SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 15
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ★ रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान* रुद्रमणि में तीन सफेद लकीरें जनेऊ के जैसी होती हैं। एक समय जब शिवपार्वती पर्वतों में विहार कर रहे थे, उस समय पार्वती ने अपने सब आभूषण उतारकर रख दिये। मेरु पर्वत पर शिव के यज्ञोपवीत की छाया पड़ी तो वह पर्वत तीन सूत्रों में बँध गया। यह सब प्रभु की माया थी। एक ही रंग के सफेद सूत्र में ब्रह्मा, विष्णु, महेश स्थित हैं। शिवजी ने वह माला अपने गले में डाल ली और हरि स्मरण के काम में लाये। यह मणि सभी प्रकार के सुख, सम्पत्ति और आनन्द देने वाली है। जिस स्थान पर लक्ष्मी हो वहाँ यह मणि गिर जाती है। उस स्थान जमीन के भीतर से स्वर्ण, चाँदी, रत्नों आदि की प्राप्ति होती है। यह मणि उसी को प्राप्त हो सकती है जिस पर भोलेनाथ कृपा कर दें और जो भाग्यशाली हों। नहीं तो इसके दर्शन भी दुर्लभ हैं। स्यमन्तकमणि-स्यमन्तकमणि चारों वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र) की नीले रंग वाली कुछ श्याम वर्ण लिये और इन्द्रधनुष के समान चमकदार होती है। यह इन्द्रलोक में अधिष्ठित है तथा सूर्यदेव इस मणि के स्वामी हैं। देवेन्द्र इस मणि को धारण किये हैं। श्रीमद्भागवत में वर्णित है कि सत्राजित ने सूर्य की उपासना कर उनके द्वारा यह मणि प्राप्त की है। सत्राजित के भाई प्रसेनजित ने उससे वह मणि ले ली। प्रसेनजित शेर के द्वारा मारा गया तत्पश्चात जाम्बवान शेर को मार कर गुफा में ले गया। श्री कृष्ण जी इस मणि के द्वारा कलंकित हुए और वे जाम्बवान की पुत्री जाम्बवती से विवाह करके उस मणि को दहेज में ले आये और सत्राजित को प्रदान की। जब श्रीकृष्ण का विवाह सत्यभामा के साथ हुआ तो पुन: वह मणि सत्राजित ने दहेज में श्रीकृष्ण को देनी चाही, परन्तु वह मणि श्रीकृष्णजी ने न लेकर सत्राजित को लौटा दी। सत्राजित जब हस्तिनापुर गया तो शतधन्वा ने उसे मारकर वह मणि प्राप्त कर ली। जब श्रीकृष्ण को इस बात का ज्ञात हुआ तो शतधन्वा ने अक्रूरजी को स्यमन्तकमणि दे दी। अक्रूरजी काशी में तीर्थयात्रा पर आये। वहीं पर श्रीकृष्णजी का भी आगमन हुआ तथा अक्रूरजी ने श्रीकृष्णजी से क्षमा माँगकर वह मणि उन्हें दे दी। इस मणि को श्रीकृष्णजी ने इन्द्र को दे दी, फिर इन्द्र ने इसे धारण कर लिया। इस मणि की प्रमुख विशेषता है कि यह प्रतिदिन स्वर्ण उगलती है और समस्त रोगों को हर लेती है। जो कोई भी इस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001749
Book TitleRatna Upratna Nag Nagina Sampurna Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKapil Mohan
PublisherRandhir Prakashan Haridwar
Publication Year2001
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Astrology, & Occult
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy