रान्त, विन्ध्य, हिमालय प्रदेश, गंगा घाट, नर्मदा, गुजरात और तुर्किस्तान में पैदा होता है ।
गुरु उपरत्न- पुखराज के संग (Amber)
संग सोनेला - पुखराज का उपरत्न उसके संगों में 'संग सोनेला' साफ, चिकना, सुनेहरा और सफेद होता है। जो फिरंग, तुर्किस्तान, हिमालय, शिप्रा में पाया जाता है । इसकी छवि पुखराज के समान होती है ।
संग कहरवा - यह चिकना चमकदार और हल्का पीला होता है। जो चीन, ईरान, फिरंग देश, बर्मा, हिमालय आदि पर्वतों की खानों में पैदा होता है ।
शुक्र उपरत्न- हीरे के संग (Opal, Florite Zircom) संग दतला - यह सफेद चमकदार चिकना और हल्का होता है। जो बर्मा, सिन्धु नदी और हिमालय में होता है ।
संग काँसला - यह सफेद, गुलाबी रंग का अधिक चिकना, पानीदार और चमकदार होता है। जो नेपाल, हैदराबाद, कोसल प्रदेश और सोन, ब्रह्मपुत्र, गंगा, सिन्धु नदियों में पैदा होता है ।
संग तुरमुली - इसका रंग सफेद, गुलाबी, श्याम और पीला होता है। जो कावेरी, गंगा वेग नदी, कामरूप, विन्ध्य, हिमालय और लंका में पैदा होता है ।
संग सिमाक - यह बहुत चिकना, हल्का सुर्ख गुलाबी और हरे रंग
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११९ का सफेद काले धब्बे वाला होता है। यह उत्तर दिशा में पर्वतों पर पाया जाता है।
संग कुरंज-यह रत्न भारी सोने, चाँदी के समान चमकदार, सफेद और गुलाबी मिश्र मटमैला रंग का होता है। यह काशी, गया, हिमालय, विन्ध्य शिखर पर बहुत होता है।
शनि उपरत्न-नीलम के संग (Amethyst)
संग लीली-यह नीला रंग में हरा, ललाई लिये बहुत चमकदार होता है। यह बर्मा, हिमालय, नर्मदा नदी, गंगा नदी, आबू तथा सिन्धु के किनारे पाया जाता है।
संग जमुनिया-यह जमुना सा नीला, सुर्ख, बिना मेल, गुलाबी सफेद, नीला माणिक जैसा चिकना तथा साफ और हल्का होता है। जो त्रिकूट पर्वत, हिमालय पर्वत, विन्ध्य पर्वत और ढुंढार देश में पैदा होता है।
राहु उपरत्न-गोमेद के संग (Tursawa)
संग तुरसावा-यह चिकना, हल्का, साफ, चमकदार पीला, लाल, स्याह और हरे रंग का होता है। यह अरब, ईरान और मदीना में पाया जाता है। कभी-कभी हिमालय की नदियों में भी मिलता है।
संग साफी-यह चिकना, मटमैला, रूखा और खाकी होता है। जो हिमालय, विन्ध्य प्रदेश व तुर्किस्तान में पैदा होता है।
केतु उपरत्न-लहसुनिया के संग (Alekzendrite)
संग लसवनी-यह लाल, सफेद, पीला, हरा, काला आदि सभी रंगों का होता है । यह हल्के रंग का और चिकना होता है । ये लंका, सिन्धु, स्याम, बर्मा, तुर्किस्तान विन्ध्यप्रदेश, हिमालय की नदियों में पाया जाता है।
संग गोदन्ती-गो दांत के समान, चावल के रंग सा सफेद, चमकदार, कौआ के पंख की धूनी देने वाले काले कमल के समान हो जाता है। यह ईरान, गंडकी नेपाल, विन्ध्य आदि पर्वतों में होता है।
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* रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान * गौदन्ता संग-यह नीला सफेद, चिकना, साफ और हल्का होता है जो भूटान, नेपाल, रूस, लंका, त्रिकूट, हिमालय और सिन्धु नदी में होता है।
इस तरह यहाँ नवरत्नों का संक्षेप में परिचय कराया गया है। ये नवरत्न के उपरत्न इसलिये है कि इनमें उन रत्नों की छाया, रंग की आभा होने पर उपरत्न से होने वाले लाभ भी कुछ अंशों में प्राप्त होते है। इनका प्रयोग चिकित्सा शास्त्र और तांत्रिक विधान में बहुत उपयोगी होता है। अनेक प्रकार के रोग और बाधायें दूर कर, धन, मान-सम्मान आदि प्राप्त होता है।
लालड़ी मणि लालड़ी के छाया रत्न या उपरत्न संग के तीन प्रकार हैं
संग सिन्दूरिया-यह सिन्दूरी मिला गुलाबी होता है। जो विन्ध्य हिमालय और बर्मा में होता है।
संग टोपाज-यह संग चिकना, जोगिया रंग और गुलबिनोसि होता है। यह नर्मदा की खानों व विन्ध्य प्रदेश में पाया जाता है।
संग आतसी-यह संग वजनदार, आतसी रंग का और बादामी, गुलाबी, काले, पीले छींटेदार होता है।
सफेद पुखराज मणि विप्रवर्णीय चन्द्रमणि, सफेद पुखराज को फारसी में याकूत कहते हैं। यह महानदी, वैतरणी, पोरबन्दर, लंका, पूना, श्रीपुर में पाया जाता है।
अच्छे घाट का चिकना निर्मल पानीदार यह उपरत्न अपने वर्णानुसार धारण करने से सुख सम्पत्ति में लाभप्रद होगा। एक छेददार चाँदी की डिबिया बनायें इसके अन्दर पुखराज मणि रखें। शरद पूर्णिमा के दिन यह मणि चन्द्र प्रकाश में रखें। उस दिन चन्द्र प्रकाश उस मणि पर पड़े। फिर इसको धातुपुष्टकर दही के साथ ग्रहण करें। इससे अनेक लाभ होगा। जैसे यह बल, वीर्य नेत्र ज्योति बढ़ाता है। यदि वृद्ध पुरुष इसका सेवन करे तो वह तरुणावस्था को प्राप्त हो सकता है।
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१२१ चन्द्रमणि के संग दो तरह के होते हैं-(१) सफेद नरम संग (२) संग गौरी।
संग सफेद नरम-चमकदार सफेद पुखराज संग नरम, चिकना पानीदार होता है। जो हिमालय, लंका, विन्ध्याचल, रामेश्वर, महानदी और आसाम में पैदा होता है।
संग गौरी-यह सफेद रंग पर नीला या सफेद डोरा अथवा चक्रसा, चमकदार, चिकना और नरम होता है। इस संग गौरी की थाली में भोजन रखकर दें यदि भोजन में विष मिला हो तो थाली टूट जायेगी। यह नर्मदा, सिन्धु ताप्ती हिमालय की खानों में पैदा होता है। इस पर गौरी शंकर की मूर्ति होती है।
घृतमणि या जबरजद्ध घृतमणि उपरत्न को फारसी में जबरजद्ध और हिन्दी में 'कारकौतुक' कहते हैं। इसे 'गरुड़मणि' भी कहते हैं। यह हिमालय, त्रिकूट, महानदी, गंगा, सिन्धु तट तथा द्रोणाचल प्रदेश में पैदा होता है। इसका रंग हरा, पीला, सुर्ख तथा कुछ सफेदी लिये होता है। मधु, काला रंग मिला हो और मोटे पिस्ते के समान छींटा होता है।
___ जबरजद्ध, अबरखा आदि रत्नों में निम्न दोष होते हैं। इसलिये दोषरहित मणि देखकर लेना चाहिये। इसके धारण करने से सुख-सम्पत्ति, धन पुत्र आदि की वृद्धि होती है। सभी मनोकामनायें पूर्ण होते हैं। गरुड़ पंख के रंग वाली मणि की माला बनवाकर पहनने से बच्चे को नजर नहीं लगती। मिथुन राशि पर सूर्य और चन्द्र होने पर इस चाँदी के अँगूठी में लगवाकर पहने। कन्या राशि पर जब बुध चन्द्र ग्रह हो तो सोने की अंगूठी में जड़वाकर दाहिने हाथ में छोटी अंगुली में पहने। जबरजद्ध बहुत ही लाभकारी मणि है। इसकी स्वामिनी श्री जगदम्बा हैं। माता और हनुमान जी के मन्त्र का इसकी माला जप करने पर अनेकानेक सिद्धियाँ प्राप्त होती है। जबरजद्ध मणि के तीन संग हैं-(१) हरी तिरमुली, (२) संग धुनैला, (३) संग पिस्तई।
संग हरी तिरमुली-यह साफ, चमकदार हरे रंग का संग है जो
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★ रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान * कावेरी, बर्मा, वेगनदी कामरूप, लंका आदि जगहों पर होता है।
___ संग धुनैला-यह धूम्रवर्ण, साफ चिकना और चमकदार होता है। यह बर्मा श्याम, ईरान, चीन, कोहिनूर और विन्ध्य तथा हिमालय में होता है।
संग पिसतई-यह पीले और काले छींटे का होता है। यह हिमालय, तिब्बत, व विन्ध्य आदि प्रदेशों में मिलता है।
तेलमणि या उदउक तेलमणि को 'उदउक' या 'उदोक' कहते हैं। यह तेल के समान चिकना सूर्योदय के रंग सा लाल, सफेद पीला और काला रंग का होता है। इसकी स्वामिनी पृथ्वी है। सफेद रंग की यह मणि आग में रखने से तुरन्त पीली हो जाती है। श्वेत मणि को कपड़े में रखने से तीसरे दिन पीली हो जाती है। हवा लगते ही या जल में डालते ही पुनः सफेद हो जाती है। यह सब रंग की होती है। अच्छे घाट वाली मणि तेज व बल बढ़ाती है और अंग में सुगन्ध पैदा करती है। मेष के सूर्य में रोहिणी नक्षत्र का चन्द्र होने पर या भौमवार और पूर्णा अथवा जया तिथि होने पर मणि को लेकर खेत में दो गज गड्ढा खोद कर गाड़ दें और मिट्टी से ढंककर उस पर पानी सींच दे तो खेत में बोया बीज बीस गुना लाभ देता है।
तैलमणि के संग दो तरह के होते हैं-(१) संग पितरिया (२) संग गुदड़ी।
संग पितरिया-यह पीला, सफेद और साफ सुनहरी चमकदार होता है जो वर्मा, हिमालय और विन्ध्य में मिलता है।
संग गुदड़ी-यह पीले छींट की तरह अधिक चमकीला होता है जो नेपाल, मदीरा, आबू, चीन और नर्मदा नदी में पैदा होता है।
भीष्मक या अमृतमणि भीष्मक मणि में अमृत रहता है। इसके स्वामी मोहिनी और पवनपति हैं। यह विन्ध्य, हिमालय, महानदी गण्डक, सिन्धु नदी के किनारे होती है। इसका रंग सरसों और तरई के फूल, केले के नये पत्तों, गुलदाउदी के फूल
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* रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान ★
१२३ के समान पीला होता है। यह हीरे के समान चमकती है। इसके धारण करने से शारीरिक सुख, सम्पत्ति तथा स्त्री का पूर्ण रूप से सुख मिलता है।
सूर्य आर्द्रा नक्षत्र और चन्द्र मेष, सिंह, तुला, कुम्भ धनु या मिथुन का हो। उस समय यह मणि रूई में लपेट कर पूर्व दिशा में जल में डुबो कर रखें। वृषभ, कर्क, मीन, कन्या, वृश्चिक और मकर राशि पर चन्द्र होने पर पश्चिम में रखें तथा इसका विधिवत् पूजन करें। इससे पाँच दिन के अन्दर वर्षा जरूर होगी और अन्न सस्ता होगा। यदि दस दिन तक बरसता रहे तो धान्य भाव तेज होगा। यदि बीस दिन तक वर्षा होगी तो अकाल पड़ सकता है। जितनी ज्यादा वर्षा होगी उतनी ही ज्यादा हानि होगी। इस मणि के स्वामी इन्द्रदेव हैं। इसे इन्द्र का वरदान है कि जो इस मणि को धारण करेगा वह सदा विजयी और प्रसन्न रहेगा। शास्त्रों में इससे वर्षा कराने का बहुत विस्तृत विधान है।
भीष्मक या अमृतमणि के चार संग होते हैं-(१) संग सेलखड़ी (२) संग जराहत (३) संग कचिया (४) संग वदनी।
संग सेलखड़ी-यह मटियायी रंग का संग नरम और चिकनाई लिये होता है। जो पूर्व और पश्चिम के देशों में पैदा होता है।
संग जराहत-यह सफेद, चिकना और बहुत नरम होता है जो पूर्व विन्ध्य और हिमालय में पैदा होता है। यह ज्यादातर औषिधियों के रस में डाला जाता है। यह संग दाँतों की जड़ों को मजबूत और मुँह की दुर्गन्ध दूर करता है।
__ संग कचिया-यह सफेद रंग का चिकनाई लिये होता है तथा चमकदार भी। इसकी खान पहाड़ों पर होती है।
संग वदनी-यह सफेद रंग का और पीले रंग का केले के पत्ते के समान चमकदार चिकना और हल्का होता है। यह मणि खानदेश, विन्ध्य हिमालय आदि में पैदा होता है।
ओपल मणि या उपलक (Opal) ओपल या उपलक मणि बहुत विचित्र रंग की होती है। इसका स्वामी
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* रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान * कामदेव है। यह बहुरंगी और मधु जैसे होती है तथा तेल, दूध, जल में मिलाकर अधिक चमकती है। इसमें सफेद, लाल, हरे, नीले, पीले रंग के बिन्दु होते हैं। इसमें जाला, गड्ढा, चीर, काला बिन्दु ये चार दोष हैं। अतः ऐसी मणि नहीं धारण करनी चाहिये। दोषरहित मणि धारण करने से ईश्वर में भक्ति, प्रेम और आत्मोन्नति होती है। योगी को योग भक्ति और गृहस्थ को वैराग्य प्राप्त कराती है।
ओपल मणि के संग दो प्रकार के होते हैं-(१) संग अबरी (२) संग अनूबा।
संग अबरी-यह खाकी, मटिया रंग का विचित्र सा चिकना, भारी और नरम होता है। जो हिमालय, विन्ध्य, मुलतान, नर्मदा, गंगा, ताप्ती में पैदा होता है।
संग अनूबा-यह सफेद, खाकी, कुछ मैला रंग का और चमकदार होता है। जो आबू, विन्ध्य हिमालय पर्वतों में पैदा होता है।
स्फटिक मणि (Crystal) स्फटिक एक ऐसा उपरत्न है जो प्रचुर मात्रा में मिलता है। कटिंग और पॉलिश के पश्चात् यह काफी आकर्षक हो जाता है। स्फटिक को कांचमणि, बिल्लौर तथा अंग्रेजी में क्रिस्टल (Crystal) या क्वार्ट्ज भी कहा जाता है। स्फटिक को शुक्र रत्न और हीरे का उपरत्न माना गया है। यह पारदर्शी रत्न होता है।
स्फटिक आग्नेय शिलाओं, लाइम स्टोन तथा ग्रेनाइट शिलाओं की दरारों से प्राप्त होता है। विदेशों में यह ब्राजील, मेडागास्कर, जापान, अमेरिका, स्विट्जरलैंड के आल्प्स पर्वत, फ्रांस तथा हंगरी में प्राप्त होता है। भारत में स्फटिक हिमालय पर्वत के बर्फीले पहाड़ों से प्राप्त होता है। यह भारत के उत्तरी प्रदेशों यथा-कश्मीर, कुल्लू, शिमला, लाहोल स्फीति, मध्य प्रदेश के सतपुड़ा तथा विन्ध्याचल पर्वत श्रेणी के कुछ भागों में भी प्राप्त होता है।
स्फटिक का उपयोग कई रूपों में होता है। चश्मों के लेंस बनाने में इसका उपयोग किया जाता है । साधारण काँच के ग्लासों पर जल्दी ही खरोंच
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१२५ आदि के निशान पड़ जाते हैं, वे स्फटिक निर्मित ग्लासों पर जल्दी नहीं पड़ते। इस पर नक्काशी का काम भी बड़ा सुन्दर होता है। ज्योतिष की दृष्टि से स्फटिक को शुक्र रत्न तथा हीरे का उपरत्न माना गया है। शुक्र की दशा होने पर जो व्यक्ति हीरा नहीं पहन सकते वे स्फटिक धारण कर सकते हैं। स्फटिक अंगूठी में जड़ने योग्य रत्नों के आकार में प्रायः उपलब्ध होता है। इसकी धारण विधि आदि हीरे के समान है।
इसके अतिरिक्त स्फटिक की मालाएँ भी बनती हैं। जो विभिन्न आकार के मनकों के रूप में बहुतायत में मिलती हैं। स्फटिक का विशेष गुण यह है कि यह शीतवीर्य होता है। इसी कारण इसकी माला धारण करना गर्म स्वभाव वाले व्यक्तियों के लिए बहुत लाभदायक है। स्फटिक माला के विषय में कहा जाता है कि यह क्रोध को नियन्त्रित करती है। इसे धारण करने से धारक का स्वभाव शान्त तथा शीतल रहता है। स्फटिक माला का एक गुण यह भी है कि इस माला का जाप करने से मन्त्र शीघ्र ही सिद्ध हो जाते हैं और अपनी सामर्थ्यानुसार फल देते हैं। विशेष रूप से गायत्री मन्त्र व लक्ष्मी मन्त्र के जाप के लिए स्फटिक माला विशेष फलदायिनी एवं सर्वोत्तम मानी गई है।
स्फटिक माला का एक गुण यह भी है कि इसे रुद्राक्ष माला के समान ही कोई भी व्यक्ति धारण कर सकता है। यह माला सदैव लाभ प्रदान करने वाली होती है। इसे धारण करने से शुक्र जनित दोषों की शान्ति होती है तथा धारक को असीम सुख की प्राप्ति होती है।
इसके अतिरिक्त स्फटिक से कुछ मूर्तियाँ आदि भी बनाई जाती हैं। स्फटिक पत्थर से शिवलिंग, गणेश, नन्दी, श्री यन्त्र आदि अनेक प्रकार की मूर्तियों का भी निर्माण किया जाता है। अपनी आकर्षक नक्काशी के कारण ये मूर्तियाँ पूजनीय तथा संग्रह करने योग्य होती हैं।
रॉक क्वार्ट्ज़ क्रिस्टल प्राचीन काल से ही अत्यन्त पवित्र व अद्भुत विलक्षणता के लिए माना जाता रहा है। यह श्वेत प्रकाश का प्रतीक माना जाता है। सुचालक है, प्रेषित व प्रेषण दोनों का कार्य करने की स्फटिक में अद्भुत क्षमता है। यह किसी भी प्रकार के सकारात्मक कम्पन विचारें
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* रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान * ओपरा-आपरी, आदि में हमें बचाता है।
मिस्र देश में पहले लोग इसको पिरामिड के रूप में, प्रकाश को आकर्षित करने के लिए प्रयोग करते थे। अमेरिका में रेड इंडियन इसे सबसे पवित्र मानते हैं। उनके अनुसार पृथ्वी पर प्रकाश का प्रतीक है क्योंकि मनुष्य जन्म के समय से ही प्रकाश का सम्बन्ध हो जाता है।
द्वितीय विश्व युद्ध में यूरोप ने जहाँ-जहाँ बेतार की तारें टूट गई थीं, एम्पलीफिकेशन डिवासिस की तरह क्रिस्टल को माध्यम बनाकर एक अद्भुत सफलता प्राप्त की।
__ अब आपके सामने शुद्ध एवं उत्तम श्रेणी के स्फटिक की वस्तुओं का वर्णन करते हैं जिनको रखने के लिए आस्था का होना जरूरी है। आशातीत फल मिलता है। इन सभी वस्तुओं को पूजा स्थान में ही रखने का प्रयास करना चाहिए१. स्फटिक माला-इसको पहनने में हमें किसी भी क्षेत्र में संघर्ष
को धूमिल करने में सहायता मिलती है। यह हमारे शरीर में विद्युत प्रवाहित करके रक्त के संचार को सुचारू रूप से रखती
२. स्फटिक श्री यन्त्र-'श्री' का अर्थ है लक्ष्मी श्रीयन्त्र को ही
लक्ष्मी यन्त्र कहा जाता है। पुराणों के अनुसार जो व्यक्ति श्रीयन्त्र की पूजा करता है उसके घर में लक्ष्मी जी का वास रहता है।
