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THE FREE INDOLOGICAL
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-The TFIC Team.
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"पल्लीवाल जैन जाति का इतिहास"
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लेखक
डा. अनिल कुमार जैन एम.एस-सीपी एच. ससम्मान समीक्षार्थासम्मति हेतु मैट।
प्रकाशक
श्री पल्लीवाल इतिहास प्रकाशन समिति 332 स्कीम नं - 10, इलवर (राज.)
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प्रकाशके श्री महावीर प्रसाद जन
सयोजक -
श्री पल्लीवाल इतिहास प्रकाशक समिति,
332, स्कीम न - 10, अलवर- 301001 ( राजस्थान )
( सर्वाधिकार लेखक के प्राधीन सुरक्षिन)
प्रथम संस्करण - 1000
मूल्य - २० रुपये
प्राप्ति स्थान
निःशुरू क
(1) महावीर प्रसाद जैन
332 स्कीम न 10 अलवर - 301001 ( राजस्थान)
( 2 ) डा अनिल कुमार जैन एम एस सी पी एच डी 21 / 194 धलिया गज, आगरा ( उ प्र )
मुद्रक - राज फिन्टर्स, मनी का वड, अलवर
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Aadhaaratahatakshettratstitdasattakiatan
समर्पण
dehatesashabaddahatsataatasthansthassisatastestostsantdataatastratdehatsetdatest shi
पूज्य पिताजी श्री रामसिह जैन
को सादर समर्पित
-अनिल कुमार जैन
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पाकिस्तान
राजस्थान
गुजरात,
बताई
अरब PIDIT
'कायूसীद
हारेपा
अजमे
मैसूर
का म
श्र
महाराष्ट्र
भोपाल
आंध्र प्रदेश
मद्रास
लक
हिन्दू महा सागर
नेपाल
हिमालय पर्वत
उत्तर
A
भारत वन मे बल्ली पाल
H
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प्रदेश
लहार
+ +
11 #
+
नगाल
वर्तमान निराल
तौ संसारही जात
जनस पूर्ण
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साभ
लगान की गाडी
अडमन निकोबार
সদতन কর
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प्रकाशकीय
'पल्लीवाल जैन जाति का इतिहास' पुस्तक पाठको के हाथो मे देते हुए मुझे बहुत प्रसन्नता का अनुभव हो रहा है । पल्लीवाल जन जाति के निष्पक्ष इतिहास की बहुत समय से आवश्यकता महसूस की जा रही थी। इस कार्य को समाज के युवा विद्वान डा० अनिल कुमार जैन ने पूरा किया है। प्रत वे बधाई के पात्र हैं।
पल्लीवाल जाति का जैन जातियो मे प्रमुख स्थान है। यह एक ऐसी जाति है जिसके सभी सदस्य जैन धर्मानुयायी हैं। इस जाति ने अपने बहुत ही उतार-चढाव देखे है और समय-समय पर उसे अपने स्थान भी बदलने पडे हैं । इस कारण इसका इतिहास लिखना बडा ही श्रम साध्य था। पल्लीवाल जैन जाति के इतिहास लेखन के विगत 25-30 वर्षों में लगातार प्रयत्न किये जा रहे थे। कुछ वर्ष पूर्व इस जाति का एक इतिहास भरतपुर से भी प्रकाशित हुआ था, किन्तु उसमे जाति के इतिहास को सही रूप मे प्रस्तुत नहीं किया जा सका। मेरी भी इतिहास पढने एवम् लिखने मे विशेष रुचि रही है । मै भी इसलिए इतिहास लेखन के कार्य को सन् 1981 से कुछ-कुछ कर रहा था। किन्तु जब मुझे पता चला कि डा० अनिल कुमार जैन, जो स्वय पल्लीवाल जाति के है इस कार्य को कर रहे है अत मैंने यह कार्य
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(F)
उन पर ही छोड दिया। उनसे बात करने पर पता चला कि वे इसमे 1978 से लगे हुए हैं। अब 1988 में यह कार्य पूरा किया गया है । मुझे इसकी अतीव प्रसन्नता है कि इनका यह कार्य 10 वर्ष मे ही सही लेकिन अब पूरा हो गया ।
जहाँ तक मेरी जानकारी है पल्लीवाल जाति का सम्बन्ध कुछ किम्वदन्तियो के आधार पर पाली से माना जाने लगा था । किन्तु इतिहास ने इस मान्यता को गलत सिद्ध कर दिया है । " दक्षिण भारत मे जैन धर्म" नामक अपनी पुस्तक मे प० कैलाश चन्द्र जी सिद्धान्त शास्त्री ने पृष्ठ 46 पर लिखा है, " तामिल देश के शिलालेखो में प्राय' पल्ली चदम शब्द मिलता है। श्री वी पी देसाई ने लिखा है कि पल्ली शब्द जैन मन्दिर या जैन मठ या जंन सस्था का सूचक है । और चान्दम का सरल रूप चन्दम् है । यह संस्कृत के स्वतन्त्र शब्द से बना है प्रत पल्लीचन्दम् का अर्थ होता है - जिस पर केवल जैन मन्दिर वैगरह् का स्वामित्व हो । जैसे जमीन, गाँव वगैरह ।"
उन्होंने यह भी सिद्ध कर दिया है कि पल्ली तामिल भाषा के शब्द कोष में उनको कहते थे कि जो जैनो ने जंगल काट कर पहाडी की जड में छोटे गाँव बसाये थे। वैसे भी पल्ली शब्द तामिल भाषा का ही है । प्रस्तुत इतिहास में इन पल्लियो से ही पल्लीवालो की उत्पत्ति सिद्ध की गई है । इसके बाद बौद्धो शैवो ने राजनीति से प्रेरित होकर इन लोगो पर अत्याचार किए। ऐसी बहुत सी कैफियत मिलती हैं जिनसे यह सिद्ध हो गया है कि जैनो पर अमानुषिक अत्याचार किए गये तथा उन्हें अनेक प्रकार से तंग किया जाने लगा । अत वहाँ से उन्होने अपना स्थान छोडना ही उचित समझा तथा आध्र, गुजरात, महाराष्ट्र, मध्य भारत, उत्तर प्रदेश व राजस्थान मे ग्राकर बस गये। जैसा कि नक्शे में अकित किया गया है ।
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(G)
प्रस्तुत इतिहास में पल्लीवालो के विशिष्ठ व्यक्तियो का तथा स्वतन्त्रता सेनानियो के परिचय भी दिये गये हैं। इससे यह प्रस्तुत इतिहास वर्तमान समाज से भी जुड़ गया है। और यह अधिक महत्वपूर्ण हो गया है ।
मुझे यह पूर्ण विश्वास है कि यह इतिहास का सही चित्र प्रस्तुत करेगा, जिसको पढकर समाज में एक नया विश्वास जागृत होगा तथा वे एक जुट होकर धर्म, समाज एवम् अन्य सभी कार्यों मे आगे बढेगे तथा अपने गौरव में और भी वृद्धि करेगे और पल्लीवाल जाति को सही दिशा प्रदान करेगे तथा जाति के संगठन को मजबूत करेगे।
इतिहास के प्रकाशन के लिए गत दीपावली (दि 22 अक्टूबर 1987) को 'श्री पल्लीवाल जैन इतिहास प्रकाश समिति' का गठन करने का निश्चय किया गया, जिसमे कुल 7 सदस्य रम्बे गये, जो निम्न है -
(1) श्री महावीर प्रसाद अलवर (2) श्री गुलजारीलाल जी जैन अलवर (3) श्री सुमेरचन्द जी 'भगत' आगरा (4) श्री बृजेन्द्र कुमार जैन आगरा (5) श्री हुकमचन्द्र जी एडवोकेट फिरोजाबाद (आगरा) (6) श्री सुरेन्द्र कुमार जी जैन फरीदाबाद (हरियाणा) (7) छगनलाल जी जैन पाल बीसला अजमेर
प्रस्तुत प्रकाशन के लिए जिन 2 साथियो ने समिति को मार्थिक सहयोग एव अपना अमूल्य समय दिया उनके लिए मैं समिति की ओर से प्रति आभारी हूँ। सबसे प्रसन्नता की बात तो यह है कि इस सम्बन्ध मे हमे जब प्रागरा, फिरोजाबाद, फरीदाबाद, अलवर या जहाँ भी गये समाज के सदस्यो ने खुले हृदय से आर्थिक सहयोग देकर हमारे कार्य को सरल कर दिया
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(H)
और जरा भी कठिनाई नही पाई। कुछ सज्जनो को तो जब यह पता चला कि पल्लीवाल जाति के इतिहास के प्रकाशन के बारे में चन्दा हो रहा है तो वे स्वयम् चल कर हमारे बिना कहे ही चन्दा दे गये। यह स्पष्ट रूप से इस बात का द्योतक है कि समाज इतिहास को कितना महत्व दे रहा है ।
हम इतिहास लेखक डा अनिल कुमार के अत्यधिक आभारी हैं जिन्होने लगातार 10 वर्ष तक इतिहास लेखन में कठोर श्रम करके उमे मूर्त रूप दिया है तथा पल्लीवाल जैन जाति के विकास एव योगदान पर बहुत ही मार्मिक रीति से प्रकाश डाला है । आशा है वे भविष्य में इसी तरह अपने लेखन कार्य में आगे बढते रहेगे । देश एवम् समाज को उनसे बहुत प्राशाएँ है।
हम देश व समाज के जाने माने विद्वान डा० कस्तूर चन्द कासलीवाल के भी बहुत प्राभारी है जिन्होने समस्त इतिहास लेखन मे डा० अनिल कुमार जैन को समय-समय पर अपना मार्ग दर्शन दिया है तथा अपनी महत्वपूर्ण भूमिका लिखकर इतिहास की गरिमा बढाई है।
अन्त मे हम उन सभी महानुभावो के आभारी हैं जिन्होने हमे आर्थिक सहयोग प्रदान किया है। इतिहास प्रकाशन मे जिस किसी बन्धु ने भी प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से जो भी अन्य सहयोग प्रदान किए हैं उनके प्रति भी हम अपना आभार व्यक्त करते है । दि. 31-5-88
भवदीय महाबोर प्रसाद जेन सेवा मुक्त पुलिस उप-निरीक्षक
सयोजक 'श्री पल्लीवाल इतिहास प्रकाशन समिति 332 स्कीम न० 10, अलवर (राजस्थान)
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प्रस्तुत पुस्तक के प्रकाशन हेतु आर्थिक सहायता प्रदान करने वाले महानुभावों की सूची
अलवर
1 श्री पवन कुमार जैन मै० कोटसन्स इलेट्रिकल्स प्रा० लि० F - 182 MIA अलवर फो० 22416
2 श्री फूलचन्द जी जैन, जैन बुक डिपो, होप सरकस
Rs 501-00
देहली दरवाजा, अलवर
5 श्री महावीर प्रसाद जी जितेन्द्र कुमार जी जैन 455 लाजपत नगर फो० 229907
अलवर
3 श्री महावीर प्रसाद जैन एडवोकेट (संथली बाले) 255 आर्य नगर, अलवर
4 श्री छगनलाल जी जैन ( बडेर वाले)
6 श्री गुलजारीलाल जी प्रमोद कुमार जी जैन 5, विकास पथ. फोन 21333
7 श्री महावीर प्रसाद प्रमोद कुमार जैन 332 स्कीम न० 10 अलवर
Rs 500-00
Rs 151-00
Rs 101-00
Rs 101-00
Rs 101-00
Rs 101-00
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8 श्री शिवदयाल जी हुकमचन्द्र जी जैन केडल गज अलवर फो० 20580
Rs 101-00 9 श्री रामलाल जी मडावर वाले c/o राकेश एजेन्सीज मुन्शी बाजार, अलवर
Rs. 101-00 10 श्री नरेन्द्र कुमार दीपचन्द्र जैन
4-ग-18 हाउसिग बोर्ड मनु मार्ग अलवर Rs 101-00 11 श्री नेमीचन्द विजय कुमार जैन (वृन्दावन वाले) दाऊदपुर, अलवर
Rs 101-00 12 श्री हजारीलाल जी अनन्त कुमार जी जैन
(बडेर वाले) काला कुत्रा, हाऊसिंग बोर्ड अलवर Rs. 101-00 13 श्री शान्तिस्वरूप रोहिताश कुमार जैन
दीवान जी का बाग अलवर फो० 21043 Rs 101-00 14 श्री चाँदकुमार जी जैन 122 आर्य नगर, अलवर Rs 101-00 15 श्री कुशल कुमार जी (डीग वाले) जैन मैडिकल्स
सिविल लाइन अलवर फो० 22318 Rs. 101-00 16 श्री दीपचन्द जी जैन मुन्शी बाग अलवर फो० 21753
Rs 101-00 17 श्री हीरालाल जी राकेश कुमार जी (रामगढ वाले)
सिविल लाइन्स अलवर फो० 22318 Rs 101-00 18 श्री मोहरचन्द जी कमलेश कुमार जो जैन 3 सिविल लाइन अलवर
Rs. 101-00
फरीदाबाद (हरियाणा)
Rs 251-00
1 श्री सुरेन्द्रकुमार अशोक कुमार
फरीदाबाद (हरियाणा) 2, श्री महेशकुमार अक्षय कुमार फरीदाबाद (हरियाणा)
Rs 251-00
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(K)
3 श्री प्रेमचन्द जी शिखर चन्द जी फरीदाबाद (हरियाणा)
Rs 101-00 4 श्री सुरेन्द्र कुमार जैन शैलेश कुमार 861/14 फरीदाबाद (हरियाणा)
Rs 101-00 5 श्री महेन्द्र कुमार जैन 1221/1 फरीदाबाद (हरियाणा)
Rs. 101-00 6 श्री बाबूलाल जी राकेश कुमार जी फरीदाबाद (हरियाणा)
Rs 101-00 फिरोजाबाद (मागरा) 1 श्री कपूरचन्द विमल चन्द फिरोजाबाद (आगरा)Rs 251-00 2 श्री उपेन्द्र कुमार जैन छोटी चपेटी फिरोजाबाद (आगरा)
Rs. 250-00 3 श्री रणजीत प्रसाद पुष्पेन्द्र कुमार फिरोजाबाद (आगरा)
Rs 291-00 4 श्री कन्हैयालाल नवीन चन्द्र जैन नगर देडा फिरोजाबाद (प्रागरा)
Rs. 201-00 5 श्री अमीरचन्द जी जैन कपडे वाले नई बस्ती फिरोजाबाद (आगरा)
Rs 151-00 6 श्री हुकम चन्द जी लक्ष्मी नरायण जी दुर्गा नगर फिरोजाबाद (आगरा)
Rs 101-00 7 श्री गोपाल प्रसाद जैन कपडे वाले जलेसर रोड Rs 51-00 8 श्री प्यारेलाल जी शतीश चन्द्र जी(महावीर जी वाले) मोहन नगर जलेसर रोड फिरोजाबाद (ग्रागरा)Rs 251-00
प्रागरा 1 श्री हरिश्चन्द्र जी अशोक कुमार जी जैन रग वाले
20/104 ड्योडी बेगम धूलिया गज आगरा Rs 500-00
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(L)
2 श्री हरिश्चन्द्र राकेश कुमार जैन अंगूठी वाले ___ जयपुर हाउस, आगरा
Rs. 201-00 3 श्री सुरेशचन्द्र अनिल कुमार बारोलिया कमला नगर, आगरा
Rs 100-00 4 श्री बृजेन्द्रकुमार हेमन्त कुमार जैन ड्योडी बेगम, आगरा
Rs. 100.00 b, श्री सुमेरचन्द्र मुकेश कुमार जैन 'भगत' ड़योडी बेगम आगरा
Rs 101-00 6 श्री मोहनलाल नूतन कुमार जैन धूलिया गज, आगरा
Rs 101-00 7 श्री अमीरचन्द रिखबचन्द बजाज बेलन गज, पागरा
Rs 101-00 8 श्री धर्मपाल पवन कुमार जैन गुदडी मसूर खॉ आगरा
Rs 101-00 9 श्री महावीर प्रसाद पवन कुमार जैन सकतपुर वाले धूलिया गज, आगरा
Rs. 101 00 10 श्री कपूरचन्द्र महावीर प्रसाद जैन लोहा मडी, आगरा
Rs 201-00 11 श्री सुरेश चन्द्र देवेन्द्र कुमार जैन लोहा मटा, आगरा
Rs 101-00 12 श्री ओमप्रकाश शशिकुमार जैन लोहा मडी, आगरा
R, 101-00 13 श्री बगालीमल मगन कुमार जैन लोहा मडी, आगरा
Rs 101-00 14 श्री स्वरूप चन्द्र काली चरण मैन रूई मडी शाहंगज, प्रागरा
Rs 101-60
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Rs 100-00
Rs 100-00
15 श्री सुभाष चन्द्र रमेशचन्द जैन
ड्योडी बेगम. आगरा 16 श्री लक्ष्मीचन्द्र ध्र पद कुमार जैन
धूलिया गज, आगरा 17 श्री ज्ञानचन्द्र पवन कुमार चूने वाले धूलिया गज, आगरा
सीकर । श्री के सी जैन
Rs 100-00
Rs, 201-00
1 श्री जगदीश चन्द्र शीतल प्रसाद जी
M/s विजय स्टील कोरपोरेशन बम्बई
Rs 501-00
अजमेर
1 श्री कपूर चन्द्र हरणचन्द्र जी s/o स्व श्री चाँदमल जी ____ आर्य नगर, अजमेर
Rs 50 -00 2 धो फलचन्द सुधीर कुमार पल्लीवाल ____483 कोकिल कुञ्ज पाल बीसला अजमेर Rs 101-00 3 श्री प्रेम चन्द्र महावीर प्रसाद आर्य नगर अजमेर Rs 101-00 4 श्री मास्टर सुमेरचन्द्र अमृश कुमार जैन अजमेर Rs 101-00 5 श्री लक्ष्मीचन्द प्रदीप कुमार लोकर्स गज आर्य नगर, अजमेर
Rs 101-00 6 श्री पदम चन्द S/o स्व० मानक चन्द जैन पाल बीसला अजमेर
Rs 101-00 7 श्री प्रकाशचन्द महेशचन्द जैन 4 4 पाल बीसला अजमेर
Rs 10 -00 8 श्री भागचन्द जी वकील अशोक कुमार जैन मार्य नगर, अजमेर
Rs 61-00 9 श्री छगनलाल जी जैन पाल बीसला, अजमेर Rs. 101-00
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(N)
बल्लभगढ़ (हरियाणा)
1 श्री सुरेशचन्द्र विनोदकुमार जैन
देहली
Rs 500-00
1 श्री प्रभूदयाल प्रेमचन्द जैन डिप्टी गज देहली Rs 500-00
2 गुप्त दान देहली
Rs 500-00
3 प्रेम शकर विजेन्द्र कुमार जैन नई देहली
पहाड गज,
4 श्री पदमचन्द अतुल कुमार जैन पहाड गज नई देहली
Rs 100-00
Rs 100-00
कुल योग Rs 11052-00
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लेखक की ओर से मेरे द्वारा पल्लीवाल जैन जाति का इतिहास लिखे जाने का यह प्रयास प्रथम नही है। इससे पहले भी इस जाति का इतिहास लिखा जा चुका है। सन् 1922-23 मे 'लघु पल्लीवाल इतिहास' सतना (रीवा) से प्रकाशित हुया था। सन् 1963 (वि० सं० 2019) मे 'पल्लीवाल जैन इतिहास' (लेखक-श्री दौलत सिह लोढा) का प्रकाशन भरतपुर (राजस्थान) से हुआ था। भरतपुर से प्रकाशित इतिहास काफी विवादास्पद रहा है। इसके सम्बन्ध मे श्री अमर चन्द जी नाहटा लिखते है-'पल्लीवाल जाति के लोग जैन धर्म के श्वेताम्बर तथा दिगम्बर दोनो सम्प्रदायो को मानने वाले है। भरतपुर के स्वर्गीय नन्दनलाल जी पल्लीवाल ने मेरे को पल्लीवाल जाति का इतिहास तैयार करने के लिये बहुत जोर दिया तो मैने अपने निर्देशन मे स्व० दौलतसिह लोढा 'अरविन्द' से पल्लीवाल जाति का इतिहास तैयार करवाया। उसमे श्वेताम्बर प्रतिमा लेखो, प्रशस्तियो, ग्रन्थो आदि का विशेष आधार लिया गया था। आवश्यकता थी दिगम्बर सम्प्रदाय की सामग्री का भी वैसा ही उपयोग करके उस इतिहास की पूर्ति करने की। पर खेद है उसके बाद इसमे कोई प्रगति नही हुई। __उस इतिहास मे और भी कई कमियाँ थी। उसे लिखने में श्री कजोडीलाल 'राय' से प्राप्त हस्तलिखित 'प्रार्थना-पुस्तक' का विशेष आधार लिया गया था, लेकिन इस पुस्तक की भी कई बातो को छोड दिया गया, अन्यथा यह इतिहास उतना
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(२)
श्रुटिपूर्ण तथा विवादास्पद न रहा होता । इन सब कारणो से ही परलीवाल जाति के इस इतिहास को लिखने की प्रेरणा मिली।
दिगम्बर प्राम्नाय में ऐसी मान्यता है कि प्राचार्य कुन्दकुन्द जो कि वि० स० 49 में हुए थे, पल्लीवाल जात्युत्पन्न थे। पूज्य पिताजी मा० रामसिह जैन को प्रेरणा से लिखा 'भगवान कुन्दकन्दाचार्य' नामक मेग एक लेख 'पल्लीवाल जैन पत्रिका' (फरवरी सन् 1978) में प्रकाशित हुआ था। इस लेख में मैंने प्राचार्य कुन्दकुन्द को पल्लीवाल जाति का बताया था। इस लेख को लेकर बडा विवाद हुआ। उसे पढकर आगरा के वयोवृद्ध श्री श्यामलाल जी वारौलिया ने मुझे पल्लीवाल जाति का इतिहास नये सिरे से लिखने के लिए प्रेरित किया।
मेरे उक्त लेख के प्रकाशित होने के दो माह बाद ही मेरे पिताजी का दि० 28 अप्रैल सन् 1978 को देहान्त हो गया। तब मेरे सामने प्रश्न था कि अब मै किससे मार्ग दर्शन प्राप्त करूं । अन्त में मैने पल्लीवाल जाति के इतिहास की सामग्री के सकलन का कार्य प्रारम्भ कर दिया। समय-समय पर श्री वारौलिया जी मुझे इस कार्य के लिए बढावा देते रहे। इसके परिणाम स्वरूप कुछ समय मे ही काफी मामग्री एकत्रित हो गई। मै इतिहास लिखने का कार्य प्रारम्भ करने ही वाला था कि सन् 1982 मे श्री वारौलिया जी का निधन हो गया। अब मुझे प्रेरणा देने वाला कोई भी नहीं था, लेकिन इस समय तक इतिहास को लिखने की पूरी-पूरी रुचि मुझमे जाग्रत हो चुकी थी। फलत मै इस इतिहास को लिख सका हूँ।
वैसे तो इतिहास कभी पूरा नही हो पाता है। यह निरन्तर गहन खोज का विषय है, जितना खोजेगे उतने ही नये-नये तथ्य सामने आयेगे। अव तक मुझे पल्लीवाल जाति से सम्बन्धित जितनी भी सामग्री मिली है उसका मैंने यथासम्भव पूरा-पूरा उपयोग किया है। इसके वावजूद भी कही कोई त्रुटि रह गई हो
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(Q)
तो प्रबुद्ध पाठक उसे प्रकाश में लाये, जिससे उसका उपयोग भगले सस्करण में किया जा सके ।
मैं जैन समाज के दो महान् इतिहासज्ञ - डा० कस्तूरचन्द जी कासलीवाल, जयपुर तथा डा० ज्योति प्रसाद जी जैन, लखनऊ का बहुत-बहुत प्रभारी हूँ जिन्होने मुझे समय-समय पर बहुमूल्य मार्ग दर्शन प्रदान किया ।
डा० कासलीवाल जी की मुझ पर विशेष कृपा रही है । उन्होने अनेक व्यस्तताओं के बावजूद भी मुझे अपना बहुमूल्य समय दिया । जब भी मैं आपसे मिलने गया, आपने बहुत प्रसन्नता के साथ विचार-विमर्श किया तथा अपने सुझाव दिये । आप मुझे निरतर प्रोत्साहित करते रहे। आपन "दो शब्द लिखकर प्रस्तुत इतिहास को न सिर्फ मान्यता ही प्रदान की है, बल्कि इसके महत्व को भी दुगुना कर दिया है । इस सबके लिए मैं आपका सदा ऋणी रहूँगा ।
मैं उन सभी महानुभावो का आभारी हूँ जिन्होने मुझे सामग्री एकत्रित करने व सजाने में परामर्श व सहयोग दिया है, विशेष रूप से मै आगरा के वयोवृद्ध बाबू प्रतापचंद जी जैन तथा अलवर के रिटायर्ड थानेदार श्री महावीर प्रसाद जी जैन का आभारी हूँ ।
मैं 'स्वावलम्बी कॉलेज प्रॉफ एज्यूकेशन, वर्धा' के प्राचार्य श्री विद्याधर जी उमाठे का बहुत आभारी हूँ जिन्होने मुझे नागपुर क्षेत्र के पल्लीवालो के बारे मे विस्तृत जानकारी प्रदान की। मैं श्री स्वरूपचन्द जी जैन तथा श्री मनोहरलाल जी जैन (आगरा ) का आभारी हूँ जिन्होने मुझे कचौडाघाट के पल्लीवालो के बारे मे जानकारी दी तथा श्री रामजीत जैन एडवोकेट (ग्वालियर ) का प्रभारी हूँ जिन्होने मुझे सौरीपुर से प्राप्त प्राचार्य पट्टावली के बारे मे जानकारी दी। इस इतिहास को लिखने मे जिन महा
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(R) नुभावो को पुस्तको/लेखो की सहायता ली है, उनका भी मैं बहुत आभारी हूँ।
प्रस्तुत इतिहास के प्रकाशन मे स्वाध्याय प्रेमी प्रमुख सामाजिक कार्यकर्ता श्री महावीर प्रसाद जी जैन (रिटायर्ड थानेदार, अलवर) की प्रमुख भूमिका रही है। उनके अथक परिश्रम के फलस्वरूप बहुत थोडे समय मे ही इसका प्रकाशन सम्भव हो सका है। बृद्धावस्था के वावजूद भी उन्होने अलवर, जयपुर, दिल्ली, फरीदाबाद, आगरा तथा फिरोजाबाद मे स्वय जाकर विभिन्न महानुभावो से सम्पर्क किया। उन्होने इतिहास के प्रति लोगो मे रुचि पैदा की तथा प्रकाशन के लिए आवश्यक धन एकत्रित किया। उनके इस कार्य के लिए भो मै उनका बहुत आभारी हूँ।
स्व० श्री अगर चन्द जी नाहटा के निम्न शब्दो के साथ मै अपना निवेदन समाप्त करता हूँ--
'अपने पूर्वजो के गौरव से हमे बहुत प्ररणा मिलती है। हमे उनका अनुसरण करते हुए कुछ विशेष कार्य करने चाहिए तथा उन्होन अपना जो गोरव स्थापित किया ह उसमे कमी नही आने देना चाहिए। कोई बरा या गलत कार्य हममे ऐमा न हो जाय कि पुर्खाग्रो के मुयश को बट्टा लगे । इस तरह की प्रेरणा जातीय इतिहास से मिलती रहती है । अत उसकी खोज करके प्रकाश मे लाने का प्रयत्न अवश्य करना चाहिए।' मूल निवासी
-डॉ० अनिल कुमार जैन (21/194, लिया गज, सहायक निदेशक आगरा-282003 ( उ० प्र०)। तेल एव प्राकृतिक गैस आयोग दि. 24 फरवरी 1983) अकलेश्वर 313010
(गुजरात)
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प्रस्तावना
जैन समाज विभिन्न जातियो एव उपजातियो मे विभक्त है । सभी जातियो का अपना अपना गौरव पूर्ण इतिहास है लेकिन इतिहास के प्रति हमारी सदैव उपेक्षावृत्ति रही हमने समाज की प्रमुख घटनाग्रो का विवरण न तो कभी लिखा और यदि कदाचित् किसी ने लिख भी दिया तो उसे सजो कर नही रखा। यही कारण है कि हमारे तीर्थों, प्राचार्यों एव समाज के महान् निर्माताप्रो का कोई इतिवृत्त नही मिलता और जब कभी उसकी आवश्यकता पडती है तो हमे उसे सामाजिक रूप से प्रस्तुत करने मे पर्याप्त कठिनाई का सामना करना पडता है।
लेकिन मुझे यह लिखते हुए प्रसन्नता है कि जैन समाज को विभिन्न जातियो का इतिहास लिखने की ओर रुचि जागृत हो रही है। खण्डेलवाल जैन समाज का वृद्ध इतिहास तैयार हो रहा है । अभी वरैया समाज का इतिहास प्रकाशित हुआ है और जैसवाल जैन समाज का इतिहास भी प्रकाशित हो चुका है । पल्लीवाल जैन समाज का इतिहास पाठको के हाथो मे पा चुका है। जिसका हमे स्वागत करना चाहिये।
दिगम्बर जैन समाज 84 जातियो मे विभक्त है ऐसा माना जाता है लेकिन वास्तव मे समाज मे कभी 24 वर्ष की अधिक जातियाँ मिलती थी। वर्तमान समाज मे इनमे कितनी जातिया
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(T) अवाशिष्ट है इसकी कोई प्रमानिक जानकारी नहीं मिलती लेकिन जहाँ तक मुझे जानकारी है कि वर्तमान मे भी 50 से भी अधिक जातिया मिलती है जो समाज की विभिन्न गतिविधियो मे भाग लेती रहती है।
पल्लीवाल जैन जाति भी इन्ही 84 जातियो मे गिनी जाती है और 84 जातियो का नामोल्लेख करने वाले सभी लेखको ने पल्लीवाल जाति का उल्लेख किया है । यह जाति वर्तमान मे प्रमुख रूप से राजस्थान, उनर प्रदेश, मध्य प्रदेश एव महाराष्ट्र प्रान्त मे मिलती है । जयपुर के प० बख्तराम साह ने अपने बुद्धि विलास में इन जातियो को साप कहा है और उनकी उत्पत्ति के सम्बन्ध मे निम्न कारण लिखा है--
आग तो श्रावक सबै, एकमेक ही होत । लगे चलन विपरीत तब। थरपे खाय रू गोत ।।68।। बख्त राम ने इनही साप और गोत्रो की उत्पति ग्राम और नगर के नाम से होना लिखा है। कवि ने जाति को स्वय लिखा है-- ___चर्या वहै तारे स्वय ए, ग्राम नगर के नाम
इमी कवि ने पल्लीवाल जाति को प्रथम 32 जातियो मे गिनाया है। उक्त वर्णन से हमे दो प्रश्नो का उत्तर मिलता है। प्रथम जातियो की उत्पत्ति भगवान महावीर के निर्माण के बाद हुई और उनमा नामकरण किसी नगर एवं ग्राम के नाम पर हुआ । जैसे ग्व डेला के ग्वाडेलवाल, अग्रोहा मे अग्रवाल, बघग से बघेरवाल आदि । और इसी आधार पर पालो से पालीवाल जाति की उत्पति मान ली गयी। लेकिन प्रस्तुत इतिहास मे बिद्वान लेखक ने अपना भिन्न मत व्यक्त किया है कि पल्लीवाल जाति की उत्पति उत्तर भारत के पाली नगर से न होकर दक्षिण भारत
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(U) के पल्ली नगर से हुई। लेखक ने अपने मत के पक्ष मे जो तर्क प्रस्तुत किये हैं वे विश्वनीय लगते हैं। यह सही भी है कि यदि पाली नगर से पल्लीवाल जाति की उत्पत्ति हुई होती तो वह पालीवाल कहलाती पल्लीवाल, नही, क्योकि 'मा' के स्थान पर 'अ' के प्रयोग का कोई औचित्य नही लगता तथा 'ली के स्थान पर 'ल्ली' का प्रयोग भी शब्दो के सरलीकरण के विरुद्ध है। लेकिन प्रश्न यह है कि पल्लीवाल जाति के अधिकाश परिवार उत्तर भारत मे ही क्यो मिलते हैं । उसके सम्बन्ध मे भी लेखक ने खोज को है और उसी आधार पर पल्लीवाल जाति का दक्षिण भारत से पलायन होना मालूम होता है । फिर भी इस सम्बन्ध में पर्याप्त खाज की अावश्यकता है।
पल्लीवाल जैन जाति मूलत दिगम्बर जैन जाति ही रही है। अब तक जितनी भी सामग्री प्राप्त हुई है वह इसे दिगम्बर ही सिद्ध करती है । लेखक ने आचार्य कुन्दकुन्द को पल्लीवाल जाति का सिद्ध करके हमारे इस कथन की पुष्टि का है कि पल्लीवाल जैन जाति मलत दिगम्बर जैन धर्मानुयायी हो रही है। वर्तमान में भो पल्लीवाल जैन जाति के जितने परिवार है उनमे अधिकाश दिगम्बर जैन धर्मानुयायी ही है। यही स्थिति मन्दिरो की रही है ।
इस जाति मे कितने ही कवि एव थेष्ठि हुये है। 12 वी शताब्दी मे धनपाल कवि ह्ये, जिन्होने तिलक मजरीके आधार से तिलक मजरी कथा सारनामक ग्रंथ लिखा था। कवि पल्लीवाल दिगम्बर जैन धर्मानुयायी थे। सवत् 1505 मे पल्लीवाल ज्ञातीय स. रामा भार्या रानी सुत पारिसा भार्या हर्ष ने मिल कर एक प्रतिमा की स्थापना की थी, ऐसा उल्लेख मिलता है। इसी तरह शक सवत् 1519 मे भी पल्लीवाल ज्ञातीय स० वायासा एव उसके परिवार ने प्रतिष्ठा में भाग लिया था।
__18 वी शताब्दी मे होने वाले कवि मनरगलाल के नाम से सभी परिचित होगे। ये कन्नौज के रहने वाले थे तथा इन्होने कितने ही ग्रथो की रचना की थी। 19 वी शताब्दी मे होने वाले कविवर दौलतराम के भक्ति एव अध्यात्म से प्रोत-प्रोत हिन्दी पदो एव छहढाला का किसने स्वाध्याय नहीं किया होगा। ये 1 जैन साहित्य और इतिहास-पृष्ट सल्या 469
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(v)
सभी पल्लीवाल दिगम्बर जैन धर्मानुयायी थे। इस प्रकार पल्लीवाल जैन समाज का साहित्यिक एवं धार्मिक योगदान अत्यधिक महत्वपूर्ण रहा है।
प्रस्तुत इतिहास में लेखक ने पल्लीवाल जाति में होने वाले विशिष्ट सज्जनो का भी परिचय दिया है जिनमे कितने ही 20 वी शताब्दी में भी है। इस प्रकार प्रस्तुत इतिहास को अतीत का ही न रखकर बर्तमान से भी जोड कर इसे मचिकर बना दिया है । वास्तव में व्यक्तियो का समूह ही समाज है और उनका इतिहास ही समाज का इतिहास है।
इतिहास लेखक डा० अनिल कुमार जैन एक युवा विद्वान् है। इतिहास में उनकी पूरी रुचि है। वे स्वय पल्लीवाल जैन है और उन्होने अपनो ही जाति का इतिहास लिख कर एक बहुत बडे अभाव की पूर्ति की है। इतिहास लिखने में उन्होने पर्याप्त श्रम किया है तथा इसे अत्यधिक प्रामाणिक बनाने का प्रयास किया है। मै डा० जैन का एव उनकी कृति दोनो का हृदय से स्वागत करता है। प्राशा है वे अपने लेखन कार्य मे आगे बढ़ते रहेगे और अब तक अचचित एव अज्ञात सामग्री को प्रस्तुत करते रहेगे।
अन्त मे मै पल्लोवाल दि० जैन समाज अलवर को एव श्री महाबीर प्रमाद जी जैन, 'सयोजक पत्लीवाल इतिहास समिति' को भी हार्दिक धन्यवाद देता हूँ जिन्होने डा. जैन द्वारा लिखित अपने ही समाज का इतिहास प्रकाशित करने का प्रशसनीय कार्य किया है । डा० जैन इतिहास प्रकाशन के कार्य के लिये बहुत प्रयत्नशील थे। इसलिये समाज के सबल से उनके कार्य को भी प्रोत्साहन मिला है। इससे दूसरी जैन जातियो को भी अपने समाज के इतिहास लेखन एव प्रकाशन की प्रेरणा मिलेगी।
निर्देशक-महावीर ग्रथ अकादमी डा. कस्तुर चन्द कासलीवाल 867 अमा कलश किमान माग, वरवन नगर टोक फाटक, जयपुर महावीर जयन्ती दि० 31 मार्च 1988
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विषय-सूची
प्रकाशकीय लेखक की ओर से
प्रस्तावना
अध्याय विषय
पृष्ठाक (1) जातियाँ . एक ऐतिहासिक दृष्टि
1-5 (11) जातियो का उद्गम (12) जातियो की उत्पत्ति का समय (13) जैन साहित्य मे जाति का सबसे पहला उल्लेख 5 (2) पल्लीवाल जाति की उत्पत्ति एवं विकास
6-29 (2 1) प्रचलित मान्यताये (22) पल्लीवाल-गच्छ (23) पाली और पल्लीवाल (24) पालीवाल तथा पल्लीवाल (25) पल्लीवाल जाति की उत्पत्ति (26) पल्लीवाल जाति का विकास (2 7) पल्लीवाल जाति के गोत्र (3) पल्लीवाल जाति के ऐतिहासिक प्रसग 30-52 (3 1) श्री कुन्दकुन्दाचार्य (32) हेमाचार्य पल्लीवाल जाति के संस्थापक (33) पल्लव वश तथा पल्लीवाल जाति (34) पल्ली तथा पल्लीचन्दम् (35) चन्द्रवाड ओर राजा चन्द्रपाल (3 6) क्या पल्लीवाल क्षत्रिय थे? (37) महत्वपूर्ण लेख तथा मूर्तिलेख
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(4) समाज - दर्शन
(41) चौरासी जातियो एव साढे बारह प्रकार की 53 जातियो मे पल्लीवाल जाति का स्थान
( 42 ) कचौडाघाट के पल्लीवाल
(43) नागपुर क्षेत्र के पल्लीवाल
(44) पल्लीवाल जाति की सामाजिक तथा आर्थिक स्थिति
(45) धार्मिक क्षेत्र में पल्लीवाल
(46) पल्लीवालो द्वारा निर्मित जैन मन्दिर ( 47 ) धूलियागज, आगरा स्थित दिगम्बर जैन मन्दिर तथा आध्यात्मिक शैली
(48) साहित्यिक क्षेत्र मे पल्लीवाल जाति का
योगदान
(49) शिक्षा का प्रचार-प्रसार ( 410 ) रीति-रिवाज
(411) जातीय सभाये / सस्थाय ( 412 ) पत्रकारिता
(6) भारत के स्वतन्त्रता प्रान्दोलन मे पल्लीवाल जाति का योगदान
(7) परिशिष्ट
(1) पल्लीवाल शब्द ( 2 ) पालीवाल ब्राह्मण
( 8 ) सदर्भ - सूची
एक दृष्टि
58
60
64
66
69
72
(413) जनगणना
(414) इतिहास - लेखन
(415) शिक्षण सस्थाये, धर्मशालायें तथा आपधालय आदि
(5) पल्लीवाल जाति के विशिष्ट व्यक्तियों का सक्षिप्त
परिचय
71
2 x 23
80
53-83
81
82
83
رة
76
79
84-134
135
145
153-155
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प्रथम-अध्याय
जातियां . एक ऐतिहासिक दृष्टि
[१.१] जातियो का उद्गम ____चतुर्थ काल से पहले भोगभूमि मे मनुष्य जाति एक ही थी। इसके बाद भगवान ऋषभदेव ने वर्ण-व्यवस्था की स्थापना की। 'प्रादि-पुराण' मे ऐसा वर्णन आता है कि भोगभूमि की रचना के ममाप्त होने पर ऋषभदेव ने जन्म लिया जो प्रथम सम्राट एव तोर्थकर हुए । उन्होने कर्म-भूमि की रचना करके छह आजीविका के माधन बताये, वे है-असि, मसि, कृषि, शिल्प, वाणिज्य और विद्या । समाज व्यवस्था को सुचारु रूप से चलाने के लिए उन्होने तीन वर्णो-क्षत्रिय, वैश्य तथा शद्र की स्थापना की। ऐसा वर्गीकरण मनुष्यो की योग्यता, व्यवहार, जीविका एव कार्यो के आधार पर किया गया। दण्ड व्यवस्था हेतु राज्यो का स्थापना की गई । ऋषभदेव ने चार वशो-हरिवश, चन्द्रवश, सूर्यवश नया उग्रवश की स्थापना की तथा उनको पृथक-पृथक राज्य दिये । तीन वर्णो वाली समाज व्यवस्था कुछ समय तक तो चलती रही, लेकिन बाद मे उनके जेष्ठ पुत्र चक्रवर्ती भग्त को एक ब्राह्मण वर्ण स्थापित करने की और आवश्यकता हुई। इस प्रकार मनुष्य जाति अपने-अपने कार्यो के भेद से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा गद्र इन चार वर्णो मे बॅट गई । 'महाभारत' के शान्ति पर्व मे भी यही बात कही गई है । परन्तु आज भारत मे सब मिलाकर 2800 के लगभग जातिया है । प्रश्न उठता है कि मूल के चार वर्णों मे से हजारो जातिया कैसे बन गई ?
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पल्लीवाल जैन जाति का इतिहास श्री नाथूराम जी प्रेमी के अनुसार कुछ जातिया तो भौगोलिक कारणो से, (देश, प्रान्त व नगरो के कारण) बनी है। जैसे-ब्राह्मणो को प्रौदीच्य, कान्यकुब्ज, सारस्वत, गौड प्रादि जातिया । उदीचि अर्थात् उत्तर दिशा के औदीच्य, कान्यकुब्ज देश के कान्यकुब्ज या कनवजिया, सरस्वतो तट के सारस्वत प्रोर गौड देश (बगाल) के गौड । इसी प्रकार श्रीमाल जिनका मल निवास था, वे श्रीमाली कहलाये, जो ब्राह्मण भो है, वैश्य भी है और सुनार भी है। इसी प्रकार खण्डेला के रहने वाले खण्डेलवाल प्रोसिया के प्रोसवाल, मेवाड के मेवाडा, लाट (गुजरात) के लाड आदि । जातियो के सम्बन्ध मे एक यह बात ध्यान रखने की है कि जब किसी राजनैतिक, प्राकृतिक अथवा धार्मिक कारणो से कोई समूह अपने स्थान या प्रान्त का परिवर्तन करके दूसरे स्थान पर जा बसता था तब ही ये नाम उन्हे प्राप्त होते थे और नवीन स्थान पर स्थिर-स्थावर हो जाने पर धीरे-धीरे उनकी उमी नाम से एक जाति बन जाती थी। उदीचि अर्थात उत्तर के ब्राह्मणो का दल जब गुजरात में आकर बसा तब यह स्वाभाविक ही था कि उस दल के लोग अपने जैसे अपने ही दल के लोगो के माय सामाजिक सम्बन्ध रखे और अपने दल को प्रौदोच्य कहाने लगे।
कुछ जातिया सामाजिक कारणों मे बन गई है, जैसे - दस्मा बीसा, पाँचा आदि भेद और परिवारो की चौपम्वे, दोमवे आदि शाखाएँ। कुछ जातिया विचार-भेद से या धर्म के कारण बन गई । पेशे के कारण भी कई जातिया बनी, जैसे-सुनार, लहार, धीवर, बढई, कुम्हार, चमार आदि। इन पेशे वाली जातियो में भी प्रान्त, स्थान, भाषा प्रादि के कारण संकडो उपभेद हो गये।
सुप्रसिद्ध इतिहासकार स्व श्री काशी प्रसाद जायसवाल ने अपने 'हिन्दू-राजतन्त्र' ग्रन्थ मे बतलाया है कि कई जातिया प्राचीन काल के गणतन्त्रो या पचायती राज्यो के अवशेष हैं. जैसे -पजाब के मरोडा (अरट्ट) और खत्री (क्सप्रोई), गोरखपुर-पाजमगढ के
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जानिया एक ऐतिहासिक दृष्टि मल्ल, प्राय गण के अग्रवाल मादि। ये गणतन्त्र एक तरह के पचायती राज्य थे और अपना शासन पाप ही चलाते थे । कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में बताया है कि वैश्य कृषि, पशुपालन और वाणिज्य के अलावा शस्त्र भी धारण करते थे। जब इनकी स्वाधीनता छिन गई और एकतन्त्र राज्यो मे इनको समाप्त कर दिया गया तब ये शस्त्र छोडकर केवल वैश्य कर्म ही करने लगे। उनमे से कितने ही पुराने नामों की जातियो मे ही अपना अस्तित्व बनाये हुए हैं। सम्भव है कि अरोडा, मल्ल. खत्री आदि जातियो की तरह अन्य वैश्य जातियो का सम्बन्ध भी किसी न किसी गणतन्त्र से रहा हो। यह भी सम्भव है कि बार-बार स्थान परिवर्तन के कारण नये स्थानो पर से नये नाम प्रचलित हो गये हो और पुगने गणतन्त्र वाले नाम भूल गये हो।
जैन जातियो की उत्पनि के बारे में कुछ लोगो की धारणा है कि अमुक जनाचार्य ने अमुक नगर के तमाम लोगो को जैन धर्म की दाक्षा दी और तब उम नगर के नाम से उम जाति का नामकर हो गया । उक्त सभी प्राचार्य पहली शताब्दी के बताये जाते हे । प्रेमी जी इन बातो पर अविश्वास प्रकट करते हुये लिखते है कि यह ठीक है कि कभी जत्थे के जत्थे जनी बने होगे। परन्तु यह समझ मे नही आता कि उसमे सभी जातियो के ऊँचनोच लोग हाग, वे सब एक ग्राम के नाम की किसी एक जाति मे कैसे परिणित हो गये होगे, क्योकि ऐमी सभी जातियो मे जो स्थानो के कारण बनी है, जैन-प्रजन दोनो ही धर्मों के लोग अब झी मिलते है । जैन अजन बनते रहे है और अजैन जैन ।' [१.२] जातियों की उत्पत्ति का समय
कुछ विद्वानो का कहना है कि विभिन्न जातियो की उत्पत्ति राजा चन्द्रगुप्त मौर्य के समय मे हुई। उनकी मान्यता है कि राजा चन्द्रगुप्त के राज्य काल मे बारह वर्ष का भीषण दुर्भिक्ष पड़ा था।
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पल्लीवाल जैन जाति का इतिहास
पूरे उत्तर भारत में त्राहि-त्राहि मच गई। लोग विभिन्न समूहो मे इधर-उधर भटकने लगे । कही वर्ण-शकरता न हो जाये, इस भय से लोग अपने-अपने समूहो में ही शादी-विवाह करने लगे। धीरेधीरे ये समूह ही विभिन्न जातियो मे परिणित हो गये 12
अन्य
कुछ विद्वानो का कहना है कि जातियो का उल्लेख नौवा - दवी शताब्दी से पूर्व का नही मिलता है । अत विभिन्न जानियो को उत्पत्ति का समय नौवी - दसवी शताब्दी होना चाहिए । दसवी शताब्दी के श्री भगवज्जिन सेनाचार्य ने भी अपने 'प्रादिपुराण' में वर्ण व्यवस्था की खूब चर्चा की है, लेकिन जातियो का कोई उल्लेख नही किया है । इसका कारण यह नही कि उनके समय में जातिया नही थी, बल्कि यह है कि उन्होने चौथे काल की समाज व्यवस्था का ही वर्णन किया है, दसवी शताब्दी की समाज व्यवस्था का नही । और चौथे काल में जातिया थी नही । जैन कथा - साहित्य मे भो सामान्यत चौथे काल की घटनाओ काही वर्णन है । लेकिन यहाँ दो बातो पर ध्यान देने की प्रावश्यकता है । एक तो यह कि नौवी दसवी शताब्दी से पूर्व ग्रन्थ प्रशस्तियो आदि में जातियो के उल्लेख करने का प्रचलन ही नही या । मूर्तियो पर तो लेख तक लिखने का प्रचलन नही था । दूसरा यह कि नौवी - दसवी शताब्दी मे ऐसा कोई कारण नजर नहीं आता जिससे यह कहा जा सके कि विभिन्न वर्ण विभिन्न जातियों मे परिणित हो गये, क्योकि जब वर्ण व्यवस्था प्रविछिन्न रूप से चल रही थी तब जातियो के आधार पर नई समाज-व्यवस्था स्थापित होने का कुछ ठोस कारण तो होना ही चाहिये । अत जातिया की उत्पत्ति का समय राजा चन्द्रगुप्त के समय से मानना ही उचित है।
कुछ जातिया मात्र छह-सात सौ वर्ष पुरानी भी है । लेकिन ये जातिया किसी बडी जाति के ( विभिन्न कारणो से ) दो या अधिक
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जातिया एक ऐतिहासिक दृष्टि
हिस्सो में बँट जाने से बनी हैं। अत अधिकतर जातियो का निर्माण तो राजा चन्द्रगुप्त के समय मे ही हो गया था। बाद मे भी जातियो के निर्माण का यह त्रम चलता रहा ।
[१३] जैन साहित्य में जाति का सबसे पहला उल्लेख
प्राचार्य अनन्तवीर्य ने अपनी 'प्रमेय रत्न माला' जिस हीरप नामक सज्जन के अनुरोध पर बनाई थी उसके पिता को उन्होने 'बदरीपाल' वश का सूर्य कहा है । यह कोई वैश्य जाति मालूम होती है । अनन्तवीर्य का समय विक्रम की दसवी शताब्दी है । प्रमी जी के अनुसार जैन साहित्य मे जाति का यह ही पहला उल्लेख है । दूसरा उल्लेख महाराज भीमदेव सोलकी के सेनापति दिनाथ मन्दिर के निर्माता विमल शाह पोरवाड का वि स 1088 का है। इसकी वशावली मे इसके पहले की तीन पोढियो का उल्लेख है । यदि प्रत्येक पीढी के लिए 20-25 वर्ष रख लिया जाए तो यह समय त्रिस 1020 के लगभग पहुँचेगा ।
हरिषेण ने स 1044 मे 'धर्म - परीक्षा' की रचना की । उन्होंने अपने को धर्कट वशीय गोवर्धन का पुत्र और सिद्धसेन वा शिष्य बताया है । यहाँ पर उल्लिखित धर्कट-वश धर्कट जैन जाति ही है । यह एक समृद्धिशाली जाति थी । इस जाति का अस्तित्व राजपूताना तथा गुजरात आदि मे रहा है। वर्तमान में इस जाति का अस्तित्व नही जान पडता ।
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द्वितीय अध्याय पल्लीवाल जाति की उत्पत्ति एवं विकास
[२.१] प्रचलित मान्यतायें____ लगभग 25 वर्ष पूर्व 'पल्लीवाल जैन इतिहास' (लेखकश्री दौलतसिह लोढा 'अरविन्द') का प्रकाशन भरतपुर से हुआ था। इसके अनुसार 'पल्लीवाल गच्छ तथा पल्लीवाल जाति इन दोनो की उत्पत्ति मारवाड मे स्थित पाली नामक नगर से हुई। पल्लीवाल गच्छ के प्राचार्यों ने पाली की जनता को प्रतिबोधित किया, जिससे वहाँ की जनता ने जैन धर्म स्वीकार कर लिया। कालान्तर मे ये जैन पल्लीवाल जाति के रूप में परिणित हो गये । पल्लीवाल ब्राह्मणो की उत्पत्ति भी इसी पाली नगर से हुई थी। पालीवाल ब्राह्मणो तथा पल्लीवाल वैश्यो मे पुरोहित तथा यजमान का रिश्ता था। जिस कारण से पालीवाल ब्राह्मणो को पाली का त्याग करना पड़ा, उसी कारण से पल्लीवाल वैश्यो को भी पाली छोडना पडा। कालान्तर मे पल्लीवाल वैश्य पश्चिमी राजस्थान मे प्रा
बसे।'
उपरोक्त कथन से निम्न निष्कर्ष निकलते है-1 पल्लीवाल गच्छ की उत्पत्ति पल्लीवाल जाति से पूर्व हुई और इन दोनो मे प्रतिबोधक और प्रतिबोधित का सम्बन्ध या। अत इन दोनो मे विशेष सम्बन्ध था। 2 पल्लीवाल जाति की उत्पति पाली मे हुई। (3) पालीवाल ब्राह्मणो तथा पल्लीवाल वैश्यो में पुरोहित तथा यजमान का रिश्ता था। 4 पालीवालो तथा पल्लीवालो ने एक साथ पाली नगर का त्याग किया था।
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पल्लीवाल जाति की उत्पत्ति एव विकास
पल्लीवाल जाति की उत्पत्ति एवं उसके विकास के सम्बन्ध मे चर्चा करने से पूर्व हम एक-एक करके इन निष्कर्षों पर गम्भीरतापूर्वक विचार करेगे। [२.२] पल्लोवाल-गच्छ
श्वेताम्बर जैन साहित्य मे 84 गच्छो का वर्णन पाता है। पल्लकीय, पालकीय, पल्ली या पल्लीवाल गच्छ उनमे से एक है। इस गच्छ का जैन धर्म के प्रचार व प्रसार में बहुत योगदान रहा है । इस गच्छ के प्राचार्यों ने बहुत से ग्रन्थो की रचनाएँ की तथा कई मूर्तियो की प्रतिष्ठा भी कराई।
जैनाचार्य श्री प्रात्मानन्द जन्म-शताब्दी स्मारक ग्रन्थ' (1936) म प्रकाशित श्री अगर चन्द जी नाहटा के लेख 'पल्लीवाल गच्छ पट्टावली'' के अनुसार पल्लीवाल गच्छ की स्थापना पाली नगर (मारवाड) में भगवान महावीर के पट्ट पर स्थित 17 वे प्राचार्य जशोदेव (यशोदेव) सूरि द्वारा सम्बत् 329 वैसाख शुक्ला 5 को हुई। लेकिन थी लोढा जो इस गच्छ की उत्पत्ति के समय से महमन नही है।
गुजराती मल के ग्रन्थ जैन परम्परा नो इतिहास' भाग-2 के अनुसार प्राचीन गुजरात का पाटण नगर, श्रीमाल नगर सवत् 1078 मे भग हुआ। तब वहाँ के महाजन, ब्राह्मण वगैरह पाली (मारवाड) मे जाकर रहने लगे। तब से पाली विशेष रूप से
आबाद हुआ तथा व्यापार का केन्द्र बना। बाद मे ये लोग पाली मे रहने के कारण पल्लीवाल नाम से पहचाने जाने लगे। इसी पाली नगर से सवत् 1150 मे प्राचार्य प्रद्योतन सूरि के शिष्य आचार्य इन्द्रदेव सूरि से श्वेताम्बर पल्लीवाल गच्छ तथा श्वेताम्बर पल्लीवाल जाति निकली।
पाली मे पूर्णभद्र वीर जिनालय को भगवान श्री महावीर स्वामी तथा भगवान श्री आदिनाथ की प्रतिमानो पर विक्रम संवत् 1144 तथा 1151 के लेख है जिनमे 'पल्लकीय प्रद्योतनाचार्य
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पन्लोवाल जैन जाति का इतिहास
गच्छे' पद का प्रयोग हुप्रा है। इस गच्छ से सम्बन्धित यही सबसे प्राचीन लेख उपलब्ध है। अत पलकोय गच्छ को उत्पत्ति का समय विक्रम को बारहवी शताब्दो का पूर्वार्द्ध मानना उचित है।
प्राचीन लेखो मे पल्लकीय गच्छ, पालकीय गच्छ तथा पल्ली गच्छ का प्रयोग प्रचुर मात्रा मे मिलता है। शब्दो की समानता के आधार पर इम गच्छ को पल्लीवाल जाति से सम्बन्धित मान लिया गया है। लेकिन ऐसा कोई प्रमाण नही है जो पल्लकीय गच्छ का पल्लीवाल जाति से विशेष सम्बन्ध होना सिद्ध करता हो। बहुत से ऐसे लेख उपलब्ध है जिनसे सिद्ध होता है कि पल्लीवाल जाति के लोगो ने दूसरे गच्छो के मानिध्य मे शास्त्र लिखवाये तथा मूर्तियो की प्रतिष्ठाएँ करवाई । बहुत कम लेख ऐसे है जिनमे पल्लीवाल जाति तथा पल्लकोय-गच्छ का एक साथ नामोल्लेख मिलता है। इसके विपरीत पल्लीवाल जाति के अतिरिक्त अन्य जातियो के लोगो ने पल्लकोय गच्छ के प्राचार्यो से मति प्रतिष्ठाए करवाई , ऐसे कई लेख मिलते है ।
इतना ही नही, पल्लीवाल ज्ञातिय नेम इ के वशज वीरधवल तथा भीमदेव, वि म 1302 मे उज्जैन मे तपागच्छीय परम्परा मे दीक्षित हुये तथा क्रमश मुनि विद्यानन्द तथा मुनि धर्मकीति के नाम से विख्यात हुये। मुनि श्री विद्यानन्द जो बाद मे सूरि पद मे विभषित हुये तथा श्रीमद् विद्यानन्द सूरि के नाम से विख्यात हुये।
यदि पल्लीवाल जाति का पल्लकीय गच्छ से विशेष सम्बन्ध रहा होता तो वीर धवल तथा भीमदेव को तपागच्छ में दाक्षित होने के बजाय पल्लकीय गच्छ मे ही दोक्षित होना चाहिए था। लेकिन उन्होने ऐमा नही किया। इसम तो यही सिद्ध होता है कि पल्लकीय गच्छ तथा परलीवाल जाति मे कोई विशेप सम्बन्ध नही था ।
यदि हम यह माने कि पल्लकीय गच्छ के प्राचार्यो ने पाली की जनता को प्रतिबोधित किया, जिससे उन्होने जैन धर्म स्वीकार
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ॐ
पल्लीवाल जाति की उत्पत्ति एव विकास
किया तथा कालान्तर में ये लोग पल्लीवाल जाति के रूप मे परिणित हो गये तो इससे पल्लीवाल जाति की उत्पत्ति का समय विक्रम की बारहवी शताब्दी तय होता है । लेकिन ऐसे प्रमाण उपलब्ध हैं जिनसे सिद्ध होता है कि विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी में भी पल्लीवाल जाति थी । वि स 1052 में फिरोजा - बाद के निकट चन्द्रवाड मे चन्द्रपाल नामक पल्लीवाल जैन राजा राज्य करता था । प्रत इससे सिद्ध होता है कि पल्लीवाल जाति की उत्पत्ति पल्लकीय गच्छ (तथाकथित पल्लीवाल गच्छ ) के याचार्यो द्वारा पाली की जनता को प्रतिबोधित करने पर नही हुई, बल्कि बहुत पहले ही पल्लीवाल जाति अस्तित्व में आ गई श्री तथा बाद मे (बारहवी शताब्दी में ) पल्लकीय गच्छ की स्थापना हुई ।
वसे भी किसी आचार्य द्वारा आम जनता ( जिसमे धर्मोपदेश सुनने वाले वैश्य वर्ण के अलावा अन्य वर्णो जैसे - लुहार, सुनार आदि के लोग भी रहे होग) को प्रतिबोधित करने पर पल्लीवाल जाति की उत्पत्ति कसे हो सकती है । क्योकि कालान्तर में इन सबो के जैन धर्म अपनाने पर पत्लीवाल वैश्यो का लहार, सुनार आदि साधर्मी जातियो से राटी-बेटी व्यवहार रहा हो, ऐसा समझ नही आता है ।
(२.३) पाली और पल्लीवाल
मारवाड मे स्थित पाली नामक नगर से पल्लीवाल जाति की उत्पत्ति मानी जाती है । शब्दों की समानता के आधार पर यदि कहा जाय कि पानी से पल्लीवाल जाति का घनिष्ट सम्बन्ध रहा है तो इससे पूर्व कई बिन्दुओ पर विचार करना होगा | क्या पाली नाम का नगर मात्र मारवाड मे जोधपुर के निकट ही है अथवा
कही और भी है ? क्या पल्ली शब्द से मिलते-जुलते अन्य नगर भी हैं ? 'पल्ली' शब्द की प्राचीनता क्या हे ? इन बातो पर हमको सविस्तार विचार करना होगा ।
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जैन
मन्दिर था जो
पाली नाम के नगर मारवाड के अतिरिक्त अन्य स्थानो पर भी स्थित हैं। इस नाम का एक प्राचीन नगर उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद के निकट यमुना नदी के किनारे स्थित है। जैनो के प्रसिद्ध तीर्थस्थान कौशाम्बी से पभोसा की ओर जाने पर यह पाली आता है ।" वहाँ पर एक प्राचीन यमुना नदी की बाढ मे बह गया । भग्नावशेष ही नया मन्दिर बन गया है, लेकिन प्रतिमाएं श्रत्यन्त प्राचीन है । वहाँ चारो ओर खण्डहर बिखरे पड़े हैं। कई जैन मूर्तियाँ वहाँ से प्राप्त हुई है । इन बातो से ऐसा लगता है कि यह पाली (उत्तर प्रदेश) एक प्राचीन स्थान रहा है तथा वहाँ जैन लोग बडी सख्या मे रहते थे ।
बाकी है । वहाँ
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पाली नाम का एक अन्य गाँव आगरा जिले की किरावली तहसील के सहाई नामक गाँव के निकट है । इसी नाम का एक अन्य गाँव मध्यप्रदेश के विलासपुर जिले में भी स्थित है। पालीगढ नाम का एक स्थान लखनऊ से 36 किमी दूर खोगघाट के निकट है । पालीताना नामक नगर गुजरात मे स्थित है ही । एक पाला नगर उ प्र के ललितपुर जिले मे भी है ।
इस प्रकार हम देखते है कि पाली नाम के कई नगर विभिन्न क्षेत्रो मे स्थित है । 'पल्ली' नाम के कुछ प्राचीन नगरो का उल्लेख भी मिलता है । 'दत्त पल्ली' नाम का एक नगर ग्यारहवी शताब्दी मे इटावा अचल मे था। इस नगर पर ग्यारहवी शताब्दो से लेकर सोलहवी शताब्दी तक जैन तथा चौहान वशी राजाश्रो का राज्य रहा । 7
'पल्लीवाल जैन इतिहास' की भूमिका मे भी पल्ली नाम के नगरो का उल्लेख है। इनकी प्राचीनता को निम्न प्रमाणो द्वारा दर्शाया गया है - 1 पत्ली में अग्नि का उपद्रव वि स 918, चैत्र शुक्ला द्वितीय को हुआ था । ऐसा एक शिलालेख घटियाला ( जोधपुर मारवाड) से प्राप्त हुआ है। इसी लेख मे प्रतिहार
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पल्लीवाल जाति की उत्पत्ति र विकास मात्तियां एक ऐतिहासिक दृष्टि
वशी राजा कुकुट्ट के प्रशस्त कार्यों का उल्लेख है। (2) एक लेख वि स 1334 का प्राप्त हुआ है जिसमे आकाश मार्ग से पाटण मे पल्लीपुर तक गमन करने का उल्लेख है। (पाटण गुजरात में स्थित है) । (3) एक अन्य लेख वि स 1389 का है जिसमें तीर्थ स्थानो की सूची मे 'पल्लयाँ' का उल्लेख है । (4) एक लेख वि स. 1215 का है जिसमे भी पल्ली शब्द का प्रयोग हुआ है। इन सभी लेखो मे पल्ली नगर का उल्लेख किया गया है, लेकिन इस भूमिका के लेखक ने इसे मारवाड मे स्थित पाली नगर ही मान लिया है।
इमो भूमिका मे लिखा है कि जैसलमेर स्थित किले के ग्रन्थ भण्डार में रखी हुई 'पचाशक-वृत्ति' नामक ताडपत्रीय पुस्तक के अन्त मे दो पद्य है, जिनमे लिखा है कि "वि स 1207 मे 'पल्ली-भग' के समय उस त्रुटित पुस्तक को ग्रहण किया था, पीछे श्री जिनदत्त मूरि जी के शिप्य स्थिर चन्द्रगणी ने अपने कर्म क्षयार्थ अजयमेरु दुर्ग में उसके गत भाग को लिखा था।" इस लेख में भी पल्ली शब्द ही प्रयक्त हुया है जिसे पाली मान लिया गया है।
पल्लीवाला के चारण-भाट हिन्डौन निवासी थी कजोडीलाल नाय थे। उनसे प्राप्त एक हस्तलिखित 'प्रार्थना-पुस्तक' में भी पल्लीपुर नगर का वर्णन मिलता है । यह पुस्तक लगभग 180 वर्ष पूर्व लिखी गई थी। इसमे एक स्थान पर लिखा है कि पल्लीपुर गुजरात खण्ड के मध्य में स्थित है। सम्भवतया यह पल्लीपुर पूर्वोक्त पल्लीपुर ही है।
इस प्रकार हम देखते है कि पाली नाम के तो कई ग्राम व नगर विभिन्न स्थानो पर स्थित है ही, साथ ही पल्ली नाम के कई प्राचीन नगरो का भी उल्नेम्व मिलता है। लेकिन ऐसा कोई प्रमाण नहीं है जो पल्लीवाल जाति का सम्बन्ध किसी पाली से होना सिद्ध करता हो। कुछ लेखो से पता चलता है कि मारवाड के पाली नगर म पल्लकीय गच्छ के प्राचार्यों ने मति-प्रतिष्ठा कराई। लेकिन पल्लकीय गच्छ का पाली से सम्बन्ध होने का
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पल्लीवाल जैन जाति का इतिहास
अर्थ यह तो नही कि पल्लीवाल जाति का भी पाली से सम्बन्ध रहा है । दूसरी ओर पल्लोवाल जाति का पल्ली नाम के नगरो से सम्बन्ध रहा है, इसके पर्याप्त प्रमाण उपलब्ध हैं। अत पालो से पल्लीवाल जाति का सम्बन्ध या वहाँ से इसकी उत्पत्ति मानना गलत है। [२.४] पालीवाल तथा पल्लीवाल
श्री लोढा जी ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि पालीवाल ब्राह्मण तथा पल्लीवाल वैश्यो मे पुरोहित एव यजमान का सम्बन्ध था, लेकिन ऐसा मानना तर्क संगत नही है क्योकि पालोवाल ब्राह्मणो के इतिहास से स्पष्ट है कि वे अति धनवान तथा कुशल व्यापारी थे। (देखे परिशिष्ट-'पालीवाल ब्राह्मण') वैसे इस बात का कोई प्रमाण भी नहीं है, यह लोढा जी का मात्र अनुमान हो लगता है।
श्री लोढा जी पल्लीवालो का निकाम भी पालीवालो के निकास की भॉति पाली मे हो मानते है। साथ हो उनके पाली त्याग की घटना को भी पालीवालो की तरह का ही मानते हैं । पालीवालो के इतिहास से स्पष्ट है कि पालीवालो को कुछ विशेष कारणो से पाली नगर छोडना पडा था, इसलिए कालान्तर मे जहाँ भी वे रहे, वे पालीवाल ब्राह्मणो के रूप में प्रसिद्ध हो गये। प्रश्न उठता है कि पल्लीवाल जैनो को पाली छोडकर क्यो जाना पड़ा? यजमान के साथ पुरोहित विस्थापित हो जाय, यह तो सम्भव है, लेकिन पुरोहित के साथ यजमान भी चले जाँय, ऐसा होना समझसम्भावना से परे है।
श्री लोढा जी ने इन प्रश्नो का सतोषजनक उत्तर नही दिया है । उन्होने पालीवाल ब्राह्म गो की कहानी दोहराकर कह डाला है कि पल्लीवाल भी इन पालीवाल ब्राह्मणो के साथ पाली छोडकर चले गये । लेकिन यह कहना आधारहीन है । पहली बात तो
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ल्लीवाल जाति की उत्पत्ति एवं विकास
यह है कि पल्लोवाल जैनो के साथ इस प्रकार की घटना का कोई प्रमाण नहीं मिलता । थोडी देर को यह मान भी ले कि पल्लीवाल जैनों ने भी अपना तथाकथित मूल स्थान 'पाली' का त्याग किया था तब तो इस जाति का नाम भी पालीवाल ब्राह्मणो की तरह पालीवाल जैन होना चाहिए था न कि पल्लीवाल जैन । यदि कोई कहे कि पल्लीवाल पालीवाल शब्द का ही बिगड़ा रूप है, तो यह बात भी तर्क सगत प्रतीत नही होती क्योकि पालीवाल शब्द का सरलीकृत रूप पल्लीवाल कभी नही हो सकता। प्राचीन मति लेखो मे भी पल्लीवाल शब्द ही लिखा मिलता है, पालीवाल नहीं। हमे एक भी ऐसा लेख देखने को नही मिला जहाँ 'पालीवाल जैन' लिखा हो । अत पल्लीवाल जैनो का उद्गम पालीवाल बाह्मणो की तरह पाली से मानना सही नहीं है।
कोई कहे कि उक्त पाली को पहले 'पल्ली' नाम से जाना जाता था, तो यह बात भी तर्क संगत नही जान पड़ती। क्योकि ऐसा होता तो पालीवाल ब्राह्मणो को भी 'पल्लीवाल ब्राह्मण' कहा गया होता, लेकिन ऐसा है नही । कोई यह कहे कि पल्लीवाल जाति की उत्पत्ति के समय उक्त नगर का नाम पल्लो था तथा पालीवाल ब्राह्मणो की उत्पत्ति के समय उसका नाम पाली हो गया लेकिन इस बात का भी कोई प्रमाण नहीं है ।
अत पल्लीवाल जाति का सम्बन्ध न तो पालीवाल बाह्मणो से हो रहा है और न ही किसी पाली नगर से। इमका सम्बन्ध तो 'पल्ली' नाम के किसी नगर से ही होना चाहिए। [२.५] पल्लीवाल जाति की उत्पत्ति
अधिकतर इतिहासज्ञ जन जातियो की उत्पत्ति किसी न किसी नगर से हुई मानते है । जातियो के नाम भी इन्ही नगरो के नाम पर पडे, ऐसी ग्राम धारणा है । इसी आधार पर पाली नगर से पल्लीवाल जाति की उत्पत्ति भी मानो जाती है। लकिन हम पहले ही सिद्ध कर चुके है कि पल्लीवाल जाति की उत्पत्ति पाली नगर से नहीं हुई है।
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पल्लीवाल जैन जाति का इतिहास
कुछ लोगो की धारणा है कि पल्लीवाल जाति की उत्पत्ति कन्नौज से हुई ( 12 ) क्योकि पल्लीवाल जाति बहुत पहले से ही वही पर रह रही है । लेकिन ऐसा सोचना बिल्कुल गलत है । यदि जाति को उत्पत्ति कन्नौज से हुई होती तो इसका नामकरण कन्नौज नगर के नाम पर कनवजिया आदि होना चाहिए था । जाति का नाम पल्लीवाल फिर कैसे पड़ा ? इस प्रश्न का कोई समाधान नही है । प्रत. कन्नौज से पल्लीवाल जाति की उत्पत्ति नही मानी जा सकती है।
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पल्लीवाल नाम से लगता है कि जाति की उत्पत्ति पल्ली नाम के किसी नगर से ही होनी चाहिए। हम 'दत्तपल्ली' तथा पल्लीपुर' इन दो नगरो का उल्लेख कर चुके है। इन दोनो नगरो से पल्लीवाल जाति का भी सम्बन्ध रहा है । अत इनमे से किसी एक नगर से पल्लीवाल जाति की उत्पत्ति मानी जा सकती हैं । पल्लीपुर का उल्लेख बारहवी तेरहवी शताब्दी के लेखो मे मिलता है । यह नगर गुजरात खण्ड मे स्थित था । दत्तपल्ली नाम का नगर दसवी - ग्यारहवी शताब्दी का इटावा प्रचल का प्राचीन
नगर था ।
पल्लीपुर नाम से ऐसा प्रतीत होता है कि इस नगर का यह नाम वहाँ पर पल्लीवालो के रहने के कारण पडा । पल्लीपुर यानि कि पल्लीवालो का पुर । श्री कजोडीलाल राय से प्राप्त हस्तलिखित 'प्रार्थना पुस्तक' से भी यही सिद्ध होता है कि पल्लीवालो नेपल्लीपुर में वास किया जो कि गुजरात खण्ड के मध्य मे स्थित है । अत पल्लीपुर से पल्लीवाल जाति की उत्पत्ति नही मानी जा सकती है ।
दत्तपल्ली नाम से ऐसा आभास होता है कि नगर का यह नाम पल्लीवाल जाति के किसी विशिष्ट व्यक्ति के नाम पर पडा है । इससे भी पल्लीवाल जाति की उत्पत्ति नही मानी जा सकती है ।
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पल्लीवाल जाति की उत्पत्ति एव विकास
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दक्षिण की तेलुगू तथा तमिल भाषा मे 'पल्ली' शब्द का अर्थ 'छोटे-गाँव' से होता है । आज भी छोटे-छोटे गांवो के नाम के पीछे पल्ली भब्द लगाने का प्रचलन है। प्राचीन काल मे एक पल्ली (छोटे गाँव) मे एक ही वर्ण के लोग रहते थे। कई-कई पल्लियो के लोग एक ही वर्ग के तथा एक ही धर्म को मानने वाले हुआ करते थे। अत उन मभी पल्लियो के सब लोग, जो जैन धर्मानुयायी थे तथा उनका वर्ण वैश्य था, कालान्तर में पल्लीवाले कहे जाने लगे तथा वे ही बाद में पल्लीवाल जाति के नाम से प्रसिद्ध हो गये । प्रत पल्लोवालो की उत्पत्ति दक्षिण भारत से माननी चाहिए।
प्राचार्य कुन्दकुन्द पल्लीवाल जात्यत्पन्न थे (19,10) उनका जन्म दक्षिण के तामिल प्रदेश के कुरुमराई नामक ग्राम में हुआ था ।।36) प्राचार्य श्री ने बहुत वर्षों तक तामिल प्रदेश में ही भ्रमण किया तथा धर्म प्रभावना की। उनकी साधना स्थली भी तामिल प्रदेश के जगल ही थे । इससे भी यही सिद्ध होता है कि पल्लीवालो का सम्बन्ध दक्षिण के तामिल प्रदेश से रहा है। प्रत पल्लोवाल जाति का उद्गम स्थान तामिल प्रदेश ही रहा है।
पल्लीवाल जाति को उत्पत्ति के समय के सम्बन्ध में कुछ विद्वानो का मत है कि इसकी उत्पत्ति ग्यारहवी-बारहवी शताब्दी मे हुई। लेकिन यह मानना गलत है। पल्लीवाल जाति की उत्पत्ति तो बहुत पहले ही हो चुकी थी। इस जाति मे श्वेताम्बर तथा दिगम्बर दोनो सम्प्रदायो को मानने वाले लोग है। तेरहवीचौदहवी शताब्दी के कई लेख तथा मति-लेख उपलब्ध है। इनसे पता चलता है कि उस समय जाति के कुछ लोग दिगम्बर प्राम्नाय को मानने वाले थे तथा कुछ लोग श्वेताम्बर प्राम्नाय को मानते थे। यानि कि तेरहवी शताब्दी के अन्त में इस जाति मे जैन धर्म की दोनो प्राग्नायो को मानने वाले लोग थे। यदि पल्लावाल जाति की उत्पति ग्यारहवी-बारहवी शताब्दी मे माने तब ऐसा होना तो असम्भव है कि जाति की उत्पत्ति के समय से ही या उत्पत्ति के
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पल्लीवाल जैन जाति का इतिहास कुछ समय बाद एक ही जाति के लोग दो अलग-अलग आम्नायो को मानने लगे हो । क्योकि किसी भी समुदाय या वर्ग का एक जाति मे परिणित होना उस समुदाय के समस्त लोगो के खान-पान, रीति-रिवाज, रहन-सहन तथा धर्म की समानता पर निर्भर करता है । यदि दो वर्ग अलग-अलग धमों को मानने वाले हो तो उनका एक ही जाति के रूप में उभरकर आना असम्भव ही है। यदि पल्लीवाल जाति की उत्पत्ति बारहवी शताब्दी माने तब अलग-अलग आम्नायो को मानने वाले लोग एक ही जाति में कैसे परिणित हो सकते हैं ? जबकि दो अलग-अलग प्राम्नायो को मानने के कारण दो अलग-अलग जातियो का निर्माण होना चाहिए था। प्रत पल्लीवाल जाति की उत्पत्ति ग्यारहवी-बारहवी शताब्दी मे नही बल्कि उससे बहुत पहले ही गई थी।
प्राचार्य कुन्दकुन्द पल्लीवाल जात्युत्पन्न थे। इनका जन्म वि स 49 मे हुआ था। अत पल्लीवाल जाति की उत्पत्ति का समय प्राचार्य कुन्दकुन्द से पूर्व का ही होना चाहिए । 'पल्ली' ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी की तामिल भाषा का बहु-प्रचलित शब्द भी है। अत पल्लीवालो की उत्पत्ति का समय भो वि पहली सदी (ईसा पूर्व पहली-दूसरी शताब्दी) मानना चाहिए। [२.६] पल्लोवाल जाति का विकास
बहुत समय तक पल्लीवाल दक्षिण के तामिल प्रदेश में ही रहते रहे । कालान्तर मे ये उत्तर भारत की प्रोर पलायन कर गये। विक्रम को दसवी शताब्दी तक ये लोग कन्नौज तथा इटावा अचल में फैल गये तथा अन्तिम रूप से यहीं पर रहने लगे। धिक्रम की तेरहवी शताब्दी के मध्य तक ये पल्लीवाल बिना किसी कठिनाई के यहाँ प्रानन्दपूर्वक रहते रहे।
वि म 1251 (सन् 1194) मे मुहम्मद गौरी जब बनारस की ओर जा रहा था, तब उसकी मुठभेड उस समय के इटावा
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पल्लीवाल जाति की उत्पत्ति एव विकास
जातियां एक ऐतिहासिक दृष्टि
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से प्र चल के एक प्रमुख नगर चन्द्रवाड में राजा जयचन्द गहडवार हो गई, जिसमे राजा जयचन्द, जो कि हाथी के हौदे पर बैठा सैन्य सचालन कर रहा था, सहसा शत्रु का तीर लगने से मर गया । राजा जयचन्द की सेना भाग खडी हुई। मुहम्मद गौरी की सेना ने चन्द्रवाड नगर को खूब लूटा। वह चौदह सौ ऊँटो पर लूट का सामान भरवाकर ले गया । उस समय चौहान तथा पल्लीवाल निवास करते थे । युद्ध तथा उसके बाद लूट-पाट के कारण यहाँ की जनता को बहुत कष्ट उठाने पडे । अधिकतर लोग चन्द्रवाड छोडकर अन्यत्र चले गये। चौहान वशी लोग मारवाड की भोर चले गये 15
चन्द्रवाड में मुख्यतः
इस युद्ध के समय कन्नौज का शासन राजा जयचन्द का पुत्र हरिश्चन्द्र देख रहा था । कन्नौज मे चन्द्रवाड के युद्ध का कोई असर नही हुआ कन्नौज राजा हरिश्चन्द्र की देख-रेख मे सुरक्षित था 5
त वहाँ के निवासियो को कही भी विस्थापित होने की प्रावश्यकता नही हुई । कन्नौज मे पल्लीवाल जाति के लोग भी बहुत मख्या में रहते थे । अत वे सब पूर्ण सुरक्षित रहे । कालान्तर में व्यापार के उद्देश्य से ये पल्लीवाल अलीगढ, फिरोजाबाद, चन्द्रवाड तथा कचौडाघाट मे फैल गये ।
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जयचन्द के युद्ध
पल्लीवाल जाति
चन्द्रवाड मे मुहम्मद गोरी तथा राजा के बाद चन्द्रवाड तथा इसके ग्रासपास के सहित कई अन्य जैन जातियो के लोग प्रार्थिक तगी के शिकार हो गये तथा अन्यत्र जाने को विवश हो गये। इस क्षेत्र के कुछ पल्लीवाल मुरना ( मप्र ) मे बस गये तथा शेष पत्लीवाल हस्तिनापुर के निकट एकत्रित हो गये तथा अन्यत्र नाने का विचार करने लगे ।
श्री कजोडीलाल राय से प्राप्त प्रार्थना पुस्तक मे लिखा है'हस्तनापुर के पास नगर खडेले से 122 प्रकार की जाति चली ।
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पल्लीवाल जैन जाति का इतिहास पल्लीवाल श्रावक धर्म लेकर चले गुजरात खण्ड मे । धनहतशाह ने बखान दिया है कि पल्लीवाल गुजरात खण्ड से चले । धनपत शाह के दो पुत्र-गु झा व सोहिल। गुंभा ने पल्लीपुर मे बास किया जो गुजरात खण्ड के मध्य में है।' 'प्रार्थना-पुस्तक' का यह वक्तव्य उन्नीसवी शताब्दी के मध्य में लिखा गया। धनपतशाह का समय विक्रम की सत्रहवी शताब्दी का मध्य है। उसने जिस घटना का बखान (वर्णन) किया है वह यथा सम्भव चन्द्रवाड मे मुहम्मद गौरी के युद्ध के समय की ही है। इसी समय इटावा अचल में स्थित विभिन्न जैन जातियो के लोग इस क्षेत्र को छोड़ने के लिये बाध्य हो गये तथा हस्तिनापुर के निकट एकत्रित होकर अन्यत्र जाने के लिये विचार-विमर्श करने लगे। पल्लीवालो ने गृजगत की ओर प्रस्थान किया और वे वही बस गये। जैसा कि विभिन्न मूर्तिलेखो से पता चलता है, वि चौदही शताब्दी के मध्य तक ये पल्लीवाल पूरे गुजरात मे फैल गये। पाटण, काठियावाड, मेहसाणा, भरुच तथा सूरत इन सभी स्थानो पर इस जाति के लोग रहते थे।
कुछ मूति लेखो मे गुर्जर पल्लीवाल (शक स 1428), पद्माबती पल्लीवाल (शक स 1601) तथा उज्जनी पल्लीवाल (शक स 1626) का उल्लेख पाता है । ये सभी मूर्तियाँ नागपुर के मन्दिरो मे मौजूद है। इन लेखो से सिद्ध होता है कि पल्लीवाल जाति के कुछ लोगो ने विक्रम की पन्द्रहवी शताब्दी के अन्त में गुजरात प्रदेश छोड दिया तथा उज्जनी नगरी की ओर चले गये तथा वही पर रहने लगे।
ऐसा ज्ञात हुआ है कि आज भी रतलाम मे, जो कि उज्जैन के निकट ही है, पल्लावाल जाति के कुछ लोग रहते है, लेकिन ये सभी हिन्दू धर्म को मानते हैं। अब इनका पल्लोवाल जाति की मूलधारा से कोई सम्बन्ध नही रहा है। उज्जैन के शेष पल्लीवाल
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पल्लीवाल जाति की उत्पत्ति एवं विकास
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पद्मावती नगर होते हुये विदर्भ क्षेत्र की ओर चले गये। आज भी वहाँ पल्लीवाल जैन लोग रहते है। विदर्भ क्षेत्र के पल्लीवालो का मानना है कि इस क्षेत्र मे बसने वाले पल्लीवाल दो रास्तो से आये हैं -एक वर्धा होते हुये तथा दूसरे छिन्दवाडा की ओर से। बाद मे ये सभी पल्लीवाल विदर्भ क्षेत्र के नागपुर तथा वर्धा प्रादि मे बस गये। पिछले लगभग 200-250 वर्ष से ये लोग यहाँ पर ही बसे हुये हैं। यहाँ इनके परिवारो की संख्या लगभग सौ है । ये भी पल्लीवाल जाति की मुख्य धारा से अलग हो गये हैं।
गुजरात प्रदेश के काठियावाड क्षेत्र में रहने वाले पल्लीवालो का भी मुख्य धारा से सम्बन्ध समाप्त हो गया तथा ये लोग पूर्णतः गुजरात के ही वासी हो गये । कालान्तर मे इन्होने पल्लीवाल जाति के रूप में अपना अस्तित्व ही खो दिया। ___ गुजरात के पाटन के आसपास रहने वाले पल्लीवालो ने भी मत्रहवी शताब्दी तक इस स्थान का त्याग कर दिया तथा ये धीरे-धीरे पारवाड होते हुये पूर्वी राजस्थान तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश मे बस गये । ग्राज भी बहुत से पल्लीवाल जयपुर, सवाईमाधोपुर, अजमेर, अलवर, भरतपुर, आगरा तथा मथुरा जिलो मे रहते है।
इस प्रकार एक पल्लीवाल जाति के लोग मुख्यत इन चार
पल्लीवाल जाति का मारवाड के पाली नगर से कोई विशेष सम्बन्ध रहा हो, ऐसा प्रतीत नही होता है। पल्लकीय गच्छ (जिसे बाद मे पल्लीवाल -गच्छ माना जाने लगा) का पाली नगर से सम्बन्ध रहा है । अत इस गच्छ का पाली से सम्बन्ध होने का अर्थ यह मान लेना की पल्लीवाल जाति का भी पाली से सबध रहा है, गलत है। क्योकि इस गच्छ का पल्लीवाल नाति से कोई विशेष सबध भी नहीं रहा है। अन्य जाति के लोग भी इस गच्छ में दीक्षित होते रहे है। इस बात का हम पहले ही वर्णन कर चुके हैं।
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पल्लीवाल जैन जाति का इतिहास
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वाल,
भागो मे बँट गये - कन्नौज क्षेत्र के पल्लीवाल, मुरैना क्षेत्र के पल्लीजगरौठी तथा प्रागरा क्षेत्र के पल्लीवाल और नागपुर क्षेत्र के पल्लीवाल | बहुत समय तक तो यही माना जाता रहा कि ये चारो घटक अलग-अलग जातियाँ है, लेकिन ऐसा मानना सही नही है । पल्लीवाल जाति के लोग विभिन्न परिस्थितियो मे अलगअलग समूहो में बँट गये, मूलत ये चारो एक ही जाति के अग है । इनके गोत्रो के तुलनात्मक अध्ययन से पता चलता है कि बहुत से गोत्र चारो घटको मे मिलते है। निश्चित ही ये गोत्र जाति के विघ टन के पूर्व के है । जो गोत्र प्रापस मे नही मिलते, वे या तो इन घटको के विघटन के बाद के है, अन्यथा उन गोत्रो के वशज अब अन्य घटको मे रहे नही ।
आज हम पल्लीवाल जाति को जिस रूप मे देखते है उसम पल्लीवालो के विभिन्न घटको के साथ-साथ सिकन्दरा (आगरा ), पालम ( दिल्ली के निकट ) तथा अलवर के जैसवाल तथा सैलवाल जाति के लोग भी सम्मिलित है। इन जातियो ने लगभग 150 वर्ष पूर्व से ही पल्लीवाला मे विवाह सम्बन्ध स्थापित कर लिये थे । अब ये पल्लीवाल जाति के ही अभिन्न अंग बन गये है। इन जातियो ने भी स्वय को पत्नीवाल जाति मे विलीन कर लिया है। तथा अपना अलग अस्तित्व समाप्त कर लिया है। नागपुर क्षेत्र के पल्लीवालो से बाकी पत्लीवालो का कोई सम्बन्ध अब नही रहा है, इसका मुख्य कारण दूरी है। मातृभाषा तथा रहन-सहन में भी बहुत अन्तर है ।
[२.६] पल्लीवाल जाति के गोत्र
अधिकतर जातियो मे विभिन्न गोत्र पाये जाते है । जिस प्रकार से जातियो का नामकरण वशो, प्रान्तो नगरो तथा व्यवसायो आदि के आधार पर माना जाता है उसी प्रकार से गोत्रो का
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पल्लीवाल जैन जाति की उत्पत्ति एव विकास
विशिष्ट पुरुषो
नामकरण भी होना माना जाता है। परिवार में के नाम पर भी गोत्र स्थापित हो जाया करते थे । कुछ गोत्रो की उत्पत्ति जाति को उत्पति मे पूर्व तथा कुछ गोत्रो की उत्पत्ति जाति की उत्पत्ति के बाद हुई है, ऐसी सामान्य धारणा है ।
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कुछ जातियाँ ऐसी भी है जिनमे गोत्र नहीं है, जैसे- पद्मावतो पुरवाल, गुजरात के मेवाडा, ओसवाल, श्रीमाल, सेनवाल आदि जैन जातियाँ | कुछ जातियो के गोत्र आपस में एक दूसरे मे मिलते है । जैसे-परवार, गहोई तथा अग्रवाल जाति के गोत्र एक दूसरे मे मिलते है । जब कभी किसी गोत्र विशेष के परिवारो की संख्या कम रह जातो थी तब ये परिवार दूसरे गोत्रो मे सम्मिलित हो जाते थे तथा स्वय के गोत्र का अस्तित्व ही समाप्त कर लेते थे ।
पल्लीवाल जाति में गोत्रो की उत्पत्ति के बारे में एक स्थान पर ऐसा लेख मिलता है कि धनपतिशाह के दो पुत्र गुंजा तथा सोहिल थे। इन दोना के कुन वामन पुत्र थे । उन पुत्रो के नाम पर ही जाति में विभिन्न गोत्रो की उत्पत्ति हुई । लेकिन ऐसा मानना गलत है। यह हो सकता है कि जाति के कुछ गोत्रो के नाम उनमे से कुछेक विशिष्ट योग्यता वाल पुत्रो के नाम पर पडे हो, लेकिन सभी गोत्रो का सम्बन्ध इन पुत्रो से जोडना अनुचित है । इसके कई कारण है । धनपतिशाह का समय विक्रम की सत्रहवी गताब्दी का मध्य है, लेकिन कुछ गोत्रो का उल्लेख चौदहवी शताब्दी के मूर्तिलेखो मे मिलता है। विशेषकर वरेडिया (वरहुडिया ) गोत्र का उल्लेख प्रचुर मात्रा मे मिलता है । कुछ गोत्र निश्चित रूप से गाँवो के नाम पर पडे है । जैसे- सलावदिया, काश्मीरिया तथा गुवालियरे आदि । तथा कुछ गोत्र काफी नये भी है ।
पल्लीवाल जाति मे मुख्यत छह घटक सम्मलित है । वे है - (1) जगरौठी - अलवर तथा श्रागरा क्षेत्र के पल्लीवाल,
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पल्लीवाल जैन जाति का इतिहास (2) कन्नौज- अलीगढ तथा फिरोजाबाद क्षेत्र के पल्लीवाल, (3) मुरैना तया ग्वालियर क्षेत्र के पल्लीवाल, (4) नागपुर (विदर्भ) क्षेत्र के पल्लीवाल, (5) सिकन्दरा तथा पालम के सैलवाल तथा (6) पालम तथा अलवर के जैसवाल। इनमे से सैलवाल तथा जैसवाल प्रारम्भ में अलग जातियाँ थीं। लेकिन कालान्तर मे इनके परिवारो की संख्या कम हो जाने से इनको शादीविवाहादि में कठिनाई का अनुभव हुअा। प्रत इस जाति के लोगों ने अन्य जाति के साथ सम्बन्ध स्थापित करने का निश्चय किया। चूकि पल्लीवाल जाति के धार्मिक तथा सामाजिक प्राचार-विचार जैसवाल तथा सैलवाल जातियो से मिलते थे तथा पल्लीवाल जाति भी छोटी जाति होने के कारण अपना क्षेत्र बढाना चाहती थी, प्रत ये जातियाँ आज से लगभग 150 वर्ष पूर्व पल्लीवाल जाति मे पूर्णत विलीन हो गई।
प्रारम्भ के चार घटको के गोत्रो के सम्बन्ध में एक वात मुख्य है कि इन सब घटको के कुछ गोत्र आपस मे एक दूसरे से नही मिलते है। ऐसा लगता है कि इन गोत्रो की स्थापना गल्लीबाल जाति की उत्पत्ति के बहुत बाद मे हुई है । भिन्न-भिन्न घटको के गोत्र निम्न प्रकार से है
१. जगरोठी, प्रसवर तथा प्रागरा क्षेत्र के पल्लीवालो
के गोत्र
(1) सुगे सुरिया, (2) नगे सुरिया, (3) नागे सुरिया, (4) सलावदिया, (5) डगिया मसद, (6) डगिया सारग, (7) डगिया रसक, (8) जनूथरिया-ईट की थाप (9) जथरियाकैम की थाप, (10) राजौरिया, (11) चौर बबार, (12) बहत्तरिया, (13) भडकौलिया, (14) बरवासिया, (15) बारीलिया, (16) बडेरिया, (17) अठवरसिया, (18) नौलाठिया,
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पल्लीवाल, बाति की उत्पत्ति एवं विकास
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( 19 ) पाटिया, ( 20 ) लेदोरिया, ( 21 ) गिदोराबकस, ( 22 ) धाती, ( 23 ) कोटिया, (24) नौधी, (25) लोहकरेरिया, ( 26 ) मंगरवासिया, ( 27 ) तिलवासिया, (28) चाँदपुरिया, ( 29 ) दिवरियां, ( 30 ) व्यानिया, ( 31 ) वेद, (32) काश्मीरिया, ( 33 ) निगोहिया, (34) खेर, (35) चकिया, (36) विलन मासिया, ( 37 ) डरिया, ( 38 ) नौहराज, ( 39 ) गुदहैलिया, ( 40 ) भावरिया ( 41 ) कुरसौलिया, ( 42 ) खोहवाल ( 43 ) पचीरिया, ( 44 ) वारीवाल, ( 45 ) गुदिया, ( 46 ) निहानिया, ( 47 ) लटकिया, (48) दादुरिया, (49) गिदौरिया, ( 50 ) भोवार, ( 51 ) माईमूडा, ( 52 ) गुवालियर ।
२ कन्नौज, लोगढ़ तथा फिरोजाबाद क्षेत्र के पल्लीवालों के गौत्र
(1) अकबरपुरिया ( 2 ) अगरैय्या, ( 3 ) औरगाबादी, (4) कठमत्या, ( 5 ) कठोरिया ( 6 ) करोडिया, ( 7 ) करोनिया ( 8 ) काश्मेरिया, ( 9 ) कोनेवाल, ( 10 ) गिदौरिया, (11) चीनिया ( 12 ) चौधरिया, ( 13 ) जिवरिया, ( 11 ) टेनगुरिया, ( 15 ) ठाकुरिया, ( 16 ) डरिया, ( 17 ) दरवाजेवाल, ( 18 ) धनकाडिया
( 19 ) नगेसुरिया, (20) नारगावादी, ( 21 ) पटपस्या, (22) पहाडुया, (23) फिरोजाबादी, ( 24 ) भजौरिया, ( 25 ) मवाडिया, (26) बजौरिया, ( 27 ) वरवासिया, ( 28 ) बाकेवाल, (29) वारीलखु, (30) वदिया, ( 31 ) मकटिया, ( 32 ) संगरवासिया, ( 33 ) हतकतिया ।
३. सुरंना तथा ग्वालियर क्षेत्र के पल्लोवालों के गोत्र(1) कायर, ( 2 कारनीरिया, (3) खेरोनीबाल, (4) खोहवाल, (5) खैर, (6) गुदिया (7) ग्वालिपरे, ( 8 ) चौमुण्डा (चौर बम्बार ), ( 9 ) चौथा ( 10 ) डरिया, ( 11 ) दमेजरे,
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पल्लीवाल जैन जाति का इतिहास (12) दिवस्या, (13) धनवासी (धाती), (14) धुनेरिया, (16) नगेसुरया, (16) निहानिया, (17) पचोरिया, (18) पाडे, (19) पावटिया, (20) महेला, (22) रायसेनिया, (23) लखट किया, (24) लोहकरेरिया, (25) बडेरिया, (26) वरवासिया, (27) वारीवाल, (28) वेद-भगोरिया, (29) ब्यानिया, (30) बजारे, (31) समल, (32) सलावदिया, (33) सारग डग्या, (34) साले, (35) सैगरवासिया। ४. नागपुर (विदर्भ) क्षेत्र के पालीवालो के गोत्र
(1) वाईवाल, (2) नामक, (3) बिजाबरत, (4) धराईवाल, (5) डरेपूर, (6) पानीवाल, (7) थासु, (8) फरीवाल, भिमानी, (10) छामरनीवाल (11) बीदर, नन्दनीवाल । ५. संलवालो के गौत्र
(1) मालेश्वरी (मालेसरी), (2) आमेश्वरी, (3) अम्बिया, (4) राजेश्वरी ग्रादि।
६ जैसवालो के गोत्र
(1) वेद-वैराष्टक, (2) अगरस, (3) राजनायक, (4) श्याम-पाडिया आदि।
इन गोत्रो का विश्लेषण करने पर निम्न निष्कर्ष निकालते है -
(1) बहुत से गोत्रो का नामकरण विभिन्न ग्रामो अथवा स्थानो के नाम पर हुआ । जैसे-सलाबदिया, सैगरवासिया, काश्मीरिया, गुवालियर (ग्वालियरे), अकवरपुरिया, अगरैय्या, औरगाबादी, फिरोजाबादी, ग्वोहवान आदि।
(2) ऐमा लगता है कि कुछ वर्ग के लोग पहने एक ही गोत्र के अन्तर्गत पाते थे। कालान्तर मे जब उम गोत्र के लोगो की
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पत्नीवाल जैन जाति की उत्पत्ति एव विकास
सख्या में वृद्धि हुई तथा अलग-अलग स्थानो पर चले गये, तब नये गोत्र बन गये। जैसे- नगे सुरिया, नागे सुरिया तथा सुगे सुरिया । ऐसा लगता है कि ये तीनो गोत्र एक गोत्र सुरिया में से ही निकले हैं । इसी प्रकार जनूथरिया-ईट की थाप तथा जनूथरिया - कैम की थाप भी एक ही गोत्र जन्थरिया में से निकले हैं, तथा डगिया, सारग, डगिया मसन्द तथा डगिया रकस भी एक ही निकले हैं ।
गोत्र डगिया से
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इससे एक बात और स्पष्ट होती है-चूँकि एक ही गोत्र में से कई-कई गोत्र बन गये तथा कालान्तर में ये स्वतन्त्र गोत्रो के रूप में स्थापित हो गये, भ्रत इन नये बने गोत्रो में प्रापस मे शादीविवाह भी प्रारम्भ हो गये। जैसा आजकल हम शादी-विवाह मे गोत्रो को बचाते है शायद पहले ऐसा नही करते थे । मात्र नाते ही बचाये जाते थे, गोत्र नही ।
(3) कुछ गोत्रो की स्थापना कुटुम्ब के विशिष्ट लोगो के नाम पर हुई, जैसे--- रायसेनिया तथा कुरसौलिया प्रादि ।
(4) कुछ गोत्र जो पहले थे लेकिन अब नही है । प्रत या तो उन गोत्र के लोग अब नही है, या फिर उन गोत्रो के परिवारो की संख्या में बहुत कमी आने से वे दूसरे गोत्रो मे सम्मिलित हो गये ।
(5) कुछ गोत्र बहुत ही नये मालूम पडते है । मुख्य रूप से कन्नौज, अलीगढ तथा फिरोजाबाद क्षेत्र के पल्लीवालो के अकबरपुरिया, श्रौरगाबादी, प्रगरैय्या, तथा फिरोजाबादी गोत्र । अकबरपुरिया गोत्र की स्थापना निश्चित रूप से अकबर के बाद में हुई जबकि आगरा का नाम बदलकर अकबरपुर हो गया था। इसी प्रकार औरगाबादी गोत्र की स्थापना औरंगजेब के बाद हुई तथा फिरोजाबादी गोत्र की स्थापना फिरोजशाह के बाद हुई, क्योकि औरगजेब तथा फिरोजशाह ने क्रमश श्रीरंगाबाद तथा फिरोजा - बाद नगर बसाये । कुछ पल्लीवालो ने वहाँ रहना प्रारम्भ कर
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पल्लीवाल जन जाति का इतिहास दिया। कालान्तर मे वे औरगाबादी तथा फिरोजाबादी गोत्रो से पहचाने, जाने लगे।
(6) काश्मीरिया गोत्र प्रारम्भ के तीनो घटको मे मिलता है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि पल्लीवाल समाज का 'काश्मीर' प्रदेश से भी बहुत सम्बन्ध रहा है। बहुत पहले इस जाति के कुछ लोग काश्मीर रहे थे तथा बाद में वे काश्मीरिया नाम से प्रसिद्ध हो गये।
(7) चार गोत्र यानि कि वारीवाल (वाईबाल), उडरिया (डरेपुर), पाती (धराईवाल) तथा वैद (बीदर) ऐसे है जो कि प्रारम्भ के चारो घटको मे मिलते है। निश्चित रूप से ये चारो गोत्र पल्लीवाल समाज के विभिन्न घटको मे बँटने से पूर्व के है।
(8) दस गोत्र ऐसे है जो प्रारम्भ के तीन घटको मे समान रूप से मिलते है।
(9) प्रागरा, अलवर तथा जगरौठी क्षेत्र के 23 गोत्र ऐसे है जो कि मुरैना तथा ग्वालियर क्षेत्र के पल्लीवालो मे भी पागे जाते है। इससे सिद्ध होता है कि मुरैना तथा ग्वालियर क्षेत्र के पल्लीवालो का आगरा, अलवर तथा जगरौठी क्षेत्र के पत्लीवालो से बहुत समय तक सम्बन्ध रहा, जिसके कारण इन दोनो घटको के गोत्र समान पाये जाते है। कालान्तर मे ये दोनो घटक एक-दूसरे से अलग हो गये।
इस प्रकार उपरोक्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि आगरा, अलवर तथा जगरौठी क्षेत्र के पल्लीवालो का सम्बन्ध कन्नौज, अलीगढ तथा फिरोजाबाद के पल्लीवालो की अपेक्षा मुरैना तथा ग्वालियर के पल्लीवालो से अधिक समय तक रहा। प्रारम्भ मे उपरोक्त चारो घटक एक ही थे। कालान्तर मे ये घटक अलग-अलग हो गये । नागपुर (विदर्भ) क्षेत्र के पल्लीवालो के गोत्रो की संख्या बहुत कम है तथा उनमे से अधिकतर अन्य घटको के गोत्रो से मेल
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पल्लीवाल जैन जाति की उत्पत्ति एव विकास
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नही खाते। इसका कारण यह है कि इस घटके की जनसख्या बहुत कम थी तथा कुछ गोत्रो के लोगो का समुदाय ही जाति की मुख्य धारा से अलग हुअा था। बाद मे कुछ गोत्र नये भी बने हैं। साथ ही, यह भी हो सकता है कि उस घटक में जो गोत्र आजकल नही हैं, लेकिन पहले थे। बाद मे उन गोत्रो के परिवार नही रहे।
यहाँ से स्पष्ट है कि सर्वप्रथम कन्नौज, अलीगढ तथा फिरोजाबाद के पल्लीवाल जाति की मुख्य धारा से अलग हो गये। उसके बाद मुरैना तथा ग्वालियर क्षेत्र के पल्लीवाल भी जाति की मुख्य धारा से अलग हो गये।
जो गोत्र एक-दूसरे घटको मे नही मिलते है वे निश्चित रूप मे विभिन्न घटको के अलग होने के बाद बने है। जैसे-अकबरावादी, औरगाबादी तथा फिरोजाबादी। इन गोत्रो से यह भी पता चलता हे कि कन्नाज, अलीगढ तथा फिरोजाबाद क्षेत्र के कुछ पल्लीवाल अकबर तथा पोरगजेब के शासनकाल मे आगरा तथा फिरोजाबाद आदि क्षेत्रो मे रहते थे।
गोत्रो के तुलनात्मक अध्ययन को सरल करने के उद्देश्य से चारो घटको के गोत्रो को एक साथ एक ही तालिका मे अलग से दिखाया जा रहा है । इस तालिका मे मात्र एक ऐसे गोत्र को सम्मिलित नही किया गया है जो कि आगरा, अलवर तथा जगरौठो क्षेत्र के पल्लीवालो तथा कन्नौज, अलीगढ तथा फिरोजाबाद क्षेत्र के पल्लीवालो मे मिलता है, लेकिन मुरैना तथा ग्वालियर क्षेत्र के पल्लीवालो मे वह नहीं पाया जाता। यह गोत्र है-'गिदौरिया'। प्रकाशन मे मुविधा की दृष्टि से ही ऐसा किया मया है । यहाँ ऐसा प्रतीत होता है कि 'गिदौरिया' गोत्र के लोग मुरेना तथा ग्वालियर क्षेत्र के पल्लीवालो मे भी थे, लेकिन बाद मे इस गोत्र के लोग इस घटक मे नही रहे, इसी कारण यह गोन इस घटक मे नही मिलता है।
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पल्लीवाल जैन जाति का इतिहास
पल्लीवालों के विभिन्न घटकों के गोत्रों का तुलनात्मक
अध्ययन (तालिका)
आगरा, अलवर| मुरैना तथा ग्वा- कन्नौज, अलागढ़| नागपूर (विदर्भ) तथा जगरौठी के लियर क्षेत्र के तथा फिरोजाबाद| क्षेत्र के पल्लीपल्लीवालो के | पल्लोवालो के क्षेत्र के पल्ली-| वालो के गोत्र गोत्र
वालो के गोत्र
गौत्र
डरेपूर वाईवाल धराईवाल
धाती
बीदर
डडूरिया डडूरिया वारीवाल वारीवाल
धनवासी(धाती) वैद वैद-भगौरिया काश्मीरिया | काश्मेरिया नगेसुरिया | नगेसुरिया वरबामिया बरवासिया सैगरवासिया | सैगरवासिया माईमूडा | माईमडा राजौरिया | बजारे वडेरिया
वडेरिया व्यानिया | व्यानिया निहानिया !निहानिया चौरबम्बार | चौमुण्डा (चौर
वम्बार) लोहकरेरिया | लोहकरेरिया सलावदिया | सलावदिया गुदिया गुदिया
डडूरिया वारीलखु धनकाडिया वैदिया काश्मेरिया नगेसुरिया वरवासिया मैगरवासिया मवाडिया बजौरिया
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पल्लीवाल जाति की उत्पति एवं विकास डगिया सारग | सारग डगिया खैर लषटकिया | लखटकिया खोहवाल | खोहवाल गुवालियर ग्वालियरे पचीरिया पचौरिया
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तृतीय-अध्याय पल्लीवाल जाति के ऐतिहासिक प्रसंग
[३१] श्री कुन्दकुन्दाचार्य
बहुत समय से यह चर्चा का विषय रहा है कि प्राचार्य कुन्दकुन्द पल्लीवाल जात्युत्पन्न थे या नही ? दिगम्बर सम्प्रदाय मे अधिकतर लोगो की धारणा तो यही है कि प्राचार्य कुन्दकुन्द पल्लीवाल जाति के रत्न थे। इसके प्रमाण मे निम्न दो पट्टावलियो (8,19) को देना पर्याप्त होगा। ___एक प्राचार्य पट्टावली नागौर के भट्टारकीय शास्त्र भण्डार से प्राप्त हुई है। इस पट्टावली को सोकर (राजस्थान) से प्रकाशित चामुण्डराय कृत 'चारित्र सार' नामक ग्रन्य के अन्त में प्रकाशित करवाया गया है। इसमे लिखा है-'श्री मिति पौष कृष्णा 8 विक्रम सवत् 49 (ऊन पचास) और श्री वीर निर्वाण मवत् 519 (पाँच सौ उन्नीस) मे पल्लीवाल जैन जात्युत्पन्न श्री कुन्दकुन्दाचाय हुये। श्री कुन्दकुन्दाचार्य का गृहस्थावस्था काल 11 वष रहा, दीक्षा काल 33 वर्ष, पटस्थकाल 51 वर्ष 10 माह 10 दिन, विरह दिन 51 इस प्रकार से 95 वर्ष 10 माह 15 दिन की सम्पूर्ण प्रायु थी। श्री कुन्दकुन्दाचार्य के ही निम्नाकित 4 (चार) नाम थे- (1) श्री पद्मनन्दि, (2) श्री वक्रग्रीव, (3) श्री गृद्धिपिच्छ (गृद्धपिच्छ), और (4) श्री इलाचार्य (एलाचार्य)।'
एक अन्य पट्टावली प्राचार्य श्री महावार कीति जी के शिष्य आचार्य श्री विमल सागर जी महाराज से प्राप्त हुई है। इस पट्टावली को 'प्राचार्य महावीर कीति स्मृति प्रथ' (सम्पादक
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पल्लीवाल जाति के ऐतिहासिक प्रसग डॉ नेमेन्द्रचद जैन)मे प्रकाशित कराया गया है । इसमे भी भाचार्य श्री कुन्दकुन्द को पल्लीवाल जाति का होना बताया गया है। इस पट्टावलो की प्रामाणिकता के बारे में प्राचार्य श्री विमल सागर जी का कहना है कि इसे उनके मुरु आचार्य श्री महावीर कीर्ति जी ने विभिन्न स्थानो के शिलालेखो, अथ प्रशस्तियो तथा प्राचीन पट्टावलियो के आधार पर बनाया था। उनका यह भी कहना है कि वे इस पट्टावली को ही सही मानते है ।
इसके विपरीत प० नाथूराम जी 'प्रेमी' 'परवार जाति के इतिहास पर कुछ प्रकाश' नामक अपने लेख मे लिखते है कि जिस पट्टावली के आधार पर श्री कुन्दकुन्दाचार्य को पल्लीवाल, उनके गुरु श्री जिनचन्द्र को चौखसे परवार, श्री बज्रनन्दि को गोलापूर्व और श्री लोहाचार्य को लमेचू जात्युत्पन्न माना जाता है, इस पट्टावली को प्रामाणिकता पर सदेह होता है। श्री प्रमी जी के मनुसार उक्त मान्यता चौदहवी शताब्दी से पहले की नहीं है । लेकिन जिन पट्टावलियो का हमने उल्लेख किया है वे प्रेमी जी द्वारा वर्णित पट्टावली मे भिन्न है तथा प्रेमी जी के लेख के बहुत बाद प्रकाश मे पाई हैं। अत हमारो राय मे ये दोनो पट्टावलिया प्रसदिग्ध है।
श्री कुन्दकुन्दाचार्य के सम्बन्ध मे एक अन्य बात जो चर्चा का विषय रही है, वह है उनका जन्म स्थान । कुछ लोगो का मानना है कि प्राचार्य श्री का जन्म कोटा-बू दी के निकट बाराह (बारापुर) नामक स्थान पर हुआ था। जबकि अन्य लोगो की धारणा है कि उनका जन्म स्थान तामिल प्रदेश का कुरुमराई नामक स्थान है। वाराह में उनका जन्म स्थान मानने का कारण है-वहाँ पर स्थित श्री कुन्दकुन्द की छत्री तथा ज्ञान-प्रबोध' मे वर्णिन एक दन्तकथा (37) लेकिन इतना प्रमाण ही काफी नही है। कारण यह है कि सौरीपुर (बटेश्वर) से प्राप्त एक पट्टावलो मे दो अन्य
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पल्लीवाल जैन जाति का इतिहास
कुन्दकुन्द मुनि का वर्णन भी किया है ।(2) कुन्दकुन्द नाम के ये मुनि क्रमश सवत् 1249 तथा सवत् 1385 मे हुये है। अतः वाराह मे स्थित कुन्दकुन्द मुनि की छत्री इनमे से किसी एक की होगी, लेकिन वह छत्री प्राचार्य कुन्दकुन्द की नही हो सकती है।
. आचार्य कुन्दकुन्द का जन्म तामिल प्रदेश मे हुआ, इसके पर्याप्त प्रमाण उपलब्ध है । प्राचार्य कुन्दकुन्द ने पल्लव वशी राजा शिवस्कन्द को सम्बोधनार्थ उपदेश दिया। पल्लव वशी राजारो का राज्य तामिल प्रदेश में ही था। तामिल भाषा के महान् काव्य 'कुरल' की रचना भी प्राचार्य ! कुन्दकुन्द ने ही की ।
प्राचार्य कु दकु द की साधना स्थली भी दक्षिण का तामिल प्रदेश ही रही। आज भी वहाँ प्राचार्य श्री के नाम का एक प्रसिद्ध पर्वत है। दक्षिण मे मीमेश्वर से प्रोगम्वी, वहाँ से हुम्बज जाने वाले मार्ग पर शिगोमा से 10 कि मी पर गुड्डकेरि है। वहाँ से 10 किमी दूर जगल मे कु दकु द वेट्ट (कु दकु द पर्वत) है। उसकी चढाई 4 कि मी है। इस रमणीक पर्वत पर एक मन्दिर है । उसमे एक अोर प्राचार्य कु दकुद स्वामी के चरण है तथा पास में ही उनका विराजमान स्थल है जहाँ उन्होंने ग्रथो की रचना की थी।11 अत इन सब प्रमाणो के आधार पर यह निश्चित कहा जा सकता है कि प्राचार्य कु दकुद का सम्बन्ध तामिल प्रदेश से ही विशेष रहा तथा वही उनका जन्म भी हुआ था।
प्रो चक्रवर्ती ने 'पचास्तिकाय' ग्रथ की अपनी प्रस्तावना मे श्री कुन्दकुन्दाचार्य के सम्बन्ध मे एक कथा का उल्लेख किया है ।(36) वे कहते है कि 'पुण्याश्रव कथा' अथ मे शास्त्रदान के रूप में यह कथा दी गयी है। उनके द्वारा उल्लिखित 'पुण्याश्रव कथा' ग्रथ कौन सा है, कुछ निश्चित नही किया जा सका है। यथासम्भव यह प्रथ तामिल भाषा का होना चाहिए।
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भगवान श्री 108 श्री कुन्द कुन्दाचाय
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पत्नीवाल जाति के ऐतिहासिक प्रसम
कथा निम्न प्रकार है
संभालता था । एक
"भरत खण्ड के दक्षिण देश मे कुरुमराई नगर मे करमुण्ड नामक श्रीमान् श्रीमती के साथ रहता था। उसके यहाँ मतिवरन् नाम का एक ग्वाला लडका रहता था जो उसके ढोर दिन लडके ने देखा कि दावानल सुलगने से सारा वन खाक हो गया है, किन्तु बीच मे थोडे से झाड-हरे बच रहे हैं। तलाश करने पर पता चला कि वहाँ किसी साधु का प्राश्रम था और उसमे आगमो से भरी एक पेटी थी । उसने समझा, इन शास्त्र-ग्रन्थो की मौजदगी के कारण ही इतना भाग दावानल द्वारा भस्म होने से बच गया है। उन ग्रन्थो को वह अपने घर ले गया और उनकी पूजा करने लगा। किसी दिन एक मुनि उस व्यापारी के यहाँ आहार लेने आये । सेठ ने मुनि को आहार दिया उस लडके ने वे ग्रन्थ मुनि को दान दे दिये। मुनि महाराज ने सेठ तथा लडके दोनो को प्राशीर्वाद दिया । सेठ के पुत्र नही था। थोडे समय बाद वह ग्वाला लटका मर गया और उसी सेठ के घर पुत्र के रूप में जन्मा । बडा होने पर वही लडका कुन्दकुन्दाचार्य नामक महान् श्राचार्य हुआ ।' यह है शास्त्र दान की महिमा |
पिदठनाडु जिले के व्यापारी अपनी पत्नी
कुन्दकुन्दाचार्य ने स्वय अपने ग्रंथो मे अपना कोई परिचय नही दिया है । 'बारस अणुवेक्खा' ग्रथ के अन्त में उन्होने अपना नाम दिया है और 'बोधप्राभृत' ग्रंथ के भन्त मे वे अपने आपको 'द्वादश ग ग्रथो के ज्ञाता तथा चौदह पूर्वो का विपुल प्रसार करने वाले गमक गुरु श्रुतज्ञानी भगवान भद्रबाहु का शिष्य' प्रकट करते हैं । लेकिन कालनिर्णय के हिसाब से भद्रबाहु तथा आचार्य कुन्दकुन्द का समय अलग-अलग है, अत भद्रबाहु प्राचार्य कुन्दकुन्द के गुरु नही हो सकते। कुछ प्राचार्य पट्टावलियो ( गुर्वावली) के अनुसार प्राचार्य कुन्दकुन्द के गुरु श्री जिनचन्द्राचार्य थे ।
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पल्लीवाल जैन जाति का इतिहास
प्राचार्य कुन्दकुन्द ने कई ग्रंथो की रचना की । उनमे समयसार, प्रवचनसार, पचास्तिकाय, नियमसार, अष्टपाहुड ( प्राभृत), दसन्ति अथवा भत्ति सग्गहो ( दस भक्ति अथवा भक्ति संग्रह) एव बारस-प्रणुवेक्खा ( द्वादशानुप्रेक्षा) प्रादि ग्रंथ प्रमुख है। दिगम्बर समाज मे समयसार ग्रंथ का बहुत प्रचार है । इस ग्रंथ पर कई आचार्यो ने टीकाये भी की है ।
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तामिल भाषा के ग्रथ 'तिरुकुरल' या 'कुरल' के रचयिता भी आचार्य कुन्दकुन्द ही है, ऐसी कई विद्वानो की धारणा है । प्राचार्य कुन्दकुन्द की जैन धर्म को सबसे बडी देन उनकी उपरोक्त कृतियाँ ही हैं । इसीलिये मगलाचरण मे उनका नाम भगवान् महावीर तथा गौतम गणधर के बाद ही लिया जाता है ।
[३.२] हेमाचार्य : पल्लीवाल जाति के संस्थापक 12
हम दो आचार्य पट्टावलियो का वर्णन कर चुके है । उनमे अलग एक अन्य पट्टावलो 'श्री लबेचू समाज का इतिहास' में प्रकाशित की गई है । यह पट्टावली वटेश्वर (सौरीपुर ) के श्री दि जैन मन्दिर मे प्राप्त पट्टावलों के प्राचार पर बनाई गई है। इसके अनुमार विक्रम संवत् 26 से 40 के मध्य श्री हेमाचार्य ने पत्नीवाल जाति की स्थापना की । इसी पट्टावली मे दो स्थानो पर मुनि कुन्दकुन्द का भी उल्लेख है। इसी एक ही नाम कुन्दकुन्द के दो अलग-अलग मुनि हुये है । एक सवत् 1249 मे तथा दूसरे सवत् 1385 मे होने का उल्लेख है। दोनो मुनिराज पल्लीवाल जाति के थे ।
यह पट्टावली पूर्वोक्त दो पट्टावलियो से मेल नही खाती है । कई स्थानो पर ग्रन्तर स्पष्ट है । प्राचार्य कुन्दकुन्द स्वामी का समय विक्रम पहली शताब्दि होना निर्विवाद है। हॉ, इस नाम के अन्य मुनि हो सकते है ।
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पल्लीवाल जाति के ऐतिहासक प्रसग
यह पट्टावली अशुद्ध प्रतीत होती है। प्रत, श्री हेमाचार्य को पल्लीवाल जाति का सस्थापक मानना सदिग्ध है। [३.३] पल्लव-वश तथा पल्लीवाल जाति
पल्लव वश दक्षिण भारत के तामिल प्रदेश का एक सुप्रसिद्ध प्राचीन राजवश रहा है। कुछ लोग इस वश को पल्लीवाल जाति से सम्बन्धित मानते है। पल्लवो की राजधानी मद्रास के निकट 'काचीपुरम्' थी तथा इस वश का शासन पहली शताब्दी से लेकर
आठवी शताब्दी तक न्यूनाधिक रूप मे रहा है । पल्लव-वशी राजा शिवस्कन्द आचार्य कुन्दकुन्द से बहुत प्रभावित था । उसने प्राचार्य श्री से अपने राज्य में रहने के लिए विशेष अनुरोध किया तथा जैन धर्म का प्रचार भी किया। ___कि प्राचाय कुन्दकुन्द पल्लीवाल जाति के थे, इससे ऐसा प्रतीत होता है कि पल्लवो का पल्लीवाल जाति के लोगो से घनिष्ठ मम्बन्ध रहा है। पल्लव तथा पल्लीवाल मिलते-जुलते शब्द भी है। इसी कारण कुछ लोगों का मानना है कि पल्लव वश तथा पत्लीवाल जाति एक ही है।
लेकिन ऐसा मानना अनुचित है क्योकि पल्लव-वश आठवी शताब्दी तक का प्रसिद्ध राजवश रहा है। ग्यारहवी शताब्दी से आग का पत्लीवाल जाति का इतिहास पूरी तरह उपलब्ध है। यदि परस्पर इन दोनो का सम्बन्ध रहा होता तो इसके प्रमाण उपलब्ध होने चाहिएँ थे। इतने कम अन्तराल (नौ वी-दसवी शताब्दी का समय लगभग 200 वर्ष) के लिये प्रमाणो का अभाव रहे, असम्भव ही है। [३.४] पल्ली तथा पल्लोचन्दम्
पल्ली सथा पल्लीचन्द्रम् तामिल भाषा के बहु-प्रचलित शब्द है तथा ये कई अर्थो में प्रयुक्त होते है । 'पल्ली' शब्द ईसा पूर्व
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पत्नीवाल जैन जाति का इतिहास द्वितीय शताब्दि का बहुप्रचलित शब्द है । नामिल प्रदेश के मदुरा तथा रामनाड जिले में स्थित अशोक के स्थम्भो में भी 'पल्ली शब्द का प्रयोग किया गया है ।" पल्यपण्डित तथा पल्ल-कीर्ति प्रदि विशेषणो के साथ भी कई नामो का उल्लेख प्राचीन लेखो मे श्राता है ।
तामिल के अन्य शिलालेखो मे प्राय पल्लीचदम् शब्द मिलता है। श्री पी वी देसाई (जं० सा०इ० पृष्ठ-79) ने लिखा है कि पल्लि शब्द जैन मन्दिर या जैन मठ या जैन सस्था का सूचक है और चदम् 'चौन्दम्' का सरल रूप है । यह संस्कृत के स्वतन्त्र शब्द से बना है । अत पल्लीचदम् का अर्थ होता है - ऐसे जमीन, गाँव वगैरह, जिन पर केवल जैन मन्दिर वगैरह का स्वामित्व हो | 13
पल्लव नरेश विजय
मिलता है जो कि शिलालेखो मे और
नेकर
तेरहवी शताब्दी
पल्लीचदम् का सबसे प्राचीन उल्लेख कम्प वर्मा के राज्यकाल के एक शिलालेख मे लगभग नौवी शताब्दी का है । चोल राज्य के मौटे तौर पर लगभग नौवी शताब्दी से तक के पाण्ड्य राजाप्रा के शिलालेखो मे पल्लीचदम् का उल्लेग बहुतायत मे पाया जाता है । जैसे - हिन्दू देवताओ के निमित्त से दिया गया दान देवदान कहा जाता है, चदम् से सम्बद्ध है 113
कुछ वैसा ही भाव पल्ली
पल्लीचन्दम् की तरह ही तामिल भाषा का एक शब्द है - 'पल्लीकुट्टम् ।' इसका अर्थ होता है स्कूल । प्राचीन काल मे स्कूल मन्दिर या मठ से सम्बद्ध होते थे तथा जैनाचार्य अपने ज्ञान तथा शैक्षिक प्रवृत्तियो के लिये प्रसिद्ध थे । ग्रत पल्लीकुट्टम् शब्द जैन स्कूलो के लिए ही प्रयुक्त होता था ।
'पल्ली' शब्द का प्रन्यार्थ छोटा गाँव की होता है । आज भी दक्षिण के तामिल तथा तेलगू भाषी प्रदेशो मे बहुत से छोटे-छोटे ऐसे गाँव हैं जिनके नाम के पीछे पल्ली शब्द प्राता है ।
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पल्लीवाल जाति के ऐतिहासिक प्रसग
उक्त सब बातो से निम्न निष्कर्ष निकलते हैं - (1) पहली' तामिल
भाषा का ईसा पूत्र द्वितीय शताब्दी का बहुप्रचलित शब्द है । ( 2 ) यह शब्द सामान्यत जैन लोगो की विभिन्न अचल सम्पत्ति के सम्बोधनार्थ प्रयोग किया जाता था । (3) तामिल तथा तेलगू भाषा में 'पल्ली का अर्थ छोटा गाँव भी होता है ।
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ऐसा प्रतीत होता है कि पल्लीवाल शब्द की व्युत्पत्ति तामिल भाषा के इसी प्राचीन शब्द 'पल्ली' से ही हुई है । चूंकि छोटे-छोटे गाँव को 'पल्ली कहते है तथा प्राचीन काल मे एक पल्ली में एक ही वर्ण के तथा एक ही धर्म को मानने वाले लोग रहते थे, अत उन सभी पल्लियो ( छोटे-छोटे गाँवो) के वे सब लोग, जो एक ही वर्ण वाले थे तथा जैन धर्मानुयायी थे, पल्लीवाले (यानि कि छोटेछोटे गाँव वाले जैन लोग ) नाम से प्रसिद्ध हो गये । कालान्तर में ये ही लोग पल्लीवाल जाति के कहे जाने लगे ।
जैसा कि ऊपर कहा गया है कि पल्ली शब्द जैन मठ या जैन मंदिर के लिए भी प्रयुक्त होना था। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि प्राचीन काल मे पल्लीवालो का जैन मन्दिरो से घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है ।
[३५] चन्द्रवाड़ श्रोर राजा चन्द्रपाल 5, 14 15)
चद्रवाड या चदवार फिरोजाबाद से चार मील दूर दक्षिण मे यमुना नदी के बाये किनारे पर ( आगरा जिले मे ) अवस्थित है । यह एक ऐतिहासिक नगर रहा है । आज भी इसके चारो मोर खण्डहर दिखाई पड़ते हैं ।
वि स 1052 में यहाँ का शासक चन्द्रपाल नामक दिगम्बर जैन पल्लीवाल राजा था । कहते है राजा के नाम पर ही इस स्थान का नाम चंद्रवाड या चदवारपड गया। इससे पहले इम स्थान का नाम प्रसाई खेडा था । इस नरेश ने अपने जीवन मे कई प्रतिष्ठा कराई ।
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पल्लीवाल जैन जाति का इतिहास
वि स 1063 में इसने एक फुट अवगाहना की भगवान चद्रप्रभु की स्फटिक मणि की पद्मासन प्रतिमा की प्रतिष्ठा करायी । इस राजा के मत्री का नाम हारुल था जो लम्बकचुक (लमेचू) जाति का था। इसने भी वि स 1053 से 1056 तक कई प्रतिष्ठाये करायी थी। इसके द्वारा प्रतिष्ठित कतिपय प्रतिमाएं चदवार के मन्दिर मे अब भी विद्यमान है। ऐसे भी उल्लेख प्राप्त हुये हैं कि चदवाड मे कुल 51 (इक्यावन) प्रतिष्ठाएँ हुई थी । राजा चदपाल का उल्लेख 'हिन्दी विश्व कोष' (भाग-7)14 मे भी मिलता है ।
इतिहास ग्रथो से ज्ञात होता है कि चन्दवाड मे 10 वी शताब्दी से लेकर लगभग 15-16 वी शताब्दी तक जैन नरेशो का ही शासन रहा है। इस काल मे पल्लीवाल और चौहान वश का शासन रहा। इन राजाओं के मत्री प्राय लम्बकचक (लमेच ) या जैसवाल होते थे । इन मत्रियो ने भी अनेक मन्दिरो का निर्माण कराया तथा प्रतिष्ठाएँ करवायी। इन गजामो के शासन काल मे यह नगर जन और धनधान्य से परिपूर्ण था। नगर मे अनेक जैन मन्दिर थे।
इस नगर का ऐतिहासिक महत्व भी रहा है। यहाँ के मदानो तथा ग्वारो मे कई बार इस देश के भाग्य का निर्णय हुआ। चद्रवाड मे एक दुर्भेद्य किला था। वि स 1251 (मन् 1194) मे चद्रवाड नगर मे शहाबुद्दीन मुहम्मद गौरी तथा कन्नौज के राजा जयचन्द्र में भीषण युद्ध हुआ। गौरी कन्नौज तथा बनारस की ओर बढ रहा था। कन्नौज नरेश गौरी के उद्देश्य को समझ गया और उसे कन्नौज पर आक्रमण करने से रोकने के लिये भारी सैन्यदल के साथ चन्द्रवाड मे प्रा डटा। यहाँ दोनो सेनानी के बीच घमामान युद्ध हुआ । जयचन्द हाथी के हादे पर बैठा हुआ सन्य सचालन कर रहा था, तभी शत्रु का एक तीर पाकर जयचद को लगा और वह मारा गया। जयचद की सेना भाग खडी हुई। गौरी की फौजे
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पल्लीवाल जाति के ऐतिहासिक प्रसग
39 चद्रवाड नगर पर टूट पड़ी। नगर में प्रातक फैल गया। सेना ने बहुत लूट-पाट की। यहां से गौरी लूट का सामान पन्द्रह सौ ऊँटो पर लादकर ले गया। इस तरह चद्रबाड नगर उजड गया। यहाँ के पल्लीवाल तथा चौहान वशी लोगो सहित बहुत से अन्य लोग अन्यत्र विस्थापित हो गये । कुछ चौहान नशी लोग मारवाड (राजस्थान) की ओर भाग गये।
राजा जयचन्द का पुत्र राजा हरिश्चन्द्र कन्नौज मे अपना सैन्य सचालन कर रहा था । उसने वहाँ के किले को अपने हाथो से जाने नही दिया ।, अत कन्नौज मे रहने वाले सभी लोग वहाँ सुरक्षित थे।
इस घटना के बाद भी इस नगर पर कई विपदाये आयी। सन् 1389 मे सुलतान फिरोजशाह तुगलक ने चन्द्रवाड तथा उसके निकटस्थ हतिकात और रपरी पर अधिकार कर लिया। उसके पोते तुगलक शाह ने चन्द्रवाड को बिल्कुल नष्ट कर दिया। कई मन्दिरो को तुडवाया। बहुत सी जैन मूर्तियो को यमुना नदी की धारा के बीच छिपा कर बचा लिया गया, लेकिन जो शेष रह गयी, उनको उसने नष्ट करवा दिया।
___इसके पश्चात् भी कई परिवर्तन आये। कई बार युद्ध भी हुये। इसी कारण धीरे-धीरे चन्द्रवाड और उसके आसपास के नगर रपरी तथा हस्तिकान्त (हतिकात) प्रादि स्थान, जहाँ कभी जैनो का बर्चस्व और प्रभाव था, अपना प्रभाव खोते गये। उनकी समृद्धि नष्ट हो गयी। ये विशाल नगर सिकुडते गये तथा प्राज छोटे-छोटे गाँव बन कर रह गये है। वहाँ बहुत से प्राचीन खण्डहर बिखरे पडे है जो इन नगरो के प्राचीन वैभव की कहानी बताते है।
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पल्लीवाल जैन जाति का इतिहास [३.६] क्या पल्लीवाल क्षत्रिय थे ? :
वर्तमान की अनेक वैश्य जातियां अपने को क्षत्रिय बतलाती हैं। यह सम्भव भी है । जैसा कि प्रथम अध्याय मे लिखा जा चुका है कि बहुत सी वैश्य जातियाँ विभिन्न गणराज्यो से सम्बन्धित थी तथा वे जातियाँ कृषि, पशुपालन तथा वाणिज्य के साथ-साथ शस्त्र भी धारण करती थी। गणराज्यो के नष्ट हो जाने पर उन्हे शस्त्र छोड देने पडे और केवल कृषि, पशुपालन तथा वाणिज्य ही उनकी जीविका के मुख्य साधन रह गये। कालान्तर मे अहिसा की भावना तीव्र होने पर कृषि कार्य भी छोड दिया, जिसके साथ-साथ गौ-पालन भी चला गया और तब उनकी केवल वाणिज्य वृत्ति ही
रह गयी।
इतिहास मे प्रख्यात गुप्त वशी मूलत वैश्य हो थे जिनमे समुद्रगुप्त तथा चन्द्र गुप्त जैसे महान सम्राट हुये। हर्षवर्धन भी वैश्य वश का था । ऐमी दशा में यदि बहुत सी जैन जातियाँ अपने को क्षत्रिय वशज कहतो है तो अनुचित नही है। वृत्तियों तो सदा बदलती रहती हैं।
पाटण नरेश भीमदेव सोलको (ईम 1022-1062) के प्रसिद्ध सेनापति विमलशाह पोरवाड थे जिन्होने बारह सुल्तानो को हराया तथा प्राबू का प्रसिद्ध आदिनाथ मन्दिर बनवाया था। इसी प्रकार आबू के जगत् प्रसिद्ध जैन मन्दिरो के निर्माता वस्तुपाल तथा तेजपाल (वि स 1288) भी पोरवाड ये जो महाराज वीरधवल बाघेला के मन्त्री और सेनापति थे । महाराणा प्रताप का सेनापति भामाशाह भी वैश्य था।
चन्द्रवाड का राजा चन्द्रपाल (वि स 1052 के ग्रामपास) पल्लीवाल जैन था, इसलिए कुछ लोगो का कहना है कि परलीवाल क्षत्रिय मूल के है। उनका कहना है कि पल्लीवाल इक्ष्वाकुवशी हैं। कविवर मनरगलाल जी जो कि पल्लीवाल थे, ने भी अपने को इक्ष्वाकुवशी कहा है।
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पल्लीवाल जाति के ऐतिहासिक प्रसग [३५] महत्वपूर्ण लेख तथा मूतिलेख(1) 'सूरत अने सूरत जिल्ला जैन मन्दिरोनो मूर्ति लेख सग्रह'
लेखक, सग्रहकर्ता प्रने प्रकाशक-श्री मूलचन्द कसनदास कापडिया (सूरत) (गुजराती भाषा में) मे प्रकाशित । 'महुवा (सूरत) के श्री विघ्नहर पार्श्वनाथ अतिशय क्षेत्र की
एक प्रतिमा का आलेखवेदी न०३ (39) मूलनायक सफेद पाषाण रिषभदेव, ऊँचाई 18 इच, माजू
बाजू पार्श्वनाथ, अनो वे (दो) कायोत्सर्ग प्रतिमा पडोणाई
16 इन्च दे। लेख - 'स 1390 वर्ष माघ सुदी 10 दशम शनीचर पल्लीवाल
ज्ञातीय मकी भार्या भाऊ तत् सुत श्री कुरसी भार्या.. ..।'
(आगे लेख पढने मे नहीं आता है ।) (2) 'भट्टारक-सम्प्रदाय' (लेखक-श्री वी पी जोहरापुरकर,
नागपुर में प्रकाशित। (क) पृष्ठ १७२
लेखाक -438, ? मूर्ति 'सवत् 1505 वर्षे श्री मूल सधे पद्मनदि देवा-शिष्य देवेद्र कीर्ति तत्शिष्या विद्यानदि शिष्य ब्रह्म धर्मपाल उपदेशात् पल्लीवाल ज्ञातीय स राना भार्या रानी सुत पारिसा भार्या हर्ष प्रणमति ॥'
(सिदी, 'अनेकान्त' वर्ष 4, पृष्ठ 502) (ख) सेन गण मन्दिर, नागपुर से प्राप्त भूति लेख
पृष्ठ-११ लेखाक-28, अरहत मूर्ति
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पल्लीवाल जैन जाति का इतिहास
'सके 1424 मूल सधे सेनगणे भ माणिक सेन उपदेशात् गुजर पल्लीवाल जाति -- -- सघवी नेमा ।।' पारवं प्रभु (बडा) मन्दिर, नागपुर से प्राप्त मूति लेख - (ग) पृष्ठ-५६
लेखाक-~136, चौबीस मूर्ति 'शके 1607 प्रभाव नाम सवत्सरे फाल्गुन वदि 10 भ धर्मचन्द्र उपदेशात् -- - नगरे ज्ञातो उज्वेली पत्लोवार
गोदसा भार्या सेमाई प्रणमति ॥' (घ) पृष्ठ-४८ लेखाक-213, चौबीस मूर्ति
‘शक 1626 तारण नाम सवत्सरे माहो सुद 13 शुक्र मूलसघे भ पद्मकीति तत्पटे भ विद्याभूषण तत्पटे भ हेमकीति उपदेशात् उज्जैनी पल्लीवाल ज्ञातीय सिगवो लखम प्रसाद जी भार्या गोमाई - प्रतिष्ठित भीपी नगरे
चन्द्रनाथ चैत्यालये - (ड) पृष्ठ-८३ लेखाक-207, सम्यग्दर्शन यत्र
'शके 1601 फाल्गुन सुदी ।। श्री मूलसघे बालात्कार गणे भ श्री पद्मकीनि सदुपदेशात् श्री पद्मावती पल्लीवान्न
ज्ञातौ उडनाव कुस्तानी पानसी भार्या मगनाई (३) अनेकान्त, वर्ष १८ पृष्ठ १५३ मे प्रकाशित मूर्ति लेख
विदर्भ क्षेत्र के भातकुली नामक स्थान पर स्थित दिगम्बर जैन मन्दिर की भगवान पार्श्वनाथ की प्रतिमा पर लेख'सवत् 1515 मूलसघे सेनगणे भ० माणिक सेन पट्टे भ० नेमसेन उपदेशात् गुजर पल्लीवाल सावसेटी " " ....।'
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पल्लीवाल जाति के ऐतिहासिक प्रसग ____ 'धर्मरत्न', वर्ष 1 अक 12 (सन् 1937) में कई शिलालेखो/ मूर्तिलेखो का वर्णन है। इनका सकलन मुनि श्री दर्शन विजय जी महाराज ने किया था। पल्लीवाल बन्धुप्रो द्वारा स्थापित मूर्तियो के लेख निम्न प्रकार हैं(1) श्री गिरनार तीर्थ मे जिनेन्द्र-प्रतिमा पर शिलालेख है
160॥ सवत् 135 6 वर्षे ज्येष्ठ शुदि 15 शुक्रे श्री पल्लीवाल ज्ञातीय श्रेष्ठी पासु सुत साहु पद्म भार्या तेजला ... तेन कुलगुरु श्री स्मनिमुनि प्रादेशन श्री मुनिसुव्रत स्वामी देवकुलिका पितामह श्रेयो ..'
