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________________ १८ ★ रल उपरत्न और नग नगीना ज्ञान * को धारण कर और समस्त रत्नों को अलग-अलग पात्रों में सजा कर राजसभा में ले आया। राजसभा के मध्य रत्नों की चमक-दमक और सुन्दरता तथा आकर्षण देख कर गहन सोच में लीन हो गया कि ईश्वर ने इन रत्नों को कैसे उत्पन्न किया। उसने सभा में उपस्थित सभी सभाजनों (विप्र, ऋषि और महापुरुषों) से कहा-आप लोग इन रत्नों तथा उपजातियों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में कुछ बतायें। किन्तु किसी से भी राजा के प्रश्न का उत्तर नहीं मिला। उसी क्षण राजसभा में महर्षि पराशर पधारे। फिर राजा ने उनसे भी यही प्रश्न किया। महर्षि पराशर ने कहा-हे राजन! रत्नों की गाथा अठारह पुराणों और चारों वेदों में विस्तार से वर्णित है। मैं संक्षेप में उसका वर्णन करता हूँ। एक बार प्रभु शिवशंकर जी से पार्वती जी ने प्रश्न किया-हे स्वामी कैलाशपति! मणि रत्न, उपरत्न, संग, मोहरा कैसे उत्पन्न हुए, इन पर ग्रहों का प्रभाव कैसे पड़ा और इन्हें धारण करने वाले मनुष्यों पर ये किस प्रकार अपना चमत्कार या प्रभाव दिखाते हैं, इन सबका वर्णन कीजिये। प्रभु शिवजी ने प्रसन्नतापूर्वक मणियों, रत्नों आदि के सम्बन्ध में कथा कही। यह सभी रत्न व उपरत्न पत्थर ईश्वर के ही रूप हैं। महर्षि पराशरजी ने राजा अम्बरीष से कहा-राजन् ! भगवन् ! सदाशिव ने माँ पार्वती के पूछने पर रत्नों का सविस्तार वर्णन किया जिसे मैंने सूक्ष्म में बताया। जिस पर इन रत्नों, उपरत्नों, पत्थरों एवं मोहरों की छाया पड़ती है वह मनुष्य धन्य हो जाता है। विधि-विधान के अनुसार इनके पहनने खाने आदि से मनुष्य मृत्युलोक में भी स्वर्गतुल्य सुख प्राप्त करता है। स्वर्गलोक की विभिन्न चमत्कारी मणियों तथा पाताल-लोक की सर्पमणियों के सम्बन्ध में समस्त बातों का वर्णन करने के पश्चात महर्षि पराशर राजा अम्बरीष से कहते हैं-हे नरेश! अब मैं पृथ्वी पर पाये जाने वाले रत्नों तथा उसकी अन्य जातियों का वर्णन करता हूँ प्राचीनकाल में एक बलि नाम का राजा बहुत निर्दयी मायावी असुर था। वह देवताओं से द्वेष रखता था, इन्द्र का आसन हथियाने के लिये उसने सौ अश्वमेध यज्ञ किये। जब इन्द्र देव युद्ध में कई बार उनसे पराजित हुए तो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001749
Book TitleRatna Upratna Nag Nagina Sampurna Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKapil Mohan
PublisherRandhir Prakashan Haridwar
Publication Year2001
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Astrology, & Occult
File Size10 MB
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