श्रीयन्त्र सुमेरू पर्वत से ही १४ रत्न प्राप्त हुए थे। ३. स्फटिक श्रीगणेश-दुर्भाग्य नाशक नवग्रह के प्रमुख व किसी
भी पवित्र कार्य में सर्वप्रथम गणेश की ही पूजा होती है। ४. स्फटिक शिवलिंग-पर्वतत्व का प्रतीक है। बाईबल में (पिलर
ऑफ फायर) का जिक्र आया है जो 'लिंग' को ही दर्शाता है। पुराणों के अनुसार लिंग, भगवान शिव की शक्ति है। घर में लिंग
रखने पर शक्ति का विकास होता है। ५. स्फटिक नन्दी-शिव के तेज को केवल नन्दी ही सहन कर
सकता है। अतः शिवलिंग के साथ नन्दी का होना अनिवार्य है।
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१२७ स्फटिक हमारी आत्मा का दर्पण है। यह अपने आप में वशीकरण शक्ति लिए हुए है; इसलिए सभी को आकर्षित करता है। अतः उपरोक्त पूजा की वस्तुएँ अनभिज्ञता के लिए भले ही शोपीस हों, परन्तु यदि अज्ञानवश भी इन सबको एक जगह रख दें तो इनका चमत्कार स्वतः मालूम पड़ जाएगा।
स्फटिक के गुण-दोष-स्फटिक मणि सफेद, चमकदार भारी और हल्की तथा ब्राह्मण वर्ण की होती है। इसका स्वामी वरुण है। यह पुष्कर, नर्मदा, ताप्ती, विन्ध्य, हिमालय, वर्मा, लंका आदि में पायी जाती है। जाल, गड्ढा, काले सफेद लाल बिन्दु ये चार दोष हैं। ऐसी मणि नहीं धारण करनी चाहिये। अर्थात् दोषरहित मणि लेना चाहिये।
__ स्फटिक में आठ गुण होते हैं-(१) निर्मल झलक (२) अच्छा घाट (३) सफेद रंग (४) चिकना (५) चमकदार (६) गुलाबी, पीत, श्यामवर्ण (७) साफ अंग (८) तेजस्विता। ऐसा गुणयुक्त स्फटिक धारण करने से तेज, बल और वीर्य बढ़ता है।
स्फटिक मणि के संग दो प्रकार के होते हैं-(१) संग दूधिया (२) संग बिल्लौर।
संग दूधिया-यह मणि दूध के समान, रंग चमकदार, चिकना नरम होता है। यह विन्ध्य, हिमालय, नर्मदा, काबुल, काश्मीर आदि जगहों से प्राप्त होती है।
__संग बिल्लौर-यह संग चमकदार, साफ और नरम होता है। जो हिमालय, विन्ध्य, नेपाल, ढूंढार, बर्मा, लंका में पैदा होता है।
हकीक (Agate) हकीक एक ऐसा रत्नीय पत्थर होता है जो प्रायः आसानी से उपलब्ध हो जाता है तथा साथ ही यह सस्ता भी होता है। विभिन्न भाषाओं में इसे विभिन्न नामों से पुकारा जाता है। संस्कृत में इसे रक्ताश्म, हिन्दी में हकीक, उर्दू में अकीक तथा अंग्रेजी में आगेट कहते हैं । रासायनिक संरचना की दृष्टि से इसमें एल्युमीनियम, आयरन ऑक्साइड आदि का मिश्रण होता है। यह
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अपारदर्शी तथा पारदर्शी दोनों ही प्रकार का होता है ।
हकीक पत्थर में प्रायः डोरियाँ या पट्टियाँ-सी पड़ी होती हैं, जो कभी तो स्पष्ट होती हैं तथा कभी अस्पष्ट होती हैं अर्थात् किसी पत्थर पर तो ये स्पष्ट रूप से नंगी आँख से देखने पर ही दृष्टिगोचर हो जाती हैं, किन्तु किसी पत्थर पर यह अस्पष्ट होती हैं तथा सूक्ष्म दर्शक यन्त्र के द्वारा ही दिखाई देती हैं। हकीक प्रायः कई रंगों में पाया जाता है। इनमें दूधिया, सफेद, लाल, पीला, भूरा, हरा, नीला, काला आदि कई रंग होते हैं। हकीक पत्थर काफी कठोर होता है। इसी कारण यह मूर्तियाँ बनाने तथा नक्काशी के काम में भी आता है। इसके अतिरिक्त आभूषणों आदि में भी प्रयोग होता है ।
हकीम ज्वालामुखी पर्वतों से निकली पुरानी लावा या उससे बनी शिलाओं की दरारों में प्राप्त होते हैं। हकीक पत्थर सिलिका के जमाव से बनते हैं। इसीलिए कभी-कभी इनकी सतह पर प्राकृतिक रूप से बड़े सुन्दर डिजाइन बन जाते हैं। विदेशों में अच्छे हकीक प्रायः ब्राजील, युरुग्वे, संयुक्त राज्य अमेरिका आदि में प्राप्त होते हैं। भारत में हकीक विभिन्न स्थानों में विभिन्न नदियों की तलहटियों से भी प्राप्त होते हैं। भारत में यह पत्थर होशंगाबाद में नर्मदा की सहायक नदियों से प्राप्त होता है । दक्षिण भारत में हकीक कृष्णा तथा गोदावरी नदियों से प्राप्त होता है। इसी प्रकार हकीक काश्मीर, बिहार, मध्य प्रदेश तथा गुजरात में भी कुछ स्थानों पर प्राप्त होता है।
ज्योतिष की दृष्टि से विभिन्न राशियों पर, विभिन्न ग्रहों की शान्ति के लिए हकीक का प्रयोग किया जाता है। जैसाकि हम पहले कह चुके हैं कि हकीक प्रायः अनेक रंगों में मिलता है । अतः इसके इन्हीं रंगों के आधार पर ही विभिन्न ग्रहों और राशियों पर इनका प्रयोग किया जाता है । सुलेमानी, जजेमानी, हकीक यमनी आदि हकीक के ही भेद होते हैं। हकीक के विषय में कहा जाता है कि हकीक हक दिलाने वाला रत्न होता है। अनेकों बार ऐसा भी देखने में आया है कि यदि किसी व्यक्ति ने हकीक पहना हुआ है और उस पर कोई आपत्ति आने वाली है तो हकीक फट जाता है। एक प्रकार से हकीक आने वाली विपत्ति की सूचना देता है । साथ ही व्यक्ति के ग्रह को
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* रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान ★ स्वयं झेलकर धारक को अभय प्रदान करता है।
हकीक पत्थर से शिवलिंग आदि अनेक प्रकार की मूर्तियाँ भी बनाई जाती हैं। हकीक पत्थर की मालाएँ भी बनती हैं जो अपने विभिन्न रंगों में प्राप्त होने के कारण नवग्रह शान्ति के लिए धारण की जाती हैं साथ ही साथ इसके विभिन्न रंगों की मालाओं पर विभिन्न ग्रहों के जाप भी किए जाते हैं।
पारस मणि (Philosphers Stone) पारस मणि हिमालय, त्रिकूट पर्वत, नन्दापर्वत, गण्डकी नदी और नेपाल के पहाड़ों पर पायी जाती है। इस मणि को बहुत भाग्यवान ही प्राप्त कर सकता है। इसे पाने के लिये हिमालय पर्वत पर जाना चाहिये। वहाँ पर जमीन पर हरे रंग के चिन्ह दिखाई देगें और 'पन्ना' रत्न चमकेगा। थोड़ी दूर पर दुग्ध धवल गड्ढ़ों के दर्शन होंगे।
उसी के किनारे तेज धार में काले पहाड़ के शिखर पर पारस मणि का स्थान है। ये यहीं से यह गण्डकी में बहकर आ जाते हैं और उसके किनारे पर भी भाग्यशाली के हाथ लगते हैं। इसे परखने के लिये लोहा साथ रखें। पारस के स्पर्श होते ही लोहा सोना हो जाता है। पारसमणि के स्वामी त्रिभुवननाथ त्रिपुरारी भोलेनाथ हैं। जिस राज्य में यह मणि हो वह सम्राट हो जाता है। इस मणि के पास रहने पर रोग, दुःख दरिद्रता दूर रहते हैं तथा बल, वीरता, बुद्धि बढ़ाती है।
पारस के संग चार प्रकार के होते हैं-(१) संग चुम्बक (२) संग टेड़ी (३) संग चकमक (४) संग कसौटी।
संग चुम्बक-यह संग काला और हल्का नरम होता है। इसमें आकर्षण शक्ति होती है। लोहे को अपनी ओर खींच लेता है और चिपका लेता है। इसकी खानें विन्ध्य हिमालय की तराइयों में होती हैं।
संग टेड़ी-यह काला, भूरा, अबरी, भारी और चिकना होता है। जो विन्ध्य, खम्भात, ईरान और नर्मदा आदि में पाया जाता है।
संगचकमक–पथरी नाम से प्रसिद्ध यह संग सफेद, काला, चमकदार और चिकना होता है। इसे आपस में रगड़ने से अग्नि प्रकट होती है। यह
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★ रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान * हिमालय, तिब्बत में अधिक पाया जाता है।
संग कसौटी-यह संग काला, चिकना और भारी होता है। यह सोने की परख के काम में आता है। शालग्राम जी की मूर्ति भी इसी संग की बनाते हैं। जिसमें सोने का चिन्ह पड़ता है। यह संग गण्डकी, जम्मू, नेपाल और बर्मा में होता है।
उलूक मणि उलूक मणि सिन्धु नदी के किनारे पर्वतों और वन में प्राप्त होती है। इसे उल्लू अपने घोंसले में रखते हैं और उससे बड़े-बड़े काम लेते हैं। यह मटिया रंग की नरम अंगवाली व चिकनी होती है। इसके स्वामी कामदेव
हैं।
__ जहाँ पर उल्लूओं के अधिक घोंसले हों वहाँ पर यह पत्थर होता है। वहाँ से जो भी पत्थर लायें उसे घर आकर पानी से साफ करें। फिर किसी अन्धे को अन्धेरे में ले जाकर रोशनी करें फिर उसकी आँखों में मणि लगायें तो उसको नेत्र ज्योति प्राप्त हो जायेगी। इसके धारण करने से सभी नेत्र रोग दूर होंगे।
उलूक मणि के संग दो प्रकार के होते हैं-(१) संग बसरी (२) संग बाँसी।
संग बसरी-यह संग मटिया, खाकी रंग का चमकदार, चिकना, नरम होता है। यह महानदी, हिमालय, स्याम, फिरंग स्थानों में पैदा होता है।
संग बाँसी-यह संग सफेद गौरैया चिड़िया के रंग का होता है। इसके काले रंग में अबरखा बिन्दु होता है । यह नरम चिकना, चमकदार होता है। जो ढुंढार देश में ज्यादा पाया जाता है। इसकी मूर्तियाँ बनती हैं तथा देव मन्दिरों व महलों में यह पत्थर लगाया जाता है। यह संग बहुत लम्बा-चौड़ा होता है।
लाजावर्त या वर्तकमणि (Lapis Lazuli) लाजावर्त खास का रंग शम्भु के कण्ठ, मोर का गला या श्री हरि के
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★ रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान ★ समान श्याम रंग का होता है। उस पर सोने की छींटा होता है। चिकनी
और शुभ घाट की मणि अच्छी होती है। यह विशेषकर लंका में द्रोणगिरी पर प्राप्त होती है। घने जंगलों सर्प के स्थानों, भरतपुर के वनों व हिमालय
और सिन्धु नदी के किनारे इसकी अधिक खाने हैं। इसमें दोष निम्न हैंगड्ढ़ा, धब्बा, चीर, दोरंगी, काला बिन्दु आदि। यह मणि सात दोषों को दूर करती है। दोष रहित वर्तकमणि मंगलवार के दिन धारण करने से इससे बहुत लाभ होगा तथा भय रोग भूत-प्रेत आदि कष्ट दूर होगा। नीले वर्ण की इस मणि में स्वर्ण छींटे होने पर वह द्रोणाचार्य की होने से श्रेष्ठतम मानी गयी है।
लाजावर्त के संग दो प्रकार के होते हैं-(१) संग बादल (२) संग मूसा।
संग बादल-यह श्याम रंग का चिकना होता है। यह लंका, मक्का मदीना, तुर्किस्तान, नर्मदा आदि स्थानों में होता है। अच्छा गुण वाला संग हृदय रोग को दूर करता है।
संग मूसा-इसका रंग काली घटा के समान होता है। चौड़ापन लिये चिकना होता है। यह संग ढुंढार देश में पैदा होता है। यह तखत सिंहासन, महल, मकान मूर्ति आदि में काम आता है। साफ अंग वाला चिकना संग विशेष गुण वाला होता है।
मासर मणि या एमनी (Agate, Eye Agate)
मासर मणि या एमनी सफेद, लाल, पीली और काली चार वर्ण की होती है। इसके स्वामी असुर होते हैं। यह सिन्धु नदी, नर्मदा, तुर्किस्तान, खम्भात, विन्ध्य, बगदाद आदि स्थानों पर पायी जाती है। यह सब रंग वाली चमक व चिकनाई लिये कमल के पुष्प समान होती है। मासरमणि दो प्रकार की होती है। जो अग्नि तथा जल राशि की होती है। अग्नि वाली मणि को सूत में लपेटकर आग पर रखने से सूत नहीं जलता। जल वाली मणि दूध से जल अलग कर देती है। यह बकरी के कलेजी के समान होती है। अच्छे घाट और चमकदार चिकनी एमनी मणि शुभ होती है। इस मणि को पहनने से
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* रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान * जल में डूबता नहीं तथा न ही अग्नि का भय होता है।
एमनी के संग दो प्रकार के होते हैं-(१) संग हकीक (२) संग हदीद।
संग हकीक-यह काला, पीला, सफेद, सुर्ख रंग का चिकना, नर्म पटनी और चमकदार, छींट समान बिन्दु से बहुत रंग का होता है। जो तिब्बत, खम्भात, सिन्धु महानदी, नर्मदा व ईरान में पाया जाता है।
संग हदीद-यह खाकी, मटिया रंग का चिकना होता है। जिस पर एक दो नेत्र चिन्ह होते हैं। यह सिन्धु, नर्मदा, बगदाद आदि स्थानों पर पाया जाता है।
भीष्मक मणि भीष्मक मणि के स्वामी कामदेव हैं। यह काली, मधु समान, नरम दही और फिटकरी के मिश्रण से बने रंग जैसी होती है। इसकी उत्पत्ति विन्ध्य, आबू, नर्मदा, ताप्ती नदियों तथा गण्डक, सोन, गिरनार, काश्मीर, नेपाल, त्रिकूट, रामेश्वर हिमालय आदि स्थानों में होती है। साफ चिकनी, सुकान्ति अच्छे घाट और रंग की भीष्मकमणि बहत से रोग, गर्मी, घबराहट आदि को दूर करती है। इसे धारण करने से विष, तन्त्र-मन्त्र आदि का असर नहीं होता है तथा सब कार्य सिद्ध होते हैं।
भीष्मक मणि के संग दो प्रकार के होते हैं-(१) संग मरमर (२) संग भूरा।
संग मरमर-यह संग नीला, सफेद, काला चिकना और चमकदार होता है। जो ढूंढार देश में पाया जाता है। इससे मकान, महल, मन्दिर आदि बनते हैं तथा देवमूर्ति बनती है।
संग भूरा-यह संग सफेद अबरखी और काले रंग का होता है। यह संग भी ढूंढार देश में पाया जाता है। यह भी मकान आदि बनाने के काम आता है तथा बहुत शुभ फल देने वाला संग है।
इस तरह यहाँ तक इक्कीस उपरत्न और उनके कतिपय संगों का वर्णन किया गया। प्रकरण के आरम्भ में कहा जा चुका है कि इन उपरत्नों के
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* रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान ★
१३३ चौरासी संग पृथ्वी पर प्रसिद्ध है। गुणवान लोग इन्हीं संगों से विविध प्रयोग करके रोग, तन्त्र-मन्त्र, विष आदि प्रकोप से बचाते हैं। नवरत्न बड़े ही भाग्यवान को ही प्राप्त होते हैं पर ये उपरत्न सभी को मिल सकते हैं। आवश्यकता है इसकी जानकारी की जो शास्त्रों में बहुत अध्ययन और मेहनत से प्राप्त होती है तथा जिस पर गुरू व भगवान् प्रसन्न हो उसी को उसकी प्राप्ति की सफलता मिलती है।
रत्न और रुद्राक्ष के विषय में अन्य उत्तम पुस्तकें- चमत्कारी रुद्राक्ष : महिमा और प्रयोग (डॉ. रामकृष्ण उपाध्याय
और बाबा औढरनाथ जी) - रत्न और रुद्राक्ष (तांत्रिक बहल) - रुद्राक्ष भस्म और त्रिपुण्ड्र विज्ञान (डॉ. रामकृष्ण उपाध्याय)
रुद्राक्ष महात्म्य और धारण विधि (बाबा औढरनाथ तपस्वी)
रत्न परिचय और चिकित्सा विज्ञान (डॉ. रामकृष्ण उपाध्याय) - मन्त्र तन्त्र और रत्न रहस्य (तांत्रिक बहल और पं. कपिल
मोहन जी) - रत्नों की पहचान परख और प्रयोग (डॉ. रामकृष्ण उपाध्याय
व पं. कपिल मोहन जी) रणधीर प्रकाशन, रेलवे रोड, हरिद्वार
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रत्नों के कटाव
रत्नों की सुन्दरता को बढ़ाने तथा उनकी त्रुटियों को दूर करने के लिए उन्हें तराशा और पॉलिश किया जाता है। रत्नों को तराशने व सुन्दर डिजाइनों में परिवर्तित करने की कला को आर्ट ऑफ लैपीडरी (Art of Lapidary) कहते हैं।
कहते हैं सर्वप्रथम रत्नों को पहलों (Facets) में तराशने का आविष्कार केवल हीरे के लिए ही किया गया था और सबसे पहले संसार के सामने इस विधि का परिचय पन्द्रहवीं शताब्दी में लुईस डी बेरग्येम (Louis De Berguem) ने कराया था। यद्यपि भारत में सबसे पहले हीरा भारत ही में ज्ञात हुआ था। हीरों को काटने और तराशने का काम दूसरे हीरे या हीरे के चूर्ण द्वारा एक घूमते हुए लोहे के पहिए या प्लेट पर किया जाता है। तराशने के साथ ही साथ हीरा पॉलिश भी होता चला जाता है।
पत्थरों को काटने, तराशने तथा उनके आभूषण बनाने में हालैंड, बेल्जियम, जर्मनी, इसराइल और फ्रांस के शिल्पकार अत्यन्त निपुण और दक्ष होते हैं। भारत में यह कार्य जयपुर, सूरत और बम्बई में होता है। चीन
और श्रीलंका में भी अपने देश के फैशन के अनुसार रत्नों को तराशने वाले विशेषज्ञ पर्याप्त संख्या में हैं।
चीन मरगज की ज्यूलरी का सबसे बड़ा केन्द्र है। समस्त कीमती, पत्थरों को खानों से निकालने के पश्चात् बहुत परिश्रम करने और पॉलिश करने के पश्चात् ही आभूषणों में प्रयोग करने के योग्य बनाकर लाखों रुपयों में बेचा जाता है। यूरोप में ऐन्टवर्प और एमस्टरडम हीरों के व्यापार के बहुत बड़े केन्द्र हैं। बेल्जियम, हालैण्ड और इसराइल में हीरे काटने और उनसे
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* रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान *
१३५ नई-नई सुन्दर डिजाइनों के आभूषण बनाने के लिए बड़ी-बड़ी फैक्ट्रियाँ हैं। हीरों को काटने पर हीरों के जो छोटे-छोटे टुकड़े और कण या चूर्ण बचते हैं वे विभिन्न औद्योगिक कार्यों में प्रयोग किए जाते हैं इसलिए ऐसे हीरों को इन्डस्ट्रियल डायमण्ड कहते हैं।
आजकल कीमती पत्थरों को तराशने और डिजाइन बनाने का काम बिजली की शक्ति से विशेष प्रकार की मशीनों द्वारा किया जाता है। जो कार्य बहुत नजाकत चाहता है केवल उसे ही हाथों से किया जाता है। स्फटिक, राक क्रिस्टल तथा अन्य मूल्यवान पत्थर प्रायः जर्मनी में तराशे जाते हैं। जर्मनी के नगरों में ब्राजील, मैडागास्कर, श्रीलंका, आस्ट्रेलिया, दक्षिणी अफ्रीका, रूस, मैक्सिको, अमेरिका तथा अन्य देशों की खानों से निकलने वाले रत्नों की खरड़ समुद्री जहाजों द्वारा पहुँचती है। यहाँ का ईडर (Idar) नगर इस उद्योग का सबसे बड़ा केन्द्र है।
तराशे हुए भागों के नाम इस प्रकार होते हैं-टेबल, क्राउन, मेखला और क्यूलेट। ऊपरी सतह को टेबल कहते हैं, उसके नीचे बने हुए पहल क्राउन तथा उसके नीचे के जोड़ को जहाँ क्राउन फलक समाप्त होकर निचले फलक शुरू होते हैं, मेखला कहते हैं। तत्पश्चात् निचले फलक और उसके सबसे आखिरी सिरे को क्यूलेट कहते हैं । यह चौड़ा भी हो सकता है। रत्नों में प्रयोग होने वाली नई और पुरानी तराशें इस प्रकार हैं
डायमण्ड प्वॉइन्ट (Diamond Point)- इसमें प्राकृतिक ऑक्टोहेड्रल (Octohedral) मणियों को उनके प्राकृतिक रूप में ही तराश कर पॉलिश कर दिया जाता था।
कैबोकोन तराश (Cabochon Cut)-यह अति प्राचीन तराश है। काफी समय तक यह रंगीन पत्थरों की एक अति लोकप्रिय तराश रही है, परन्तु आज यह केवल कुछ ही रत्नों जैसे-अल्मेन्डाइन गार्नेट (Carbuncle, AImandine Garnet), लहसुनिया, स्टार स्टोन्ज, अपारदर्शक और अर्द्धपारदर्शक रत्नों तक ही सीमित होकर रह गई है। वैसे अब भी कभी-कभार यह माणिक्य व पन्ने के लिए प्रयोग की जाती है।
कैबोकोन तराश का मुख्य रूप शिखर पर से गोल-उन्नतोदर (Convex),
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* रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान ★ पीठ पर से सपाट और शेष बिना पहल के सादा रहने देना है।
दुहरा उत्तल कैबोकोन (Double Convex Cabochon)-इसमें नीचे व ऊपर दोनों ओर की सतह घुमावदार (Curved) और उन्नतोदर (Convex) होती है परन्तु दोनों के कोणों में भिन्नता होती है। इसमें एक सतह दूसरी की तुलना में अधिक गोलाई लिए हुए होती है। कुछ स्टार स्टोन्ज तथा मूनस्टोन्ज में ऊपरी सतह ढालू (Steep) होती है। क्राइसोबेरिल लहसुनिया भी इसी तराश में तराशे जाते हैं, परन्तु इनकी निचली सतह घुमावदार नहीं होती।
सरल कैबोकोन तराश (Simple Cabochon Cut)- इसमें ऊपरी सतह घूमी हुई और निचली सतह चिकनी या सपाट होती है। बहुत-से अपारदर्शक रत्न जैसे-फिरोजा, स्फटिक, लहसुनिया और कभी-कभी अल्मेन्डाइन (AImandine) इसी तराश में तराशे जाते हैं।
अवतल-उत्तल कैबोकोन तराश (Concave-convex Cabochon Cut)- इसमें निचली सतह अवतल (Concave) तथा मेखला (Girdle) पतली होती है। यह तराश प्रायः गहरे रंगों के पत्थरों के लिए ही आरक्षित है जैसे-गहरे रंग के कारबंकल (Carbuncle, AImandine Garnet) जो कि बहुत ही गहरे रंग के होते हैं । खोखली कैबोकोन तराश में शिखर उन्नतोदर तथा निचला भाग नतोदर (Concave) होता है।
सिंगल तराश (Single cut)-इसमें १७ फलक होते हैं। एक टेबल (शिखर), ८ ऊपरी फलक (Top Facets), ८ निचले फलक (Bottom Facets) यह तराश छोटे आकार के रत्नों में प्रयोग की जाती है।
डबल तराश (Double Cut)-इसमें ५८ फलक होते हैं । ३३ ऊपरी फलक (Crown Facets) तथा २५ निचले फलक। यह तराश बड़े हीरों में प्रयोग की जाती है।
गुलाब तराश (Rose Cut)-यह तराश अब केवल छोटे हीरों में ही प्रयोग की जाती है तथा फिर रंगीन रत्नों या छोटे रत्नों को यदि बड़े रत्नों के साथ लगाना हो तो उसके लिए भी प्रयोग की जाती है। इस तराश का आविष्कार सन् १६०० में हुआ था। यह निम्न प्रकार की होती है
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★ रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान *
१३७ १. डच रोज (Dutch Rose)- इसमें प्रत्येक मुख्य त्रिकोणाकार
(Triangular Facets) के आधार (Base) पर ३ छोटे फलक
होते हैं। इसमें कुल मिलाकर २४ फलक होते हैं। २. अर्द्ध डच रोज (Half Dutch Rose)-इस तराश में १८ फलक
होते हैं। ३. एन्टवर्प रोज (Antwerp Rose)-इसमें फलकों की संख्या
१२ होती है। ४. दुहरी गुलाब तराश (DoubleRose Cut)- इस तराश में प्रत्येक
ऑक्टाहेड्रन की समाप्ति पर रोज कट होती है। इसलिए इसमें दो रोज (Rose) आधार से आधार मिलाकर जुड़े होते हैं । इस तराश को आधुनिक प्रकार की बोरिओलेट (Boriolette) कहते हैं, जो कि पियर शेप्ड (Pear Shaped) होती है तथा उसमें त्रिकोणाकार
फलक (Triangular Facets) होते हैं। ५. क्रॉस रोज (Cross Rose)-इसमें फलों की संख्या २४ होती
नाशपाती आकार (Pear Shape)-इसमें ५८ से ७४ फलक होते
हृदयाकार (Heart Shape)-इसमें पहलों (फलकों) की संख्या ६५ होती है।
ज्वलन्त तराश (Brilliant Cut)-यह तराश सत्रहवीं शताब्दी के अन्त में पेरूजी (Peruzzi) नामक व्यक्ति द्वारा आविष्कृत की गई थी। आजकल यह बहुत अधिक प्रयोग की जाती है। इससे रत्नों की चमकदमक में बढ़ोत्तरी हो जाती है। इसमें ५८ फलक होते हैं।
आधुनिक ज्वलन्त तराशें (Modified Brilliant Cuts)-इसमें ज्वलन्त तराश में कुछ परिवर्तन करके नई-नई तराशों का अविष्कार किया गया है जिससे वजन की बचत होने लगी है तथा फलकों की संख्या में भी वृद्धि हुई है जिससे रत्नों की सुन्दरता और चमक पहले की अपेक्षा और भी अच्छी तरह उभरकर सामने आने लगी है। इसमें से कुछ तराशें इस प्रकार हैं
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१३८
* रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान * १. कैरो स्टार (Cairo Star)-इसमें ७४ फलक होते हैं, २५ ऊपर
और ४९ नीचे। यह एक अनाकर्षक तराश है। इसमें क्यूलेट भी टेबल की ही तरह चौड़ी होती है। २. अमेरिकन ज्वलन्त तराश (American Brilliant Cut)-इसमें
८४ फलक होते हैं। ३. इंगलिश ज्वलन्त तराश (English Brilliant Cut)- इसमें ३०
फलक होते हैं। ४. सिक्सटीन साइडेड (Sixteen Sided)-इसमें ३३ पहल होते
५. एट साइडेड (Eight Sided)- इसमें कुछ मिलाकर ३४ पहल __होते हैं। जुबली तराश (Jubilee Cut)-इसमें फलकों की संख्या ८८ होती
मल्टी स्टार तराश (Multi Star Cut)-इस तराश में विशेषकर पीले स्फटिक (Yellow Quartz) तराशे जाते हैं । टेबल फलक के चारों ओर बहुत से स्टार पहल तराशे जाते हैं। साधारणतः इसमें क्यूलेट नहीं होती।
जिरकॉन कट (Zircon Cut)-जैसाकि इसके नाम से ही जाहिर है कि यह तराश प्रायः गोमेद (Zircon) के लिए ही आरक्षित है। वैसे तो यह ज्वलन्त तराश की ही तरह होती है परन्तु इसमें ज्वलन्त की अपेक्षा फलकों का एक सेट (Set) अधिक होता है।
मरक्वायज तराश (Marquise Cut)-इसे नेटेव (Navette) भी कहते हैं। इसमें ५८ पहल होते हैं।
एमराल्ड, स्टेप या ट्रेप तराश (Emerald, Step or Trap Cut)इसमें कुल मिलाकर ५८ पहल होते हैं । एक टेबल, २४ ऊपरी पहल, मेखला पहल आठ और निचले पहल २४ तथा एक क्यूलेट। यह तराश प्रायः पन्ना व पुखराज में प्रयोग की जाती है।
मिश्रित तराश (Mixed Cut)-इसमें ऊपरी भाग ज्वलन्त तराश का तथा निचला भाग किसी अन्य तराश का होता है।
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* रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान *
१३९ फ्रेंच स्टार तराश (French Star Cut)-यह मिश्रित तराश जैसी ही एक अन्य तराश है।
जाल या गद्दा तराश (Cushion Cut)-इसमें रत्नों को कुछ चपटा तराशा जाता है और उसमें अनीकों की एक या अधिक लाइन मेखला के समानान्तर रखी जाती है।
ट्रिलिएन्ट तराश (Trilliant Cut)- इसमें केवल २२ पहल होते हैं। एक टेबल, ५ ऊपरी फलक, नीचे १५ त्रिकोण (Triangles) और एक क्यूलेट।
बैगूएटी (Baguette)- इसमें १७ पहल होते हैं।
पोलकी (Polky)-एक टेबल और निचले भाग में ३ फलक कुल मिलाकर इसमें ४ फलक होते हैं।
इंगलिश पोलकी (English Polky)-इसमें ऊपर एक फलक और नीचे २४ फलक, कुल मिलाकर २५ फलक होते हैं।
अण्डाकार ज्वलन्त तराश (Oval Brilliant Cut)- इसमें कुल मिलाकर ५८ फलक होते हैं।
कृत्रिम व संश्लिष्ट रत्न रत्न कुल कितने प्रकार के और कौन-कौन से होते हैं, यह बताने के बाद हम प्राकृतिक और कृत्रिम रत्नों के विषय में कुछ बता रहे हैं। यहाँ हम संश्लिष्ट (मिक्स्ड) रत्नों के साथ-साथ रत्नों की श्रेणियों से सम्बन्धित वास्तविकताओं से भी परिचित करा देना चाहते हैं। रत्नों के बारे में सबसे महत्त्वपूर्ण बात जानने की यह है कि गिने-चुने कुछ रत्नों के अतिरिक्त शेष सभी रत्न खनिज पदार्थ हैं, जिन्हें भूगर्भ से प्राप्त किया जाता है। यह सब इनार्गनिक प्रोसेस अर्थात् अकार्बनिक प्रक्रिया के उत्पादक मात्र हैं और एक ही प्रकार के पदार्थों के बने होते हैं।
सबका एक निश्चित रासायनिक संगठन होता है। इस बात को अच्छी तरह से समझ लेना चाहिए कि केवल उन्हीं पत्थरों (स्टोन्स) या खनिज
पदार्थों की मूल्यवान रत्नों में गणना होती है, जो देखने में अत्यन्त सुन्दर हों
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* रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान * तथा उनमें कुदरती चमक और टिकाऊपन हो। सम्भवतः बहुमूल्य रत्नों में इसलिए ही हीरा, नीलम, पन्ना, माणिक्य और मूल्यवान ओपल या दूधिया पत्थर (मिल्क स्टोन) की गणना की जाती है।
अपनी मनमोहक आभा एवं आकर्षक रूप के मोती भी मूल्यवान रत्नों की श्रेणी में आते हैं । यद्यपि मोती कोई खनिज पदार्थ नहीं हैं, बल्कि जैविक उत्पादन हैं। मूल्यवान रत्नों की श्रेणी में जिनको स्थान प्राप्त नहीं होता, अल्पमोली रत्नों में केवल वो ही खनिज पदार्थ आते हैं। आकर्षक आभूषणों में तो अल्पमोली रत्नों को एक विशेष स्थान प्राप्त है, क्योंकि ये आभूषणों की शोभा बढ़ाने में अद्वितीय होते हैं। कुछ विशेष अल्पमोली रत्नों के नाम ये हैं१. पुखराज
२. कटैला ३. नीलमणि
४. जिरकॉन ५. तुरमली
६. हरितमणि ७. लालड़ी
८. चन्द्रकान्त उपर्युक्त पत्थरों में पर्याप्त मात्रा में कठोरता, सुन्दरता, आभा और टिकाऊपन होता है। मूल्यवान तथा अल्पमोली रत्नों की दो श्रेणियाँ और भी
१. संश्लिष्ट रत्न
२. कृत्रिम रत्न संश्लिष्ट रत्न कहीं से प्राप्त नहीं होते बल्कि बनाए जाते हैं। इनके बनाने में असली रत्नों के तत्वों का इस प्रकार मिश्रण किया जाता है कि तैयार हो जाने पर असली रत्न की भाँति ही उनकी चमक-दमक और रंग-रूप होता है।
कृत्रिम रत्नों को इमीटेशन कहा जाता है।
संश्लिष्ट रत्न कृत्रिम (नकली) रत्नों से अधिक टिकाऊ होते हैं, क्योंकि कृत्रिम रत्न चाहे जैसा भी रंग-रूप और आकार प्राप्त कर लें, किन्तु होते तो प्लास्टिक अथवा काँच के ही हैं । अपारदर्शक कृत्रिम रत्नों को बनाने में तो अधिकतर प्लास्टिक का ही प्रयोग किया जाता है। एक अन्य प्रकार का रत्न भी होता है, जिसे 'युग्म रत्न' कहते हैं।
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★ रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान ★ संश्लिष्ट (मिक्स्ड) और कृत्रिम (डुप्लीकेट) रत्न के अतिरिक्त युग्म (डबलिट) रत्न को दो पत्थरों को जोड़कर एक रत्न बनाया जाता है। इसका ऊपरी भाग तो एकदम असली रत्न का होता है और निचला भाग उसी रंग का सर्वथा नकली होता है तथा इसका रंग ऊपरी रंग के रत्न से थोड़ा गाढ़ा (डार्क) रखा जाता है, जिस कारण असली रत्न का रंग पहले से भी कहीं अधिक आभापूर्ण और चमकदार हो जाता है।
उपर्युक्त रत्न के अतिरिक्त तीन भाग वाले रत्नों का निर्माण भी किया जाता है। इसके निर्माणकाल में ऊपरी और निचली पर्त तो असली रत्न की रखी जाती हैं और बीच में नकली पत्थर (काँच) रखा जाता है । इस क्रिया से रत्न की ऊपर-नीचे की दोनों पर्ते आकर्षक और मनमोहक प्रतीत होती हैं। यह रत्न तीन पदार्थों का समुदाय होता है। प्राकृतिक और संश्लिष्ट रत्नों को निम्न अन्तरों से पहचाना जा सकता है
संश्लिष्ट रत्नों का रंग प्रायः ठीक नहीं होता, क्योंकि वो एकसार होता है और उसमें काँच जैसी तीव्र चमक विद्यमान होती है। प्रकृत या वास्तविक (जेनुइन) माणिक्यों, नीलम आदि में रत्न के विभिन्न अंशों के रंग में कुछ भिन्नता होती है और यदि रंग की धारियाँ-सी दिखाई देती हैं, तो निःसन्देह वो सामानान्तर होती हैं या अनियमित होती हैं, वक्र तो कदापि नहीं होतीं। इन रत्नों में रासायनिक पदार्थ के जर्रे वक्रता के साथ बने होते हैं। प्रकृत रत्नों में जर्रे छोटे-बड़े होते हैं और अनियमित रूप से कुछ छितरे होते हैं।
यदि आन्तरिक धारियाँ वर्तमान होती हैं, तो प्रकृत रत्नों में वो सीधी होती हैं जबकि संश्लिष्ट रत्नों में वो साधारणतया वक्र होती हैं। साथ ही संश्लिष्ट रत्नों में छोटे-छोटे हवा के बुलबुले दिखलाई पड़ते हैं, जो साधारणतया बिल्कुल गोल होते हैं। वास्तविक मूल रत्नों में यदि बुलबुले हाते हैं, तो वे अनियमित आकार के होते हैं तथा उनका रंग-रूप प्रकृत रत्नों के समान हो जाता है। जो आंतरिक प्रकाशकीय प्रभाव माणिक्य, नीलम और पुखराज में दिखाई देता है और जिसे रेशम कहा जाता है, संश्लिष्ट रत्नों से कभी उजागर नहीं होता। संश्लिष्ट और प्रकृत रत्नों की एक विशेष पहचान यह भी है कि यदि उन दोनों को मेथालीन आयोडाइड के सोल्यूशन में डाला जाए, तो
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* रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान * संश्लिष्ट रत्न सतह पर आकर तैरने लगेगा और प्रकृत (असली-वास्तविक) रत्न तल में जाकर बैठ जाएगा, अर्थात् सोल्यूशन में डूब जाएगा।
संश्लिष्ट रत्नों का अधिकतर निर्माण फ्रांस और जर्मनी में होता है। वैसे रूस, स्विट्जरलैण्ड और इटली में इन रत्नों का उत्पादन होता है तथा कृत्रिम रत्नों को तो रत्न कहना ही उपयुक्त नहीं होगा, ये तरह-तरह के काँच के बने होते हैं और इन पर क्विक सिल्वर का कोट चढ़ाया जाता है।
उत्तम प्रकार की कृत्रिम मणियों में लैड ऑक्साइड की मात्रा ही प्रमुख होती है, जिससे कि काँच की चमक पहले से कई गुना बढ़ जाती है किन्तु यह चमक स्थायी नहीं होती और अतिशीघ्र लोप हो जाती है।
रत्नों की रंगाई ग्रह नक्षत्र अपनी किरणों द्वारा पृथ्वी पर चल-अचल, जीव-जन्तुओं आदि को प्रभावित करते हैं । रत्नों से निकलने वाली किरणें तीव्र होती हैं इसी कारण से रत्नों का महत्त्व विशेष होता है। जैसे हरे रंग का काँच का टुकड़ा
और पन्ना में, अन्तर यह है कि पन्ना में जितनी मात्रा में हरे रंग की किरणें होती हैं उतनी हरे काँच में नहीं। अत: हरे काँच से निकली हुई किरणें उतना लाभ नहीं पहुँचाती जितना कि पन्ने से निकली हुईं। कुल मिलाकर हम यह कह सकते हैं कि जिस प्रकार गंगाजल का मुकाबला अन्य नदियाँ नहीं कर सकतीं, उसी प्रकार से वास्तविक रत्नों का मुकाबला कृत्रिम रन नहीं कर सकते।
। कृत्रिम रूप से रंग भरने की प्रक्रिया प्राचीन काल से चली आ रही है। यह क्रिया रत्नों को और अधिक आकर्षक बनाने के लिए प्रयुक्त होती है। रंग भरते समय बड़ी सावधानी की जरूरत पड़ती है। जैसे-ताप अधिक न हो, रसायन में निश्चित अवधि से अधिक समय तक नहीं रखा जाए आदि। जोबन/रसायन, अवधि आदि विभिन्न रत्नों के लिए अलग-अलग होती है। अधिकांशतः पन्ना व माणिक्य को नींबू व सोडे के घोल में कम से कम १२ घण्टे रखा जाता है। तत्पश्चात् गुनगुने पानी से धोया जाता है तथा पूरी तरह से सुखाने के पश्चात् जोबन में छोड़ा जाता है।
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★ रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान ★
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हकीक व कारलियन जाति के उपरत्नों में केवल ताप देने से ही रंग निखर जाता है। इसी प्रकार फिरोजा, अम्बर, लोपिस सेजुली आदि को रंगा जाता है तथा कटैला, पीला पुखराज तेज धूप में अपना प्राकृतिक रंग भी छोड़ देते हैं
I
रत्नों का तौल
अन्तर्राष्ट्रीय प्रणाली में रत्नों की तौल का नाम कैरट है ।
१०० सैन्ट
१ कैरट
२०० मि.ग्रा. ५८.१८ कैरट
१ तोला, ५ कैरेट
१ ग्राम
परन्तु भारत में कुछ विशेष शहरों को छोड़कर जिनमें कैरट प्रणाली चलती है। शेष जगह पर कच्ची व पक्की रत्ती में नगों को तौला जाता है ।
१२१ मि.ग्रा.
१८० मि.ग्रा.