(लि० ओ० रि० इ० वॉ० प्रे० पृ० 363, 3-57) (2) पाटण (गुजरात) मे कनासा पाढा के जिनालय मे भगवान
श्री शान्तिनाथ जी के गर्भगृह की जिन प्रतिमा का शिलालेख
'मवत् 1371 वर्षे आसाढ शुदि 8 रवी श्री पल्लीवाल ज्ञातीय उ० - " श्री आदिनाथ बिब का० प्र०।'
(B 328) (3) पालीताना (काठियावाड) मे गोडी जी पार्श्वनाथ के मन्दिर
जी की जिन-प्रतिमा पर शिलालेख'सवत् । 383 वैसाख वदी 7 सोमे पल्लीवाल पद्म भा० कोल्हण देवि श्रेयसे सुत कीकमेन श्री महावीर वि० कारित प्रति ।
(N 657) (4) आगरा में पचतीर्थी प्रतिमा का शिलालेख- (अर्थ)
'वि०स० 1396 मे पल्लीवाल भीम के पुत्र सेल और तज ने भ० शान्तिनाथ जी की प्रतिमा बनवाई जिसकी गजगच्छीय मा० हसराज सूरिजी ने प्रतिष्ठा की।'
(A-18)
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पल्लीवाल जैन जाति का इतिहास
सूरिभि ।'
(5) शहर महेसाणा (गुजरात) मे जिन मन्दिर की धातु मूर्ति का
शिलालेख'सवत् 1396 माघ शु० 10 शनी पल्लीवाल ज्ञातीय ठ० हाडा भा० नायकि सुतश्रेयसे श्री महावीर बिब कारित प्र श्री धर्मघोष गच्छे श्री मानतु ग सूरि शिष्य श्री हसराज
(D न0 65) (6) घोघातीर्थ (काठियावाड) मे जीरावला पार्श्वनाथ के मन्दिर
जी की धातु मूर्ति का शिलालेख'स० 1510 वर्षे फागुण वदि 3 शुक्र पल्लीवाल ज्ञातीय स० म० मडलिक भार्या शाणी पुत्र लालाकेन भार्या रगो मुख्य कुटुम्ब यतेन श्री अचलगच्छेश श्री जयकेसर सूरीणामुपदेशेन श्री चन्द्रप्रभ बिब कारित ।'
(D न० 261) (7) श्री नाकोडा तीर्थ (वीरमपुर) मे शिलालेख
॥ ॥ अषाढादि सवत् ।681 वर्षे चैत्र बदि 3 सोमवारे हस्तनक्षत्रे विरमपुरे राउल श्री जगमाल विजय राज्ये श्री पल्लीवाल गच्छे भट्टारक श्री यशोदेव सूरिजो विजयमाने श्री पार्श्वनाथ जी चैत्ये श्री पल्लीवाल सधेन गवाक्षत्रय सहिता सुशोभना निर्गम चतुष्किका कारापिता उपाध्याय श्री हरशेखराणा पट्ट प्रभाकरोपाध्याय श्री कनकशेखर तत्पट्रालकारोपाध्याय श्री देवशेखर स्वर्गत उपाध्याय कनक शेखर हस्त दीक्षितेन उपाध्याय श्री सुमति शेख रेण स्वहस्तेन लिखित ॥ श्री श्रेयोस्तु श्री श्रावक सघस्य शुभ भवतु । सूत्रधार हेमा पुत्र " ।'
(न० 419) इन शिला नेखो के अतिरिक्त कुछ और शिलालेख भी हैं। उनका सम्बन्ध पल्लीवाल जाति से न होकर अन्य
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पल्लोवाल जाति के ऐतिहासिक प्रसग
जातियो से रहा है । इन लेखो में भी मन्य जाति के नामोल्लेख के साथ पल्ली गच्छ या पल्लकीय गन्छ या पल्लीवाल गच्छ का नाम भो पाता है।
श्री दौलतसिंह जी लोढा कृत 'पल्लीवाल जैन इतिहास' मे भी पल्लीवाल श्रेष्ठि बन्धुप्रो द्वारा प्रतिष्ठित प्रतिमाओ का परिचय दिया गया है, वह निम्नवत् है(1) श्री शञ्जय तीर्थ-वि०स० 1383 वैसाख कृष्णा 7 सोम
वार को पल्लीवाल ज्ञातीय पदम की पत्नी कील्हण देवी के श्रेयार्थ पुत्र कोका द्वारा कारित श्री महावीर प्रतिमा श्री गौडी पार्श्वजिनालय में विराजमान है।
(जैसलमेर नाहर लेखाक 657) (2) प्रभास पत्तन--वि स 1339 वैशाख शु० (2) शनिश्चर
को पल्लीवाल ज्ञातीय ठ० पासाढ ठ० प्रासापल द्वारा पत्नी जाल्ह (ण) के श्रेयार्थ एक जिन प्रतिमा श्री बावन जिनालय की चरण चौकी में विराजमान है।
(जैसलमेर नाहर लेखाक-1791) इसी बावन जिनालय की चरण चौकी में द्वितीय प्रतिमा श्री पार्श्व नाथ की वि स 1340 ज्येष्ठ कृष्णा 10 शुक्रवार को प्रतिष्ठित, जिसको पल्लीवाल बीरबल के भ्राता पूर्णसिंह ने पन्नी वय जलदेवी पुत्र कुमरसिह, कैलि (कालूसिह) भा० ठ० स्वकल्याणार्थ करवाई, विराजमान है ।
(जैसलमेर नाहर लेखाक-1792) (3) शोयालकोट (काठियावाड़)-वि स 1300 वैशाख कृ. 11
बुद्धवार को श्री सहजिगपुरवासी पल्लीवाल व्यवहारी देदा पत्नी कडूदेवी के पुत्र परी० महीपाल, महीचन्द्र के पुत्र रतनपाल विजयपाल द्वारा व्य०शकर पत्नी लक्ष्मी के पुत्र सघपति मूधिग देव के स्वपरिवार सहित देवकुलका युक्त श्रीमल्लिनाथ
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पल्लीवाल जैन जाति का इतिहास बिम्ब कारित एव चन्द्र गच्छीय श्री हरिप्रभसूरि शिष्य श्री यशोभद्र सूरि द्वारा प्रतिष्ठित जैन मदिर में विराजमान है।
(जैसलमेर नाहर लेखाक---1178) (4) प्रहमदाबाद-वि स 1327 फा शु 8 को चौमुखा जिना
लय मे पल्लीवाल कुमरसिह भार्या कुमरदेवी के पुत्र सामन्त पत्नी शृ गार देवी के श्रेयार्थ उनके पुत्र ठ० विक्रमसिह, ठ० लूण, ठ० सागा के द्वारा कारित एव बडगच्छीय श्री चन्द्रसूरि शिष्य श्री माणिक्य सूरि द्वारा प्रतिष्ठित एक मोटी धातु पचतीर्थी विराजमान है।
(जे० धा०प्र० ले० 137) (5) हरसूली-वि स 1445 फा० कृ० 10 रविवार की श्री हारी
जग० पल्ली० श्रोष्ठि भूभा भार्या पाल्हणदेवी पूज़ के पुत्र कन्न्, हापा द्वारा स्वमाता-पिता के श्रेयार्थ कारित एव श्री शीलभद्र सूरि द्वारा प्रतिष्ठित श्रीमहावीर धातु प्रतिमा पचतीर्थी श्री पार्श्वनाथ जिनालय में विराजमान है ।
[प्रतिष्ठ लेख संग्रह (विनय सागर जी) ले० 170]
(6) लाडोल-वि स 1326 चैत्र कृ०12शुक्रवार को पत्ली० श्रेष्ठि
धनपाल द्वारा कारित एव चित्रावाल गच्छीय श्री शालिभद्र सूरि शिष्य श्री धर्मचन्द सूरि द्वारा प्रतिष्ठित श्री शान्तिनाथ एव श्री अजितनाथ धातु प्रतिमा एक जिनालय मे विगजमान है।
(जै० प्र० लि० स० भा० 10 ले० 462) 47) राधनपुर- वि स 1355 वैशाख कृष्ण X की श्री हारीज
गच्छीय पल्लीश्र० जदूता के श्रेयार्थ उनके पुत्र द्वारा कारित
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पल्लीवाल जाति के ऐतिहासक प्रसग
एव श्री सूरि द्वारा प्रतिष्ठित श्री चन्द्रप्रभ धातु बिम्ब एक जिनालय मेविराजमान है।
(जै० प्र० लि० स० भा० 10 ले० 463) (8) बडोदा - वि स 1335 चैत्र कृ० 5 की पल्ली० पद्भल,
पद्मा द्वारा श्रे० सहजमल माता-पिता के श्रेयार्थ कारित एव श्री विजयसेन सूरि के राज्यकाल मे श्री उदयंप्रभसूरि द्वारा प्रतिष्ठित श्री आदिनाथ धातु प्रतिमा दादा श्री पार्श्वनाथ मन्दिर, नरसिंह जी की पोल में विराजमान है। (प्राचीन जैन लेख संग्रह ( जिन० वि०) लेखाक
-57 (गिरनार प्रशास्ति 5)] (9) खम्भात-वि स 1408, बैसाख शु० 5 गुरुवार की पल्ली०
श्रेष्ठि समेत द्वारा पिता स्वेता, माता पाहू के श्रेयार्थ कारित एव श्री चैत्र गच्छीय श्री पद्मदेवसूरि पट्टालकार श्री मानदेव सूरि द्वारा प्रतिष्ठित श्री शान्तिनाथ धातु बिम्ब कुम्भार पाडा के श्री शीतलनाथ जिनालय मे विराजमान है।
(जै० ध० प्र० ले० स० भाग 2 लेखाक-228) (10) खम्भात-वि स 1343 माघ शु० 12 पल्ली० स० हरि
चन्द के पुत्र म तेजपाल द्वारा माता पाल्हणदेवी के श्रेयार्थ कारित एवं प्रतिष्ठित श्री रत्नमय पार्श्वनाथ धातु बिम्ब विराजमान है।
(जै० ध० प्र० ले० स० भाग 2 लेखाक 550) (11) नासिक्यपुर-पल्ली० शाह ईसर के पुत्र माणिक पत्नी
श्री नाऊ के पुत्र शाह कुमारसिह ने श्री चन्द्रप्रभ जिनालय की जीर्णोद्धार करवाया था।
(गै००प्र०ले०स० भा० 2 वैशाक 655) (12) प्रदतीर्थ - वि स 1302 ज्येष्ठ शु १ शुक्रवार की पल्ली.
भा० धरणदेव पत्नी भा० धरणदेवी के पुत्र भा० बागड पत्नी
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पल्लीवाल जैन जाति का इतिहास
द्वारा कारित एव प्रतिष्ठित प्रतिमा श्री नेमनाथ जिनालय के श्री शान्तिनाथ मन्दिर ( कुलिका ) मे विराजमान है । - ( अर्बुद प्रा० जे० स० लेखांक - 492 )
(13) बीकानेर - वि स 1373 वैशाख शु० 7 सोमवार की पल्ली० से० पासदत्त द्वारा से० नरदेव के श्रेयार्थ कारित एव चत्र गच्छीय श्री पद्मसूरि द्वारा प्रतिष्ठित श्री शातिनाथ प्रतिमा श्री चिन्तामणि ( चडबीसरा ) जिनालय मे विराजमान है।
इसी नगर के श्री महावीर मंदिर मे वि स 1390 वैशाख कृ० 11 पल्ली० ० ठ० मेघा द्वारा पिता अभयसिंह माता लक्ष्मी के श्रेयार्थ कारित अम्बिका मूर्ति विराजमान है । ( बीकानेर जे० ले० संग्रह, (लेखक 1539)
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( 14 ) बूदी - वि स 1631 माघ शु० शुक्रवार की पल्ली शाह राजपुत्र धर्मसी के पुत्र प्रियवर द्वारा कारित एव वृहद् गच्छीय श्री शान्तिभद्र सूरि द्वारा प्रतिष्ठित श्री विमलनाथ पचतीथी श्री पार्श्वनाथ मन्दिर मे विराजमान है ।
[ प्रतिष्ठा लेख संग्रह (विजयमागर जी) प्र० भा० ले० 738)]
( 15 ) हिन्डौन - वि स 1793 बैसाख शु० 3 शनिश्चर की नगरवासी के पल्ली • नोलाठिया गोत्रीय श्री लक्ष्मीदास पत्नी धौकनी के पुत्र शाह देवीदास द्वारा कारित एव विजयगच्छीय श्री तिलकसागर प्रतिष्ठित श्री ऋषभदेव प्रतिमा जिसकी प्रतिष्ठा हिन्डौन मे ही हुई थी । यह लेख श्री मन्दिर जी के दरवाजे पर है ।
उक्त शाह देवीदास ने उक्त गच्छीय प्राचार्य से वि सवत् 1796 फा० शु० 7 शुक्रवार को श्री पार्श्वनाथ प्रतिमा प्रतिष्टित
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पल्लीवाल जाति के ऐतिहासिक प्रसंग
करवाई थी । यह प्रतिमा भी उक्त मन्दिर में विराजमान है । ( 16 ) भरतपुर - स 1826 वर्षे मिती माघ बदि 7 गुरुवार stroगरे महाराजे केहरी सिंह राज्ये विजय गच्छे महा भट्टारक श्री पूज्य श्री महानन्द सागर सूरिभिस्तट्टपदत्त पल्लीवाल वश डगिया गोत्रे हरसाणा नगर वासिता चौधरी जोधराजेन प्रतिष्ठा करापितायाँ ।
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यह श्री मुनिसुव्रत स्वामी बिम्ब मूलनायक रूप मे श्री जैन श्वेताम्बर पल्लीवाल मन्दिर जती मोहल्ला भरतपु में विराजमान हैं। इसी मन्दिर में सर्वधातु की पचतीर्थी जी पर निम्नलिखित लेख है
|| सिधि || सवत् 1554 बैसाख मुदी 3 पल्लीवाल ज्ञातीय सघ धलित सूना सधना । श्री पार्श्वनाथ बिम्ब कारित -
..... 1
(16) साथा ( राजस्थान ) - श्री शारदाय नम श्री गुरुभ्यो नम सवत् 1708 वर्षे फागुन सुदी 12 भृगुवासरे रिषधीलाल जैन जाति पल्लोवाल के भया लालचन्द लि० तब सिष मोहन जि तमु सिष दशरथ तसु मिष षेतसि सवत 1708 फागुन सुदी 12 |
सन् 1930 में प्रकाशित गुजराती मूल के ग्रंथ 'जैन परम्परा नौ इतिहास, भा-2' में भी बहुत से पल्लीवालो के धार्मिक कार्यो का उल्लेख है, वह निम्न प्रकार है
(1) मोटा दानवीर सेठ लाखन ( लाखण ) पल्लीवाल ने सवत् 1299 के कार्तिक महिने मे राजगच्छ के प्राचार्य रत्न प्रभ के उपदेश मे 'समराइच्च कथा' लिखाई और व्याख्यान
कराया ।
(2) बरहुडिया नमड पल्लीवालो के वंशजो ने शत्रु जय, गिरनार, श्राव आदि मे जिन मन्दिर, जिन प्रतिमाओ और परिकरो को बनवाया व प्रतिष्ठा करवाई ।
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पल्लीवाल जन जाति का इतिहास (3) नेमड पल्लोवाल के पौत्र जिनचन्द्र ने सवत् 1292 मे पोर
सम्वत 1296 में बीजापुर मे तपागच्छ के प्राचार्यों का
चातुर्मास करवाया व शास्त्र लिखवाया। (4) बरहुडिया जिनचन्द्र का पुत्र वीर धवल और भीमदेव तपा
गच्छ के प्राचार्य विद्यानन्द सूरि (सवत् 1302 से 1327)
और धर्मघोष सूरि (सवत् 1302 से 1257) बने। ये बडे
त्यागी और तपस्वी थे। (5) सोही पल्लीवाल का पौत्र आह्ड उनके पुत्र पद्मसिह की पुत्रो
भावमू दरी साध्वी कीर्तिगणि के समीप दीक्षा अगीकार की। आहड का पुत्र श्रीपाल सवत् 1303 मे कार्तिक सुदी 10 रविवार को भरूच मे प्राचार्य कमलप्रभ सूरि के उपदेश से 'अजितनाथ चरित्र' लिखवाया और उसके पक्षधर प्राचार्य
नरेश्वर सूरि से व्याख्यान करवाया। (6) कर्पूरा देवी पल्लीवाल सम्वत् 1327 में 'शतीपदी दीपिका'
लिखवाई। (7) पुन्ना परलीवाल का पौत्र गणदेव खभात की पोशाला मे
त्रिषष्ठिशाला का पुरुष चरित्र' भेट अर्पण किया। (8) वीरपुर के धनाढ्य देदाधर पल्लीवाल की पत्नी रासलदेवी
ने 'गणधर सार्ध शतक' की टीका लिखवाई। (9) सिहाक और धनगज काकासिह की आज्ञा से सम्वत् 1441 मे
खभात मे तमाली मे स्थभण पार्श्वनाथ मन्दिर का जीर्णोद्धार करवाया और प्राचार्य देवसुन्दर सूरि के पट्टधर प्राचार्य ज्ञान सूरि पद महोत्सव किया।
उनके ही काका भाइयो लखमसिह, रामसिह और गोवात्र ने सवत् 1442 में प्राचार्य देव सुन्दर सूरि के पट्टधर आचार्य कुलमण्डन सूरि तथा आवार्य गुणरत्न सूरि का पद महोत्सव
किया।
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पल्लीवाल जाति के ऐतिहासिक प्रसग
इससे पहले सिंहाक के काका सिंह को माज्ञा से सम्वत् 1420 चैत्र सुदी 10 के दिन पाटण मे तपागच्छ के प्राचार्य जयानन्द सूरि तथा प्राचार्य देव सुन्दर सूरि का प्राचार्य पद
महोत्सव किया। (10) सोनी प्रथिमसिह पल्लीवाल का पुत्र साल्हा प्राचार्य देव
सुन्दर सूरि के उपदेश से सवत् 1442 का भादवा सुदी 2 सोमवार को खभात मे 'पचाशक वृत्ति' ताडपत्र पर लिखवाई।
उक्त धार्मिक घटनामो का वर्णन पल्लीवाल जैन इतिहास' की भूमिका मे श्री लालचन्द्र भगवान गाधी ने भी किया है।
उपर्युक्त लेखो तथा मूर्ति लेखो से निम्न निष्कर्ष निकलते है(1) बि स 1052 के पास पास पल्लीवाल जाति चन्द्रवाड (वर्त
मान फिरोजाबाद के निकट) मे रहनी थी तथा वह दिगम्बर जैन धर्मानुयायी थी।
(देखे - 'चन्द्रवाड और राजा चन्द्रपाल) (2) पल्लीवाल जाति के बहुत से लोग चौदहवी शताब्दी मे पूरे
गुजरात मे फैल गये थे। ये लोग मुख्यत गुजरात के पाटन, मेहसाना, अहमदाबाद, काठियावाड भरूच तथा सूरत आदि स्थानो पर रहते थे। यहां रहने वाले पल्लीवालो मे जैन धर्म के दोनो आम्नायो को मानने वाले थे। कुछ लोग
स्वेताम्बर थे तथा कुछ दिगम्बर।। (3) गुजरात के कुछ पल्लीवाल सोलहवी शताब्दी में अपनी जाति
की मूल धारा से अलग हो गये तथा उज्जन और पद्मावती नगरो की ओर चले गये। नागपुर से प्राप्त मूतियो पर गुर्जर पल्लीवाल, उज्जैनी पल्लीवाल तथा पद्मावती पल्ली
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पल्लीवाल जैन जाति का इतिहास वाल लेख पाता है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि उज्जैन तथा पद्मावती नगरो के पल्लीवाल बाद मे फिर से एक स्थान पर नागपुर के आस पास एकत्रित हो गये । आज भी इन जातियो के परिवार विदर्भ क्षेत्र में रहते है।
दिगम्बर आम्नाय को मानने वाले पल्लीवाल गुजरात के पाटण, मेहसाना, अहमदाबाद, बडौदा तथा राजकोट जिलो मे भी रहते थे तथा उन्होने मूर्ति आदि की प्रतिष्ठाएँ भी कराई, लेकिन खेद है कि आज तक इन स्थानो के दिगम्बर मूर्ति लेखो को अभी तक सकलित नही किया गया है, इसी कारण वे अब तक प्रकाश मे नही आई हैं।
कन्नौज, अलीगढ, फिरोजाबाद, कचौडाघाट तथा मुरैना क्षेत्रो मे रहने वाले पल्लीवाल हमेशा से दिगम्बर आम्नाय को मानते रहे है तथा आज भी दिगम्बर धर्म को मानते है। यहाँ के लोगो ने कई मन्दिगे का निर्माण कराया है तथा मूर्तियो की प्रतिष्ठाएँ भी कराई है। कई प्राचीन मन्दिर अाज भी मौजूद है। लेकिन खेद है कि इन क्षेत्रो के दिगम्बर मूर्तिलेख आदि भी अभी तक प्रकाश मे नही पाये है। अत उपर्युक्त मूर्ति लेखो मे इसी कारण दिगम्बर मूर्ति लेखो की संख्या कम है।
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चतुर्थ-अध्याय
समाज-दर्शन [४.१] चौरासी जातियों एवं साढ़े बारह प्रकार की
जातियों में पल्लीवाल जाति का स्थानजैन समाज मे चौरासी जातियाँ प्रसिद्ध है। समय-समय पर विभिन्न लेखको तथा कवियो ने इन जातियो को गिनाया है। अठा. रहवी शताब्दी के विद्वान कवि पडित विनोदीलाल जी अग्रवाल ने वि स 1750 मे 'फूलमाल-पच्चीसी' नामक पद्यात्मक रचना की है। इसमे उन्होने चौरासी जैन जातियो का वर्णन किया है । इन जातियो मे एक पल्लीवाल जाति भी है। कविवर विनोदीलाल जी ने लिखा है कि एक बार इन सब जातियो के लोग गिरनार जी मे नेम प्रभु को फूलमाल लेने के लिए एकत्रित हुये। परस्पर यह होड लगी कि प्रभू की जयमाल मै ले। दूसरा कहता था कि पहले मैं लूं तथा तोसरा चाहता था कि फूलमाल मुझे मिले। इस होड मे सभी जातियों अपने वैभव के अनुसार बोली छुडाने के लिए तैयार थी। फूलमाल लेने की जिज्ञासा ने जन साधारण मे अपूर्व जागृति की लहर उत्पन्न कर दी और एक से बढकर एक फूलमाल की बोली देने को तैयार हो गया। उन सबमे से किसी एक को ही फूलमाल मिली। आगे विनोदीलाल जी लिखते है कि यद्यपि 16वी शताब्दी के विद्वान ब्रह्मने मिदत्त ने भीफूलमाला-जयमाल का निर्माण किया था जो सक्षिप्त, सरल और सुन्दर है । जोस ज्जन इस महर्दिक फूलमाल को अपनी लक्ष्मी देकर लेते है उनके सब दुख दूर हो
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पल्लीवाल जैन जाति का इतिहास प० विनोदीलाल जो द्वारा गिनाई गई चौरासी जन जातियां निम्न प्रकार हैं
(1) खण्डेलवाल, (2) जसवाल, (3) अग्रवाल, (4) बघेरवाल, (5) पोरवाल, (6) देशवाल, (7) सहेतवाल, (8) दिल्लीवाल, (9) सेतवाल, (10) बढेलवाल, (11) पुष्पमाल, (12) श्री श्रीमाल, (13) प्रोसवाल, (14) पल्लीवाल, (15) चूरूवाल, (16) चौसखा, (17) पद्मावती पोरवाल, (18) परवार, (19) गगेरवाल, (20) बन्धुवाल, (21) तोर्णवाल, (22) सोहिला, (23) करिन्दवाल, (24) मेडवाल, (25) खोहिला (26) लमेचू, (27) माहुरे, (28) महेसरी, (29) गोलवाल, (30) गोलपूर्व, (31) गोलहूँ, (32) बधनौर, (33) मागधी, (34) बिहारवाल (35) गूजरा, (36) मुस्वण्ड, (37) बूमरा, (38) भुराल, (39) सोरठ (40) मुराल, (41) चितौरिया, (42) कपोल, (43) मोमराठ, (44) वर्म, (45) हूँमडा, (46) नागौरिया, (47) सीरागहोड, (48) भडिया, (49) कनौजिया, (50) अधौजिया, (51) मिवाड, (52) मालवान, (53) जोधडा (54) समोधिया, (55) मुभट्टनेर, (56) रायबल (57) नागरा, (58) रुधाकरा, (59) सुकन्थ रारू, (60) जालराल, (61) बालभीक, (62) भाकरा (63) मभरा, (64) लाड, (65) चोडकोड, (66) गोड (67) मोड, (68) खरिउप्रात, (69) श्रीखटा, (70) चतुथ, (71) पचमभरा, (72) सुरलाकार,
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समाज-दर्शन (73) भोजकार, (74) नरसिंहपुरी, (76) क्षेत्र ब्रह्म, (77) वैश्य, (79) छाइया, (80) लठे, (82) सिंधार, (83) राग
(75) जम्बूवाल, (78) आइमा, (81) सखा, (84) जानराज।
खटौरा निवासी नवलशाह चदोरिया ने विक्रम सवत् 1825 मे 'श्री वर्धमान पुराण' की रचना की22 जिसमे उन्होने भी एक स्थान पर चौरासी जैन जातियाँ गिनाई है। लेकिन इन जातियो तथा पूर्वोक्त जातियो की तुलना करने पर देखते है कि बहुत सी जातियाँ एक लिस्ट मे है लेकिन दूसरी मे नही। फिर भी पल्लीवाल जाति को श्री नवलशाह चदोरिया ने भी नही छोडा है ।
___ जिस प्रकार चौरामी जैन जातियो को समय-समय पर विभिन्न विद्वानो ने गिनाया है, उसी प्रकार साढे-बारह प्रकार की जातियो को भी समय-समय पर गिनाया गया है। श्री नवलशाह चदोरिया ने 84 जातियो का तीन श्रेणियो में वर्गीकरण किया है
(1) साढे-बारह प्रकार की जातियाँ (2) जैन लगार वाली जातियाँ, तथा (3) अन्य वैश्य जातियाँ।
'श्रीवर्धमान पुगण' मे साढे-बारह प्रकार की जन जातियो की 'पात इक भाँत' अर्थात् एक पक्ति मे एक समान उच्चता वाली कहा गया है। 'परवार-मूर-गोत्रावली' मे भी इन्ही साढे-बारह प्रकार की जातियो को गिनाया गया है। यह जैनो मे परस्पर समता एव भ्रातृभाव की द्योतक हैं। इन साढे-बारह प्रकार की जातियो मे पल्लीवाल जाति को नहीं रखा गया है। पल्लीवाल जाति को जैन-लगार वाली श्रेणी में रखा गया है। जैन-लगार से यहाँ तात्पर्य यह है कि इन जातियो मे जैनत्व का प्रभाव विद्य
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पल्लीवाल जैन जाति का इतिहास मान है। ये जातियां या तो अभी अशत जैन हैं अथवा पूर्वकाल मे थी। तोसरी श्रेणी मे साठ अन्य वैश्य जातियो को रखा गया है। श्री नवलशाह चदोरिया ने 84 जातियो का वर्गीकरण निम्न प्रकार से किया है
साढ़े बारह प्रकार की जन नातियाँ-(1) गोलापूरब, (2) गोलालारे, (3) गोलसिधारे, (4) परवार, (5) जैसवार, (6) टमडे, (7) कठनेरे, (8) खण्डेलवाल, (9) बहरिया, (10) श्री माल, (11) लमेचू, (12) प्रोसबाल (13) अग्रवाल (आधी जाति)
जन-लगार वाली जातियाँ- (14) जिनचरे, (15) बाघेल वार, (16) पद्मावती पुरवाल, (17) ठस्सर, (18) गृहपनि, (19) नेमा, (20) असठी, (21) पल्लीवार, (22) पोरवाल, (23) ढढतवाल, (24) माहेश्वरवाल,
अन्य वैश्य जातियाँ-(25) पडितवाल, (26) डौडिया, (27) सहेलवाल, (28) हरसौला, (29) गोरवार, (30) नारायना, (31) सीहोरा, (32) भटनागर, (33) चीतोरा (34) भटेरा, (35) हरिपा, (36) धाकरा, (37) वाचनगरिया, (38) मोर (39) वाइडाको, (40) नागर, (41) जलाहर, (42) नरसिहापुरी, (43) कपोला, (44) डोसीवाल, (45) नगेन्द्रा, (46) गोड, (87) श्री गोड, (48) गागड, (49) डाख, (50) डायली, (51) बघनौरा, (52) सौरावान, (53) धन्नेग, (54) कथेरा (55) कोरवाल, (56) सूरीवाल, (57) रेव वार, (50) मिधवाल (59) सिरैया, (60) लाड, (61) लडेलवाल, (62) जोरा, (63) जबूसरा, (64) सेटिया, (65) चतुरथ,
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पल्लीवाल जाति का समाज दर्शन (66) पचम, (67) अच्चिरवाल, (68) अजुध्यापूर्व (69) नानावाल, (70) मडाहर, (71) कोरटवाल, (72) करहिया, (73) अनदोरह, (74) हरदौरह (75) जेहरवार, (76) जेहरी, (77) माध, (78) नासिया, (79) कोलपुरी, (80) यमचौरा, (81) मैसन पुरवार, (82) वेस (83) पवडा, (84) प्रोमडे ।
इस प्रकार जातियो का वर्गीकरण देखने से ऐसा लगता है कि यह वर्गीकरण जाति मे लोगो की संख्या के आधार पर किया गया है। अधिक जनसख्या वाली जातियो को साढे बारह प्रकार की जातियो की श्रेणी में रखा गया है। उनसे कम जनसख्या वाली जातियो को जैन-लगार वाली श्रेणी में रखा गया है। शेष जानियाँ अधिकाशत अजैन है। यदि इनमे से कुछ लोग जैन धर्म मानते भी है तो उनकी सख्या बहुत कम है। अन्य जातियो की श्रेणी में कुछ ऐसी भी जातियाँ है जो पहले थी लेकिन वर्तमान मे उन जानियो का अस्तित्व ही समाप्त हो गया है। अग्रवाल जाति को प्राधा लेने का तात्पर्य मात्र इतना है कि इस जाति के लगभग आधे लोग ही जैन धर्मानुयायी है तथा शेष वैष्णव या अन्य मतावलम्बी है।
हिन्डोन निवासी श्री कजोडीलाल राय से प्राप्त लगभग 150 वर्ष प्राचीन हस्तलिखित प्रार्थना-पुस्तक' मे भी साढे-बारह प्रकार की जातियो का वर्णन पाता है, इन जातियों मे एक पल्लीवाल जाति भी है।
जैन जातियाँ या वैश्य जातियाँ मात्र 84 ही है, ऐसा नही है। जैन जातियो की संख्या 84 से कही बहुत अधिक है। वैश्य जातियाँ और भी अधिक है। लेकिन देखा यह गया है कि इस प्रकार गिनती कराने में मात्र 84 जातियों को ही गिनाया गया है। इसी प्रकार साढे-बारह जातियो कि भी बात है। ऐसा प्रतीत
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पल्लीवाल जैन जाति का इतिहास
होता है कि हमेशा से सभी लोगो को 84 के अक से तथा साढे - बारह के अक से कुछ मोह रहा है. इसी कारण 84 जातियो की गिनती पूरी हो जाने पर प्रागे किसी अन्य जाति को सम्मिलित नहीं किया गया।
इस प्रकार हम देखते है कि जब कभी 84 जैन जातियो तथा साढे-बारह प्रकार की जातियो को गिनाया गया है उन सब मे पल्लीवाल जाति का नाम भी अवश्य लिया गया है। इससे सिद्ध होता है कि हमेशा पल्लीवाल जाति जनो की एक प्रमुख जाति रही है तथा इसका जैन धर्म के क्षेत्र मे प्रमुख योगदान रहा है। श्री नवलशाह चदोरिया के वर्गीकरण से स्पष्ट है कि पल्लीवाल जाति को उन्होने वैश्य ही माना है । (82) कचौडाघाट के पल्लीवाल
कचौडाघाट आगरा जिले की बाह तहसील मे स्थित एक छोटा सा कस्बा है। यह यमुना नदी के तट पर स्थित है । प्राचीन समय में यह एक प्रसिद्ध व्यापारिक केन्द्र था। यहाँ पर बडी मात्रा मे नील तथा रग बनाने का कार्य होता था। कपडो की रगाई के लिए भी यह एक प्रसिद्ध स्थान था । यहाँ का व्यापार मुख्यत जल मार्ग द्वारा किया जाता था। यह नगर धन-धान्य से परिपूर्ण था तथा यहाँ के शासको की भी इस नगर पर विशेष कृपा रहती थी। इसी कारण यह नगर कचनपुरी के नाम से प्रसिद्ध हो गया। इस नगर मे बडे-बडे पक्के भवन थे तथा नील और रग बनाने के बडे-बडे हौदे थे। इनके भग्नावशेष अब भी पाये जाते है।
कचौडाघाट में पल्लीवाल तथा लबेचू जैनो की बड़ी बस्ती थी। पल्लीवालो के लगभग 150 घर थे। ये सभी लोग बहुत ही धार्मिक प्रवृत्ति के थे। यहां पर दो दिगम्बर जैन मन्दिर है। उनमें से एक मन्दिर पल्लीवालो द्वारा निर्मित है तथा दूसरा
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पल्लीवाल जाति के समाज दर्शन