९३.७५ कैरट ९० कैरट ९०.५ कैरट
कच्ची रत्ती
पक्की रत्ती
मुम्बई में :
जयपुर में : कलकत्ता में :
१०० रत्ती
१०० रत्ती १०० रत्ती
==
=
=
=
=
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रत्न खरीदते समय सावधानियाँ
इस संदर्भ में ध्यान देने योग्य बातें निम्न प्रकार से हैं
१. आप कितने रुपए खर्च करना चाहते हैं ।
२. नग - नगीने दिन-प्रतिदिन महँगे होते जा रहे हैं । इनका सोने-चाँदी की तरह प्रतिदिन का भाव नहीं होता। एक नग का मूल्य अलग-अलग व्यापारियों की नजर में अलग-अलग होता है अर्थात् नग का मूल्य व्यक्ति की अपनी समझ के अनुसार ही होगा ।
I
३. लाभ में घटिया व बढ़िया नग में १९ - २१ अन्तर पड़ता है । यदि एकदम बढ़िया नग का असर तेज व बहुत बढ़िया मिलता हो तो आप यह याद रखें कि कोई भी माँ-बाप अपने बच्चों के लिए या फिर स्वयं के लिए बढ़िया नग ही खरीदना चाहेंगे। चाहे रुपए उधार लेकर ही लेना पड़े। ४. यदि हम रत्नों की प्रिज्म से परीक्षा करें तो उनका असली रंग निम्न तरह से दीखेगा जिसको रत्न शरीर के अन्दर पहुँचाता है। (देखें तालिका) ५. रत्नों को पहनने की अवधि होती है । यदि उस अवधि से भी लम्बी अवधि तक पहनना हो तो आपको निर्धारित अवधि के पश्चात् वैसा नग दुबारा खरीदकर धारण करना पड़ेगा अन्यथा नग की कार्यक्षमता (केवल आप पर) कम हो जाएगी। (देखें तालिका)
६. पुस्तक में वर्णित रंग व क्वालिटी के हिसाब से कम से कम मूल्य निम्नलिखित होंगे। (देखें तालिका)
७. रत्न का नाम, उत्तम श्रेणी का उद्गम स्थान, प्रिज्मीय रंग, अवधि एवं उच्च श्रेणी के नगों का न्यूनतम मूल्य पक्की रत्ती में निम्न तालिका में दिया गया है
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का
नाम
| नीला
बर्मा,
* रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान *
१४५ रत्न उत्तम | प्रिज्मीय
अवधि
उच्च श्रेणी के श्रेणी का रंग
नगों का कम उद्गम
से कम मूल्य स्थान
पक्की रत्ती १. माणिक्य |बर्मा लाल ४ वर्ष
१०,००० रु. २. मोती बसरा नारंगी २ वर्ष १ मास २७ दिन | १०,००० रु.] ३. मूंगा | जापान पीला ३ वर्ष ३ दिन
५०० रु. ४. पुखराज ब्राजील आसमानी | ४ वर्ष ४ माह १८ दिन | ५,००० रु. ५. पन्ना कोलम्बिया |हरा ३ वर्ष ।
५,००० रु. ६. हीरा ब्राजील,
|४ वर्ष ४ माह १८ दिन | १०,००० रु. | द. अफ्रीका ७. नीलम | कश्मीर, बैंगनी ५ वर्ष
५,००० रु. बर्मा ८. गोमेद कत्थई ३ वर्ष
५०० रु. श्रीलंका ९. लहसुनिया | श्रीलंका,
|३ वर्ष
५०० रु. ब्राजील नोट : इस्तेमाल किया हुआ रत्न आप बेच सकते हैं या फिर उसके बदले
नया रत्न ले सकते हैं।
परन्तु तैयार उत्तम श्रेणी के व्यावसायिक हीरे बेल्जियम व इजराईल में मिलते हैं। ८. उपरोक्त वर्णन के अनुसार हल्के स्तर के नग नकली नहीं होते बल्कि
कम रेट वाले नग आम उपभोक्ता के खर्च करने की क्षमता के अनुसार होते हैं । इतने बढ़िया किस्म के नग आपको बहुत बड़े-बड़े शोरूमों पर उपलब्ध होते हैं। ये हल्के स्तर के नग नहीं रखते। ऐसे शोरूमों में उच्च
कोटि व उच्च कीमत के नग मिलते हैं। ९. यह एक आम भ्रामक व गलत धारणा है कि नग को त्वचा से छूते रहना
आवश्यक है जबकि यह जरूरी नहीं है। वैज्ञानिकों ने सिद्ध कर दिया है कि पत्थर है, अन्तर इतना है कि सड़क के पत्थर को हम ठोकर
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___★ रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान ★ मारते हैं तथा इन चमकीले रंगीन पत्थरों को हम चूमते हैं। त्वचा से
बराबर स्पर्श करने पर ये खाल को छील देंगे व जगह सफेद बना देंगे। १०. निष्कर्ष ये है कि नग का नीचे से खुला रहना आवश्यक है। नग का
कार्य किरणों को खींचकर त्वचा के सूक्ष्म छिद्रों द्वारा शरीर के अन्दर भेजना है क्योंकि नग के स्पर्श करने पर दबाव से छिद्र बन्द होकर भर
जाते हैं जिससे त्वचा सफेद पड़ जाती है। ११. रत्न चिकित्सा एक प्रकार की किरण व रंग चिकित्सा है। रत्न को जब
हम वार-समय-दिन व पूजानुसार पहनते हैं तो वे असर दिखाते हैं अर्थात् वे किरणों को चूस करके त्वचा के सूक्ष्म छिद्रों से नसों द्वारा हृदय में, मस्तिष्क में व पूरे शरीर में पहुँचाते हैं। जिसके द्वारा जिस रंग
की हमें जरूरत होती है वे हमें प्राप्त होते रहते हैं। १२. वैसे तो बढ़िया किस्म के नग आभूषणों में प्रयोग होते हैं । रत्नों का ८०
प्रतिशत प्रयोग आभूषणों में होता है। १५ प्रतिशत राशि में तथा शेष ५ प्रतिशत दवाइयों व उद्योगों में होता है परन्तु हीरे का प्रयोग राशि में १ प्रतिशत, ज्वैलरी में २४ प्रतिशत, शेष ७५ प्रतिशत औद्योगिक क्षेत्र में
होता है। १३. हर चमकने वाली वस्तु सोना नहीं होती। इसी तरह लोगों की यह
धारणा विशेषतः कुछ धूर्तों के द्वारा फैलाई गई कि केवल जयपुर में ही नग सस्ते व असली मिल जाएँगे। यदि हम इन बातों को सच मानकर चलें तो एयरकंडीशन शोरूम वाले तो साधारण दुकान में आ जाएँगे व छोटे-छोटे दुकानदार यह कार्य बन्द कर देंगे। परन्तु यह एक झूठा भ्रम है कि किसी वस्तु का जहाँ स्रोत होता है वहाँ के व्यापारियों को तो फायदा पहुँचता है पर लगभग उपभोक्ता को नहीं। इसका कारण यह है कि वहाँ के व्यापारी को दूसरा व्यापारी कम लाभ देता है जबकि उपभोक्ता वस्तु असली व सस्ती के चक्कर में जाकर वहाँ लगभग पूरे दाम देता है या कभी-कभी नकली चीज भी ले आता है या फिर वस्तु
दिखाई कोई जाती है और दी कोई जाती है। १४. धूर्त लोग आपको यह भी कहते हैं जब आप दूसरी जगह से नग
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★ रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान ★
१४७ खरीदते हैं कि यह नग ठीक नहीं है या असली नहीं है, चाहे वह असली ही हो या घटिया, सस्ता, महँगा नग करके बातें बनाएँगे। वे यह नहीं सोचते कि सामने वाले का मन कितने पैसे खर्च करने का है।
क्योंकि लोग पैसा कम खर्च करके नग उत्तम किस्म का चाहते हैं। १५. व्यावहारिक सत्य है कि जड़ाऊ आभूषणों को खरीदते समय राशि नहीं
देखी जाती बल्कि पसन्द तथा सुन्दरता देखी जाती है और बहुमूल्य जेवर घर के लिए खरीद लिए जाते हैं परन्तु राशि के लिए व्यक्ति छह बार सोचता है क्योंकि उसको अपने ग्रह का उपाय करना होता है परन्तु आभूषणों एक सम्पत्ति बन जाती है जबकि ग्रह उपाय की अवधि के
बाद व्यक्ति पहनना तो दूर, घर में रखने पर भी वहम करता है। १६. मैं आपको एक बात अच्छी तरह स्पष्ट कर दूं कि कुछ धूर्तों का छिपा
हुआ मतलब यह होता है कि व्यक्ति उनसे नग खरीदे या वो जिनको बताएँ उनसे खरीदे ताकि कमीशन बने या कभी-कभी अगले पर रौब या अहसान जताने हेतु भी ऐसी बात बताई जाती है। क्या आपने कभी एक बात सोची है, जो व्यक्ति विवेकशील हैं या जिनके पास काम की कमी नहीं है वे ऐसी तुच्छ बातें ना तो करते हैं और न ही उनके पास
फुर्सत होती है। १७. वास्तविकता तो यह है कि उपरोक्त धूर्त लोगों की दूसरों के काम में
अपने फायदे के लिए टांग अड़ाने की आदत है परन्तु यदि इनके आगे सिन्थेटिक नग, असली में मिलाकर या अलग से रखकर दिखाया जाए
तो पहचान नहीं पाएंगे। १८. रत्नों को कई जगह कच्ची रत्ती १२० मि.ग्रा. या १८० मि.ग्रा. पक्की
रत्ती के हिसाब से तोला जाता है। रेट में भी फर्क पड़ जाता है। जैसे पक्की रत्ती में किसी का मूल्य १०० रु. रत्ती है तो कच्ची रत्ती में ६० रु. रत्ती होगा। इसी प्रकार ९०० मि.ग्रा. का पक्की रत्ती में ५ रत्ती वजन होगा जबकि कच्ची रत्ती में ७.५ रत्ती वजन होगा। पुराने समय में
कच्ची रत्ती/माशा का प्रचलन था। १९. पूरे भारतवर्ष में नग ट्राई के लिए कम से कम ३ दिन के लिए दिया
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★ रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान ★ जाता है। कुछ मूल्य का १० से २५ प्रतिशत तक किराया लिया जाता है। अधिक दिन के लिए नग का लेना या प्रतिशत कम या नहीं लेना
आपके व व्यापारी के सम्बन्धों पर निर्भर करता है। २०. अंगूठी में नग जड़ने के बाद उसको निकालने पर नग वापसी नहीं होता
२१. आमतौर पर रत्न का वजन कम से कम ३ रत्ती होना चाहिए। फिर भी
सामान्यत: जातक के भारानुसार पहनाने पर अधिकांश विद्वानों की एक
सहमति है अर्थात् १ रत्ती = १० किलो। २२. नगों की भंगुरता, टूटना, ज्यादातर उसकी जाति के अनुसार होता है।
सबसे ज्यादा भंगुर नग पन्ना, गोमेद तथा जरकिन होते हैं। २३. हिन्दू शास्त्र के अनुसार रत्न मां लक्ष्मी के अंश होते हैं । रत्न व उपरत्न
दो तरह के होते हैं। उपरत्न भी पत्थर के ही होते हैं। २४. रत्न का असर इंजेक्शन की तरह होता है जबकि उपरत्न का असर
टेबलेट की तरह। २५. ऐसा नहीं कि रत्न सदा बहुमूल्य होते हैं बल्कि सस्ते भी होते हैं। २६. जो रत्न अत्यन्त साफ-सुथरे, चमक-दमक वाले होते हैं, वे अनमोल
होते हैं। २७. जो रन अपेक्षाकृत अधिक साफ-सुथरे, चमक-दमक वाले होते हैं वे
बहुमूल्य होते हैं। २८. जो रत्न आकार या वजन में बड़े व भारी होते हैं वे भी अपने समकक्ष
रत्नों से अधिक मूल्य के होते हैं। (सात रत्ती या इससे ऊपर)। २९. रत्नों का मूल्य इनकी चमक-दमक, सफाई, कटिंग, रंग-रूप आदि पर
निर्भर करता है। ३०. पन्ना साफ नहीं मिलता है। यदि साफ मिले तो बहुमूल्य होता है। ३१. यदि माणिक्य बिल्कुल लाल हो तो वह 'लाल मणि' कहलाती है तथा
अनमोल है। ३२. हीरा, नीलम, पुखराज साधारणतया मूल्यवान होते हैं । अत: आप इनको
खरीदने से पहले उपरत्न पहनें।
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३३. 'कलचर्ड मोती' बनावटी नहीं होता है बल्कि सीप के कीड़े को उसी वातावरण में रखकर उसी के द्वारा ही मोती की प्राप्ति की जाती है । इस तरह से पैदा करने का अर्थ साफ-सुथरे, गोल तथा अधिक से अधिक मोती प्राप्त करना है । इसकी तुलना टेस्ट ट्यूब बेबी से करते हैं । जिसमें बच्चा माँ के पेट से जन्म न लेकर उसी वातावरण में परखनली में पैदा होता है ।
३४. रत्नों को पहनने के लिए आपकी इसमें श्रद्धा का होना जरूरी है ३५. सुख-दुःख तो समयानुसार आएँगे परन्तु सम्बन्धित नग पहनने से उस दुःख को झेलने व उससे निपटने की हममें क्षमता तथा बुद्धि में और बल मिल जाता है। जैसे लगनी थी फाँसी, काँटे में ही काम चल गया । ३६. यदि आपने पुस्तक में अति उत्तम किस्म के नगों के बारे में पढ़कर या किसी विद्वान् के बताने पर नग लेने का फैसला कर लिया है परन्तु मूल्यवान होने के कारण आप खरीदने की नहीं सोच रहे या खरीद नहीं पा रहे हैं तो इसका दूसरा तरीका यह है कि आप हल्के स्तर के रत्न या उपरत्न वजन में डेढ़ गुना या दुगुना लेकर पहनें।
३७. नग के असली-नकली की पहचान स्वयं एसिड द्वारा, घिसकर, गोमूत्र अन्यथा और किसी भी विधि द्वारा न करें। यदि आपको नग पसन्द नहीं आया या शक है तो जैसा आपने लिया उसी तरह वापिस कर देना चाहिए ।
३८. परीक्षा करने के दौरान नग को एक सफेद रंग के कपड़े में सिल लेना चाहिए तथा बाजू पर बाँध लेना चाहिए। नहाते समय खोल लें। यदि रात को सोते समय हाथ को न सुहाए तो खोलकर तकिए के नीचे रख लेना चाहिए परन्तु अंगूठी नहीं बनवानी चाहिए ।
३९. परीक्षा (ट्राई) का अर्थ होता है कि आपको किसी प्रकार का नुकसान न हो । जैसे- आपके साथ हर तरह से अच्छा हो रहा हो और किसी प्रकार की तकलीफ न हो, सपने नहीं आते हों या अच्छे आते हों परन्तु नग के असर से उसमें उतार-चढ़ाव आ गया तो लाभदायक नहीं हुआ है । या बुरा हो रहा है या सपने भी बुरे आते हों परन्तु नग के असर से
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* रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान * और बुरा हो गया हो तो भी नग माफिक नहीं हुआ है। कुल मिलाकर हमारी दैनिक दिनचर्या, मानसिक, धार्मिक, सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक आदि क्रियाओं को नुकसान न पहुँचे इसलिए नग ट्राई किया
जाता है। ४०. यदि आप रत्नों में विश्वास रखते हैं तो पहनने के बाद भी विश्वास
रखें। यदि आप किन्तु-परन्तु या अविश्वास में रहे तो आप नग नहीं
पहन पाओगे। ४१. नग पारदर्शी व अपारदर्शी होते हैं । अपारदर्शी (पोटे) को देखते समय
विशेषत: ऊपरी सिरा (टॉप) देखना चाहिए। ४२. ये बात मन से निकाल दें कि नग सवाया में होते हैं। कोई भी नग विशेष
वजन के अनुसार नहीं बनता। हिन्दू धर्म में पवित्र वस्तुओं के मापतौल में सवाया शब्द लगाया जाता है। इसका अभिप्राय यह है कि मान लो आपको एक नग ६ रत्ती का चाहिए तो इसको सवा ६ रत्ती का बोलेंगे अर्थात् नग ६ रत्ती से कम का न हो, नग का 'साढ़े या पौने' में होना कोई दोष नहीं है बल्कि ये शब्द केवल आपको भ्रमित करने के
लिए अपनाए जाते हैं। ४३. कुछ विद्वानों के अनुसार नग का पहने-पहने रंग का उड़ना या फीका
पड़ जाना जातक के लिए लाभप्रद है अर्थात् विद्वानों का यह मानना है कि आपके ऊपर आने वाले भारी संकट को उसने सहन किया है या
करता रहा है। ४४. जौहरी को चाहिए कि दूसरी जगह से खरीदे गए नगों की क्वालिटी व
मूल्य नहीं बताने चाहिए केवल जितना समझ में आता है उसके अनुसार केवल असली-नकली की जानकारी देनी चाहिए। सरकारी प्रयोगशाला
में इसका अक्षरशः पालन किया जाता है। ४५. कुछ रत्न विक्रेता ग्राहक को आकर्षित करने के लिए रत्न कम मूल्य या
लागत मूल्य पर भी देने से नहीं चूकते, यदि सोने या चाँदी में अंगूठी
उन्हीं से बनती हो। ४६. सर्वश्रेष्ठ मूंगा जापान का होता है।
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४७. उत्तम क्वालिटी के उपरत्न भी महँगे होते हैं ।
४८. जीरकान या अमेरिकन डायमण्ड महँगे होते हैं ।
४९. सुनैला असली विश्व बाजार में केवल ५० प्रतिशत ही मिलता है । कारण कि प्राकृतिक तौर पर भी ये कम ही प्राप्त होते हैं । अतः कटैले को ही विशेष तापमान द्वारा सुनैला में परिवर्तन कर देते हैं ।
५०. मोती अपनी चमक नहीं खोता या कठोर होता है यह सर्वथा गलत है। बल्कि मोती में आसानी से खरोंच आ सकती है । ये टूट भी सकते हैं। पसीने से भी खराब हो जाते हैं। तथा कभी-कभी मोती भुरभुरा कर चूर-चूर हो जाते हैं।
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रत्नों की पहचान
विश्व में पाये जाने वाले समस्त प्रकार के रत्नों में रंगों का फिंगर प्रिन्ट होता है । इसे शोषक स्पेक्ट्रम कहा जाता है। यह फिंगर प्रिन्ट अलग-अलग रत्नों में अलग-अलग प्रकार का होता है तथा रत्न की पहचान का आधार बनाता है। इसे आँखों से स्पष्ट नहीं देखा जा सकता । अतः रत्न विशेषज्ञ इसे स्पेक्ट्रोस्कोप द्वारा देखते हैं । यह यन्त्र रत्न से निकलने वाली किरणों को इसके रंगों के स्पेक्ट्रम में विभाजित कर देता है । यह प्रत्येक रत्न में भिन्नभिन्न प्रकार का होने के कारण रत्न की पहचान करने में सुविधा हो जाती है ।
कुछ रत्न ऐसे भी होते हैं जो कृत्रिम प्रकाश के प्रभाव से अपना असली रंग और चमक बदल देते हैं। उदाहरणार्थ पुखराज सूर्य की रोशनी में जितनी चमक देगा उतनी बिजली की रोशनी में नहीं । लेकिन माणिक और पन्ना कृत्रिम प्रकाश में दुगुने चमकेंगे। सबसे अधिक आश्चर्यजनक असर एलेक्जेंड्राइट पर होता है जो सूर्य की रोशनी में हरा हो जाता है और कृत्रिम प्रकाश पड़ने पर लाल हो जाता है। हीरे के अतिरिक्त अन्य सभी रत्नों में प्राकृतिक और कृत्रिम प्रकाश का प्रभाव व अन्तर देखने में आता है जो विविध परीक्षणों से स्पष्ट होता है। किसी भी रत्न में कोई भी रंग और आभा एक समान नहीं होती। हजारों किस्मों में रंग भी हजारों हैं ।
पारदर्शिता – रत्न की पहचान पारदर्शिता के आधार पर भी की जाती
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है । रत्न में किसी वस्तु या बुलबुले आदि उपस्थित होने से भी पारदर्शिता प्रभावित होती है । रत्न में शक्तिशाली अवशोषण शक्ति होने से भी प्रकाश मार्ग बाधित होता है। छोटे-छोटे चपटे या रेशेदार कण भी रत्नों की पारदर्शिता को प्रभावित करते हैं। कैलसीडोनी, फीरोजा व लाजवर्त अपारदर्शी हैं क्योंकि इनमें प्रकाश अन्तिम रूप से अवशोषित या प्रतिबिम्बित होने से पूर्व कई बार अवशोषित या प्रतिबिम्बित होता है । कोई भी रत्न पारदर्शी तभी कहा जा सकता है जब बिना किसी अवरोध के प्रकाश उसमें से स्पष्ट गुजर जाये ।
प्रकाश तथा रंगों का प्रभाव
कुछ रत्नों पर तेज रोशनी या रंग का प्रभाव इस प्रकार दिखायी देता है जो उनकी रासायनिक बनावट से सम्बन्धित नहीं होता और न ही उनमें प्राप्त अशुद्धियों से ऐसी कोई रंगीन आभा सम्बन्ध रखती है । ये प्रभाव केवल प्रकाश के अवरोध के कारण उत्पन्न होते हैं ।
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बिल्लौरीपन – जब किसी रत्न को कैबोकोण (गुम्बदनुमा) तराशा जाता है तो उस रत्न के भीतर से परावर्तित होता हुआ प्रकाश बिल्ली की आँख जैसा प्रतीत होता है ।
दूधियापन - मूनस्टोन श्रेणी के रत्नों में जिनकी बनावट गुम्बदनुमा होती है, दूधियापन की चमक साफ झलकती है।
झिलमिलाहट - रत्नों के ठोस पृष्ठभाग पर झिलमिलाहट युक्त बहुरंगी प्रकाश नजर आता है ।
इन्द्रधनुषीपन - इस प्रकार के रत्नों के अन्दर दरारों और बेमेल लहरों में अगर रोशनी डालें तो वह कई कोणों में विभक्त होकर इन्द्रधनुष जैसी आभा बिखेर जाती है ।
दोगलापन - लेब्रेडोराइट और स्पेक्ट्रोलाइट किस्म के रत्नों में धात्विक चमक पायी जाती है। इन रत्नों में मुख्यतः आभा हरे व नीले रंग में होती है । परन्तु उसका समस्त दृश्य-पटल रंग-बिरंगा होना चाहिये ।
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ओपल रंगी- - आम तौर पर नीली सूक्ष्म तरंगों के कारण ही सामान्य ओपल रत्नों में नीली या मुक्ताश आभा दिखायी पड़ती है ।
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बहुरंगी - ओपल श्रेणी के सभी रत्नों में इस प्रकार की रंगीन छटा होती है । रत्नों को प्रकाश में इधर-उधर घुमाने या हिलाने-डुलाने पर बहुत से रंगों की आभा नजर आती है ।
जगमगाहट - जिन रत्नों में रासायनिक अथवा भौतिक प्रक्रिया के फलस्वरुप प्रकाश के प्रभाव से उसमें जगमगाहट उत्पन्न हो जाय उन रत्नों को प्रकाश के वर्तनांक श्रेणी का रत्न माना जाता है । परन्तु इसमें जगमगाहट ताप उत्सर्जन सम्मिलित नहीं है। इन्फ्रारेड किरणें डालने पर रत्नों की जाँच-परख के जो परिणाम निकलते हैं वे सिद्धान्ततः प्रतिदीप्ति कहलाते हैं । इस प्रक्रिया द्वारा रत्न की आभा या जगमगाहट देखी जाती है ।
कुछ ही रत्न ऐसे होते हैं जिनमें कोई अपमिश्रण या कोई दूसरा पदार्थ नजर नहीं आता है। ये ही शुद्ध रत्नों की श्रेणी में आते हैं। हीरे में शुद्धता ही सबसे पहली परख होती है । उत्तम श्रेणी के रत्नों में कोई मिलावट नहीं होती । यदि उन्हें दूरबीन - यन्त्र की सहायता से देखा जाये तो उनके बाहरी व आन्तरिक आवरण बिलकुल साफ दिखायी देंगे ।
किस कार्य के लिए कौन-सा रत्न पहनें ?
शीघ्र विवाह के लिए
मूँगा पहनें। (स्त्रियों के लिए) चन्द्रकान्त । (पुरुषों के लिए)
परीक्षा में पास होने के लिए
पन्ना + मूँगा + पुखराज पहनें।
लहसुनिया + पुखराज + पन्ना पहनें ।
हीरा पन्ना + पुखराज पहनें।
व्यापार में सफलता के लिए
सर्विस में तरक्की के लिए
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रोग में रत और ज्योतिष विचार
शीतज्वर इसे जूड़ी के बुखार के नाम से अधिक जाना जाता है। इस रोग में पूरे शरीर में कपकपी के साथ तेज बुखार के लक्षण स्पष्ट होते हैं । यह मलेरिया का विकृत रूप है। इस रोग की वजह है-मलेरिया ज्वर का ठीक प्रकार से इलाज नहीं हो पाता । शरीर में लाल रक्त कणों की कमी के कारण भी शीत ज्वर होता है। इसके अलावा टी.बी., एड्स तथा कैन्सर आदि जैसे रोगों के प्रारम्भिक लक्षण शीत ज्वर के रूप में प्रकट होते हैं। इसका इलाज तुरन्त करना चाहिये।
__ ज्योतिषीय विचार-जिन व्यक्तियों का चन्द्र या जन्म लग्न क्षीण हो उन्हें शीत ज्वर होने की सम्भावना अधिक रहती है। मंगल और सूर्य का दुष्प्रभाव शीत ज्वर का योग बनाता है। छठे, आठवें तथा बारहवें भाव में बैठा बृहस्पति भी इस रोग को बढ़ाने कारण है। ७-८ रत्ती का माणिक्य चाँदी की अंगूठी में धारण करें। मंगल की शान्ति के लिये ताँबे का कड़ा, अंगूठी या कोई अन्य आभूषण धारण करें। वस्त्रों में किसी भी प्रकार से लाल रंग का यथासम्भव समावेश रखें। मंगल यन्त्र का नित्य पूजन करें।
सिरदर्द सिरदर्द कोई रोग नहीं है। यह प्रायः रोज ही किसी कारणवश हो जाता है। सिरदर्द हर प्राणी को कभी भी हो जाता है। इसका कारण जैसे चिन्ता, तनाव, लगातार परिश्रम करना, नींद न आना आदि। तेज धूप में काम करना
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व आँखे कमजोर होना इसके प्रमुख कारण हैं । सिरदर्द कुछ दवाईयाँ सेवन करने से ठीक हो जाता है
माणिक्य मोती तथा पन्ना पहनने से लाभ होगा। नवरत्न का पेंडल गले में पहनना भी उचित है ।
मुँहासे
रक्त विकार से उत्पन्न होने वाला यह रोग अधिकतर युवावस्था में होता है । वय- सन्धि में आने पर शरीर के रसायनिक तत्वों का सन्तुलन गड़बड़ा जाता है और चेहरे पर कील - मुँहासे, दाग, धब्बे, मस्सों आदि के दाने चेहरे पर उभर आते हैं । श्वेत ग्रंथियों से स्रवित होने वाला तत्व सीबम इस रोग का कारण है। सीबम के अधिक मात्रा में निकलने से चेहरे पर चिकनाई की मात्रा अधिक हो जाती है। ऐसी त्वचा पर धूल, मिट्टी के कण से कील मुँहासों की उत्पत्ति होती है।
ज्योतिषीय विचार - मेष तथा वृश्चिक राशि के जातक मुँहासों से अधिक दुःखी होते हैं। पीड़ित शुक्र और केतु का संचार मेष, तुला और मकर राशियों में हो तथा इन पर शत्रु ग्रहों की दृष्टि भी हो तो मुँहासे निकलते हैं ।
चाँदी की अंगूठी में ८ या १० रत्ती का सफेद मूँगा अथवा ४ से १० रत्ती का सच्चा मोती मध्यमा अँगुली में पहनें, साथ ही छोटी अँगुली में लाजावर्त पहनें। यदि मूँगा अनुकूल न आये तो केवल चाँदी की अँगूठी ही धारण करें ।
मसूड़ों में क्षय
दाँतों में कीड़े या दर्द होने से मसूड़े भी सूज जाते हैं। मसूड़ों में जलन होती है । मसूड़े गलने लगते हैं और दाँत जड़ से कमजोर होकर समय से पहले ही टूटने लगते हैं ।
दाँतों की नियमित देखभाल न करने से पपड़ी सी जम जाती है। (यानी प्लैक) इस प्लैक में ही सड़न पैदा करने वाले बैक्टीरिया यानी कीटाणु पनपते हैं और दाँतों के साथ मसूड़ों में भी सड़न पैदा करते हैं। मसूड़े
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फूलकर लाल हो जाते हैं। ब्रश करते समय मसूड़ों में दर्द होता है तथा खून
भी निकल आता है ।
ज्योतिषीय विचार- -शुक्र या मंगल नीच का हो तो अनेक प्रकार के दन्त रोग हो जाते हैं । दाँतों व मसूड़ों पर बृहस्पति का अधिकार है। शुक्र और मंगल दन्त विकार पैदा करते हैं । कन्या लग्न तथा नीच का बृहस्पति मंगल या चन्द्र लग्न में हो तो भी दन्त विकार की आशंका रहती है ।
मूनस्टोन तथा पीला गोमेद धारण करना लाभकारी है। पुखराज तथा मोती पहनना भी शुभ है ।
दुर्घटना तथा मोच
शायद ऐसा ही कोई व्यक्ति होगा जिसे किसी दुर्घटना में चोट न लगी हो । सड़क पर, वाहन से, खेलकूद में भाग लेने से अक्सर चोट लग ही जाती है। बच्चों को प्रायः चोट लगती रहती है। दुर्घटना किसी भी समय हो जाती है । घर या बाहर हल्की चोट का तो इन्सान घर पर इलाज कर लेते हैं । लेकिन कभी ज्यादा चोट लग जाने से फ्रेक्चर होने पर सावधानी बरतना आवश्यक है। मरीज को चिकित्सा की जरूरत होती है उसे किसी अच्छे अस्पताल व डाक्टर के पास ले जाना चाहिये । ज्योतिषीय विचार- -चर लग्न तथा राशियों के स्वामी को चोट लगने की अधिक आशंका रहती है। लग्न तथा दूसरे भाव में राहु-मंगल की युति होने पर बार-बार दुर्घटनाओं का योग बनता है। लग्न का शनि ऊँची जगह से गिरने का कारण है तो लग्न में मंगल सिर और मस्तिष्क पर भाव के चिह्नों का सूचक है । चन्द्रमा से केन्द्र या त्रिकोण का मंगल, वाहन तथा यात्रा में दुर्घटना होने का योग बनाता है। पंचम भाव में शनि-सूर्य या शनि-मंगल की युति होने पर हाथापाई, मारपीट के दौरान घायल होने की आशंका रहती है। लोहा, तांबा या चाँदी में मूनस्टोन मढ़वाकर धारण करें। पुखराज धारण करने से भी दुर्घटनाओं की सम्भावना कम हो जाती है। लाल मूँगा तथा सफेद मोती धारण करने से भी दुर्घटना कम होती है। मूँगा घाव भरने में सहायक होता है तथा मोती त्वचा को सामान्य बनाता है ।
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कंठ शूल हमारी श्वास नलिका में माँसल ऊतकों को छोटे-छोटे टुकड़े गिल्टियों के रूप में होते हैं ये हमारे शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता का अंग है। जो कीटाणुओं को नाक द्वारा गले तक पहुँचने से रोकते हैं। यह प्रायः छोटे बच्चों को होने वाला रोग है। बच्चों को ठण्ड लगने से सर्दी-जुकाम हो जाता है। तो ये गिल्टियाँ सूज जाती है। कान बन्द हो जाते हैं, सुनने में कठिनाई होती है, सूंघने की शक्ति कम हो जाती है। भोजन बेस्वाद लगता है। खान अच्छा नहीं लगता, रोग ज्यादा बढ़ जाने पर चिकित्सक की निर्देशानुसार इलाज करायें।
ज्योतिषीय विचार-वृष, तुला तथा वृश्चिक राशि के जन्मे या गोचर वाले में मंगल की उपस्थिति यह रोग उत्पन्न करती है। शुक्र, बुध के नीच राशि में होने पर सप्तम भाव में पाप ग्रहों की उपस्थिति से तथा पूर्ण मंगल दोष योग भी इस रोग के कारक हैं।
सोने या चाँदी की अंगूठी में पुखराज या सुनैला धारण करें। शुद्ध मूंगा ५ रत्ती का चाँदी में मढ़वाकर अनामिका में धारण करें। मूंगा या पुखराज का पैण्डल जंजीर में डाल कर गले में पहन सकते हैं।
__ गलसुआ इसे पम्पस के नाम से भी जाना जाता है। यह बाल्यावस्था में होने वाला रोग है। यह शरीर की विभिन्न लाल-ग्रंथियों पर होता है और वे सूज जाती हैं। प्रदाह तथा कान के नीचे के भाग में सूजन इस रोग के प्रारम्भिक लक्षण हैं। किसी भी चीज को खाने, चबाने, निगलने में कठिनाई होती है। आठ-दस दिन में यह स्वयं ही ठीक हो जाता है।
ज्योतिषीय विचार-मंगल इस रोग का कारक है । तुला स्थित मंगल हो तो यह रोग होता है। दूसरा तथा आठवाँ भाव अशुभ हो तो भी इस रोग के होने की सम्भावना रहती है। सफेद या लाल मूंगा पहनना लाभकारी है।
रक्ताल्पता (एनीमिया) लौह तत्वों की बहुत कमी के कारण यह रोग एनीमिया के नाम से
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जाना जाता है। शरीर के रक्त में लाल रक्त कणों की कमी हो जाना इस रोग का प्रमुख कारण है। इसके अलावा स्त्रियों को मासिक धर्म के समय बहुत ज्यादा रक्तस्राव होने तथा किसी दुर्घटना में ज्यादा रक्त बह जाने से भी रक्ताल्पता की शिकायत हो सकती है। विटामिन बी तथा फालिक एसिड की कमी भी रक्ताल्पता ले आती है। बच्चों के साथ-साथ स्त्रियों में यह रोग अधिक होता है । विशेषतः गर्भावस्था में स्त्रियों को इसकी शिकायत होती है । कान्तिहीन त्वचा, शीघ्र थकान अनुभव करना इसके प्रमुख लक्षण हैं।
ज्योतिषीय विचार - केतु और त्रिकोण भावों का गृहविहीन होना इस रोग को जन्म देता है। सूर्य तथा शनि की पीड़ित अवस्था में पाचन शक्ति की कमजोरी से यह रोग होता है । वृष, सिंह तथा कुम्भ राशियों में राहुकेतु की उपस्थिति से अधिक रक्त बह जाने से रक्ताल्पता की सम्भावना रहती है । बृहस्पति सिंह राशि में, मंगल से छठे, आठवें या बारहवें भाव में या मंगल कर्क राशि में बैठा हो तथा चन्द्रमा छठे भाव में हो तो भी रक्ताल्पता की शिकायत हो सकती है। कलाई में लोहे का कड़ा पहनें, ५ रत्ती मूँगा तथा ५ से ७ रत्ती का पुखराज सोने या चाँदी की अँगूठी में दायें हाथ में धारण करें ।
अपेण्डिसाइटिस
अपेण्डिक्स में प्रदाह तथा शोध की स्थिति ही अपेण्डिसाइटिस कहलाती है । इस रोग पेट में तेज दर्द होता है। रोग के अन्तिम स्टेज पर यह पेट में भी फट सकता है और जान भी जा सकती है। आप्रेशन के द्वारा इसको निकलवा देना चाहिये। यह एक सफल उपचार है। रोगियों में इसके विभिन्न प्रकार के लक्षण होते हैं । यह रोग किसी को भी हो सकता है ।
ज्योतिषीय विचार - मंगल इस रोग का प्रधान कारक माना गया है। मंगल का दूषित होता, कन्या, तुला तथा वृश्चिक राशियों में शनि, राहु का मंगल के साथ योग होना अपेण्डिसटिस होने की सम्भावना होती है। मेष लग्न, शनि, तुला लग्न तथा मकर लग्न के जातक इस रोग से अधिक पीड़ित होते हैं ।
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★ रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान ★ अनामिका में पुखराज धारण करें। लाल मूंगा गले में धारण करें। हीरा तथा माणिक्य भी अलग-अलग हाथों की अंगुलियों में धारण करें।
पथरी इस रोग में पित्ताशय में अत्यन्त सूक्ष्म आकार के पत्थर से बन जाते हैं। जो शरीर में स्थित कोलेस्ट्रॉल तथा चूने का अंश होते हैं। प्रारम्भिक अवस्था में इस रोग के लक्षण स्पष्ट नहीं होते तथा न ही रोगी को किसी प्रकार की पीड़ा होती है। रोग जब बढ़ जाता है, तब रोगी को वमन व दर्द आदि की शिकायत होती है। पित्ताशय में सूजन भी आ जाती है और पाचन शक्ति का असंतुलित हो जाना इस रोग के लक्षण हैं । इस रोग को ऑप्रेशन के द्वारा ठीक किया जाता है।
__ ज्योतिषीय विचार-लग्न या सातवें भाव में यदि पाप ग्रह या नीच राशि हो तो इस रोग से रोगी को अधिक कष्ट होता है। कर्क राशि का शनि
और मकर राशि में ग्रह बैठे हों, तुला राशि का सूर्य तथा मीन राशि में अनेक ग्रह बैठे हों तो भी पथरी होने की अधिक सम्भावना होती है।
नीला पुखराज, लाल मूंगा तथा मूनस्टोन धारण करें, यदि कष्ट कम न हो तो माणिक्य या मोती धारण करें, लाभान्वित होंगे।
एलर्जी लगभग प्रत्येक व्यक्ति को किसी न किसी रूप में एलर्जी रोग होता ही है। इसमें किसी वस्तु विशेष के प्रति अरुचि हो जाती है। जिस वस्तु से एलर्जी हो जाती है उसके सम्पर्क में आने पर एक्जीमा, मूर्छा, तेज बुखार तथा सिरदर्द आदि जैसे लक्षण प्रकट होते हैं। एलर्जी किसी से भी हो सकती है। जैसे-प्रतिजैविक औषधि (एण्टीबायोटिक), खूशबू (परफ्यूम, इत्र) मिर्चमसाले, हेयर डाई, क्रीम, पाउडर तथा अन्य प्रसाधन आदि ऐसी असंख्य वस्तुयें हैं जिनके कारण किसी व्यक्ति को एलर्जी हो सकती है। यह रोग वंशानुगत भी पाया गया है।
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* रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान * ज्योतिषीय विचार-चन्द्र, बृहस्पति तथा सूर्य नीच राशि में हों, चन्द्रमा बलवान हो लेकिन राहु और शनि भी साथ हों, कर्क या कन्या लग्न का मंगल नीच का हो तथा मकर, कुम्भ या मीन राशि हो तो एलर्जी के प्रभाव एवं प्रकोप की अधिक सम्भावना होती है।
शीतल प्रकृति के रत्न धारण करें, उत्तम रंग का मणिक्य या पुखराज धारण करना लाभदायक होगा।
एक्जीमा इस रोग में त्वचा पर जलन होने लगती है और तेज खुजली भी होती है। लगातार खुजलाने पर प्रभावित अंग पर घाव हो जाते हैं। अक्सर एलर्जी के कारण एक्जीमा हो जाता है । इस रोग का उपचार तत्काल कराना चाहिये अन्यथा इसमें आस-पास की त्वचा पर भी प्रभाव पड़ सकता है।
ज्योतिषीय विचार-मंगल के पीड़ित या दूषित होने की स्थिति में तथा सूर्य-मंगल के योग में एक्जीमा होने के निश्चित आसार रहते हैं । त्वचा का स्वामी शुक्र है, जब यह मंगल या बृहस्पति से पीड़ित होता है तो चर्म (त्वचा) रोग (एक्जीमा) होने की सम्भावना होती है। तुला राशि का शुक्र, मकर का बृहस्पति तथा मंगल योग भी एक्जीमा के कारक हैं । त्वचा रोग के लिए हीरा अथवा ३ रत्ती से अधिक का मोती धारण करें।
जलन किसी भी कारण त्वचा में जलन हो तो व्यक्ति को बेचैनी का अनुभव होता है। जलन किसी भी प्रकार की हो सकती है, आग से भी और बर्फ से भी। यदि अम्ल या तीव्र रसायन पदार्थ भी किसी अंग पर गिर जाये तब भी जलन होती है। यदि जलन ज्यादा हो तो छाले भी हो जाते हैं। हल्की जलन केवल बाह्य त्वचा प्रभावित करती है, किन्तु जलन यदि अधिक है या गम्भीर प्रकार की हो तो चिकित्सक से उपचार कराना आवश्यक है।
ज्योतिषीय विचार- अग्नि तथा आग्नेय दुर्घटनाओं का कारक मंगल है। शनि और राहु जब एक साथ या अकेले ही पहले, दूसरे, चौथे, सातवें या
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१६१ आठवें भाव में स्थित हों तब ऐसी दुर्घटनायें अधिक होती हैं। जब मंगल और राहु तीसरे, पाँचवे या नवें भाव में हो तो व्यक्ति के साथ अचानक आग्नेय दुर्घटनायें होने का भय रहता है।
जलन के उपचार के समय शरीर पर लाल कपड़ा अवश्य धारण करें तथा साथ ही ९ रत्ती का लाल मूंगा तथा मूनस्टोन या सफेद मोती ३ रत्ती का धारण करने से लाभ होता है।
शिराशोथ इस रोग में शरीर की रक्त कोशिकाओं में प्रदाह उत्पन्न हो जाता है जिससे शोथ होता है। धमनियों में बीच में कोई रूकावट आ जाये तो भी शिराशोथ हो सकता है। इस रोग में मुख्यतः पैर प्रभावित होते हैं तथा त्वचा पर सूजन स्पष्ट दिखाई पड़ती है। कभी-कभी जीवाणुओं के संक्रमण से भी यह रोग हो जाता है। पैरों में सूजन आ जाने से रोगी चलने में असमर्थ हो जाता है।
ज्योतिषीय विचार-यदि शुक्र कुम्भ राशि का हो तथा सूर्य, मंगल से दृष्ट हो तो इस रोग की उत्पत्ति सम्भवतः होती है। कुशल ज्योतिषी से परामर्श लेकर ही कोई रत्न धारण करना ही हितकर होगा।
पोलियो 'पोलियो' बच्चों में होने वाला एक भयंकर रोग है। यदि असावधानी की जाये तो परिणामस्वरूप जीवन भर के लिये बच्चा विकलांग हो सकता है। सम्पूर्ण विश्व में पोलियो के निराकरण के लिये चलाये जा रहे 'पोलियो उन्मूलन अभियान' के द्वारा किये गये प्रयासों से पोलियो पर कुछ अकुंश लगाया जा सकता है।
- इस रोग में रोग के जीवाणु बच्चे की रीढ़ की हड्डी पर संक्रमण करते हैं। जिस कारण बच्चे का कोई सा भी अंग रोगग्रस्त होकर निष्क्रिय हो जाता है तथा हड्डियाँ सूख जाती हैं। जिससे हड्डी का आकार बिगड़ जाता है। यह वायु संक्रमित रोग है। यदि बच्चे को प्रतिरक्षीकरण टीके लगवाये
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* रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान * जाते हैं तो इस रोग के होने की आशंका या सम्भावना लगभग खत्म हो जाती है। इसीलिये आवश्यक है कि बच्चों को पोलियो प्रतिरक्षीकरण टीके लगवाने चाहिये।
ज्योतिषीय विचार-पोलियो का कारक ग्रह शनि को माना गया है। यदि लग्न में मकर अथवा कुम्भ राशियाँ उदित हो रही हों और चन्द्रमा पर शनि सहित तीन-चार अन्य पाप ग्रहों की भी दृष्टि हो तो पोलियो होने का योग बनता है। शनि, राहु, केतु तथा चन्द्रमा का कमजोर होना भी पोलियो रोग होने का खतरा रहता है।
नीलम, लाजवर्त या इन्द्रनील स्फटिक का लॉकेट बनवाकर गले में पहनें। छोटी अंगुली में पुखराज की अंगूठी बनवाकर पहन सकते हैं।
फोड़ा रक्त विकार द्वारा फोड़े फुन्सी की उत्पत्ति होती है। शरीर पर लाल रंग के दाने निकलने से उनमें मवाद बन जाती है। समय पर इलाज न होने पर यह फोड़े का रूप धारण कर लेता है। मधुमेह व यकृत के रोगियों को फोड़े फुन्सी बहुत निकलते हैं। शरीर पर होने वाली सामान्य खुजली भी कभीकभी फोड़े बन जाते हैं। शरीर में अधिक गर्मी होने के कारण भी फोड़े निकलते हैं।
ज्योतिषीय विचार-लग्न या लग्नेश पर जब भी मंगल की दृष्टि होती है तो फोड़े फुन्सी होने की सम्भावना होती है। शरीर के तापमान के कारक ग्रह मंगल तथा सूर्य हैं । गोचर में अशुभ मंगल जब भी मेष, सिंह या धनु राशि में भ्रमण करता है तो यह बीमारी होती है।
६ रत्ती का मूनस्टोन तथा ४ रत्ती का लाजवर्त अँगूठी बनवाकर पहनें।
उपदंश इसे सिफलिस के नाम से जाना जाता है। यह बहुत ही घातक यौन रोग है। इस रोग से पीड़ित व्यक्ति के साथ यौन सम्बन्ध बनाने से यह रोग दूसरे
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व्यक्ति को भी हो जाता है। समलिंगी पुरुष इस रोग के अधिक शिकार होते हैं । गर्भवती स्त्री से होने वाले शिशु को भी यह रोग होने की सम्भावना रहती है। इसका इलाज समय पर करवाना चाहिये अन्यथा जान जाने का भय होता है ।
ज्योतिषीय विचार - गुप्त अंगो पर लग्न से सातवें तथा आठवें भाव का नियन्त्रण रहता है। यदि इन दोनों भावों में मंगल व शुक्र पीड़ित हो तो इस रोग के होने का योग बनता है ।
ऐसी स्थिति में सफेद या लाल मूँगा धारण करना चाहिये ।
नजला-जुकाम
नजला-जुकाम होना आजकल आम बात है। यह रोग जलवायु परिवर्तन के कारण होता है। इसमें रोगी की नाक से पानी बहता है । कफ बनता है तथा समय से पहले बाल सफेद हो जाते हैं। लगातार दवाई करने से यह ठीक हो जाता है ।
ज्योतिषीय विचार - इस रोग के होने में ग्रहों का कोई विशेष योग नहीं होता है । सामान्य ग्रह वाले प्राणी को भी यह रोग हो सकता है । माणिक्य, मूँगा, पुखराज मिश्रित अँगूठी पहनने से नजला-जुकाम का प्रकोप कम होता है ।
पाद-दोष
पैरों पर शनि का अधिकार माना गया है पैरों में अनेक तरह के विकार होते हैं। जैसे-पैर सूखना, पैर में मोच आना व पैर फटना, सूजन या पसीना आना आदि पाद-दोष रोग हैं। इन सब दोषों के कारण और उपचार भिन्न हैं । ज्योतिषीय विचार – यदि सूर्य या शनि कोई भी एक छठे भाव में स्थित है तो पाद- दोष हो सकता है। यदि कुम्भ, मकर अथवा मीन राशियों में अगर राहु केतु सूर्य या शनि बैठे है तो पैरों में चर्म विकार होने की आशंका रहती है । पुखराज धारण करें। नीलम या लाजवर्त ८ रत्ती, लाल माणिक्य ६ रत्ती, ३-४ रत्ती का सफेद पुखराज अलग-अलग अँगुलियों में पहनने से लाभकारी होगा ऐसा माना गया है।