बेचु द्वारा निर्मित है । पल्लोवालो के इस मन्दिर को लगभग 500 वर्ष प्राचीन बताया जाता है। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि लगभग पाँच-छ सौ वर्ष पूर्व से ही पल्लीवाल लोग कचौडाघाट श्राकर बस गये थे । यहाँ के लबेचश्रो का सबध निकट के अन्य नगरो अटेर, हथकात, नौगावा, पारना साहपुरा तथा जेतपुर से था । पल्लीवालो का विशेष सम्बन्ध चन्दवाड ( फिरोजाबाद के निक्ट), कन्नौज, भिण्ड तथा मुरैना से था । hatsrघाट मे बसने से पूर्व ये पल्लीवाल चन्दवाड तथा कन्नौज में रहते थे। चूंकि कचौडाघाट व्यापार के लिए एक प्रसिद्ध नगर था, अत कालान्तर में कुछ पल्लीवाल यहाँ आकर बस गये ।
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यहाँ के बेचू तथा पल्लीवालों का मुख्य व्यवसाय नील तथा रग बनाने का था। इन लोगो ने अपने इस कार्य मे प्रसिद्धि प्राप्त कर ली थी। लोग बहुत धनाड्य थे तथा नील और रग का निर्यात भी करते थे । व्यापार को और अधिक बढाने के उद्देश्य से आगरा सहित कई स्थानो पर इन्होने कई बसने ( गद्दियाँ) स्थापित किये। अकेले आगरा मे इनके 52 बसने थे । यद्यपि ये लोग मुख्यत व्यापार में सलग्न थे, तथापि कई वहाँ के शासको के यहाँ उच्च पदो पर भी ग्रासीन थे । ये लोग अपनी ईमादारी तथा सच्चाई के लिए प्रसिद्ध थे. इसीलिए राजा भदावर का खजान्ची प्राय कोई पल्लीवाल या लबेचू ही होता था ।
हालांकि यहाँ के जैनो पर यहाँ के शासको की हमेशा ही विशेष कृपा रही, फिर भी डाकुनो तथा लुटेरो का प्रातक बना ही रहता था । जैनो के मकान पक्के बने हुये थे । अपने धन को सुरक्षित रखने के उद्देश्य से इन्होने अपने धन को पक्की दीवारो
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पल्लीवाल जैन जाति का इतिहास
में चिनवा दिया। कुछ समय पूर्व प्राचीन मकानो को दोवार गिरने पर यह धन देखा गया था।
धीरे-धीरे राजनैतिक व्यवस्था में परिवर्तन होता चला गया। छोटे-छोटे राजा अग्रेजो के नियन्त्रण मे आ गये। डाकुप्रो के प्रातक भी बढ़ने लगे। इस कारण यहाँ के व्यापारी अन्यत्र जाने को विवश हो गये। अधिकतर पल्लीवाल कन्नौज, कानपुर तथा मुरैना मे विस्थापित हो गये। इस शताब्दी के प्रारम्भ मे रेलगाडियो ने तो एक क्राति सी ला दी। जो व्यापार जल मार्ग से होता था अब वह रेल-गाडियो द्वारा होने लगा। कचौडाघाट मे रेल व्यवस्था नहीं हो सकी। अत यहाँ के रहे-सहे व्यापारी भी अन्यत्र चले गये।
__सन् 1924 मे पल्लीवालो के मात्र तीन घर रह गये थे। कालातर मे वे भी आगरा तथा दिल्ली चले गये। लबेचुप्रो के बहुत से परिवार अब भी कचौडाघाट मे रहते है। जब पल्लोवालो का एक भी परिवार वहाँ नही रहा, तब उनके मन्दिर की सभी मतियो को लबेचूमो के मन्दिर मे स्थापित कर दिया गया। पल्लीवालो का मन्दिर खाली है तथा बन्द पडा है। यह ही मात्र एक स्मारक भवन है जो वहाँ पर रहने वाले पल्लीवालो की याद दिलाता है।
(4-3) नागपुर मत्र के पाल्लीवाल
नागपुर (विदर्भ) क्षेत्र के पल्लीवाल 'उज्जनी पल्लीवाल' है । यहाँ बसने वाले पल्लीवालो के दो प्रवाह दो दिशाम्रो से आये । एक प्रवाह सातपूडा की ओर से ठाणे गाँव (जिला वर्धा) पाया। यह ढाणे गाँव नागपुर अमरावती रोड पर नागपुर से 40 मील की दूरी पर है तथा कोढाली से दस मील पर है। दूसरा प्रवाह
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पल्लीवाल जाति का समाज दर्शन
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छिन्दवाडा की तरफ से आया । छिन्दवाडा से आने वाले लोग लेधीखेडा, सावगा ( तहसील - रगोसर, जिला छिन्दवाडा, मप्र ) पारशिवनी ( तहसील - रामटेक, जिला नागपुर ) में रहने लगे । पहले पल्लीवालो की संख्या (1) कोढाली, ढाणेगांव और कुछ पडौस के गाँवो में, तथा ( 2 ) लेधीखेडा, सावगा, खैरी, खापा, पारशिवनी में ही थी । कालान्तर मे नागपुर 'मध्य प्रान्त और बहाड' की राजधानी होने के कारण यहाँ पर कुछ लोग रहने लगे। कुछ लोगो ने नागपुर से दस मील दूर स्थित 'कामठी' नामक नगर मे रहना प्रारम्भ कर दिया । श्राज मुख्यत कोढाली, नागपुर, कामठी पारशिवनी, खेरी, सावगा, लेधीखेडा तथा धरणे गॉव, इन आठ नगरो मे पल्लीवाल समाज के घर है। नौकरी तथा अन्य व्यवसाय के निमित्त इन गाँवो से बाहर गये हुए लोग वर्धा, जबलपुर, बालघाट, भोपाल, रायपुर, बम्बई, विशाखापट्टम गोदिया मादि नगरो में भी रहते है ।
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यहाँ पल्लीवालो के 125-150 मकान है। विदर्भ विभाग के पल्लीवालो मे 12 गोत्र पाये जाते है । 'उमाठे' कुलनाम
वाले पल्लीवालो की सख्या अधिक है । कुलनाम इस क्षेत्र मे बसने के बाद रखे गये है । कुलनाम तथा गोत्रो की सूची नीचे दी गई है ।
यहाँ के लोगो को मातृ भाषा मराठी है। खान-पान तथा रहन-सहन भी मराठी है । प्रार्थिक स्थिति मध्यमवर्गी है । शिक्षा का प्रसार है किन्तु व्यवसाय की प्रवृत्ति अधिक है । समाज मे कई डॉक्टर, इजीनियर, प्राध्यापक तथा वकील है। स्त्री शिक्षा पहले बहुत कम थी, लेकिन अभी स्त्रियाँ भी काफी पढने लगी है।
अधिकतर लोग व्यापार तथा सेती करते है । पल्लीवाल
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पल्लीवाल जैन जाति का इतिहास
समाज में धार्मिकता बहुत अधिक है। चातुर्मास मे जिनेन्द्र अभिषेक नित्य होता है। शास्त्र प्रवचन भी होते है। पर्यषण तथा महावीर जयन्ती आदि उत्सव बहुत हर्षोल्लास के साथ मनाये जाते है। सामान्यत रात्रि भोजन तथा अष्टमूल सेवन त्याज्य है। यहाँ मन्दिर कमेटी, महिला मण्डल आदि सामाजिक संगठन भी हैं। पुनर्विवाह प्रथा नही है। समाज के लोगो की संख्या कम होने से पल्लीवाल समाज के अतिरिक्त अन्य दिगम्बर जैन समाजो मे भी विवाह सम्बन्ध हो जाते है।
नागपुर क्षेत्र मे कोढाली तथा पारशिवनी मे पल्लीवाल दिगम्बर जैन मन्दिर है। कोढाली तथा पारशिवनी नागपुर से क्रमश 30 तथा 27 मील दूरी पर स्थित है। पारशिवनी का एक मदिर बहुत प्राचीन था। बाद मे पल्लीवालो का उस पर अधिकारी रहा होगा। अाज पारशिवनी मे मात्र एक मन्दिर है और दिगम्बर जैनो मे मात्र पल्लीवालो के दस-बारह मकान है। कोहाली मे दिगम्बर जैनो की दो जातियों रहती है
(1) पल्लीवाल और (2) सैलवाल ।
सैलवाल समाज का मन्दिर पल्लीवालो के मन्दिर से पुराना हैं। 'पल्लीवाल दिगम्बर जैन मन्दिर' का निर्माण लगभग 150 वर्ष पहले हुआ है। लेकिन सभी मूर्तियाँ प्राचीन हैं। यहाँ की अधिकतर मूर्तियां सवत् 1500 के आस-पास की है। इनका उल्लेख डा विद्याधर जोहरापुरकर द्वाग मपादित ग्रन्थ 'भट्टारकसम्प्रदाय' में उल्लेख मिलता है ।
वर्धा नगर में पल्लीवालो के अतिरिक्त पद्मावती पुरवाल, बलोरे, खण्डेलवाल, सैलवाल तथा परवार समाज के लोग भी रहते है। यहाँ पर भी दो दिगम्बर जैन मन्दिर है। एक श्वेताम्बर मन्दिर तथा एक स्थानक भी है ।
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पल्लीवाल जैन जाति का समाज दर्शन तालिका–'पल्लोगल दिगम्बर जैन समाज, दक्षिण विभाग
(विदर्भ) (सन् 1979 की गणना के आधार पर)
गोत्र
परिवार संख्या
कुलमान उमाठे पनवेलकर बानाईत बाधे धारीडे वसमतकार मालते देशकर गडेकर मालवतकर बोरकुटे पुनेकर
बाईवाल नायक बिजाबरत धराईवाल डरेपूर पानीवाल कासु फरीवाल भिमानी छामरनीवाल बीदर नदनोवाल
कुल परिवार सख्या
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पल्लीवाल जैन जाति का इतिहास
(४४) पल्लोवाल जाति को सामाजिक तथा माथिक स्पितिः
विक्रम की ग्यारहवी शताब्दी के मध्य मे चन्द्रवाड पर पल्लीवाल जैन राजा राज्य करता था। इससे स्पष्ट है कि ग्यारहवी शताब्दी में जाति की सामाजिक स्थिति बहुत अच्छी रही, तभी तो पल्लीवाल जाति के किसो व्यक्ति का चन्दवाड पर आधिपत्य था। जैन समाज मे इस जाति का अच्छा प्रभाव रहा । जाति के लोगो ने कई मूर्तियो की प्रतिष्ठाएँ भी कराई। अकेले राजा चन्द्रपाल ने 51 प्रतिष्ठाएँ करवाई थी।
तेरहवी शताब्दी के मध्य तक जाति की स्थिति अच्छी रही। लेकिन सवत् 1251 मे राजा जयचन्द्र पर मुहम्मद गौरी के पात्रमरण के बाद इस जाति के लोगो को बहुत कष्ट उठाने पडे । बहुत से लोग तो अपना मूल स्थान छोड कर गुजरात की ओर भाग गये तथा जाति का विघटन हो गया। सत्रहवी शताब्दी तक गुजरात खण्ड की ओर भागे पल्लीवालो मे से अधिकतर पुन अपने मूल स्थान की ओर वापिस आ गये तथा वे पूर्वी राजस्थान और
आगरा क्षेत्र में बस गये। सत्रहवी-अठारहवी शताब्दी मे पल्लीवाल जाति ने जैन समाज मे पहले जैसा सम्मान फिर से प्राप्त कर लिया था। इसी कारण समय-समय पर विभिन्न कवियो तथा विद्वानो द्वारा इस जाति को याद किया जाता रहा है।
अठारहवी शताब्दी के उत्तरार्द्ध मे जाति के कई लोग विभिन्न राज्यो मे अच्छे-अच्छे पदो पर प्रासीन थे। कई लोग बडे बडे काश्तकार तथा जमीदार थे। वई लोग राज्यो में दीवान पद पर आसीन थे। जमीदारी प्रथा समाप्त होने तक जाति के कई लोग जमीदार थे।
पल्लीवाल जाति कभी किसी एक प्रकार के व्यवसाय से
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समाज दर्शन
ही जुडी नहीं रही है। जाति के विघटन से पूर्व सभी पल्लीवाल व्यापार करते थे। इसी कारण पल्लीवालो ने उस समय के प्रसिद्ध व्यापारिक केन्द्रो को ही अपना निवास स्थान बनाया । प्राचीन समय मे जल मार्ग (नदी) द्वारा बहुत यातायात होता था। चन्द्र वाड भी यमुना नदी के तट पर स्थित है तथा उस समय यह एक प्रसिद्ध व्यापारिक केन्द्र था। कुछ पल्लीबाल कन्नोज मे रहते थे तथा वे भी व्यापार में सलग्न थे।
जाति के विघटन के पश्चात कुछ पल्लीवाल पट्टन या पाटन (मुजरात) चले गये। पाटन भी एक प्रसिद्ध व्यापारिक केन्द्र था। दूसरी ओर कुछ पल्लीवाल चन्द्रवाड से कुछ दूर यमुना नदी के तट पर पर ही स्थित कचौडाघाट चले गये। कचौडाघाट । भी व्यापार का एक प्रमुख केन्द्र था तथा यहाँ पर नील बनाने तथा कपडो की रगाई का मुख्य कार्य था। इस प्रकार अधिकतर पल्लीवाल बडे-बडे व्यापारिक केन्द्रो से जुड़े रहे तथा व्यापार इनका मुख्य व्यवसाय बना रहा। कुछ पल्लीवाल व्यापार के साथ-साथ खेती-बाडी से भी सम्बन्धित थे, उनमे से कई बडे जमीदार थे। कुछ पल्लीवाल राज्यो के पदाधिकारी भी रहे।
अठारहमी शताब्दी मे गुजरात के अधिकतर पल्लोकाल पुन पूर्वी राजस्थान की ओर आ गये। तब इन्होने खेती को अपना मुख्य व्यवसाय बनाया। इसके साथ ही कुछ पल्लीवाल बहुत प्रसिद्ध व्यापारी भी थे तथा रूई और कपास का बड़े पैमान पर व्यापार करते थे।
जो लोग व्यापार के उद्देश्य से गुजरात छोडकर विदर्भ क्षत्र मे चले गये। उन्होने भा बाद में खेती को अपना मुख्य व्यवसाय बना लिया।
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पल्लीवाल जैन जाति का इतिहास
लेकिन आज स्थिति बहुत परिवर्तित है। समाज के अधिकतर लोग न तो खेती करते है और न ही व्यापार । सामान्यत इस जाति के लोग सरकारी तथा गैर-सरकारी सेवाग्रो मे सलग्न है। फिर भी जगरौठो तथा मुरैना क्षेत्र के कुछ पल्लीवाल अव भी खेती करते है तथा कुछ व्यापार मे सलग्न है। कन्नौज मे रहने वाले अधिकतर पल्लीवाल व्यापार करते है।
पल्लीवाल लोगो की आर्थिक स्थिति समान्यत ठीक ही रही है। प्रार्थिक स्थिति कभी खराव रही हो, ऐसा प्रतीत नही होता है। ग्यारहवी शताब्दी से लेकर चोदहवी शताब्दी तक पल्लीवालो की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी रही थी। अठारहवी शताब्दी से आगे भी आर्थिक स्थिति ठीक रही है। वर्तमान मे इस जाति के लोग सामान्यत मध्यमवर्गी है।
समय-समय पर समाज के लोगो का राजनैतिक क्षेत्रो मे भी प्रभाव रहा है। ग्यारहवी शताब्दी मे चन्द्रवाई का शासक चन्द्र. पाल था। सोलहवी शताब्दी तक चन्द्रवाई की राज्य-व्यवस्था में पल्लीवालो का महत्वपूर्ण हिस्सा रहा है । अठारहवी-उन्नीसवी शता. ब्दी मे इस जाति का पूर्वी राजस्थान की राजनीति मे बहुत हिस्मा रहा। यहाँ के विभिन्न राज्यो मे कई पल्लीवाल दीवान तथा प्रधानमन्त्री पद पर आसीन थे। देश के स्वतत्रता-पादोलन मे भी इस जाति के लोगो की महत्वपूर्ण भूमिका रही है ।
(45) धार्मिक क्षेत्र मे पल्लीवाल__विभिन्न परिस्थितियो मे भी जाति के लोगो ने धर्म से अपना नाता कभी नहीं तोडा। हमेशा ही यह जाति जैन धर्मानुयायी रही है। विभिन्न व्यक्तियो ने समय समय पर कई जैन मूर्तियो की प्रतिष्ठाएँ कराई तथा मन्दिरो के निर्माण कराये। सबसे
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समाज-दर्शन
अधिक गौरव की बात यह है कि जाति में बहुत से ऐसे महानुभाव भी हुए हैं जिन्होने जैन साहित्य को सुदृढ किया तथा जैन धर्म का प्रचार किया। इन व्यक्तियो ने बहुत से धार्मिक ग्रन्थो की रचना की। कवि धनपाल, प दौलतराम, कविवर मनरगलाल तथा वर्तमान मे प मक्खनलाल जी आदि विद्वान इसी जाति के रत्न थे। लेकिन जाति मे आज पहले जैसी धार्मिक भावना प्रतीत नही होती है, यह एक चिन्ता का विषय है ।
प्राचीनतम् शिलालेख तथा मूर्तिलेख बताते है कि प्रारम्भ में पल्लीवाल जाति दिगम्बर अाम्नाय को मानती थी। दिगम्बर प्राचार्य कुन्द-कुन्द पल्लीपाल जात्युत्पन्न थे। चन्द्रवाड का राजा चन्द्रपाल भी पल्लीवाल दिगम्बर जैन था। उसने वि स 1052 मे कई मूर्तियो की प्रतिष्ठा भी कराई । ऐसी कई मूर्तियाँ फिरोजाबाद के दिगम्बर जैन मन्दिर मे विराजमान है।
कालान्तर मे कुछ पल्लीवालो को इटावा अचल छोडकर गुजरात जाना पड़ा। जो पल्लीवाल कन्नौज मे ही रहे, वे हमेशा ही दिगम्बर धर्मानुयायी रहे । आज भी दिगम्बर धर्मानुयायी ही है। जो पल्लीवाल गुजरात चले गए वे भी बारहवी शताब्दी पर्यन्त दिगम्बर धर्मानुयायी ही रहे। तेरहवी शताब्दी के प्रारम्भ में कुछ लोगो ने श्वेताम्बर धर्म अपना लिया। 'पल्लीवाल जैन इतिहास' की भूमिका मे एक लेख का वर्णन है, जिसमे वि स 1207 में 'पल्ली-भग' के समय त्रुटित पुस्तक को ग्रहण करने की बात कही गई है। यहाँ पल्ली-भग से यह भाव निकलता है कि इस समय से ही पल्लीवाल दो अलग-अलग आम्नायो को मानने लगे। वैसे गुजरात मे स्थित अधिकतर पल्लीवाल दिगम्बर धर्मानुयायी हो रहे । अणिहल्लपुर (गुजरात) निवासी कवि धनपाल पल्लीवाल, जिन्होने वि स. 1261 मे 'तिलक मजरी सार' की रचना
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पल्लीवाल जैन जाति का इतिहास की, दिगम्बर धर्मानुयायी था। भगवान पार्श्वनाथ को एकति सूरत के पास महुआ के दिगम्बर मन्दिर में विराजमान है । इसकी प्रतिष्ठा वि स 1390 मे एक पल्लीवाल बन्धु ने ही कराई। इससे सिद्ध होता है कि गुजरात के बहुत से पल्लीवाल दिगम्बर धर्मानुयायी ही रहे। सोलहवी शताब्दी मे गुजरात के कुछ पल्लीवाल उज्जन तथा पद्मावती नगर होते हुए विदर्भ क्षेत्र में चले गए तथा वहीं बस गये। वे उस समय भी दिगम्बर धर्मानुयायी थे तथा आज भी है।
कुछ लोगो का मत है कि पल्लीवाल जाति प्रारम्भ मे श्वेताम्बर मूर्ति पूजक थी तथा बाद मे इस जाति के कुछ लोग दिगम्बर धर्म को मानने लगे। लेकिन यह बात सही नही है । पल्लीवाल जाति से सबधित प्रचीनतम लेख जो कि पल्लीवाल जाति का दिगम्बर माम्नायी होना सिद्ध करते है क्रमश , वि स 1063, वि स 1261, वि. स 1390, प्रादि उपलब्ध है। प्राचीनतम् लेख जो पल्लीवाल जाति का श्वेताबर मूर्ति पूजक होना सिद्ध करते हे, वे क्रमश वि स 1287, वि स 1:98, वि स 1303 आदि के है। कुछ लोग पल्लकीय गच्छ को पल्लीवाल जाति से सबधित मानते हैं। ऐसे प्राचीनतम् लेख जिनमे पल्लकीय गच्छ का उल्लेख पाता है, क्रमश वि स 1144, वि स 1151 तथा वि स 1201 के ही उपलब्ध है।
कन्नौज क्षेत्र के पल्लीवाल जो कि मूल पल्लीवालो में से है, पहले भी दिगम्बर धर्मानुयायी थे तथा प्राज भी हैं। उनमे से कभी किसी ने श्वेताम्बर धर्म नहीं अपनाया। इन सब बातो मे हम निश्चत पूर्वक कह सकते है कि पल्लीवाल लोग मूलत दिगम्बर धर्मानुयायी ही थे। लेकिन तेरहवी शताब्दी के अन्त में
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ARTER
MARALA
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श्री विघ्नेश्वर पार्श्वनाथ दि० जन अतिशय क्षेत्र महुवा (सूरत) को भगवान श्री 1008 ऋषभनाथ की प्रतिमा (सदर्भ)
मतिलेख सगी
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समाज दर्शन
गुजरात खण्ड में रहने वाले कुछ पल्लीबास खेताम्बर मूर्ति पूजक हो गये। प्राज कन ये लोग जगरौठो क्षेत्र (यानि कि भरतपुर, खेडली गज, हिन्डोन, सवाई माधोपुर मादि) में रहते हैं। पल्लीवाल जाति मे श्वेताम्बर मूर्ति पूजको के अतिरिक्त स्थानक वासी लोग भी पाये जाते है। यथासभव लगभग 200 वर्ष पहले श्वेताम्बर मूर्ति पूजक लोगो मे से ही कुछ लोग स्थानक वासी ग्राम्नाय को मानने लगे।
आज भी जैन धर्म की विभिन्न आम्नायो को मानने वाले लोग इस जाति मे हैं, लेकिन सामाजिक एकता में अलग-अलग
आम्नायो को मानना बाधक नही है तथा एक दूसरे में शादीविवाह होते है।
__ आज से 70-80 वर्ष पहले कुछ पल्लीवाल 'प्रार्य-समाज' धर्म को मानने लगे थे, लेकिन पिछले 40 वर्षों से इस जाति मे कोई भी प्रार्य समाजी नही है ।
(4-6) पल्लीवालो द्वारा निर्मित जैन मन्दिर :
पल्लीवालो द्वारा निर्मित बहुत से जैन मन्दिर स्थित है। उनमे दिगम्बर एक श्वेताम्बर दोनो ही माम्नामो के मन्दिर सम्मिलित हैं। कन्नौज में दो दिगम्बर जैन मन्दिर हैं, उनमें से एक 503-600 वर्ष प्राचीन है। कहते हैं कि यह मन्दिर महोवा (उप्र) के सुप्रसिद्ध बीर गोडा पाहा तथा ऊदल के पिता के समय का है। अलीगढ़ में भी तीच दिसम्बर जैन मन्दिर हैं। फिरोजाबाद में चार दिगम्बर न मन्दिर हैं। फिरोजाबाद के जैन नगर में स्थित दि जैन मन्दिर पति विशाल है, उसमें स्थित एक हि 45 फुट अवाहना वाली भगवान बाहुवलो की मूर्ति है।
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पल्लीवाल जैन जाति का इतिहास इस मन्दिर का निर्माण सेठ छदामीलाल जी पल्लीवाल ने कराया था।
फिरोजाबाद से चार कि मी दूर चन्द्रवाड मे एक अति प्राचीन दि. जैन मन्दिर था. लेकिन यमुना नदी की बाढ मे डह गया। इसके स्थान पर नया मन्दिर बन गया है। कचौडाघाट में भी एक प्राचीन दि० जैन मन्दिर था। अब मात्र भग्नावशेष ही है। मन्दिर की मूर्तियाँ वही के लवेचू दि० जैन मन्दिर मे विराजमान कर दी गई है।
आगरा तथा इसके आस-पास के क्षेत्र मे 200-250 वर्ष पुराने कई दि० जैन मन्दिर है जिन्हे पत्लीवालो ने बनवाया। कठवारी, मिठाकुर, मागरौल, रूनकता तथा सिकन्दरा आदि ग्रामो में ये मन्दिर आज भी स्थित है। किरावली तथा रायमा ग्रामो मे भी दि० जैन मन्दिर है लेकिन इनको पत्लीवाल जाति सहित अन्य जैन जातियो के लोगो ने मिलकर बनवाया था। आजकल इन गाँवो मे पल्लीवालो के अतिरिक्त अन्य जैन जातियो का प्रभाव होने से इनकी देख-रेख पल्लीवालो के हाथो मे ही है। आगरा के धूलियागज मौहल्ले में एक दि० जैन मन्दिर है, यह सन् 1839 ई० से पहले का बना हे। आगरा मे दो अन्य दि० जैन मन्दिर हे जिनका निर्माण पल्लीवाल बन्धुप्रो द्वारा कराया गया है, लेकिन ये मन्दिर नये है।
हिन्डौन के पाम झारेडा नामक ग्राम मे भी एक दिगम्बर जैन मन्दिर था। इस मन्दिर की प्रतिमा आजकल केसरगज, अजमेर के दि. जैन मन्दिर मे विराजमान है। जगरौटी क्षेत्र के समोची, खेडली तथा समराया ग्रामो मे भी पल्लीवालो के दि० जैन मन्दिर थे, लेकिन 6-7 वर्ष पहले इन मन्दिरो को श्वेताम्बर
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समाज दर्शन मदिरो में परिवर्तित करा दिया गया है । अन्य कई स्थानो पर भी पल्लीवालो के दिगम्बर मन्दिर थे लेकिन आजकल श्वेताम्बर मदिरो में परिवर्तित करा दिये गये हैं।
अलवर नगर में पल्लीवालो का एक दिगम्बर मदिर है। अलवर जिले के हरसाना, रामगढ, लक्ष्मनगढ, नौगावां तथा समौची में भी दिगम्बर जैन मदिर है। नौगावां का मन्दिर 400-500 वर्ष पुराना है। मण्डावर में भी एक दिगम्बर जैन मदिर है। अजमेर में एक दि. जैन मदिर है जिसका निर्माण कुछ वर्ष पूर्व ही हुआ है।
मुरैना क्षेत्र मे पल्लीवालो द्वारा निर्मित कई जैन मदिर है, ये सभी दिगम्बरी है। मुरैना के अतिरिक्त बामौर, रेहट तथा मोहना मे भी दि० मदिर हैं। मुरैना से 24 कि मी दूर जौरा नामक ग्राम में भी पल्लीवालो का एक दि. जैन मदिर है । जौरा से 8 किमी दूर घने जगलो मे अत्यधिक प्राचीन दि. जैन मूर्तियाँ है जिनकी देखभाल बहुत समय से पल्लीवालो द्वारा की जाती रही है। जौरा से ही 6 कि मी परसौटा नामक ग्राम मे पल्लीवालो का एक प्राचीन दि० जैन चैत्यालय है जिसमे प्राचीन मूर्तियाँ विराजमान है। परसोटा ग्राम मे ही पल्लीवाल समाज के अधिप्ठाता की गद्दी है। इसके अन्तिम अधिष्टाता श्री 108 भट्टारक करन सागर जी महाराज थे जिनका कुछ वर्ष पूर्व देहात हो गया। घर मे कुछ भी शुभ कार्य होने पर पल्लीवाल लोग यहाँ दान देने। चढावा चढाने जाते है।
नागपुर (महराष्ट्र) मे पल्लीवालो के तीन दिगम्बर जैन मदिर हैं। इनमे से एक मदिर दो सौ वर्षो से भी अधिक पुराना है लेकिन इसकी मूर्तियां 500-600 वर्ष प्राचीन हैं ।
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पल्लीवाल जैन जाति का इतिहास जगरौठी क्षेत्र के पोनोग, सिर्सका खेडली, पटौंदा, उगेर आदि गांवो में प्राज श्वेताम्बर मंदिर हैं। भरतपुर तथा डीग में भी श्वेताम्बर मदिर हैं। जगरोठी क्षेत्र के हिन्डौन, करौली, गगापुर सिटी, शेरपुरा शेखपुरा आदि स्थानो पर भी श्वेताम्बर मदिर हैं।
पल्लीवालों द्वारा निर्मित कई स्थानक भी हैं तथा ये भरतपुर तथा हिण्डौन में स्थित हैं। एक स्थानक आगरा में भी था, लेकिन अाजकल वहाँ नही है।
विभिन्न मूर्ति-लेखो से प्रतीत होता है के पुराने समय में गुजरात में भी पल्लीवालो द्वारा निर्मित श्वेतार तथा दिसम्बर दोनो ही अम्नायो के मन्दिर होने चाहिएँ, किन माज इनका कोई अस्तित्व दिखाई नहीं देता है। ये मन्दिर गुजरात के पाटन, मेहसाना, अहमदाबाद, काठियावाड, भरूच तथा सूरत प्रादि नगरो मे होने चाहिए। (47) धूलिया गज, प्रागरा स्थित दिगम्बर जैन मंदिर तथा
प्राध्यात्मिक संली -
आगरा मे पल्लीवालो का आगमन लगभग दो सौ वर्ष पहले से ही प्रारम्भ हो गया था। ये पल्लीवाल प्रागरा के धूलिया गज नामक स्थान में रहते थे। प्रारम्भ मे ही इनको धर्मध्यान में विशेष रूचि थी। उस समय धूलिया गज मे मदिर नही था। प्रत सभी पल्लीवाल बेलनगज (प्रागरा) के दि० जैन मदिर मे दर्शन तथा पूजन करने जाते थे। धूलिया गज तथा बेलनगज की जैन समाज सामहिक रूप से पूजा-प्रक्षाल आदि करती थी। कहते है कि एक बार कुछ पल्लीवाल बन्युमो को मन्दिर पहुंचने में देर हो गई, अत. बेलस गंज के गैर-पल्लीवाल जैन बग्घुषों ने पूजा-पाठ प्रारम्भ कर दिया। देर से पहुंचे पल्ली
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समाज दर्शन
वालो ने इस पर आपत्ति की। तभी किसी ने कटाक्ष मारते हुये कहा कि तुमको (पल्लीवालो को) जब इतनी ही आपत्ति है, तो अपना अलग मन्दिर क्यो नही बनवा लेते। बस इतना ही कहना था कि पल्लीवाल बन्धुओ ने एक अलग मन्दिर बनवाने का निश्चय कर लिया। इसी के फलस्वरूप वि सवत् 1895 (सन् 1839 ई ) मे धूलियागज में 'श्री पल्लीवाल दिगम्बर जैन मदिर' की विधिवत् स्थापना हुई। प्रारम्भ मे इस मन्दिर में मात्र एक प्रतिमा 23 वे तीर्थकर श्री पार्श्वनाथजी की थी। कालांतर मे इस मन्दिर का विस्तार हुआ तथा कई अन्य वेदियाँ बनी।
इस मन्दिर में प्राचीनतम् मूर्ति वि संवत् 1526 की भगवान पार्श्वनाथ की है। पद्मासन अवस्था मे यह मूर्ति धातु की है तथा हमकी अवगाहना चार इन्च है। मन्दिर मे और भी कई धातु प्रतिमायें सोलहवी शताब्दी की है। प्राचीनतम् पाषाण प्रतिमाये मात्र दो है । वि सवत् 1836 मे निर्मित भगवान पार्श्वनाथ और भगवान मुनिसुव्रतनाथ की ये प्रतिमाये क्रमश श्याम तथा श्वेत पाषाण की है।
पूजा-पाठ के साथ-साथ धूलियागज के पल्लीवाल शास्त्र स्वाध्याय में भी विशेष रुचि लेते रहे है। यहाँ के मन्दिर से बहुत पहले से ही स्वाध्याय व प्रवचन होते रहे है। लेकिन लगभग पिछले सो वर्षों से यहाँ पर विधिवत रूप से प्राध्यात्मिक शैली चल रही है। पहले यहाँ पर प० नन्नूमल जी तथा प० चिरजीलाल जी शास्त्र प्रवचन करते थे। उनके बाद यहाँ को शैली में कई विद्वान लोगो का समागम हुआ। श्री रतनलाल जी मुनीम तथा डाक्टर प्यारेलाल जी उनमे मुख्य है। यहाँ की
आध्यात्मिक शैली ने सन् 1970 से विशेष ख्याति प्राप्त की। उस समय इस शैली के प्रमुख लोगो मे डा प्यारेलाल जी,
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पल्लीवाल जैन जाति का इतिहास
ब्रह्मचारी
वाले )
सूरज