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आन्त्रशोथ इस रोग को कोलाइटीस का रोग कहते हैं। इसका मुख्य कारण आँतों में अम्ल की मात्रा का बढ़ जाना है। पेट में आँतों के निकटवर्ती भाग में तीव्र पीड़ा होती है। एक विशेष प्रकार का जीवाणु आँतों में संक्रमण कर देता है। इस रोग में निरन्तर उल्टी तथा अतिसार के साथ तेज बुखार के लक्षण प्रतीत होते हैं । विषाक्त भोजन व दूषित जल पीना भी आन्त्रशोथ रोग का एक प्रमुख कारण है।
ज्योतिषीय विचार-मेष राशि में सूर्य-शनि का योग या सूर्य का नीच राशि में होना आन्त्रशोथ की सम्भावना होती है। छठे या आठवें भाव में यदि शनि या मंगल एक साथ बैठे हो मंगल कर्क या कन्या राशि में होकर छठे भाव पर दृष्टि डालता है या बारहवें स्थान में अनेक ग्रहों का योग हो तो भी आन्त्रशोथ होने का योग बनता है। ___ पन्ना तथा मूनस्टोन क्रमशः सोने तथा चाँदी की अंगूठियाँ अलगअलग पहनना लाभकारी होगा।
नेत्रशोथ आँखों के इस रोग का नाम कंजक्टिवाइटिस है। यह गर्मी तथा बरसात के दिनों में होने वाला संक्रामक रोग है। जो महामारी की तरह फैलता है। आँखों के सफेद भाग पर पारभासक झिल्ली सी होती है। जिससे संक्रमण के कारण जलन होने लगती है और आँखों से पानी बहने लगता है। आँखे सूजकर लाल हो जाती है और उसमें चिपचिपा पदार्थ जमने लगता है। इस रोग का मुख्य कारण प्रदूषित वातावरण है। आँख के इस रोग का समय पर उपचार करना चाहिये।
ज्योतिषीय विचार-सूर्य और मंगल जब अशुभ गोचर में भ्रमण करते हैं तो सामान्य लोग भी इस रोग के चपेट में आ जाते हैं। इस रोग के लिये कोई विशेष ग्रह योग निर्धारित करना सम्भव नहीं है।
पन्ना धारण करें। इसके अलावा मूनस्टोन, ओपल, जिरकॉन धारण करने से भी नेत्र रोगों का निवारण होता है।
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१६५ उच्च रक्तचाप इस रोग को हाई ब्लडप्रेशर के नाम से जाना जाता है। आज के तनावपूर्ण माहौल व गृह कलह के कारण यह रोग होता है। यह जानलेवा रोग किसी को भी हो सकता है। रोगी के शरीर के रक्त का स्तर एकदम बढ़ जाता है। ज्यादा गुस्से के कारण तनाव के कारण चिन्ता के कारण अधिक मेहनत व तेज धूप में काम के कारण भी यह रोग हो जाता है। सामान्य लगने वाली यह बीमारी भयानक बीमारी है। इस रोग में रोगी को गुस्सा आता है, मुँह लाल हो जाता है तथा मुँह पर सूजन आ जाती है। साँस लेने में कठिनाई होती है। बेहोशी की हालत हो जाती है। यह रोग वंशानुगत भी हो सकता है।
ज्योतिषीय विचार-हृदय का कारक चन्द्रमा है। कर्क राशि का क्षेत्र यदि सूर्य, शनि, राहु, चन्द्र या मंगल युक्त हो तो किसी अन्य रोग के कारण उच्च रक्तचाप हो सकता है। मिथुन राशि में पाप ग्रहों का होना भी उच्च रक्तचाप का कारण हो सकता है। चन्द्रमा शनि राहु-केतु का योग भी रक्तचाप को अनियन्त्रित कर देता है। दो या अधिक पाप ग्रह यदि मिथुन कर्क, सिंह कन्या या कुम्भ राशि में इकट्ठे हो जायें तो रक्तचाप रोग हो सकता है।
लग्नेश का रत्न धारण करें।८-९ रत्ती का लाल रंग का शुद्ध मूंगा भी पहन सकते हैं। सहायक रत्नों के रूप में पन्ना, मोती, मूनस्टोन आदि अलग-अलग अंगूठियाँ पहनने से लाभकारी होगा।
पक्षाघात साधारण भाषा में इस रोग को लकवा कहा जाता है। स्नायु-तन्त्र के विकार से इस रोग की उत्पत्ति होती है। रक्त नलियों में किसी विकार के कारण शरीर के किसी अंग में रक्त संचालन में बाधा हो तो वह अंग शिथिल अर्थात् बेजान हो जाता है। व्यक्ति अपाहिज हो जाता है। वृद्धावस्था में यह रोग हो जाता है। लेकिन अन्य लोगों को भी अवसाद, अत्यधिक तनाव तथा मानसिक चिन्ताओं के कारण भी पक्षाघात रोग हो जाता है।
ज्योतिषीय विचार-स्नायुमण्डल का संचालक ग्रह बुध है। इसके
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★ रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान * क्रोधित होने पर प्राय: जातक पक्षाघात से दुःखी हो जाता है। मूंगा तथा माणिक्य धारण करें। अतिरिक्त रत्न के रूप में मूनस्टोन धारण करें।
सूर्याघात (लू लगना) तेज गर्मी के कारण जब सूर्य सीधे मुँह के ऊपर आकर अपना प्रभाव डालता है तो आसामान्य रूप से शरीर का तापमान बढ़ जाता है तो यही सूर्याघात रोग हो जाता है। जब बाहर का तापमान ४० डिग्री से अधिक है तो देर तक धूप में काम नहीं करना चाहिये व पैदल नहीं चलना चाहिये। लू लगने का डर रहता है। बूढ़ों व बच्चों को लू लगने का अधिक खतरा रहता है। इस रोग में लगातार पसीना आना, तेज ज्वर व त्वचा के सूखने पर शरीर में जल की कमी के कारण प्यास अधिक लगना, भूख न लगना आदि इस रोग के लक्षण हैं।
ज्योतिषीय विचार-इस रोग का कारण सूर्य तथा मंगल माना गया है। ग्रीष्म ऋतु में पीला पुखराज या मूनस्टोन धारण करने से इस रोग का खतरा कम हो जाता है।
इनफ्लूएंजा यह रोग एक प्रकार का वाइरल संक्रमण है। जो श्वास नालिका पर संक्रमण कर उसे क्षतिग्रस्त कर देता है। रोगी को खाँसी-जुकाम की शिकायत हो जाती है। यह एक संक्रामक रोग है। इस रोग से माँसपेशियों में कमजोरी, सिरदर्द, भूख न लगना तथा तीव्र ज्वर के लक्षण स्पष्ट होते हैं। हफ्ता दस दिन में यह अपने आप ठीक हो जाता है। इलाज समय पर करें।
ज्योतिषीय विचार-लग्न या छठे भाव का स्वामी एक साथ होने पर यह रोग के होने का योग बनता है। जन्म कुण्डली में जल राशि का सूर्य व मंगल हो तो भी यह रोग हो सकता है।
लाल मूंगा और पीला पुखराज धारण करना लाभकारी है। बारबार रोग होता है तो काला हकीक, माणिक्य तथा सूर्यकान्त मणि एक साथ लॉकेट में डाल कर गले में पहनें।
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निमोनिया शीत ज्वर बिगड़ने के कारण यह रोग होता है। इस रोग में फेफड़ों में संक्रमण हो जाता है और उनमें सूजन आ जाती है। यह एक वायरसजन्य रोग है, जो बच्चों तथा बूढ़ों को अधिक होता है। जिन व्यक्तियों में रोग प्रतिरोधक क्षमता कम होती है उन्हें निमोनिया होने की प्रबल सम्भावना रहती है। यह रोग सीधे नहीं होता; ठण्ड लगने पर ठीक से उपचार न होने पर यह रोग होता है। ठण्ड लगना, सिर तथा छाती में दर्द आदि इस रोग के लक्षण हैं।
ज्योतिषीय विचार-गोचर भ्रमण में सूर्य, गुरू तथा मंगल जब मिथुन, सिंह या कुम्भ क्षेत्र से संचार करते है तो इस रोग के होने की आशंका होती है।
इस रोग में लाल मूंगा तथा पीला पुखराज धारण करना लाभकारी माना गया है।
हिस्टीरिया इस रोग का दौरा पड़ने पर व्यक्ति का स्वयं पर नियन्त्रण नहीं रहता और वह अजीब तरह की हरकतें करने लगता है। यह एक मानसिक रोग है। जिसमें रोगी बेहोश हो जाता है। इस रोग से पूर्व किसी प्रकार के लक्षण नहीं होते हैं। रोगी को इसका दौरा कहीं भी कभी भी पड़ सकता है।
ज्योतिषीय विचार-चन्द्र, बुध और शनि का स्नायु तन्त्र पर प्रभाव पड़ता है। लग्न से पंचम तथा नवम भाव भी मस्तिष्क को प्रभावित करते हैं। यदि लग्न, पंचम या नवम भाव में पाप ग्रह हो तो जातक को हिस्टीरिया या मिरगी होने की आशंका रहती है। पूरा विवरण बताकर ही किसी अच्छे ज्योतिषी से रत्न के विषय में मालूम करें।
हर्निया इस रोग में आंत का सिरा आमाशय की झिल्ली को फाड़कर नीचे अण्डकोषों में चला जाता है। इससे आँतों की कार्य प्रणाली में बाधा आ जाती है। भारी वजन उठाने, ऑपरेशन के बाद मोटापे से ग्रस्त व्यक्ति ही प्रायः
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* रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान ★ इससे पीड़ित रहते हैं। इस रोग में सर्वप्रथम आमाशय पर सूजन के लक्षण स्पष्ट होते हैं। ऑपरेशन द्वारा ही इस रोग का एक मात्र उपचार है।
ज्योतिषीय विचार-शुक्र और मंगल इस रोग के कारक ग्रह हैं। शुक्र, वृश्चिक राशि में हो और शनि तथा मंगल छठे भाव हो तो हर्निया होने का योग बनाता है। कन्या राशि का मंगल शनि द्वारा पीड़ित होने पर यह रोग हो सकता है।
चाँदी की चेन में मोती के दाने पिरोकर गले में पहनें। हीरा व पीला पुखराज धारण करना भी लाभकारी माना गया है।
दाँत दर्द या दन्त क्षय यह एक सामान्य रोग है। जिससे सभी प्राणी पीड़ित हैं। दाँतों की ठीक प्रकार देखभाल न होने के कारण यह रोग होता है अधिक मीठा खाने से भी यह रोग होता है। जैसे-मिठाई, गुड़, चाकलेट आदि। मीठा खाने के बाद दाँतों की सफाई न करना इसके कारण हैं जिनसे दन्त रोग हो जाता है। दाँतों की भली-भाँति सफाई ही इसका उपचार है।
ज्योतिषीय विचार-दाँतों पर बृहस्पति का अधिकार है। दूसरे, नवें या बारहवें भाव में बृहस्पति पीड़ित हो तो व्यक्ति को दन्त रोग होने की सम्भावना रहती है। नीच राशि का बृहस्पति ऐसा ही योग बनाता है।
लोहे का कड़ा पहनें। लाल या सफेद मूंगा पुखराज पहनना भी लाभकारी है।
यकृत शोथ इसे हीपेटाइटिस के नाम से जाना जाता है। इस रोग में यकृत में सूजन आ जाती है। हीपेटाइटिस-ए तथा हीपेटाइटिस-बी इन दो नामों से इस रोग का वर्गीकरण होता है। यह रोग दूषित जल व विषाक्त भोजन से फैलता है। कुछ वायरस भी रक्त में संक्रमण करके रोग उत्पन्न करते हैं। इस रोग में सिरदर्द, वमन, जी मिचलाना तथा ज्वर आदि के लक्षण स्पष्ट होते हैं। तीनचार दिन बाद पीलिया के लक्षण स्पष्ट दिखाई देने लगता है। मूत्र का रंग
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गहरा पीला पड़ जाता है । माँसपेशियों में पीड़ा तथा जोड़ों में दर्द हो जाता है। डाक्टरी उपचार शीघ्र कराना चाहिये ।
ज्योतिषीय विचार - लग्नेश जल राशि में पाप ग्रहों के साथ हो तो इस रोग के होने का योग बनता है । बृहस्पति और सूर्य के पापग्रस्त होने, बुध के कमजोर पड़ने या राहु-केतु द्वारा चन्द्रमा से पीड़ित होने की दशा में यकृत शोथ होने की सम्भावना रहती है ।
पीला पुखराज तथा माणिक्य धारण करें। सहायक रत्न के रूप में मूनस्टोन भी धारण कर सकते हैं । रत्नों की भस्म का सेवन करने से भी रोग में लाभ होता है।
मधुमेह
इस रोग को डायबिटीज तथा शुगर भी कहते हैं । अधिकांशतः यह रोग लाइलाज माना गया है। फिर भी दवाओं के माध्यम से इस रोग को सिर्फ काबू में रखा जा सकता है। शरीर में जब इंसुलिन की कमी हो जाती है तब यह रोग होता है | लम्बे समय तक इस रोग का पता ही नहीं चलता । मधुमेह रोग एक वंशानुगत रोग है ।
ज्योतिषीय विचार-कर्क, वृश्चिक या मीन राशि में दो या अधिक पाप ग्रह हों तो मधुमेह होने की सम्भावना रहती है। बृहस्पति यदि लग्नेश के साथ छठे भाव में हो तो तथा तुला राशि में अधिक पाप ग्रह होने पर भी मधुमेह होने की आशंका रहती है। दूषित शुक्र और चन्द्रमा भी मधुमेह होने के संकेत करते है । चन्द्र, शुक्र पर मंगल, सूर्य का योग भी मधुमेह होने की सम्भावना व्यक्त करता है ।
लग्नेश का रत्न अवश्य धारण करें। लाल मूँगा तथा पीला पुखराज धारण करना भी शुभकारी है ।
त्वचा शोथ ( डर्मेटाइटिस)
कई प्रकार के चर्म रोगों को डर्मेटाइटिस की श्रेणी में रखा जाता है । सामान्यतया लोग इसे गम्भीरता से नहीं लेते हैं। त्वचा शोथ, एलर्जी तथा
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* रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान * रसायनों के सम्पर्क में आ जाने से भी होता है। शरीर की भीतरी कार्य प्रणाली में गड़बड़ी होने पर भी यह रोग हो सकता है। रक्त विकार भी इस रोग का प्रमुख कारण है।
ज्योतिषीय विचार-त्वचा के सभी विकार शुक्र से सम्बद्ध होते हैं। जन्म के समय जातक यदि शुक्र, मेष, कन्या या मकर राशि में हो तो त्वचा पर चिकत्ते पड़ने की सम्भावना होती है। नीच राशि का मंगल और बृहस्पति भी खुजली तथा एलर्जी को जन्म देता है। राहु-केतु में सफेद दाग होने की सम्भावना होती है।
लग्नेश का रत्न अवश्य धारण करें। मोती और सफेद ओपल भी धारण करना चाहिये। लहसुनिया पहनने से भी त्वचा व चर्म रोगों से बचाव होता है।
अतिसार यह रोग वर्षा ऋतु में अधिकता से पाया जाता है। इस रोग में रोगी को निरन्तर पानी के समान पतले दस्त आते हैं। जिससे शरीर में पानी की कमी होने की आशंका रहती है। रोगी जो कुछ भी आहार लेता है, वह पचा नहीं पाता और तुरन्त शौच हो जाती है। यह रोग जीवाणुओं के संक्रमण से होता है तथा इसके प्रमुख कारण आँतों में सूजन, खाने-पीने में असावधानी, विषाक्त भोजन इत्यादि है। पेट में ऐठन का अनुभव होना भी अतिसार का संकेत है। शारीरिक शक्ति भी अत्यन्त दुर्बल हो जाती है। इस रोग में रोगी को परहेज के साथ-साथ तरल व सुपाचक भोजन का भरपूर सेवन करना चाहिये।
ज्योतिषीय विचार-गोचर काल में लग्न स्थान से भ्रमण करने वाले ग्रह इस रोग के होने के कारक हैं। जब मंगल कर्कऔर तुला राशि के गोचर में तथा सूर्य वृष और वृश्चिक राशि के गोचर में परिभ्रमण करता है तब अतिसार रोग के होने की अधिक सम्भावना होती है। चौथे और छठे भाव यदि पाप ग्रह युक्त हों तो भी अतिसार होने की सम्भावना होती है।
लग्नेश तथा अष्टमेश का संयुक्त रत्न अँगूठी में धारण करें। पन्ना, मोती तथा मूनस्टोन धारण करना भी लाभदायक माना गया है।
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१७१ मुँह में छाले खट्टा, मीठा, चटपटा तथा मसालेदार भोजन लगातार खाने से मुँह में छाले हो जाते हैं। पानी तथा जलवायु परिवर्तन तथा पेट में निरन्तर कब्ज रहने के कारण भी मुँह में छाले हो जाते हैं । इस रोग में खाना-पीना बहुत मुश्किल हो जाता है। उपचार करने पर यह रोग ठीक हो जाता है।
ज्योतिषीय विचार-शरीर में जलन तथा फफोलों का कारक मंगल है। जिन जातकों का जन्म समय मंगल तुला या वृष राशि में हो उन्हें युवावस्था में प्राय: यह विकार परेशान करता है। लग्न तथा वृष पीड़ित होने पर भी मुँह में छालों की शिकायत रहती है। स्फटिक मोती तथा मूनस्टोन धारण करें। लाल कपड़ा या लाल धागा अवश्य पहनें। ताँबे की अंगूठी में मूंगा पहनने से यह रोग के प्रभाव कम कर देता है।
सर्दी-जुकाम सर्दी-जुकाम आम रोग है। यह सर्दी गर्मी कभी भी किसी मौसम में हो जाता है। इस रोग को फैलाने वाले विभिन्न प्रकार के वायरस जिम्मेदार हैं। मौसम परिवर्तन के समय सर्दी-जुकाम हो जाता है। ज्यादातर यह रोग सर्दी के मौसम में होता है। यह भी संक्रामक रोग है। जो हवा के माध्यम से फैलता है। नाक बहना, खाँसी तथा छींके आना, साँस फूलना आदि सर्दी जुकाम के लक्षण है।
ज्योतिषीय विचार-शनि तथा चन्द्र इस रोग के कारक हैं और मंगल ग्रह रोग का प्रतिरोधी है। शनि की प्रतिक्रिया का शमन करने हेतु ५ रत्ती का माणिक्य ताँबे की अंगूठी में धारण करें। लाल मूंगा तथा लाल कपड़ा धारण करने से भी इस रोग का प्रकोप कम होता है।
वर्णाधता यह रोग वंशानुगत रोग है और इसका कोई उपचार नहीं है। यह रोग पुरुषों को अधिक होता है। ज्यादा तेज रोशनी व कम रोशनी में लगातार काम करने से यह रोग होता है। इसमें आँखों की रंगों में अन्तर कर पाने की क्षमता
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__ * रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान * नष्ट हो जाती है। रोगी प्रायः लाल और हरे रंग में अन्तर नहीं कर पाता।
ज्योतिषीय विचार-दृष्टिपटल पर सूर्य और चन्द्रमा का नियन्त्रण है। यदि ये दोनों लग्न, द्वितीय या बारहवें भाग में हो अथवा सूर्य चन्द्र का योग छठे तथा आठवें भाव में हो तो या सूर्य नीच राशि का हो तो वर्णांधता हो सकती है। कर्क या सिंह राशि में पाप ग्रहों का होना भी इस रोग की सम्भावना होता है।
लाल माणिक्य अथवा मूंगे के साथ मोती धारण करना लाभकारी माना गया है।
कब्ज उदर रोगों में यह सबसे ज्यादा पाया जाने वाला रोग है। आँतों में पाचन क्रिया ठीक प्रकार न होने के कारण मल का पूरी तरह निष्कासित न होना तथा पेट सूख जाना तथा खुलकर शौच न आने से कब्ज रोग होता है। इस रोग के शुरू में अपच, खट्टी डकारें आना, सिर दर्द, वमन आदि कब्ज रोग के लक्षण हैं। खाने-पीने में परहेज रखने से ही इस रोग से मुक्ति मिलती है।
ज्योतिषीय विचार-शरीर में अवरोध का कारक शनि है। शनि यदि कर्क, कन्या या छठे भाव में हो तो कब्ज होने की सम्भावना होती है। कन्या या तुला राशि में अशुभ ग्रहों की उपस्थिति कब्ज होने का संकेत करते हैं।
___ लाल मूंगा तथा लाल कपड़ा धारण करें। सोने की अंगूठी में पुखराज पहनने से लाभ होगा।
हृदय रोग हृदय रोग के अन्तर्गत अनेक रोग आते हैं। जैसे, हृदय गति रुक जाना, हृदयाघात (हार्ट-अटैक) हृदय के वॉल्व में छिद्र हो जाना आदि इस प्रकार के रोग हैं जो हृदय रोग के अन्तर्गत आते हैं। हृदय रोग वंशानुगत भी हो सकते हैं। प्रायः उच्च रक्तचाप के रोगी इस रोग से पीड़ित होते हैं। रक्त को शुद्ध करने की हृदय की क्षमता कम होती जाती है तथा थकान का शीघ्रता से अनुभव होने लगता है। हृदय रोग होने के अन्य कारण चिन्ता, अधिक तनाव
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छाती में तीव्र पीड़ा होने पर हृदयाघात के लक्षण स्पष्ट होते हैं। यदि बाईं भुजा से ऊपर की ओर बढ़ता दर्द प्रतीत होता है तो यह भी हृदयाघात का ही एक प्रमुख कारण या लक्षण है। लगभग (३०) तीस मिनट तक दर्द रहता है और ऐसी अवस्था में रोगी की यदि तत्काल चिकित्सा न की जाये तो यह हानिकारक हो सकता है। इस रोग के अन्य लक्षण शरीर का शिथिल हो जाना, वमन होना, साँस लेने में कठिनाई तथा बेचैनी का अनुभव होना आदि हैं। इस रोग का उपचार यही है कि रोगी को फौरन चिकित्सकीय सहायता देनी चाहिये। इस रोग में रोगी को तुरन्त आराम देने के लिये कुछ विशेष दवायें भी हैं।
ज्योतिषीय विचार-हृदय पर कर्क और सिंह राशियों का नियंत्रण है। चन्द्रमा का भी हृदय पर प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है। यदि राहु, शनि और मंगल की कुदृष्टि सूर्य तथा चन्द्र पर हो तो ४०-४५ वर्ष की आयु के बाद हृदय रोग होने की आशंका होती है। अशुभ सूर्य से यदि राहु तथा मंगल का संयोग हो जाये तो नशीले अर्थात् मादक पदार्थ हृदय रोग के उत्पन्नकारी बनते हैं। सर्य-मंगल का योग रक्त विकारों से हृदय रोग उत्पन्न करने का कारक है। लग्न जल तत्त्व राशि में हो और उसमें मंगल, शनि एवं राहु का योग बनता हो तो हृदय गति अचानक रूक जाने की प्रबल सम्भावना रहती है। अग्नि तत्त्व राशि में लग्न के होने पर प्रदूषित वातावरण तथा ऑक्सीजन की कमी होने के कारण हृदय रोग हो सकता है। सूर्य और चन्द्र से दृष्ट वृहस्पति लग्न में हो तो मोटापे से हृदय रोग होने की सम्भावना रहती है। मकर या कर्क राशि में बैठे पाप ग्रह भी हृदय रोग उत्पन्न कर सकते हैं।
मूंगा व पुखराज धारण करें, यदि फायदा न हो तो मोती और पन्ना धारण करें, लाभ अवश्य होगा।
ऐंठन-मरोड़ (क्रैम्प) यह माँसपेशियों में अतिसंकुचन होने वाला रोग है। यह कभी भी कहीं भी किसी भी माँसपेशी में हो सकता है। ऐंठन के कारण कभी-कभी
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प्रभावित अंग सुन्न भी पड़ जाता है। उपचार एवं ज्योतिषीय सिद्धान्त अतिसार के अनुसार रहेंगे। इसका वर्णन पूर्व में किया जा चुका है।
परागज ज्वर
परागज ज्वर को रिनाइटिस के नाम से जाना जाता है। नजला, जुकाम या एलर्जी के कारण नासिका उत्पन्न होने के कारण यह ज्वर होता है। दूषित वातावरण में रहकर काम करने वाले व्यक्तियों को यह ज्वर अधिक होता है । सर्दियों में इसका प्रभाव बढ़ जाता है। भोजन के प्रति अरुचि उत्पन्न होने के साथ शरीर भी कमजोर होता जाता है। नाक बंद होने से स्नायुमण्डल की कार्यक्षमता कम हो जाती है ।
ज्योतिषीय विचार - अमावस्या के आस-पास जन्मे व्यक्ति इस ज्वर से अधिक पीड़ित होते हैं । मकर और कुम्भ राशि का मंगल नीच का होने तथा बुध और सूर्य की स्थिति कमजोर होने पर यह रोग अपना प्रभाव बढ़ाता है । छठे या बारहवें भाव में शनि-मंगल का योग भी इस रोग का कारक है ।
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इस रोग में रत्नों की भस्म का सेवन हितकारी होता है। समान वजन का पन्ना तथा माणिक्य धारण एक साथ करने से लाभ अवश्य होता है । पुखराज तथा मोती भी इस रोग का निवारण करने की क्षमता रखने वाले रत्न हैं ।
एड्स
एड्स एक भयंकर रोग है । H.I.V. विषाणु से बाधित लोगों को ही यह रोग होता है। अभी तक इस रोग का इलाज असम्भव है । इस रोग के रोगी काफी कमजोर हो जाते हैं । अतः लगातार बुखार रहता है पसीना बहुत आता है । यह रोग जन्म से नहीं होता है। बच्चे को माँ से होता है यदि स्त्री गर्भवती है तो विषाणु बच्चे के शरीर में फैल जाते हैं ।
यह रोग वैश्या के पास जाना, नशीले पदार्थों का सेवन करने से तथा किसी दूसरे का खून चढ़ाने से होता है आदि ।
ज्योतिषीय विचार - शुक्र, मंगल, वृषभ, वृश्चिक राशि में हो उन
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१७५ पर शनि राहु का प्रकोप है तो व्यक्ति को अवांछित शारीरिक सम्पर्क से यह रोग हो जाता है। इन प्रकोपों से बचने के लिए इन्सान को जिरकॉन, मूनस्टोन, पुखराज व नीलम पहनना चाहिये तथा सच्चे मोती की माला भी पहन सकते हैं। यही मनुष्य के लिये हितकर है।
सबलबाय सबलबाय आँखों में होने वाला एक भयानक रोग है। यह रोग प्रदूषित वातावरण से होता है। ज्यादातर यह रोग महिलाओं में होता है जो खाना बनाती हैं तथा बढ़ती उम्र में अनुवांशिकता से भी यह रोग होता है। इस रोग से लगातार आँखों से पानी जैसा पदार्थ निकलता रहता है। आँखें हर समय भारी-भारी सी रहती है और कम दिखाई देने लगता है। अगर समय पर इसका इलाज नहीं किया जाता है तो आँखों की रोशनी भी जा सकती है।
आँखें लाल हो जाती हैं और सूज भी जाती है तथा पेट दर्द, उल्टी होना, जी मिचलाना इसके लक्षण हैं।
ज्योतिषीय विचार-लग्न से दूसरे या बारहवें भाव में पाप ग्रहों की दृष्टि हो और सूर्य व चन्द्रमा एक ही अंश पर स्थित हों, दूसरे तथा बारहवें भाव में पाप ग्रह बैठे हों तो सबलबाय रोग होने की सम्भावना रहती है । कर्क लग्न पर मंगल, राहु या शनि की दृष्टि भी यह रोग होने का योग बनाती है।
मूनस्टोन, श्वेत मोती तथा माणिक्य पहनने (धारण) करने से व्यक्ति लाभान्वित होता है, पन्ना को धारण करना भी लाभदायक कहा गया है।
गठिया यह रोग ज्यादातर शरीर के जोड़ों में होता है तथा कमर से नीचे होता है। इस रोग से प्रभावित अंग की त्वचा के नीचे सफेद क्रिस्टल से जम जाते हैं। शरीर में यूरिक अम्ल का सन्तुलन बिगड़ जाता है तो इस रोग की उत्पति होती है। यूरिक अम्ल शरीर में रक्त के साथ ही रहता है। जब रक्त में इसकी मात्रा ज्यादा हो जाती है तो यह गठिया के रूप में हो जाता है।
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* रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान ★ गुर्दे में कुछ विशेष कमी के कारण भी गठिये के लक्षण दिखायी देते हैं। ज्यादातर यह रोग ४५ वर्ष से अधिक उम्र के व्यक्तियों को होता है। जोड़ों में तेज असहनीय दर्द व सूजन आ जाती है। त्वचा लाल पड़ जाती है। ज्यादातर गठिया पैर के अंगूठे में, टखने में होता है। घुटने पर का गठिया बहुत कष्टदायक होता है।
ज्योतिषीय विचार-मिथुन, तुला तथा कुम्भ राशि के व्यक्ति इस रोग से अधिक पीड़ित होते हैं। बृहस्पति लग्न में तथा शनि सप्तम भाव में हो तो गठिया रोग होने की प्रबल सम्भावना बनती है। वृष, सिंह, कन्या, मकर तथा मीन राशियों में शनि-राहु का योग और मंगल की सीधी दृष्टि हो तो वायु रोग होने की सम्भावना निश्चित होती है तथा राहु तो वायु रोगों आश्रय देने वाला होता है।
स्वर्ण या ताँबा इस प्रकार धारण करें कि शरीर से स्पर्श होता रहे। गोमेद तथा पीला पुखराज इस रोग को बढ़ने से रोकता है।
नपुंसकता यह एक यौन रोग है, जो पुरुषों में पाया जाता है। इस रोग में पुरुष की जननेन्द्रिय में विकास नहीं हो पाता, जिस कारण वह संतानोत्पत्ति में असमर्थ होता है। कभी-कभी ऐसी अवस्था भी होता है कि लिंग का विकास तो हो जाता है किन्तु वीर्य बाहर नहीं आता, यह भी नपुंसकता की स्थिति होता है। ज्यादा थकान और तनाव, चिन्ता इत्यादि के कारण भी नपुंसकता आ जाती है, किन्तु यह अवस्था अस्थायी होती है। साधारणतया यह रोग मानसिक कारणों से ज्यादा होता है। शारीरिक नपुंसकता तो दस प्रतिशत पुरुषों में भी नहीं पायी जाती है। अत: इस रोग के निवारण में मनोचिकित्सक की सलाह आवश्यक है।
ज्योतिषीय विचार-पंचम तथा सप्तम भाव में पाप ग्रह बैठे हों, शुक्र, मंगल या सूर्य से दूषित हो अथवा सप्तम भाव में शनि और बुध स्थित हो तो नपुंसकता होने का योग बनता है। शनि की दृष्टि लग्न या सप्तम भाव पर हो तो तब भी नपुंसकता रोग के होने की सम्भावना रहती है।
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१७७ क्योंकि इस रोग का सीधा सम्बन्ध शुक्र से है, इसीलिए शुक्र का रत्न हीरा सफेद रंग का धारण करना हितकारी होता है।
मलेरिया मलेरिया रोग से लगभग सभी परिचित हैं। मच्छर द्वारा काटे जाने से होने वाला यह सामान्य रोग है, जिसका आरम्भ तेज ठण्ड लगने के साथ होता है तथा तथा रोगी को कंपकंपी के साथ तीव्र ज्वर हो जाता है। इस रोग में शरीर कमजोर पड़ जाता है। अधिकांशत: यह रोग गर्मी तथा बरसात के मौसम में ज्यादा फैलता है। यह ज्वर ५-६ दिनों के अन्तराल में उतर जाता है। क्लोरोक्विन इस रोग की प्रभावकारी औषधि है।
ज्योतिषीय विचार-यदि सूर्य तुला, मकर या धनु राशि का हो और मंगल कर्क या वृश्चिक का हो या इन राशियों पर दोनों ग्रहों का गोचर हो तो इस रोग की प्रबल सम्भावना होती है।
५ या ६ रत्ती का सच्चा मोती या १०-१२ रत्ती का मूनस्टोन या मूंगा दोनों रत्नों में से कोई भी एक रत्न धारण करना लाभदायक होता
अनिद्रा वर्तमान युग के व्यस्त तथा भागदौड़ के जीवन काल में अधिकांशतः लोगों को अनिद्रा की शिकायत बनी रहती है। साधारणत: नींद न आना सामान्य बात है, किन्तु निरन्तर अनिद्रा की अवस्था रहना गम्भीर विषय है। इसके मुख्य कारण अधिक तनाव व चिन्ता हैं।
ज्योतिषीय विचार-नींद पर शुक्र का अधिकार है। यदि शुक्र किन्हीं कारणों से पीड़ित होगा तो अनिद्रा की शिकायत प्रबल हो सकती है।
फिरोजा, जिरकॉन, श्वेत ओपल तथा मोती धारण करने से लग्न के निकटस्थ ग्रहों की शान्ति हो जाती है। बारहवें भाव के स्वामी का रत्न धारण करने को भी लाभदायक कहा गया है। पीला पुखराज भी धारण किया जा सकता है।
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कैंसर यह शरीर के किसी भी भाग में होने वाला असाध्य रोग है। प्रायः पुरुषों में मुख का तथा स्त्रियों में गर्भाशय का कैंसर सर्वाधिक पाया जाता है। शरीर के अन्दर किसी भी भाग में अवान्छित ग्रन्थि निकल आती है, जो कभी-कभी रोग की व्यग्रावस्था में फूट कर बाहर भी निकल सकती है। इस रोग में मुख के अन्दर इस प्रकार के घाव हो जाते हैं जो कभी ठीक नहीं होते। इसके अतिरिक्त अपच, वमन, आवाज में परिवर्तन आना, भोजन निगलने में कठिनाई आदि लक्षण स्पष्ट होते हैं । इस रोग के होने के कारण अधिक स्पष्ट तथा ज्ञात नहीं हैं।
ज्योतिषीय विचार-कैंसर के जीवाणु को जन्म देने के लिए कुछ ग्रह योग माने गये हैं, जैसे-चन्द्रमा किसी भी राशि का हो और छठे, आठवें या बारहवें भाव में हो और उस पर तीन पाप ग्रहों की दृष्टि हो तो यह निश्चित ही कैंसर रोग का सूचक है। शनि और वृहस्पति अगर कर्क या मकर राशि में हो तब भी कैंसर होने की आशंका रहती है। शनि, केतु और वृहस्पति पर यदि नीच चन्द्रमा या नीच राशि के मंगल की पूर्ण दृष्टि, वृहस्पति, केतु और शुक्र का किसी भी राशि में योग, चन्द्रमा, केतु और शनि तथा चन्द्रमा, केतु एवं मंगल अथवा चन्द्रमा अथवा राहु और शनि कहीं भी एक साथ बैठे हों तो कैंसर होने का योग बनता है। छठे भाव में स्थिर राशि का मंगल, इसी भाव में द्विस्वभाव राशि का शनि भी कैंसर के कारक माने जाते हैं।
मध्यमा उंगली में स्वर्ण अथवा ताँबें की अंगूठी में माणिक्य या अनामिका में नीलम धारण करना चाहिए। कैंसर के ऑप्रेशन के बाद ४ से ७ रत्ती का पुखराज और ८ रत्ती का मूंगा धारण करने से फायदा होता है।
रक्त कैंसर रक्त कैंसर को ल्यूकीमिया के नाम से जाना जाता है। इस रोग का कोई उपचार नहीं है और इस रोग में रोगी की मृत्यु निश्चित होती है। विषाक्त जीवाणु शरीर की रक्त प्रणाली में पहुँचकर रक्त को दूषित कर देते हैं और यही दूषित
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रक्त के कारण रक्त कैंसर होता है । इस रोग में रक्त में श्वेत कणों की मात्रा बढ़ जाती है और लाल कणों का बनना कम होता जाता है ।
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ज्योतिषीय विचार- - रक्त का नियन्त्रक मंगल है। मंगल पर शनि तथा राहु-केतु की दृष्टि रक्त दोष का कारक है। तुला का शनि और सूर्य भी इस रोग को प्रश्रय देता है। सोने या ताँबे की अंगूठी में माणिक्य या अनामिका में नीलम पहनें । रत्न त्वचा से स्पर्श करता रहे।
पेप्टिक अल्सर
पाचन क्षेत्र में अन्दर होने वाला कोई भी फोड़ा पेप्टिक अल्सर के नाम से जाना जाता है । यह पेट में भी हो सकता है और ग्रहणी में भी हो सकता है । ४० वर्ष से अधिक उम्र के स्त्री-पुरुषों में यह अधिकता से पाया जाता है। इसकी उत्पत्ति पेट तथा ग्रहणी की झिल्ली में अम्लों तथा रसों के दुष्प्रभावों के कारण होती है। अधिक मदिरा सेवन तथा धूम्रपान करने वाले व्यक्ति प्रायः पेप्टिक अल्सर के शिकार हो जाते हैं। इसके अतिरिक्त अनियमित खान-पान, घबराहट, उत्तेजना, चिन्ता करना और एस्पीरिनयुक्त दवाओं के लगातार सेवन करने के कारण भी पेप्टिक अल्सर रोग होने की आशंका होती है । इसके मुख्य लक्षण पेट के ऊपरी भाग में पीड़ा होते रहना और भोजन करने के उपरान्त पेट में पीड़ा होना आदि हैं। प्रायः इस रोग के लक्षण प्रारम्भ की अवस्था में पूर्णतः स्पष्ट नहीं होते ।
ज्योतिषीय विचार - लग्न का जब शनि अथवा मंगल से दृष्टि-वेध होता है, तब इस रोग की उत्पत्ति होती है। इसके अतिरिक्त कर्क या कन्या राशि में शनि या केतु के आक्रान्त होने पर, पाँचवे भाव में मंगल की उपस्थिति से सूर्य या केतु के आक्रान्त होने पर तथा सिंह राशि में शनि-राहु का योग होने पर पेप्टिक अल्सर होने की सम्भावना होती है ।
पन्ना तथा पीला नीलम क्रमशः मध्यमा तथा अनामिका में धारण करें। रोग यदि गम्भीर अवस्था में हो तो माणिक्य या मूंगे की भस्म का सेवन करना लाभदायक है । ८ से १० रत्ती का गोमेद, स्फटिक या लाजवर्त मध्यमा अँगुली में धारण करना भी हितकारी माना गया है।
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टायफाइड इस रोग का आक्रमण मुख्यतया आँतों तथा प्लीहा पर होता है। यह एक संक्रामक रोग है, जो अब प्राय: अपने उग्र रूप में नहीं पाया जाता। यह रोग अस्वास्थ्यकर वातावरण में रहने तथा प्रदूषित जल व विषाक्त भोजन ग्रहण करने के कारण होता है। आरम्भ में इसके कुछ लक्षण इन्फ्लूएंजा रोग के समान प्रतीत होते हैं। प्रारम्भ में रोगी को तेज बुखार होता है तथा कब्ज जैसी स्थिति होती है, जो धीरे-धीरे अतिसार का रूप धारण कर लेती है। पेट पर लाल रंग के निशान भी पड़ना इस रोग के ही लक्षण हैं।
ज्योतिषीय विचार-वृहस्पति, मंगल और बुध इस तरह के रोगों के कारक माने गये हैं। मंगल या वृहस्पति कर्क या कन्या में बुध या केतु से पीड़ित हो तो व्यक्ति को टायफाइड होने की प्रबल सम्भावना होती है।
- इस रोग के निवारण के लिए मूनस्टोन, पन्ना तथा पीला पुखराज धारण करना अच्छा माना गया है।
पीलिया इस रोग में व्यक्ति की त्वचा व आँखें पीली पड़ जाती हैं। मूत्र भी पीले रंग का हो आता है। साधारणत: यह रोग किसी को भी हो जाता है, किन्तु नवजात शिशु इससे अधिक पीड़ित होते हैं। यह रोग पित्ताशय तथा यकृत की कमजोरी से होता है। इस रोग के लक्षण ज्वर, पेट में दर्द आदि हैं तथा शरीर में लाल रक्त कणों की मात्रा कम हो जाती है।
ज्योतिषीय विचार-पीलिया कारक ग्रह बृहस्पति है। शनि, राहु और केतु पाप ग्रहों की दृष्टि यदि बृहस्पति पर हो तो पीलिया होने की सम्भावना है। सिंह व कन्या राशि में राहु, केतु तथा बुध यदि शनि या मंगल से दूषित हो तो पीलिया हो सकता है। चन्द्र के साथ चौथे, पाँचवें तथा सातवें भाव में यदि कमजोर ग्रह हों तो या अमावस्या को जन्म हुआ हो, सूर्य और चन्द्र पर बृहस्पति की दृष्टि न हो तो या लग्न में राहु और सप्तम में चन्द्र और केतु का योग हो तो भी पीलिया रोग होने का योग बनता है।
पन्ना ६ रत्ती, गहरा लाल मूंगा ८ रत्ती, ५ रत्ती पीला पुखराज,
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१८१ एक चाँदी की रत्नरहित अंगूठी तथा ताँबे का कड़ा धारण करें तो पीलिया से रक्षा होती है। यदि पीलिया हो जाये तो पुखराज उतार दें।
मस्तिष्क ज्वर इस रोग से मस्तिष्क की नसें सक्रिय तथा जागृत व बेकाबू हो जाती है। रीढ़ की हड्डी पर अनावश्यक दबाव पड़ने से भी मस्तिष्क ज्वर होने का खतरा रहता है, मांसपेशियों का तनाव बढ़ जाता है। मेनिनजाइप्सि नामक एक अन्य मस्तिष्कीय ज्वर से मस्तिष्क की झिल्ली क्षतिग्रस्त हो जाती है। यह एक भयानक रोग है इससे मनुष्य की जान भी जा सकती है। इस ज्वर के शुरु में रोगी को हल्का बुखार सिर दर्द उल्टी तथा बेहोशी के लक्षण दिखाई पड़ते हैं। इसलिये ऐसे रोगी को तुरन्त डाक्टरी उपचार देना चाहिये।
ज्योतिषीय विचार-जब मेष राशि के स्वामी पर मेष राशि का अधिकार हो और सूर्य तथा मंगल कमजोर हो या पाप ग्रहों से पीड़ित हों तब यह रोग होने की आशंका रहती है। चन्द्र और बुध ग्रहों का योग जातक की जन्मकुण्डली के छठे, आठवें या बारहवें भाग में हो तो भी मस्तिष्क ज्वर हो सकता है, मेष, मंगल और बुध अगर संयुक्त रूप से पाप ग्रहों द्वारा आक्रान्त हों तो भी मनुष्य को यह रोग होने की सम्भावना होती है। इसके निवारण के लिए लाल मूंगा, पीला पुखराज तथा पन्ना धारण करें।
तपेदिक टी.बी. के नाम से जानी जाने वाली इस बीमारी का अधिकांश प्रभाव फेफड़ों पर पड़ता है, शरीर की हड्डियाँ भी इसकी चपेट में आ जाती है। यह एक संक्रामक रोग है। इस रोग के किटाणु शरीर में प्रवेश करते ही अपना प्रभाव दिखाना शुरू कर देते हैं । इस रोग का उपचार मँहगा तथा काफी समय तक चलता है। आरम्भ में इस रोग के कोई लक्षण स्पष्ट नहीं होते लेकिन बाद में लगातार खाँसी आनी, थूक में खून आना, हल्का ज्वर रहना तथा थकान महसूस करना आदि इसकी निशानी हैं।
ज्योतिषीय विचार-जब चन्द्र, शनि, बृहस्पति, मिथुन या कुम्भ
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★ रत्न उपरल और नग नगीना ज्ञान ★ राशि में मंगल या केतु से आक्रान्त हो तो तपेदिक होने की सम्भावना होती है। इस रोग की रोकथाम के लिये, पीला पुखराज, सफेद मोती या लाल मूंगा धारण करने से रोग का प्रकोप कम होता है।
ग्रन्थिल ज्वर यह ज्वर भी वायरस का एक रूप है और यह बुखार युवाओं को अधिक होता है। इस रोग में जीवाणुओं के संक्रमण से लसीका ग्रन्थियों में सूजन आ जाती है। इस रोग का प्रारम्भिक लक्षण इनफ्लूएंजा के समान ही होते है। शरीर में थकान का अनुभव होता है तथा उपचार करने से कुछ समय बाद यह रोग अपने आप ठीक हो जाता है।
ज्योतिषीय विचार-इस रोग का कारक मंगल है। मंगल के साथ सूर्य या बुध का योग प्रायः इस रोग की ओर प्रेरित करता है।
लग्नेश के रत्न के साथ माणिक्य धारण करें। मंगल की शान्ति के लिये लाल मूंगा, लाल कपड़ा या धागा बाँधने से इस रोग के होने की सम्भावना कम होती है।
आधे सिर में दर्द ज्योतिषीय विचार-बुध ग्रह स्नायुओं का कारक है चन्द्र लग्न पाप ग्रहों से दृष्ट हो तो सिर दर्द की शिकायत होती है। सूर्य और चन्द्र पर शनि, मंगल की कुदृष्टि से तेज सिर दर्द होता है । मेष राशि पर शनि, राहु केतु की दृष्टि से आधे सिर में दर्द होता है। मंगल-राहु तथा सूर्य-शनि का योग भी इस रोग का कारण है।
- माणिक्य, मोती तथा पन्ना पहनें। नीलम या पुखराज चाँदी अथवा ताँबे की अगूंठी में पहने।नवरत्न का पेंडल गले में पहनना भी लाभदायक
दमा यह रोग प्राय: वंशानुगत ही होता है लेकिन प्रदूषित वातावरण तथा
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* रल उपरत्न और नग नगीना ज्ञान * पत्थर की खदानों में काम करने वाले व्यक्ति इस रोग के शिकार होते है। किसी भी आयु में स्त्री, पुरुष, बच्चों को यह रोग हो जाता है। श्वास नली में अवरोध तत्त्व होने से रोगी को सांस लेने में परेशानी होती है तथा तेज खाँसी का दौरा पड़ता है। जुकाम-खाँसी बिगड़ जाने से भी दमें की शिकायत हो सकती है। सांस लेते समय गले में घरघराहट होना इस रोग का प्रमुख लक्षण है। अच्छे चिकित्सक से इस रोग का उपचार करायें।