मास्टर हजारीलाल जी ( ग्रटरू श्री रामचद्र जी, प० रामनाथ जी, श्री भान 'प्रेम', मास्टर रामसिंह जी, श्री सुमेरचद जी 'भगत' तथा श्री किरोडीमल जी के नाम उल्लेखनीय हैं। गैर-पल्लीवालो में यहाँ की शैली के प्रमुख सदस्यो मे मुन्शी गेदालाल तथा मुन्शी कामता प्रसाद हैं (दोनो पद्मावती पुरवाल जाति के है) के नाम मुख्य है ।
प० रामनाथ जी पहले दूध का व्यापार करते थे, प्रत दूध वाले के नाम से विख्यात हो गये थे। बाद में ये अन्धे हो गए थे । लेकिन इसके बावजूद भी इन्होने जैन समाज का बहुत उपकार किया । इन्होने मन्दिर जी मे 'महिला ज्ञान मण्डल' की स्थापना कराई तथा बहुत-सी अनपढ महिलाओ को इन्होने भक्ताम्बर स्त्रोत तथा तत्वार्थ सूत्र कठस्थ कराये तथा उन्हे धार्मिक शिक्षाये दी।
गुजरात मूल के ब्रह्मचारी श्री मृलशकर देसाई जी के अथक प्रयासो से लगभग सन् 1965 में यहाँ धार्मिक कक्षाये प्रारम्भ की गई। बच्चो को यहाँ विशेष रूप से धार्मिक शिक्षा दी जाती थी ।
(4-8) साहित्यिक क्षेत्र मे पल्लीवाल- जाति का योगदान
पल्लीवाल जाति मे शास्त्र स्वाध्याय की परम्परा बहुत पुरानी है । इसी कारण आज भी बहुत से पल्लीवाल घरो मे सौ डेढ सौ वर्ष पुराने हस्तलिखित ग्रन्थ मिल जाते है । पहले समय मे शास्त्र आदि के प्रकाशन की व्यवस्था नही थी । प्रत. विभिन्न शास्त्रो की अपने हाथ से ही नक्ल करनी पडती थी। बहुत से पल्लीवाल बन्धुओ ने भी इस कार्य को किया । सौ वर्ष पुराने कई शास्त्र डा प्यारेलाल जी, आगरा के यहाँ पर भी उपलब्ध हैं । कई पुस्तको की नकल मगुरा (आगरा) के श्री नन्दकिशोर जी ने मी
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समाज दर्शन
78 लिखवाई। आज भी ये हस्तलिखित पुस्तकें उनके वंशजो के घरों में उपलब्ध हैं। धूलिया गज (आगरा) तथा मिठाकुर (मागरा) के श्री पल्लीवाल दिगम्बर जैन मन्दिरो में भी लगभग दो सौ वर्ष पुराने हस्तलिखित शास्त्र मौजूद हैं । हस्तलिखित 'भक्ताम्बर पाठ' तथा भजन संग्रह तो कई घरो मे उपलब्ध हैं। पल्लीवाल लिपिकारो द्वारा की गई लगभग डेढ सौ-पोने दो सौ वर्ष प्राचीन कुछ हस्तलिखित लिपियां जयपुर के बडे तेरापथी दिगम्बर जैन मन्दिर तथा जरनल गज, कानपुर के दिगम्बर जैन मन्दिर में भी उपलब्ध
कचौडाघाट के पल्लीवाल दिगम्बरजैन मन्दिर मे भी कई प्राचीन हस्तलिखित ग्रन्थ ये । जब पव्लीवाल इस स्थान को छोडकर अन्यन्त्र चले गये तो उन ग्रन्थो को अपने साथ ले गये। कुछ ग्रन्थ कन्नौज मे भी होने की सम्भावना है।
पल्लीवाल जाति मे कई ऐसे विद्वान भी हुये हैं जिन्होने मोलिक रचनाएं लिख कर जैन साहित्य को समृद्ध करन मे अपना बहुमल्य योगदान किया। इनका परिचय इस पुस्तक मे आगे दिया है। इन विद्वानो मे कवि धनपाल, प दौलतराम तथा कविवर मनरगलाल प्रमुख हैं । प दौलतराम कृत छहढाला तो हिन्दी की महान् जैन कृति है । प्राचार्य कुन्दकुन्द कृत भी अनेक आगम ग्रन्थ उपलब्ध है, जिनमे प्रवचनसार, समयसार, नियमसार, पचास्तिकाय आदि आध्यात्मिक ग्रन्थ बहुत प्रसिद्ध है । हिन्दी साहित्य के क्षेत्र मे भी पल्लीवालो ने अमूल्य योगदान किया है । सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री जैनन्द्र पल्लीवाल जाति के ही हैं। (4-9) शिक्षा का प्रचार-प्रसार
पल्लीवाल जाति मे शिक्षा का प्रचार भी हमेशा से हो रहा है। इसी कारण प्राचीन समय से ही इस जाति मे कई कवि एव
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पल्लीवाल जैन जाति का इतिहास
विद्वान होते रहे हैं । आज भी यह जाति पूर्णत शिक्षित है। बहुत से लडके तथा लडकियाँ उच्च शिक्षा प्राप्त है तथा सरकारी सेवा मे उच्च पदो पर कार्यरत हैं। प्राज समाज ने बहुत सी प्राधारहीन रूढियो को समाप्त कर दिया है, लेकिन इसके साथ ही लोगो मे धार्मिक भावना (रुचि) भी कम हो गई है।
(4-10) रीति-रिवाज:
पल्लीवाल जाति के सामाजिक रीति-रिवाज हिन्दुनो के रीति-रिवाजो से बहुत प्रभावित है। पहले समय मे पल्लीवालो के रीति-रिवाज क्या थे इसकी जानकारी दो छोटी पुस्तको से मिलती है, वे पुस्तके है-'पल्लीवाल हितैषिणी' तथा 'पल्लीवाल रीति प्रभाकर'।
'पल्लीवाल हितैषिणी' के मुख-पृष्ठ के अनुसार इसे मगूरा निवामी श्री नन्द किशोर पटवारी न सब पल्लीवाल भाइयो को सहमति से लिखा तथा प्रकाशित कराया। इसका प्रथम बार मुद्रग वि स 1967 (ई. सन् 1910) मे 'वाल किशन प्रिन्टिग प्रेस (मै०-लाला कन्हैया लाल बाल किशन, बम्बई) मे हुमा । कुल प्रकाशित प्रतियो की संख्या 250 थी। पुस्तक के अन्त मे उन सब पल्लीवाल भाइयो के नाम (हस्ताक्षर) है जिन्होने इस पुस्तक मे लिखित रीति-रिवाजो को मजूरी (सहमति) प्रदान की। जिन व्यक्तियो के हस्ताक्षर है वे निम्न प्रकार है-सर्व श्री नन्दकिशोर मु. मगूरा, भिखरीमल मु० कुथरो प्यारेलाल मु० मुरेडा, चिरजीलाल व श्यामलाल मु० रायभा, श्यामलाल मु• हसेला, विजेराम मु० गडीमा, गिरवर मु० कठवारी, चिरजीलाल मु० कठवारी, चिरजीलाल मु० कुथरो, खचेरमल मु० अगूठी, चैनीराम मु० रूनकता, मूलचन्द मु० अरसेना, मूलचन्द मु० गढी तिरखा, जाह
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समाज दर्शन
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रिया मु. परिखम, दीपचन्द व रतनलाल मु. हसेला, नरायनप्रसाद मु० लडागडा, ताराचन्द मुकुथरौ,, नकटाराम मु० कुथरी, झम्मन लाल मु० कुथरो, मुरलीधर मु० कुथरी, छोटेलाल मु० कठवारी, बिरधीलाल मु० भिलावटी, पीनामल मु० रहपुरा अहीर, डूंगरसिंह मु० रहपुरा, अहीर, इमरता मु० कासौठी, परसादी मु० कासोठी, बलवतसिंह मु. मई, मोतीलाल मु० मई, टीकाराम मु० रायभा, मूलचन्द मु० मगरा, घनश्याम दास मु० खेरासाधन, रामचन्द मु० पनवारी, किरोरी मल मु० आगरा, माईथान, मुन्शी नन्दकिशोर व चन्द्रभान, पन्नीलाल मु० बस्तई, शिवचरन म० रायभा, चिरजीलाल मु० मिढाकुर, शकरलाल मु० मिढाकुर, कल्लूराम व चोखेलाल मु. मिढाकुर छिद्दामल मु० डाबली, जीवाराम मु. डाबली, गोपीचन्द मु० रहपुरा जाट, परसादीलाल मुनीम मु० रहपुरा जाट, गनेशीलाल मु० रायभा, उत्तमचन्द मु० भुडुरूसू, छिद्दा मु० नगला अकपुरा, तोताराम मु० किरावली, भूपाल मु. किरावली, मनेसीलाल मू० वसईया, मटरेमल म० अागरा, कन्हैयालाल मु० बसईया, मगनपत मु० अदूस, रामनद मु० पनवारी, बिहारीलाल मु० झनकता, कन्हीयालाल मु० धनौली रामचन्द मु० गोपऊ, फतेलाल मु० महदऊ, गगाधर मु० उमेदीपुरा, सकरलाल मु० सजा का नगरा, नरायन परसाद मु० गढी चन्द्रमन ।
यह पुस्तक कई मामलो मे बहुत महत्वपूर्ण है। एक तो इससे उस समय के प्रचलित रीति-रिवाजो का पता चलता है। दूसरे इससे यह सिद्ध होता है कि प्राचीन समय में हमारे पूर्वज समयसमय पर मीटिंग (सभा) प्रायोजित किया करते थे तथा समाज के विभिन्न पहलुओं पर विचार-विमर्श किया करते थे। इस प्रकार की मीटिंग मे सम्मिलित होने के लिए सभी गांवो से लोग आया करते थे। आने जाने के माधनो का प्रभाव होने पर भी काफी
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पल्लीवाल जन जाति का इतिहास
संख्या में लोग एकत्रित हुआ करते थे। वे इन मीटिगो में कुछ महत्वपूर्ण निर्णय भी लिया करते थे।
एक अन्य बात जो इससे उजागर होती है वह है कि प्रागरा के पास-पास के किन-किन गाँवो मे पल्लीवाल रहते थे। हमारे बुजुर्गों के क्या-क्या नाम थे, यह भी पता चलता है । __पल्लीवाल जाति के सामाजिक रीति-रिवाजो से सम्बन्धित 'पल्लीवाल रीति प्रभाकर' नामक एक अन्य पुस्तक का प्रकाशन विक्रम स० 1970 (सन् 1914) मे हुआ था। इस पुस्तक को लाला गुलाबचन्द जी, लाला बुद्धसिह जी पटवारी वरारा तथा लाला निहालचन्द जी ने बनाया और मास्टर कन्हैयालाल जी बी ए एल टी तथा मास्टर मगलसेन जी ने 'शोध वैदिक-यन्त्रालय, अजमेर मे छपवाकर प्रकाशित कराया। इस पुस्तक की भूमिका से पता चलता है कि उस समय समाज मे शिक्षा का अभाव था तथा समाज मे कुरीतियों व्याप्त थी। समाज की उन्नति के उद्देश्य मे ही प्रागरा के बरारा नामक ग्राम मे 'वशोन्नति-मभा' की स्थापना वि स 1967 (सन् 1911 ) में की गई। तदुपरान्त पल्लीवालो के रीति-रिवाजो को समाज में प्रचारित करने के उद्देश्य से उक्त पुस्तक का प्रकाशन किया गया।
पुराने रीति-रिवाजो की अब प्रचलित रीति-रिवाजो से तुलना करने पर पता चलता है कि आज बहुत से व्यर्थ के रिवाजो को समाप्त कर दिया गया है। विभिन्न अवसरो पर मन गढत कुदेवो को पूजना भी बहुत कम हो गया है। घर में किसी के मर जाने पर पहले ब्राह्मणो को खिलाया जाता था तथा समाज को भोज दिया जाता था, लेकिन आजकल मृत्युभोज की कुरीति भी बहुत कम हो गई है।
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समाज दर्शन
समाज में पहले बाल-विवाह का प्रचलन था। अब वह विल्कुल समाप्त हो गया है । 60-70 वर्ष पहले तक अनमेल विवाहो का भी प्रचलन था। पचास वर्ष के पुरुष भी पत्नी के मर जाने के बाद नाबालिक कन्याप्रो से विवाह कर लेते थे । यह कुप्रथा प्राय भारत की सभी जातियो मे प्रचलित थी। लेकिन ऐसा अब शायद किसी भी जाति मे नही होता है।
सामान्यत समाज मे पुरुष कई शादियाँ नही करते है। सत्रियो मे भी पुनर्विवाह प्राय नही होता है। समाज मे अन्तर्जातीय विवाह करते है लेकिन फिर भी अधिकाश लोग समाज मे ही शादी विवाह करना पसद करते है।
(4-11) जातीय सभायें/सस्थायें
पल्लीवाल जाति को आज हम जिस सगठित रूप में देख रहे है उसके पीछे समाज के पुराने लोगो का बहुत योगदान रहा है । आज से लगभग सौ वर्ष पहले तक समाज एक प्रकार से असगठित था। उसका कोई अपना ऐसा मच नही था जिससे समाज की कोई एक ध्वनि प्राती हो । समाज को सगठित तथा उन्नतशील बनाने के उद्देश्य से एक सस्था की स्थापना 11 दिसम्बर सन् 1892 मे समाज के उत्साही एव शिक्षित युवको द्वारा की गई। इस सस्था का नाम 'पल्लीवाल धर्म प्रवर्धनी क्लब' रखा गया। जिस समय इस सस्था की नीव रखी गई, उस समय 'पार्य-समाज' जैसे लोकप्रिय सुधारवादी आन्दोलनो का जोर था। पल्लीवालो की उक्त सस्था भी इनसे प्रभावित रही तथा इस सस्था का भी मुख्य उद्देश्य समाज में फैली कुरीतियो को दूर करना तथा समाज को प्रगतिशील बनाना रहा। कुछ समय बाद इस सस्था का नाम परिवर्तित करके 'पल्लीवाल जैन महासमिति' कर दिया गया। इसका प्रथम अधिवेशन सन् 1920 मे आगरा मे हुआ । इस सस्थाने वीस
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पल्लीवाल जैन जाति का इतिहास
वर्ष की अवधि तक समाज की सकुचित विचारधारा को दूर करने तथा समाज को संगठित करने का महत्वपूर्ण कार्य किया । तदोपरान्त कार्यकर्ताओ के अभाव मे यह संस्था लगभग समाप्त हो गई । इस सस्था के सगठनात्मक कार्यों में सबसे बडी उपलब्धि पल्लीवाल समाज के विभिन्न घटको ( मुरैना तथा ग्वालियर के पल्लीवाल, कन्नौज, अलीगढ तथा फिरोजाबाद के पल्लीवाल, सिकन्दरा के सैलवाल, पालम तथा अलवर के जैसवाल ) मे आपस मे विवाह सम्बन्ध स्थापित करवाना रही। इन सस्थाओ से सम्बन्धित लोगो मे मुख्य थे - मास्टर कन्हैयालाल जी, रायसहाब कल्याणराम जी, सेठ रामचन्द जी तथा सेठ गोपीचन्द जी आदि ।
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समाज को फिर से सगठनात्मक नेतृत्व प्रदान करने के लिए समय-समय पर विभिन्न लोगो द्वारा प्रयत्न किये जाते रहे। उसी के फलस्वरूप 20 अप्रैल सन् 1969 को 'श्री अखिल भारतीय पल्लीवाल जैन महासभा' की स्थापना की गई। इस सस्था को स्थापित करने मे डा० क्रान्ति कुमार जैन, डा० किशनचन्द जैन, श्री ब्रिजेन्द्र कुमार जैन तथा श्री प्रकाश चन्द जैन का मुख्य योगदान रहा ।
(4-12) पत्रकारिता
समाज का बुद्धिजीवी वर्ग इस बात का अनुभव कर रहा था कि समाज के प्रत्येक व्यक्ति तक समाज की सूचनाएँ पहुॅचाई जाऐ तथा सदियो से चली आ रही रूढिवादिता तथा कुरीतियों को दूर करने की अपील की जाए, जब तक ऐसा नही होगा, सम्थाम्रो के प्रयोजन अधिक सफल नही होगे । इन्ही उद्देश्यो की पूर्ति के लिए समाज की पत्रिका निकालने का प्रयत्न लगभग 60 वर्ष पूर्व किया गया। सन् 1925 में 'पल्लीवाल जैन' नामक पत्रिका का प्रकाशन
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समाज दर्शन
प्रारम्भ हुमा। इसके सपादक प चिरजीलाल जी थे। प्रारम्भिक वर्षों में यह पत्रिका त्रैमासिक थी। सन् 1934 में इसका मासिक प्रकाशन प्रारम्भ हुआ। इस पत्रिका के सपादक क्रमश श्री हजारी लाल जैन, श्री प्रताप चन्द जैन तथा श्री सूरजभान जैन 'प्रेम' रहे । बाद में इस पत्रिका का सपादन कार्य क्रमश मा० रामसिह जैन, श्री नेमीचन्द बरवासिया तथा श्री गोधनदास जैन द्वारा किया गया।
इसके अतिरिक्त सन् 1940 मे 'पल्लीवाल बन्धु' का प्रकाशन किया गया। इसके सपादक श्री रोशनलाल जैन थे। सन् 1963 मे 'जैन-सगम' का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ, इसके सपादक श्री महावीर कोटिया थे। अन्ततोगत्वा इन सभी पत्रिकामो के प्रकाशन न्यनाधिक अवधि के पश्चात् बन्द हो गये।
सन् 1969 मे 'श्री अखिल भारतीय,पल्लीवाल जैन महामभा' के मुख-पत्र के रूप में 'पल्लीवाल जैन पत्रिका' का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ। इसके प्रकाशन का शुभारम्भ मागरा से हुमा तथा इसके प्रथम सपादक मा० रामसिंह जैन थे। तत्पश्चात् इसका प्रकाशन जयपुर से हुप्रा तथा कुछ वर्षों बाद पुन: यह पत्रिका आगरा पा गई। आजकल इसका प्रकाशन मथुरा से हो रहा है ।
(4-13) जनगणना
समाज की जनगणना का प्रथम प्रयास सन् 1916 मे लाला बशीधर जी द्वारा किया गया। यह जनगणना एक वर्ष मे पूर्ण हुई। इस कार्य में लाला सूरजभान जी 'प्रेम' लाला गोपीलाल जी तथा मास्टर कन्हैयालाल जी का विशेष सहयोग रहा। सन् 1988 मे पल्लीवालो के परिवारों की अनुमानित संख्या लगभग 4000 है तथा कुल जनसख्या लगभग 20,000 है।
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पल्लीवाल जैन जाति का इतिहास
(4-14) इतिहास लेखन
पल्लीवाल जाति के इतिहास से सम्बन्धित सबसे प्राचीन पुस्तक 'पल्लीवाल- परीक्षा' का उल्लेख मिलता है । यह हस्तलिखित पुस्तक सवत् 1300 में लिखी गई थी। इसका उल्लेख 'महाकवि चन्द के वशधर' नामक लेख मे प्रो रमाकान्त त्रिपाठी 23 ने किया है। लेकिन यह पुस्तक अनुपलब्ध होने के कारण इसकी कोई विशेष जानकारी नही है ।
अन्य बहुत सी जातियो की तरह पल्लीवाल जाति में भी राय भाट (चारण भाट) का प्रचलन था । इन रायो का मुख्य कार्य जाति के विभिन्न वशो / गोत्रो को वशावलियो को बनाना तथा उन्हे पूर्ण करना था । यदि जाति मे कुछ विशेष कार्य हुआ हो या कोई विशेष घटना घटी हो तो उसका भी वे दस्तावेज तैयार करते थे । पल्लोवाल जाति से सम्बन्धित वंशावलियो तथा घटनाओ का पूर्ण दस्तावेज 'प्रार्थना - पुस्तक' नामक हस्त लिखित कृति में उपलब्ध है । लेकिन इसमें क्रमवार घटनाओ का उल्लेख न होने तथा बहुत सी महत्वपूर्ण घटनाम्रो को छोड देने के कारण इसे इतिहास नही कहा जा सकता है ।
प्रस्तुत इतिहास से पूर्व जाति के इतिहास को क्रमबद्ध तरीके से लिखने के दो प्रयास हुये है । सन् 1922-23 मे सर्व प्रथम 'लघु पल्लीवाल इतिहास' लिखा गया। इसका प्रकाशन सतना ( रीवा) मे हुआ था। सन् 1962 मे पल्लीवाल जैन इतिहास' का प्रकाशन भरतपुर से हुआ था । इसके लेखक श्री दौलतसिंह लोढा 'अरविन्द' थे । भरतपुर से प्रकाशित इस इतिहास को लिखने में श्वेताम्बर पल्लीवालो से सम्बन्धित लेखो / मूर्ति लेखो का विशेष आधार लिया गया था | दिगम्बर पल्लीवालो के ऐतिहासिक तथ्य तथा मूर्ति लेख प्रादि का उपयोग नही किया गया था । श्रत यह इतिहास
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समाज दर्शन
भी अपूर्ण रहा । इसी कारण प्रस्तुत इतिहास लिखा गया है; इसे लिखने मे जाति से सम्बन्धित प्राप्त सभी सामग्री का यथा सम्भव पूर्ण उपयोग किया गया है।
(4-15) शिक्षण संस्थाएं, धर्मशालाएं तथा औषधालय प्रादि
आज समाज द्वारा सचालित कई विद्यालय हैं। एक हाई स्कूल तथा जूनियर हाई स्कूल आगरा में हैं । एक पब्लिक स्कूल लगभग दो वर्ष पूर्व बरारा (आगरा) में खोला गया । सेठ छदामी लाल जी द्वारा स्थापित एक डिग्री कॉलेज (श्री सी एल जैन डिग्री कॉलेज) फिरोजाबाद में है । समाज की कई धर्मशालाएं भी है। धूलिया गज, आगरा, अतिशय क्षेत्र श्री महावीर जी, भरतपुर तथा हिण्डौन आदि मे एक एक धर्मशाला है। सेठ छहामीलाल जी द्वारा बनवाई एक विशाल धर्मशाला फिरोजाबाद मे है । कुछ धर्मार्थ प्रोवायल भी है। आगरा मे धूलिया गज मे स्थित श्री महावीर होम्योपौषधालय' है । अजमेर के पाल-बीचला मे विजय पौली क्लिनिक' है, इसमे आधुनिक पद्धति पर आधारित विभिन्न चिकित्सा सुविधाएँ है। अलवर मे भी अायुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति पर आधारित 'श्री चन्द्र प्रभु मोषधालय' है ।
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पंचम-प्रध्याय
पल्लीवाल जाति के विशिष्ट व्यक्तियों
का संक्षिप्त परिचय पल्लीवाल जाति मे समय-समय पर बडे-बडे विद्वान पैदा होते रहे है जिन्होने जैन धर्म का प्रचार किया तथा धर्म के मर्म को समझ कर अपने जीवन में भी उतारा। इन विद्वानो मे से कुछेक तो बहुत प्रसिद्ध है तथा पूरा जैन समाज उनसे परिचित है, लेकिन बहुत से ऐसे भी है जिनके बारे में पल्लीवाल जाति के अधिकतर लोग नही भी जानते है। जनसख्या की दृष्टि से पल्लीवाल जाति एक छोटी सी जैन जाति है, लेकिन इसमे इतने बडे-बडे विद्वान व विशिष्ट पुरुष हुए है, यह इस जाति के लिए बहुत ही गौरव की बात है। यहाँ पर उन्ही का सक्षिप्त परिचय प्रस्तुत है ।
(5-1) कवि धनपाल पल्लीवाल
धनपाल नाम के दो विद्वान हुए है। एक ग्यारहवी शताब्दी के पूर्वार्द्ध मे हुए है। ये ब्राह्मण थे तथा बाद मे दिगम्बर जैन धर्म अपना लिया था। ये बहुत विद्वान थे। इन्होने संस्कृत मे 'तिलक मजरी' नामक गद्य की रचना की।
दूसरे धनपाल कवि तेरहवी शताब्दी मे हुए है। इन्होने 'तिलक मजरी सार' नामक संस्कृत काव्य की रचना की। अपनी
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विशिष्ट व्यक्तियों का संक्षिप्त परिचय
रचना के प्रारम्भिक पाँच पदो में इन्होने स्पष्ट किया है कि इनकी यह रचना उपरोक्त धनपाल के 'तिलक मजरी' पर ही प्राधारित है । तिलक मजरी सार' के रचयिता कवि धनपाल ने अपनी इस रचना के अन्त में अपना परिचय निम्न प्रकार दिया है
महाकाव्य विनिर्ममे ॥ 2 ॥
'अणहिल्लपुरख्यात पत्नीवाल कुलोद्भव । जयत्यशेषशास्त्रज्ञ श्री मान् सुकविरामन ॥ 1 ॥ सुक्लिष्ट शब्द सन्दर्भमद्भुतार्थ रसोमि यत् । येन श्री नेमिचरित चत्वारस्तनुजास्तस्य ज्येष्ठस्तेषु विशेषवित् । प्रनन्तपालश्चक्रे य स्पष्टा गणितपाटिकाम् ॥। 3 ॥ धनपालस्ततो नव्य काव्य शिक्षा परायण । रत्नपाल स्फुरत्प्रज्ञो गुरणपालश्च विश्रुत ॥ 4 ॥ धनपालोऽल्पतुश्चापि पितुरश्रान्त शिक्षया । सार तिलकमजय कथाया किचिदप्रथम् ॥ इन्दु दर्शन- सूर्याक ( 1231) वत्सरे मासि कार्तिके । शुक्लाष्टम्या गुरावेष कथासार ( ) समर्पित ।। 6 । ग्रन्थ किन्चदम्यधिक शतानि द्वादशान्यसौ । वाच्यमान सदा सद्भिर्यावदर्क च नन्दतात्
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भावार्थ - रचयिता के पिता ग्रामन का जन्म अणहिल्लपुर (पाटण) के सुप्रसिद्ध कुल पल्लीवाल मे हुआ था । आमन एक सुप्रसिद्ध महान् कवि है तथा उन्होंने 'श्री नेमिचरितम्' नामक महाकाव्य की रचना की है। इनके चार पुत्र हैं, उनमे सबसे बडे अनन्तपाल है जिन्होने 'स्पष्ट पाटिगणित' की रचना की । दूसरे धनपाल स्वय है जिसने इस काव्य की रचना की। अगले पुत्र रत्नपाल तथा गुणपाल हैं। पिता द्वारा दी गई शिक्षा के
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पल्लीवाल जैन जाति का इतिहास
कारण ही धनपाल काव्य रचना के क्षेत्र में दक्ष है तथा इस ही के परिणाम स्वरूप वे इस रचना को बना सके है। यह कार्य इन्दुदर्शन सूर्याक सम्बत् यानि कि वि० स० 1261 के कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी के दिन गुरुवार को पूर्ण किया। इस काव्य मे बारह सौ से कुछ अधिक पद है। कवि ने ऐसी आशा प्रगट की है कि जब तक सूर्य रहेगा, इसे पढ़ने वाले इससे आनन्द प्राप्त करेगे।
यहाँ से यह स्पष्ट है कि धनपाल का जन्म पल्लीवाल कुल मे हुआ था। मुनि श्री जिनविजय जी तथा श्री नाथूराम प्रेमी के अनुसार 'पल्लीपाल' शब्द 'पल्लीवाल' का ही प्राकृत भाषा का रूपातरण है। अत कवि धनपाल पल्लीवाल जात्युत्पन्न ही थे। उस समय गुजरात के पश्चिमी भाग मैं चालुक्यो के सोलकी साम्राज्य की राजधानी अरणहिल्लपुर (पाटण) के सुप्रसिद्ध पल्लोपाल कुल मे कवि के पिता प्रामन का जन्म हुआ था। प्रामन भी विद्वान थे तथा इन्होने नेमिचरितम्' की रचना की। आमन के बडे पुत्र अनन्तपाल ने भी 'पाटिगणित' लिखा। इससे पता चलता हे कि आमन का पूरा परिवार बहुत पढा-लिखा था तथा ये सभी विद्वान थे। लेकिन दुर्भाग्यवश इस परिवार के धनपाल की मात्र एक रचना तिलक मजरी सार' ही उपलब्ध है। अन्य रचनाये या तो ना हो गई अथवा अभी तक प्रकाश मे नही पाई है।
मुनि श्री जिनविजय जी के अनुसार वनपाल पल्लीवाल दिगम्बर थे। श्वेताम्बर पडित लक्ष्मीधर पल्लीपाल-धनपाल के समकालीन थे। ये भी अणिहल्लपुर के निवासी थे तथा इन्होने भी 'तिलक मजरी कथा सार' की रचना वि० स० 1281 मे की, लेकिन इन्होने अपनी रचना मे न तो ग्यारहवी शताब्दी के धनपाल का (जिन्होने मूल 'तिलक मजरी' लिखी) और न ही पल्ली
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विशिष्ट व्यक्तियो का संक्षिप्त परिचय
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पाल का ( जो रिहल्लपुर के ही निवासी थे तथा लक्ष्मीधर से मात्र बोस वर्ष पहले ही लोकप्रिय तिलक मजरी सार' की रचना की ) कोई उल्लेख किया है । ऐसा मानना तो गलत होगा कि लक्ष्मीवर अपने नगर के तथा अपने समकालीन लोक प्रिय कवि पल्लीपाल धनपाल तथा प० ग्रामन से अपरिचित रहे हो । प० लक्ष्मीधर ने इनके नामो का उल्लेख नही किया उसका मात्र कारण यह था कि ये सभी दिगम्बर थे तथा प० लक्ष्मीधर पल्लीपाल धनपाल को अपना प्रतिद्वन्दी मानते थे । पल्लीपाल धनपाल दिगम्बर थे, इसी कारण श्वेताम्बर शास्त्र भण्डारो मे उस समय की अन्य सभी रचनाएँ तो सुरक्षित है, लेकिन पल्लीपाल धनपाल, प० ग्रामन तथा प० अनन्तपाल की रचनाएँ नही हैं ।
इस प्रकार प० ग्रामन, प० अनन्तपाल तथा कवि धनपाल पल्लीवाल जाति के थे तथा दिगम्बर जैन धर्मानुयायी थे। इनका पूरा परिवार धार्मिक कार्यों मे सलग्न था ।
कवि धनपाल पल्लीवाल कृत 'तिलक मजरी सार.' लोक कथा पर आधारित संस्कृत का एक महाकाव्य है जिसमे एक मोर तो राजकुमार हरिवाहन तथा विद्याधरी राजकुमारी तिलक मजरी तथा दूसरी ओर राजकुमार समरकेतु तथा राजकुमारी मलयसुन्दरी के प्रेम-प्रसंगो का वर्णन है । इस महाकाव्य में अनुष्टुभ् छन्दो का प्रयोग किया गया है । छन्दो की कुल सस्या 1205 है जिनमें से प्रतिम 7 छदो मे कवि ने अपना परिचय दिया है । शेष छदो को नौ प्रयाणकम् ( अध्यायो ) में विभक्त किया है । प्रत्येक अध्याय के प्रत में कवि ने 'विश्राम' शब्द का प्रयोग किया है | प्रथम अध्याय के प्रथम छद में कवि ने प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव का स्मरण करते हुए उनसे प्राशीर्वाद मांगा है । यह छद निम्न प्रकार है
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पल्लीवाल जैन जाति का इतिहास
'श्री नाभेय श्रिय दिश्यात् यस्याशतटयो टा. ।
भेजुर्मुखाम्बुजोपान्तभ्रान्तभृडगावलिश्रमम् ॥1॥ यह एक सुन्दर काव्य है जिसमे आवश्यकतानुसार विभिन्न अलकारो का भी प्रयोग किया गया है।
इसका सर्वप्रथम प्रकाशन 'लालभाई दलपतभाई सस्कृति विद्यामदिर, अहमदाबाद' से सन् 1959 में हुआ था जिसकी विस्तृत भूमिका गुजरात कालेज, अहमदाबाद के सीनियर लेक्चरर श्री नारायन मनीलाल कसारा ने लिखीत है। (5-2) तयागच्छीय श्रीमद् विद्यानन्दसूरि एवं श्री धर्मघोषसूरि
पल्लीवाल जातीय प्रसिद्ध श्रेोष्ठि नेमड के पुत्र राहड तथा उनके पुत्र के पुत्र जिनचन्द्र की चाहिणी नामा धर्म परायणा सुशीला स्त्री से एक कन्या तथा पाँच पुत्र हुए थे। चौथा और पाचवा पुत्र वीर धवल और भीमदेव थे। नमड का समस्त परिवार दृढ जैन धर्मी, धर्म कर्म परायण गुरु भक्त एव सस्कार पवित्र था।
नेमड के कुल मे इन दो-वीर धवल और भीमदेव ने ससार को असारता का विचार करके भव सुधारने की शुभ भावनासो के उदन से आकर्षित होकर तथागच्छीय देवभद्रसूरि, विजयचन्द्रसूरि और देवेन्द्र सूरि की प्राम्नाथ मे वि० स० 1302 मे उज्जैन नामक प्रसिद्ध एव ऐतिहासिक नगरी मे भगवती दीक्षा ग्रहण की