ज्योतिषीय विचार-बुध नीच या शत्रु राशि का शनि, दमा रोग के कारक है। मेष सिंह या कर्क राशि में शनि की उपस्थिति चौथे में हो तो खाने-पीने में असावधानी व प्रदूषण के कारण भी दमा होता है। मिथुन या सिंह राशि में चन्द्रमा की उपस्थिति भी इस रोग का कारण है। ७ रत्ती का पन्ना, ५ रत्ती का पुखराज तथा ६ रत्ती का मूनस्टोन धारण करें। कार्तिक पूर्णिमा की रात को चाँदनी में बाहर रख कर खीर को सुबह खानी चाहिये। इससे लाभ होगा।
लग्न में स्थित वक्री ग्रह इस रोग के कारक हैं। मिथुन, कर्क, सिंह, तथा कन्या राशियों का राहु इस रोग का संकेतक है।
नवधातु में काला अथवा लाल अकीक धारण करें। सोने या चाँदी में ८-९ रत्ती का लाल मूंगा तथा ३ से ५ रत्ती का गोमेद अष्टधातु में धारण करना भी लाभकारी माना गया है।
कुकर खाँसी यह बच्चों को होने वाला रोग है जो अधिकतर मौसम बदलने तथा अधिक सर्दी बढ़ने से हो जाता है। यह एक बच्चे से दूसरे बच्चे को होने वाला संक्रमणीय रोग है। जो बच्चों को बहुत जल्दी हो जाता है। इस रोग का संक्रमण बैक्टीरिया द्वारा होता है। सामान्य उपचार करने से यह रोग १०-१५ दिन में ही ठीक हो जाता है।
ज्योतिषीय विचार-जन्म के समय यदि तुला या मिथुन राशि में बुध आक्रांत हो तो यह रोग होने का भय रहता है। यदि बुखार भी हो तो मंगल भी इसका एक कारक हो सकता है।
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* रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान * बच्चे को लाल कपड़ा पहनाना चाहिये तथा ताँबे का छल्ला भी पहनायें। मरकत अथवा पेरीडॉट पहनना भी लाभदायक है। गले में ताँबे की चेन भी धारण कराई जा सकती है।
मायोपिया __ जिस व्यक्ति को निकट की वस्तु तो स्पष्ट किन्तु दूर की वस्तु अस्पष्ट दिखती हैं, वे व्यक्ति 'मायोपिया' रोग से ग्रस्त होते हैं। मायोपिया रोग वंशानुगत भी पाया गया है। नेत्र-चिकित्सक के परामर्श अनुसार चश्मा या कान्टेक्ट लेंस बनवाकर इस नेत्र दोष से मुक्ति मिल सकती है। ___ ज्योतिषीय विचार-नेत्र सम्बन्धित समस्त रोगों का कारण सूर्य तथा चन्द्र हैं। सफेद मोती, मूनस्टोन तथा मूंगा धारण करने से इन रोगों का प्रभाव कम हो सकता है।
ब्रेन ट्यूमर आधुनिक युग का अस्त-व्यस्त तनावपूर्ण जीवन इस रोग ही देन है। इस रोग में मस्तिष्क के भीतर एक प्रकार की गाँठ निकल आती है जो धीमेधीमे एक फोड़े का रूप धारण कर लेती है, जिससे सिर में तेज पीड़ा होती है। प्रारम्भिक अवस्था में इस रोग के लक्षण अस्पष्ट रहते हैं, किन्तु रोग (ट्यूमर) बढ़ने के साथ सिर में तीव्र पीड़ा, चक्कर आना, बेहोशी, वमन इत्यादि लक्षण प्रकट होने लगते हैं। आँखों के आगे अँधेरा छाने लगता है। यह रोग लगभग असाध्य रोग है जो केवल शल्य-चिकित्सा द्वारा ही ठीक हो सकता है, परन्तु इसमें भी रोगी के जीवित रहने के अवसर कम ही होते हैं।
ज्योतिषीय विचार-दिमाग के ऊतकों पर बुध का अधिकार होता है। बुध पर यदि किसी भी पाप अथवा क्रूर ग्रह का प्रभाव पड़े तो इसका प्रत्यक्ष प्रभाव मस्तिष्क पर पड़ता है। मेष राशि का शुक्र भी इस रोग का कारक है, मेष का मंगल भी पूरी तरह पाप ग्रहों के प्रभाव में हो तो इस रोग के होने की संभावना बनती है। मेष राशि में शनि, राहु तथा केतु का योग भी ब्रेन ट्यूमर का कारण हो सकता है।
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हरा पन्ना, पीला पुखराज तथा लाल मूँगा समान वजन का पेण्डेण्ट या कड़े में धारण करना उपयुक्त रहता है और तीनों रत्नों को समान मात्रा में कड़े के स्थान पर अँगूठी में भी पहना जा सकता है । रत्नों की भस्म बनाकर सेवन करने से भी रोग में लाभ होता है ।
सफेद दाग
सफेद दाग को ल्यूकोडर्मा कहा जाता है । चर्म रोगों में यह रोग अधिक पाया जाता है। इस रोग में शरीर की त्वचा पर अलग-अलग जगहों पर सफेद चकत्ते या दाग पड़ जाते हैं। शरीर की आन्तरिक संरचना में इस रोग से कोई दोष नहीं होता तथा न किसी प्रकार का कोई कष्ट होता है । इस रोग में पड़ने वाले सफेद दाग धीमे-धीमे रोगी के पूरे शरीर पर फैल जाते हैं । कुछ व्यक्ति इसे कुष्ठ रोग की श्रेणी में रखते हैं और रोगी से घृणा करते हैं । वास्तव में हमारे शरीर में मेलालिन नामक एक तत्त्व होता है जो त्वचा का रंग निर्धारित करता है । यदि इस तत्व की संरचना में कोई परिवर्तन हो जाता है तो यह रोग होता है । यह कुष्ठ रोग नहीं है, इसे कुष्ठ रोग कहने वाले व्यक्ति गलतफहमी में रहते हैं ।
ज्योतिषीय विचार- - चन्द्र, मंगल तथा शनि का मेष तथा वृष राशि में संयोग होने पर यह रोग होता है। शनि बारहवें भाव में, मंगल दूसरे भाव में, चन्द्रमा लग्न में तथा सूर्य सातवें स्थान में हो तो तब भी इस रोग के होने की सम्भावना बनती है। किसी भी जल राशि में चन्द्रमा तथा शुक्र का योग हो, चन्द्र, मंगल या लग्न का स्वामी राहु-केतु युक्त हो, लग्नेश, चन्द्रमा तथा बुध का राहु-केतु से युति का योग हो तो भी सफेद दाग होने की सम्भावना अधिक होती है। यदि बुध शत्रु राशि में, अस्त या वक्री हो, शुक्र नीच राशि में अस्त या वक्र या शनि-राहु के मध्य हो तो भी इस रोग के होने का संकेत होता है।
१ या २ रत्ती का हीरा, ८ रत्ती का फीरोजा और ३ रत्ती का मोती धारण करना हितकारी होता है। विशेष प्रकार की रोग स्थिति में ४ से ७ रत्ती का पुखराज धारण करना लाभदायक रहता है।
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घेघा घेघा रोग कुपोषण के कारण होता है। इस रोग में थॉयराइड ग्रंथियों से स्रावित होने वाले हार्मोन की मात्रा में वृद्धि हो जाती है तथा कण्ठ नली फूल कर बाहर की ओर उभर आती है। इस रोग का एक प्रमुख कारण आयोडीन की कमी है।
ज्योतिषीय विचार-लग्न में पाप ग्रह हो या बुध वक्री अथवा अस्त हो तो घेघा रोग होने की सम्भावना होती है। मिथुन और वृष राशि के बीच पाप ग्रह बैठे हों तो या वृष राशि का सूर्य अस्त हो तो भी यह रोग हो सकता है।
सफेद मोती, माणिक्य तथा लहसुनिया धारण करें। सुनैला, पुखराज और मूंगा एक साथ पहनना भी लाभकारी माना गया है।
गैंगरीन शरीर के जिस अंग पर इस रोग का प्रभाव पड़ता है वहाँ की कोशिकायें भर जाती हैं। इससे प्रभावित अंग में रक्त संचार रूक जाता है तो वह अंग सुन्न पड़ जाता है। इस रोग से प्रभावित अंग काला पड़ जाता है तथा आसपास की चमड़ी लाल हो जाती है तथा पस पड़ जाती है और सूज जाती है। इस रोग का तुरन्त उपचार करना चाहिये।
ज्योतिषीय विचार-इस रोग का कारण शनि लग्न, सप्तम या किसी भी केतु भाव में नीच या शत्रु राशि का शनि हो या लग्नेश शनि के साथ बैठा हो तो गैंगरीन होने की आशंका रहती है।
लाल धागा, लाल कपड़ा या लाल मूंगा के साथ ताँबे या लोहे का छल्ला धारण करें। ताँबे के साथ माणिक्य पहनना भी लाभकारी
शीत दंश शीत दंश रोग तब होता है जब शरीर का कोई भी भाग लगातार अत्यधिक शीत के प्रभाव में रहे। हाथ की अंगुलियाँ, पैरों की अंगुलियाँ, नाक, कान, ठोड़ी तथा गलों पर शीत दंश का प्रभाव अधिक होता है। छूने पर
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१८७ प्रभावित अंग कठोर व ठण्डा प्रतीत होता है।
ज्योतिषीय विचार-इस रोग का कारक शनि है। शनि लग्न या सातवें, एकादश में नीच राशि का होना शीत दंश होने की सम्भावना होती है।
लाल कपड़ा या लाल धागा, ताँबे की अंगूठी तथा मूंगा धारण करें। माणिक्य पहनना भी उचित है।
मिरगी इस रोग से रोगी को दौरे पड़ते हैं तथा देर तक रोगी छटपटाता है। फिर बेहोश हो जाता है। अधिक मात्रा में शराब का सेवन करने से मस्तिष्क पर गुम चोट लगना तथा भावनात्मक असंतुलन इस रोग के प्रमुख कारण हैं।
ज्योतिषीय विचार-कमजोर और शुष्क लग्नेश (मेष, सिंह या धनु) के जातकों को यह रोग ज्यादा होता है। मस्तिष्क का स्वामी मेष है। बुध और चन्द्र भी मस्तिष्क को प्रभावित करते हैं। चन्द्र और बुध के राहु से पीड़ित होने की दशा में केतु के साथ चन्द्र या बुध का योग होने से मिरगी का दौरा पड़ता है।
पन्ना और मूनस्टोन धारण करें। लग्नेश का रत्न धारण करना भी लाभकारी है।
अन्धापन यह अन्धापन का रोग बढ़ते हुए प्रदूषण के कारण होता है। यह रोग स्थायी व अस्थायी दोनों प्रकार के हो सकता है। अस्थायी अन्धापन चिकित्सक उपचार से ठीक हो जाता है। लेकिन स्थायी अंधापन से आँखें खराब हो जाती हैं, वह ठीक नहीं हो पाती। विटामिन-बी की कमी से भी यह रोग होता है।
ज्योतिषीय विचार-लग्न से दूसरा तथा बारहवाँ भाव आँखों की स्थिति दर्शाता है। सूर्य, दायी आँख का तथा चन्द्र बायी आँख का संचालक है। यदि इन दोनों ग्रहों पर शनि की कुदृष्टि पड़ती है तो नेत्र-दोष होने की आशंका रहती है। वृष तथा मीन राशि भी आँखों के रोगों को प्रभावित करते हैं। सफेद मोती, मून स्टोन तथा मूंगा धारण करना लाभदायक है।
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कमर दर्द यह रोग भी बहुत कष्टदायक होता है तथा सिरदर्द की भाँति असहनीय होता है। इस रोग के अनेक कारण हैं। कोई भी व्यक्ति कमर दर्द से कभी भी पीड़ित हो सकता है। एक ही स्थिति में बैठे रहना या खड़े होकर कार्य करना, भारी बोझ उठाना, असुविधाजनक बिस्तर पर सोना इसके मुख्य कारण हैं। इस रोग के उपचार हेतु प्रतिदिन व्यायाम करना बहुत आवश्यक है।
ज्योतिषीय विचार-इस तरह के रोगों का कारण शनि ग्रह है तथा बुध राशि कमर का स्वामित्व है। इस राशि पर पाप ग्रहों की दृष्टि होने या शनि-चन्द्र की युति हो तो भी कमर दर्द हो सकता है।
९ रत्ती का मूंगा या माणिक्य तथा लोहे का छल्ला धारण करें। ३:२ के अनुपात में गोमेद और नीलम एक ही अंगूठी में पहनना लाभकारी
है।
गंजापन असमय बालों का झड़ना व युवावस्था में सिर के बाल झड़ जाना किसी प्राणी के लिए परेशानी हो सकती है। चिकित्सक इस रोग को असाध्य रोग मानते हैं। लेकिन बीमारी या एलर्जी से झड़े बाल दोबारा आ जाते हैं। ४० वर्ष की आयु में गंजापन होना कोई चिन्ता की बात नहीं है।
ज्योतिषीय विचार-सूर्य लग्न, तुला या मेष राशि में हो और शनि को देखता है तो रत्न धारण करना चाहिये। ८ रत्ती का नीलम तथा ५ रत्ती का पन्ना पहनने से लाभ होगा। पुखराज व माणिक्य एक साथ पहनने से गंजेपन से मुक्ति पायी जा सकती है।
बवासीर इस कष्टदायक रोग में मलद्वार पर छोटे-छोटे मस्से निकल आते हैं। जो मल करते समय और भी फैल जाते हैं। जिससे बहुत दर्द होता है तथा कभी-कभी रक्तस्राव भी होने लगता है। काफी समय तक कब्ज होना इस रोग का मूल कारण है। इसका उपचार चिकित्सक द्वारा कराना चाहिये।
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१८९ ज्योतिषीय विचार-जन्मकुण्डली में सातवाँ भाव गुदा का कारक है। इस भाव में पाप ग्रह बैठे हों और मंगल की दृष्टि हो तो बवासीर रोग होता है। आठवें भाग में स्थित शनि, राहु बारहवें भाव के केन्द्र तथा सूर्यचन्द्र योग भी बवासीर होने का संकेत करता हैं।
सफेद मोती, मूनस्टोन तथा लाल मूंगा धारण करना लाभकारी माना गया है।
स्मृति दोष अत्यधिक नर्वस होना या संज्ञा शून्यता तथा अधिक तनावपूर्ण सदमा आदि परिस्थितियों के कारण यह रोग हो जाता है। यह विशेष प्रकार का स्नायविक दोष है। इसमें अतीत की कुछ घटनायें व्यक्ति को याद नहीं रहती हैं। इस स्मृति दोष के बढ़ जाने पर रोगी की दिनचर्या तथा खान-पान को सन्तुलित करना बहुत आवश्यक है।
ज्योतिषीय विचार-लग्न या लग्नेश को पाप ग्रह दुःखी करें या सूर्य-बुध राशि होकर शनि या शुक्र द्वारा पीड़ित हो तो स्मृति दोष की शिकायत होती है। मेष राशि में सूर्य, मंगल तथा शनि का योग भी इस रोग का कारण है।
मोती या माणिक्य गले में धारण करें। एक हाथ में ६ रत्ती का पन्ना तथा दूसरे में सात से ९ रत्ती का मूंगा चाँदी की अंगूठी में पहनें। चाँदी, सोना ताँबा मिश्रित धातु का कड़ा पहनने से लाभ होगा।
स्वर भंग (आवाज फटना) यह स्वर नलिका में प्रदाह से उत्पन्न होने वाला रोग है। अत्यधिक शराब पीना तथा धूमपान करने से भी स्वरभंग की शिकायत हो जाती है । स्वर नालिका में संक्रमण जीवाणुओं के कारण होता है। आवाज फट सी जाती है तथा बोलते समय घरघराहट सी आवाज निकलती है। सामान्य उपचार करने पर यह रोग ठीक हो जाता है। ___ ज्योतिषीय विचार-वृष राशि गले की अधिपति है। जबकि स्वर
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★ रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान * का स्वामी बृहस्पति है। नीच या कमजोर चन्द्र, मंगल तथा राहु जब भी गोचर में हो तो वृष या मिथुन राशि में संचार करते हैं और उन पर शनि की दृष्टि हो तो यह रोग अपना तेज प्रकोप दिखाता है। मूनस्टोन तथा गोमेद धारण करने से इस रोग का प्रकोप कम हो जाता है।
मोतियाबिन्द यह एक नेत्र रोग है जो अधिकतर प्रौढ़ तथा वृद्धों को ही होता है। इस रोग में आँख की पुतली (रेटिना) पर एक बारीक-पतली सी झिल्ली की पर्त बन जाती है, जिसके कारण रोगी को सब कुछ धुंधला दिखायी पड़ता है। इस रोग से मुक्ति के लिये एक छोटा सा सामान्य ऑप्रेशन किया जाता है।
ज्योतिषीय विचार-राशिचक्र की वृष और मीन राशियाँ क्रमश: दायीं तथा बायीं आँख का संचालन करती हैं। यदि शुक्र और बृहस्पति एक साथ ही छठे, आठवें या बारहवें भाव में बैठ जाये तो मोतियाबिन्द का होना निश्चित होता है। यदि मंगल, बृहस्पति तथा शुक्र कहीं भी एक साथ बैठ जाये तो काला या सफेद मोतियाबिन्द होने का योग बनता है।
पन्ना को नेत्र ज्योति में वृद्धि करने में सहायक माना गया है और मोती को खोई नेत्र ज्योति प्राप्त कराने में। रोग के उपचार के दौरान माणिक्य धारण करें। गर्मियों में माणिक्य के स्थान पर लाल मूंगा पहनें। मूंगा, मोती तथा पन्ना ३ रत्ती प्रत्येक हिसाब से एक साथ अंगूठी में जड़वाकर या पेण्डेण्ट में धारण करें, लाभ होगा।
चिकन पॉक्स यह रोग बाल रोगों के अन्तर्गत आता है तथा इस रोग से ग्रस्त लोगों में प्रायः ९०% बच्चे होते हैं। यह एक संक्रामक रोग है तथा जीवन काल में प्रायः एक ही बार होता है। इस रोग का प्रारम्भ ज्वर, वमन तथा बेहोशी इत्यादि लक्षणों के साथ होता है। फिर पूरे शरीर पर छोटे-छोटे लाल दाने हो जाते हैं। ७-८ दिनों तक यह रोग पूर्णतया अपने प्रचण्ड रूप में रहता है तथा स्वतः ही फिर शान्त भी हो जाता है।
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१९१ ज्योतिषीय विचार-बाल्यारिष्टी योग में प्रायः यह रोग होता है। चन्द्र-मंगल का संयोग तथा सूर्य की दूषित अवस्था होने पर यह रोग उग्र रूप में हो सकता है।
यह रोग प्रायः बच्चों को ही होता है और उन्हें रत्न पहनाना व्यावहारिक नहीं है, अतः उनके हाथ में ताँबे का कड़ा पहना दें। गले में लाल कपड़ा या लाल मूंगा भी पहनाया जा सकता है।
मस्तिष्क विकार मस्तिष्क विकार में मस्तिष्क की कार्यक्षमता अस्थायी रूप से पंगु हो जाती है, याददाश्त और एकाग्रता भी इसके प्रभाव में आ जाती है। कुछ समय तक रोगी विक्षिप्त सा रहता है क्योंकि यह रोग अत्यधिक चिन्ता, स्नायु विकार, मानसिक आघात, ट्यूमर तथा नशीले पदार्थ व मादक पदार्थ का लगातार सेवन करना इत्यादि मस्तिष्क विकारों के कारणों से होता है।
ज्योतिषीय विचार-चन्द्रमा, बुध तथा शनि मस्तिष्क का संचालन करते हैं। लग्न से तीसरा तथा नौवाँ भाव भी मस्तिष्क को प्रभावित करता है। मिथुन, कुम्भ और कन्या राशियों का प्रभाव भी मस्तिष्क पर होता है, इन ग्रहों के पीड़ित होने पर तथा चन्द्र के साथ शनि या राहु की दशा स्थिति होने पर मानसिक विकार होने का योग बनता है। मूनस्टोन, पीला पुखराज तथा पन्ना धारण करने से मानसिक शान्ति मिलती है। लाल मूंगा सहायक रत्न के रूप में लाभदायक है।
प्रमस्तिष्कीय रक्तस्राव इस रोग में मस्तिष्क को क्षति पहुँचती है और शरीर पर उसका नियन्त्रण नहीं रहता है। मस्तिष्क को मिलने वाले रक्त में रुकावट होने के फलस्वरूप यह रोग होता है। अधिकांशतः यह रोग ६० वर्ष से अधिक आयु वाले व्यक्तियों को होता है। शरीर के किसी भी अंग में पक्षाघात (लकवा) हो सकता है। चक्कर, मूर्छा तथा कमजोरी होना इस रोग के लक्षण हैं। प्रमस्तिष्कीय रक्तस्राव के रोगी का तत्काल उपचार कराना अति आवश्यक होता है,
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अन्यथा परिणाम घातक भी हो सकता है ।
ज्योतिषीय विचार - सिर पर मेष राशि का अधिपत्य है। राहु, मंगल, सूर्य तथा शनि की तनिक सी कुदृष्टि भी इस रोग के होने का योग बनाती है। इसके अतिरिक्त लग्न भाव पर शनि, मंगल की दृष्टि तथा सूर्य, शनि का मेष या तुला लग्न में एक साथ होना भी इस रोग का संकेत होता है ।
लग्नेश का रत्न धारण करें। ७-८ रत्ती का लाल मूँगा तथा मूनस्टोन या सच्चा सफेद मोती चाँदी में धारण करें। एक त्रिकोण पेण्डेण्ट में लग्नेश का रत्न मूंगा तथा पुखराज जड़वायें जिसमें माणिक्य बीच में हो, प्रकार का पेण्डेण्ट धारण करने से इस रोग का प्रभाव कम होता है ।
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दूषित पेयजल तथा बासी भोजन का सेवन करने से यह रोग होता है तथा यह रोग बरसात के दिनों में अधिक फैलता है तथा मक्खियों के द्वारा फैलता है और महामारी का रूप धारण कर लेता है। यह एक संक्रामक रोग है तथा इस रोग के प्रमुख लक्षण वमन, ज्वर, सिरदर्द, कमजोरी आदि प्रारम्भिक अवस्था में ही स्पष्ट हो जाते हैं ।
ज्योतिषीय विचार - गोचर में नीच का सूर्य, मंगल या शुक्र प्रायः यह रोग होने का कारण बनते हैं। मंगल और बृहस्पति कन्या राशि में हो और आठवें भाव में सूर्य और चन्द्र हों तो हैजे से रोगी की मौत भी हो सकती है। जब सिंह राशि या पाँचवे भाव पर पाप ग्रहों की दृष्टि हो या मंगल आदि का गोचर हो तो इस रोग के होने की सम्भावना रहती है।
६ रत्ती का पन्ना, पीला पुखराज और मूनस्टोन धारण करें । गोमेद तथा लहसुनिया धारण करना भी लाभदायक माना गया है।
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रणधीर प्रकाशन, हरिद्वार
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________________ मन्त्र-तन्त्र श्वास-प्रश्वास की सिद्धि का गहन अध्ययन स्वयं सीखिये स्वरोदय ज्ञान रत्न रहस्य ताविक पहल મા प. कपिल मोहन अध्यात्म में रुचि रखने वालों के लिए और नई पीढ़ी का सच्चा मार्ग दर्शक 'आत्मज्ञान का अद्भुत अनुभव अष्टावक्र गीता और चर्पट पञ्जरिका मूलपाठ, सरल हिन्दी अनुवाद एवं काव्यानुवाद आध्यात्मिक ज्ञान के | स्वर्ण सूत्र नन्दलाल दशोरा रणधीर प्रकाशन, टरिबाद KEELLEEEEEEEELI उपरोक्त पुस्तकें मँगाने के लिए सम्पर्क करें : रणधीर प्रकाशन, रेलवे रोड, हरिद्वार