और श्री वीरधवल मुनि विद्यानन्द और श्री भीमदेव धर्मकीर्ति नाम से क्रयश विश्रुत हए।
दोनो भ्राताओ ने गुरू सेवा मे रहकर कठिन सयम साध कर उत्तम चारित्र प्राप्त किया एव शास्त्राभ्यास करके प्रशसनीय विद्वता प्राप्त की। विश्रानन्दसूरि ने 'विद्यानन्द' नामक व्याकरण बनाया। श्री देवेन्द्र सूरि द्वारा रचित 'नव्य कर्म' ग्रन्थो का श्री धर्मघोषसूरि (धर्म कीर्ति) के साथ रह कर सपादन किया।
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विशिष्ट व्यक्तियों का संक्षिप्त परिचय
विद्यानन्द व्याकरण एव नव्य कर्म ग्रन्थो का सपादन ये दो कार्य ही इनकी उद्भट विद्वता का स्पष्ट परिचय करा देने को पर्याप्त हैं। वि० स० 1323 में इन दोनो नातामो के तेज तप, सबम एवं शास्त्राग्यास, विद्वतादि से प्रसन्न होकर श्री विद्यानन्द मुनि को सूरि पद और धर्मकीर्ति को उपाध्याय पद प्रदान किया। वि० स. 1327 मे श्री देवेन्द्रसूरि का मालवा मे स्वर्गवास हो गया। उस दिन के ठीक तेरह दिन पश्चात् श्री विद्यानन्द सूरि भी स्वर्गवासी हो गये । उपाध्याय धर्मकीर्ति धर्मघोष सूरि नाम से पद पर बिराजे। श्री धर्मघोषसूरि बडे विद्वान थे और इनका गुर्जर सम्राटो तथा माण्डव के शासको पर अच्छा प्रभाव था। ये विद्वान होने के साथ साथ मन्त्रवादी भी थे। इन्होने बहुत से लोगो को जैन धर्म मे दृढ किया तथा जैन धर्म का प्रचार किया।
श्री धर्मघोष सूरि ने कई ग्रन्थ लिखे । सघाचाराख्य, भाण्यवृत्ति, मुअधमेतिस्तव, कायस्थिति, भवस्थितिस्तवन, चतुर्विशति पर जिनस्तवन 24, शास्त्राशमति नाम का प्रादि स्तोत्र, देवेन्द्रनिशम् नाम का श्लेष स्तोत्र, युययुवा इति श्लेसस्तुतय , और जयऋषभेति प्रादि स्तुत्यादय इनकी ही रचनाएँ हैं । ___ इस प्रकार साहित्य और धर्म की प्रभावना करते हुए श्री धर्मघोष सूरि का स्वर्गवास वि० स० 1357 मे हुआ। प्राचीन जैनाचार्यों में विद्वता एव धर्म-प्रचार-प्रसार की दृष्टि से आपका स्थान बहुत ऊँचा है। (5-3) पं. रूपचन्द
रूपचन्द नाम के तीन विद्वान हुये हैं। पाण्डे रूपचन्द कविवर पडित बनारसीदास जी के गुरु थे। इनका नामोल्लेख प० बनारसीदास जी ने अपने प्रात्म-चरित 'अर्द्ध-कथानक' मे किया है। पाण्डे रूपचन्द जी ने 'समवसरण पूजा' तथा 'केवलज्ञान कल्याण चर्चा' की रचना की तथा इनकी प्रशस्तियो मे अपना पूर्ण परिचय
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पल्लीवाल जैन जाति का इतिहास
भी दिया है । ये अग्रवाल जाति के थे तथा इनका गोत्र गर्म था । पाण्डे रूपचन्द जी की मृत्यु वि० स० 1694 में हुई ।
दूसरे प० रूपचन्द प० बनारसीदास जी के उन पाँच साथियो मे से एक थे जिनके साथ बनारसीदास जी परमार्थ की प्राध्यात्मिक चर्चाये किया करते थे । इनका नामोल्लेख प० बनारसी दास जी ने अपने 'प्रद्ध-कथानक' तथा 'नाटक समयसार' दोनो मे किया है । 'नाटक समयसार' की प्रशस्ति मे कविवर लिखते है'रूपचन्द पडित प्रथम, दुतिय चतुर्भुज नाम || तृतिय भगौतीदास नर कौंरपाल गुनधाम ॥ धर्मदास ये पत्र जन, मिलि बैठे इक ठौर ।
परमारथ चरचा करे इनके कथा न औौर ॥'
इन पडित रूपचन्द ने दोहा परमार्थ या परमार्थी दोहा शतक, परमार्थ गीत या गीत परमार्थ, पच कल्याण मंगल या पच मगल पाठ, अध्यात्म सवैया, खटोलना गीत तथा स्फुट गीत की रचनाएँ की हैं ।
तीसरे रूपचन्द प० बनारसीदास जी के बहुत बाद में हुये है । ये भो उपरोक्त दो रूप चदो की तरह आगरा के रहने वाले थे । इन्होने प० बनारसीदास जी के 'नाटक समयसार' की टीका सवत् 1798 मे की। इनके द्वारा की गई प्रतिलिपि की कुछ हस्तलिखित रचनाएँ मोती कटरा (आगरा) के दिगम्बर जैन मन्दिर मे भी मोजूद हैं। 26
प नाथूराम जी प्रेमी के अनुसार सवन्द नाम के नार विद्वान हुए है । 36 इनके अनुसार पाण्डे रूपचन्द तथा 'समवसरण पाठ (संस्कृत) के रचयिता रूपचन्द दो अलग-अलग ब्यक्ति हैं लेकिन अधिकतर विद्वान श्री प्रेमी से सहमत नही है तथा वे 'समवसरण पूजा' के रचयिता पाण्डे रूपचन्द को ही मानते है ।
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एक जनश्रुति के अनुसार 'पच मगल पाठ' के रचयिता प० रूपचन्द पल्लीवाल जाति के थे । प्रत प० बनारसीदास जी के
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विशिष्ठ व्यक्तियो का संक्षिप्त परिचय
पांच साथियों में से एक प० रूपचन्द पल्लीवाल थे। इनका जन्म कन्नौज में हुमा था तथा बाद मे ये मोगरा पाकर रहने लगे थे।
कि प० बनारसीदास 400 वर्ष पूर्व हुये हैं, अत. ये रूपचन्द जी भी400वर्ष पूर्व के विद्वान हैं। इनकी पत्नी का नाम मणि या भणि था। इनके कोई भी सन्तान नहीं थी। इन्होने जो रचनाएँ की हैं, उनका उल्लेख ऊपर ही कर चुके हैं। 'पच मगल पाठ' इनकी सर्वाधिक लोक प्रिय रचना है। प्रतिदिन अभिषेक के समय इसे प्रत्येक दिगम्बर जैन मन्दिर में पढा जाता है । इस पाठ में तीर्थंकर भगवान के गर्भ, जन्म, ज्ञान, तप और निर्वाण के समय जो लक्षण प्रकट होते है उनका दिग्दशन बडी सुन्दर तथा सरल भाषा मे कराया है । प० रूपचन्द जी ने केवल ज्ञान की महिमा का वर्णन निम्न प्रकार से किया है
'क्षुदा तृषा अरु राग द्वेष असुहावनो। जन्म जरा अरु मरण त्रिदोष भयावनो ॥ रोग शोक भय विस्मय अरू निद्रा हनी।
खेद स्वेद मद मोह अरति चिन्ता गनी ।। गनिये अठारह दोष तिन कर रहित देव निरजनो।
नव परम केवल लब्धि मडित शिवरमण मन रजनो॥ श्री ज्ञान कल्याणक सुमहिमा सुनत अति सुख पाइयो।
भरिण रूपचन्द सुदेव जिनवर जगत मगल गाइयो।" (5-4) दीवान जोधराज
दीवान जोधराज का जन्म विक्रम संवत् 1790 की कार्तिक शुक्ला पचमी को हुआ था। ये पल्लीवाल जात्युत्पन्न डगिया चौधरी गोत्रीय थे। पाप हरसारणा (हासाने) नगर के रहने वाले थे, जिसके शासक महाराजा केसरीसिंह थे यह नगर अलवर जिले मे स्थित है । जोधराज महाराजा केसरीसिंह के राज्य-दरबार में दीवान पद पर मासीन थे।
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पल्लीवाल जैन जाति का इतिहास
एक किवदन्ति के अनुसार महाराजा केसरीसिंह मापसे अप्रसन्न हो गये। उन्होने आपको मृत्यु दण्ड की सजा दे दी। महाराजा की आज्ञानुसार दीवान जोधराज को तोप के सामने खडा कर दिया गया। जैसे ही तोप दागो जाने वाली थी कि दीवान जोधराज ने चादनपुर की अतिशय युक्त भगवान महावीर स्वामी की प्रतिमा का ध्यान लगाया तथा सकल्प किया कि 'यदि मैं जीवित रहा तो मर्व प्रथम भगवान महावीर के दर्शन करूंगा तथा मन्दिर का जीर्णोद्धार कराऊँगा। इतने मे तोप दाग दी गई लेकिन तोप नही चली। तीन बार यह प्रयास किया गया, लेकिन तीनो बार तोप नही चली। यह बात जब महाराजा केसरीसिह को मालूम हुई तो उन्होने दीवान जोधराज को मुक्त कर दिया तथा वे स्वय दीवान जोधराज के साथ भगवान महावीर की अतिशय युक्त प्रतिमा के दर्शन करने गये । बाद मे दीवान जोधराज ने मन्दिर का जीर्णोद्धार कराया।
इस घटना का उल्लेख प० कैलाशचन्द्रजी शास्त्री (बनारस) ने गोरखपुर से प्रकाशित पत्र 'कल्याण' के तीर्थांक (वर्ष 31, सख्या 1) मे प्रकाशित अपने लेख मे भो किया है। लेकिन यह मात्र किवदन्ति है। इसका कोई ऐतिहासिक प्रमाण उपलब्ध नही है। यह स्पष्टीकरण स्वय प. कैलाशचन्द जी ने जैन सन्देश (मथुरा) के 30 जून 1986 के अंक में अपने सम्पादकीय मे दिया है 140
दीवान जोधराज ने कई मूर्तियो की प्रतिष्ठाएँ भी करायी थी। उनमे से एक मूर्ति मथुरा के राजकीय संग्रहालय मे सुरक्षित है जिसकी प्रतिष्ठा सवत 1826 में कराई थी 41 | श्वेताम्बर समाज का मानना है कि दीवान जोधराज श्वेताम्बर मतावलम्बी थे क्योकि उनके द्वारा प्रतिष्ठापित मूर्ति स्वेताम्बरी है। वस्तुत वे किसी आम्नाथ विशेष के हटी नहीं थे। उनके हृदय मे श्वेता
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___ कविवर प श्री दौलतरामजी (अलवर के मूर्धन्य चित्रकार श्री विष्णु जी शर्मा की तूलिका से साभार)
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विशिष्ठ व्यक्तियों का सक्षिप्त परिचय
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म्बर और दिगम्बर दोनों माम्नायो के लिए एक सा आदर भाव था। यदि ऐसा नहीं होता तो वे दोनो आम्नायो के उद्धार की बात नही सोचते । एक ओर तो श्वेताम्बर मूर्तियों की प्रतिष्ठाएँ करायी तथा दूसरी ओर भगवान महावीर की दिगम्बर प्रतिमा के दर्शन किये तथा मन्दिर का जीर्णोद्धार कराया। भगवान महावीर को यह प्रतिमा मूलत एव सर्वत. दिगम्बर प्रतिमा ही है। इससे तो यही सिद्ध होता है कि दीवान जोधराज दिगम्बर आम्नाय के प्रति अधिक उदार थे। वास्तव में होता यह है कि यदि कोई भी राजा या उच्च-पदाधिकारी अधिक लोकप्रिय हो जाता है तो सभी धर्मों वाले उसे अपने धर्म का मानने वाला कहते है। उदाहरण लिए राजा श्रेणिक को ही ले लीजिए। उसे जैन, बौद्ध तथा हिन्दू सभी अलग-अलग अपने धर्म का मानने वाला कहते हैं । वस्तुत, जो भी लोकप्रिय बडा राजा या अधिकारी होता है वह सभी धर्मों के प्रति समान प्रादर भाव रखता है। यही बात दीवान जोधराज के लिए भो समझनी चाहिए। (5-5) कविवर ५० दौलतराम जी
दौलतराम नाम के दो विद्वान हुए है। इनमे से प्रथम बसवा निवासी थे। ये महाराजा जयपुर की सेवा में उदयपुर रहते थे। वही रहते हुए इन्होने कितने ही ग्रन्यो की रचना की, उनमे पद्मपुराण भाषा, प्रादि पुराण भाषा, पुण्याश्रव कथा कोष, प्राध्यात्म बारहखडी. जीवधर चरित भाषा, जैन क्रियाकोष आदि मुख्य है । ये अठारहवी शताब्दी के विद्वान थे।
दूसरे दौलतराम हाथरस के निवासी थे तथा पल्लोवाल जाति के थे। ये अपने समय के अद्वितीय आध्यात्मिक कवि थे। 'छहढाला' नामक महान रचना इन्ही की है। हम इन्ही के जीवन का पक्षिप्त परिचय यहाँ प्रस्तुत करेगे।
कविवर प० दौलतराम जी का जन्म सम्वत् 1860 और
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1855 के मध्यवर्ती समय में हाथरस के निकट सासनी नामक ग्राम में हुआ था । इनकी जन्मपत्री सन् 1857 के गदर के समय भागते हुये इनके पुत्रादिक से गिर पडी, इस कारण इनकी जन्मतिथि का निर्णय होना कठिन है, परन्तु इनके सुपुत्र श्री टीकाराम जी के कथनानुसार पडित जी का जन्म विक्रम् सवत् 1855 या 1856 की साल हुआ था | आपके पिता का नाम टोडरमल्ल था । श्रापकी जाति पल्लीवाल और गोत्र गगीरीवाल था, परन्तु प्राप 'फतहपुरिया' नाम से उल्लेखित किये जाते थे । प्रापके पिता के एक भाई थे, उनका नाम चुन्नीलाल था तथा वे श्री टीकाराम जी से छोटे थे । ये भी हाथरस मे ही रहते थे । ये दोना भाई कपडे का व्यापार करते थे ।
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आपका विवाह अलीगढ निवासी सेठ चिन्तामणी जी की सुपुत्री के साथ हुआ था । श्रापके दो पुत्र थे, जिनका जन्म क्रमण सवत् 1882 और सवत् 1886 मे हुआ था। उनके बड़े पुत्र का नाम टीकाराम था तथा ये लश्कर मे रहते थे । छोटा पुत्र प्रसमय मे ही अपनी स्त्री और एक पुत्री को छोडकर परलोकवासी हो
गया था ।
यद्यपि इनके पिता कपडे का व्यवसाय करते थे, परन्तु बचपन से ही इनकी रुचि विद्याध्ययन में ही विशेष थी, इस कारण इनके पिता ने भी हर्ष के साथ इन्हे विद्याध्ययन में ही लगे रहने दिया, किन्तु इन्होने किस गुरु के पास विद्याध्ययन किया, इसकी कोई जानकारी नही है ।
आपने थोडे दिन हाथरस मे ही वजाजी का कार्य किया तथा बाद मे आप अलीगढ रहने लगे थे । सवत् 1882 या 83 मे मथुरा के सुप्रसिद्ध सेठ राजा लक्ष्मणदास जी सी० आई० के पिता सेठ मनीराम जी प० चपालाल जो के साथ कारणवश हाथरस गये । वहाँ उन्होने मन्दिर जी मे कविवर को गोम्मटसार का
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स्वाध्याय करते हुये देखा । वे बहुत खुश हुये पोर उन्हें अपने साथ मथुरा ले पाये । वहाँ उन्हे बहुत आदर के साथ रखा, परन्तु पडित जी को वह भोगोपभोग सम्पदा अरुचिकर प्रतीत हुई, फलस्वरूप वे कुछ दिन बाद वहाँ से लश्कर और बाद में अपनी जन्मभूमि सासनी मे आ गये। ___ कु" समय बाद पडित जी सासन से अलीगढ आकर छीट छापने का कार्य करने लगे। छपाई का काम करते हुये भी पाप अपने विद्याभ्यास का अनुराग कम न कर सके और चौकी पर जैन सिद्धान्त के ग्रन्थ रखकर छपाई का काम करते हुये 50 या 60 पद्य रोजाना कण्ठस्थ कर लेना आपका दैनिक कर्तव्य था। आप सस्कृत के अच्छे विद्वान थे तथा जैन सिद्धान्त के परिज्ञान की आपकी बलवती भावना थी। उस समय आपके कुछ पूर्वकृत कर्म का अशुभोदय था जिसे आपने विवेक और धैर्य के साथ सहा । कुछ दिनो पश्चात् पडित जो अलीगढ से देहली आ गये और देहली से साधर्मी, वात्सल्य प्रेमी सज्जनो की मोष्ठी को पाकर अपना अधिकाश समय तत्व चिन्तन, सामायिक और सिद्धान्त शास्त्रो के स्वाध्याय जैसे प्रशस्त कार्यो मे व्ययीत करने लगे।
प्रापका सैद्धान्तिक ज्ञान बढा-चटा था और आपको तत्वचर्चा करने मे खूब रग पाना था । वस्तुतत्व का विवेचन करते हुये उनका हृदय प्रमोद भावना से परिपूर्ण हो जाता था। बीच मे श्रोतामो के प्रश्न होने पर उनका उत्तर बड़ी ही प्रसन्नता के साथ देते थे। श्रोताजन उनके सन्तोषजनक उत्तरो को सुनकर हर्षित होते थे और उनकी मधुर वानी का पान बडी भक्ति और श्रद्धा के साथ करते थे। आपने वस्तुतत्व का मन्थन कर उसमे से जो नवनीत रूप सार अथवा पीयूष निकाला उसका अनुभव मापकी सवत् 1891 मे रची जाने वाली एक महान् कृति छहढाला से ही हो जाता है।
कविवर ने सबत् 1910 मे माघ वदी चतुर्दशी के दिन गिरि
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राज सम्मेद शिखर जी की यात्रा की। उसकी स्मृति में एक पद भी बनाया था। भगवान पार्श्वनाथ की वन्दना कर हृदय में विचार किया कि हे भगवान ! कब यह अवसर पाऊँ, जिस दिन मैं स्वस्वरूप का अनुभव कर पूर्ण स्वतन्त्रता प्राप्त करूं।'
इस तरह कविवर ने देहली मे उसके बाद .0-12 वर्ष और जीवनयापन किया। उनका जीवन बड़ा ही सीधा-सादा और आडम्बरहीन था। दुनियाँ के भोग भाव उन्हे असुन्दर प्रतीत होते थे और प्रकृति के प्रतिकूल पदार्थों के समागम होने पर भी उनमे उनकी अरुचि तो रहती ही थी, पर उसकी चर्चा करना भी उन्हे इष्ट नहीं था।
एक किवदन्ती है कि एक बार मथुरा मे पडित जी अपन एक सम्बन्धी के घर रुके । रात मे उनके सोने के लिये एक अलग कमरे मे पलग बिछा दिया गया। लेकिन रातभर पडित जी को नीद नही आई और वे पलग के चारो ओर घमते रहे। उनको नीद न आने का कोई और कारण नही बल्कि पलग के गद्दे के ऊपर बिछा रेशमी चादर था। वे रातभर यह ही विचार करते रहे कि न जाने कितने कीडो को मारकर यह चादर तैयार की गई है, अत इस चादर पर मैं कैसे सो सकता हूँ। ऐसी थी उनकी विरक्ति । तथा अहिंसा के प्रति प्रेम । ___ कहते हैं कि कविवर को एक सप्ताह पहले अपने मृत्यु के समय का परिज्ञान हो गया था, उसी समय से उन्होने अपना समय और भी धर्म साधन मे बिताने का प्रयत्न किया और कुटुम्बियो के प्रति रहा-सहा मोह भी छोड़ने का प्रयास किया। सवत् 1923 या 1924 मे ठीक मध्यान्ह के पश्चात् इस नश्वर शरीर का परित्याग कर देवलोक को प्राप्त किया। उसी दिन गोम्मटमार का स्वाध्याय पूरा हुआ था। उन्होने अपने शरीर का त्याग महामन्त्र का जाप करते-करते किया था।
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कविवर ने 'छहढाला' के अतिरिक्त बहुत से आध्यात्मिक पदो की भी रचना की। प० पन्नालाल जी बाकलीवाल ने सर्व प्रथम इनकी रचनामो का संग्रह 'दौलत विलास प्रथम भाग' के नाम से ईस्वी सन् 1904 में प्रकाशित किया था। उसके पश्चात् कलकत्ता से 'दौलत पद सग्रह प्रकाशित हुआ। लेकिन इन प्रकाशनों में दौलतराम जी की सभी रचनाये नहीं आ सकी। सन् 1955 मे अलीगज (एटा) से 'दौलत विलास' नाम से सग्रह प्रकाशित हुआ। इसमे यथासम्भव दौलतराम जी की समस्त रचनायो को सग्रहीत किया गया है।
प० दौलतराम जो की सभी रचनामो का बहुत प्रचार रहा है। दिगम्बर जैन समाज मे तो शायद ही कोई ऐसा घर होगा जहाँ छहढाला न हो। 'छहढाला' वस्तुत एक छोटी कृति अवश्य है, लेकिन इसमे गागर मे सागर भरा हुआ है । छहढाला मे छह अध्याय हैं जिनमे क्रमश ससार की दशा का वर्णन, ससार भ्रमण का कारण, ससार से मुक्ति का उपाय बारह भावनामो का वर्णन तथा साधु चर्या का वर्णन किया गया है । हिन्दी भाषा मे 'छहढाला' से सुन्दर तथा सरल और कोई रचना नही है। प० दौलतराम जी के सभी पद भी आध्यात्मिकता से भरे हुये है। जैन पदकारो मे कविवर दौलतराम जी का प्रमुख स्थान है । उनकी सिद्धहस्त परिमार्जित लेखनी द्वारा लिखे गये पद हिन्दी साहित्य की अक्षय-निधि है। (5-6) कविवर मनरगलाल जी
आप प० दौलतगम जी के समकालीन कवि थे। आपके पिता का नाम श्री कनोजीलाल तथा माता का नाम देवकी था।
आप कन्नौज के रहने वाले थे। आप के जन्म सवत् के बारे में तो नही मालूम है लेकिन इतना अवश्य है कि आपने जेठ सुदी 11 गुरू-सम्वत् 1880 नक्षत्र स्वाति सूर्य के उत्तरायण में 'मिचन्द्रिका'
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नामक ग्रन्थ पूरा किया। यह ग्रन्थ आपने अपने सुमित्र श्री गोपाल दास जी के अनुरोध पर बनाया। इन्ही गोपालदास जी के लिये प० मनरगलाल जी ने 'हितोपदेश षट पचासि' की रचना स 1881 मे की । नेमिचन्द्रिका' तो बहुत प्रसिद्ध है तथा इसके बारे मे कई विद्वानो ने लिखा है । लेकिन 'हितापदेश षट पचामि' का कही उल्लेख नही आता है । इसकी एक प्रति जनरल गज, कानपुर के दिगम्बर जैन मन्दिर मे उपलब्ध है जिसे अगहन शुक्ला 9 कु ज वासरे स. 1888 मे लाला हिलसुखराय के पुत्र रामसहाय ने लिखा। इस रचना के प्रारम्भ मे कवि ने अपना परिचय इम प्रकार दिया है
"कन्नौज बास श्रावक कुल एव बन्स जानिये, कनोजीलाल नात मात देवकी वखानिये । तयो सुपुत्र मन्नरग ने करी सु छप्पनी, पढो गुनो सुनो सवैय मोह की उथप्पनी ।। यह षट पचासत हित उपदेश, कीनी श्रावण महिना सूवेश । अलि पक्ष सप्तमी तियि गनाय, रविवार श्रेष्ठ जानो बनाय ।। अठ शत इक्यासी गनेउ सो सम्वत भ्राता जान लेउ । प्रेरक याके सुगुपानदास,
तिन हेत करी यह सुनिवास ॥ इस ग्रन्थ मे छत्तीस छन्द है। इसका नाम 'हितोपदेश षट पचासि' का सम्पूर्णम् । लिखितम लाला हिलसुख राय तश्य लाला रामसहाय अगहन शुक्ला 9 कुज वासरे स० 1888 ।।" __ इस प्रकार यह स्पष्ट है कि प० मनरग लाल बहुत ही विद्वान थे। उनके मित्र गोपाल दास भो विद्वान थे तथा समय-समय
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पर कविवर मनरगलाल जी को धार्मिक रचना लिखने के लिये प्रेरित करते रहते थे । आपकी अन्य रचनामो में 'शिखिर-विलास,' 'सप्त व्यपन चरित्र' 'सप्तर्षि पूजा' तथा 'चौबीसी पूजा पाठ' मुख्य है । 'चौवीसी पूजा पाठ' की रचना सवत् 1857 में की थी। इन सबके अतिरिक्त प्रापने बहुत से पदो की रचना भी की, जिनमें ससार की असारता को बहुत सरल ढग से समझाते हुये ससार से वैराग्य लेने के लिये प्रेरित किया गया है। उनका बहु-प्रचलित एक पद निम्न प्रकार है
"नर भव पायो नही कुशलात । कोई रोगी, कोई शोकी, काहू के घर परि सम मात ।। काऊ के घर घरनी नाही, बिन घरनी घबरात ॥ घरनी भई तो पुत्र नाहि हुओ, समझ सोच पछतात ।। पुत्र भयो तो भयो दुर्व्यसनी, दुख देवै दिन रात ।। कानी कोडी धन नहि घर मे, बडी विपत की बात ॥ अथवा धन हुअो काऊ विधि, तो ततछिन हुमो घात ।। धरी रहेगी सम्पति 'मनरग', क्या जाने को खात ॥"
श्री अगर चन्द जी नाहटा ने अपने लेख 'पल्लीवाल कवि मनरगलाल की नेमिचन्द्रिका 28 मे कवि मनरग लाल जी का परिचय निम्न प्रकार दिया है
दिगम्बर सम्प्रदाय मे पल्लीवाल जाति के कुछ कवि हुए हैं जिनमे कविवर दौलतराम जी तो काफी प्रसिद्ध है। दूसरे कवि मनरगलाल जी वैसे प्रसिद्ध नहीं हो सके । पर उनके द्वारा रचित 'नेमिचन्द्रिका' एक अच्छा काव्य है जो दिगम्बर शास्त्र भण्डारी में प्राप्त है। उसे प्रकाश में लाना बहुत ही आवश्यक है । पल्लीवाल समाज को उसकी जानकारी मिलनी ही चाहिए, इसलिए इस लेख मे उसका सक्षिप्त परिचय दिया जा रहा है। इस विषय में प० माधवराम शास्त्री 'न्याय तीर्थ' ने अब से करीब 30 वर्ष पहले
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पल्लीवाल जेन जाति का इतिहास 'जैन सिद्धान्त भाष्कर' मे लेख प्रकाशित करते हुये काव्य की काफी प्रशंसा की थी। ग्रन्थ के नाम से उसका विषय स्पष्ट है कि भगवान नेमिनाथ का जीवन सबधी यह सुन्दर काव्य है। कवि मनरगलाल का 'चौबीस पाठ' 'सप्त ऋषि पूजा', 'सप्त व्यसन चरित्र' और 'शिखर सम्मेलन महात्म्य' नामक अन्य रचनायो का उल्लेख प माधोराम शास्त्री ने अपने लेख मे किया था ।अत कवि की प्राप्त समस्त रचनाओ का सग्रह ग्रन्थ प्रकाशित हो सके तो बहुत ही अच्छा हो।
प्रकाशित के अनुसार कवि का परिचय इस प्रकार है -
कन्नौज मे श्रावको का एक समुदाय था जो अधिकाश अपना समय जिनेन्द्र पूजा, सैद्धान्तिक चर्चा आदि धार्मिक कार्यो मे लगाकर समय व्यतीत करता था। उस समुदाय मे हल्लासराय नामक श्रावक का भी नाम था । हुल्लासराय प्राय अपना पूरा समय देव, शास्त्र, गुरु के पूजा पाठ मे तथा तत्व चर्चा में लगाया करते थे। ये इक्ष्वाकुवशी थे, इनकी जाति 'पल्लीवाल' और गौत्र 'शिव' था। इनके दो पुत्र थे, जिनमे जेष्ठ पुत्र कनौजीलाल और कनिष्ठ गोविन्दराम थे। शुभ कर्मोदय से कनौजीलाल को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई, जिसका नाम मनरगलाल रखा गया। कन्नौजीलाल को अन्य पुन रत्नो की भी प्राप्ति हुई, किन्तु सबमे जेष्ठ मनरगलाल थे मनरगला के सुयोग्य मित्र गोपाल दास थे । इन दोनो मे मैत्री भाव अत्यन्त घनिष्ठथा। गोपालदास जिनेन्द्र देव, शास्त्र और गुरु मे अत्यन्त श्रद्धा रखते थे। शास्त्र प्रेमी थे। छल कपट और क्रोध के लिए इनके अन्दर स्थान नहीं था। इनके पिता का नाम खुस्यालचन्द्र था। गोपालदास शास्त्रो का सग्रह करने के लिये हमेशा कटिबद्ध रहते थे। इन्ही के अनुरोध से तथा इनके वचनो को अमृत समान अत्यन्त प्रिय समझ कर मनरगलाल ने नेमिनाथ की चन्द्रिका नाम की पुस्तक की रचना जेठ सुदी 11 गुरु स. 1860 नक्षत्र स्वाति सूर्य के उत्तरायण मे पूरी की।
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मास जेष्ठ शशि पक्ष की एकादशी विचारि नखत स्वाति गुरुवार दिन, उत्तरायन रविसार ॥ ॥ एक सहस ग्ररू आठ सतक, बरस असीति प्रर ।
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याही संवत् मो करी, पूरन इह गुरण और || 2 || कवि मनरगलाल ने अपनी जाति, गौत्र और पूर्वजो का उल्लेख निम्न पदो में किया है
अब सुनहु मित्र बनाय बकी विधि कौन विधि बनियो भयो । शुभ दे अन्दर वेद मजट कान्ह-कुन्ज भलो ठयो || तहा पल्लिवार इक्ष्वाकुवंशी, कहे काशिव गोत्रिया | जिनदेव शास्त्र सिद्धान्त सुगुरु नीति जिनके प्रतिप्रिया ॥ शुभ करहि चर्चा पठहि निश दिन धरहिं सरधा जानिके । तिन सत्रनि मह इक बसत श्रावक नाम कहो बखानिकै ॥ हुल्लासराय सुनाम तिनको, कहत सच जन टेरिके । तिनके जुगल सुन भयो भपर सिद्ध सब अधि परिके ॥ शुभ 'जेष्ठलाल कनौजी, गोविन्दराव नाम कनिष्ट की। तिन शिशुन मह जो जेष्ठ मनरगलाल नाम कहै सबै || निलाल तनरग के सुमित्र गुपालदास भये तबै ॥ नमिचन्द्रिका एक खण्ड काव्य है । इसकी पद संख्या 486 है । कवि ने इसमे दोहा, चौप ई भुजग प्रयान, नाराव, सोरठ, डिल्ल गीता छप्पल, त्रोटक, पद्धरी आदि छन्दो का प्रयोग किया । इस ग्रन्थ मे सभी छन्द ग्रन्थ है ।
कवि मनरगलाल की नेमिचन्द्रिका की प्रशसा डा० नेमीचन्दजी शास्त्री ने भी अपने 'हिन्दी जैन साहित्य परिशीलन' मे की है । उनकी अन्य रचना 'चौबीसी पूजा पाठ' के लिए भी इन्होने लिखा है । मनरग का 'चौबीसी पूजा पाठ संगीत की दृष्टि से अद्भुत है। इसमे प्राय. सभी प्रमुख संस्कृत के छन्दो का प्रयोग कवि ने बडी निपुणता से किया है। वार्षिक वृतो को श्रुतिमधुर बनाने का
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पल्लीवाल जैन जाति का इतिहास कवि ने पूरा प्रयास किया है । न, म, त, र, ल और व वर्गों की प्रावृति द्वारा अनेक छन्दो मे मिठास विद्यमान है । कर्णकटु, कर्कश और अर्थहीन शब्दो का प्रयोग बिल्कुल नही किया है । छन्दो की लय और ताल का पूरा ध्यान रखा है ।
बाबू कामता प्रसाद जैन के 'हिन्दी जैन साहित्य का संक्षिप्त इतिहास' के पृष्ठ 211 मे लिखा है -“मनरगलाल जी कन्नौज के रहने वाले पल्लीवाल दिगम्बर जैन श्रावक थे। उनके पिता का नाम कन्नौजीलाल जी और माता का नाम देवकी था। कन्नौज में गोपालदास जी एक धर्मात्मा सज्जन थे। उनके कहने से कवि ने 'चौबीस तीर्थंकर का पाठ' स० 1857 मे रचा था। इनकी कविता अच्छी और मनोहर है। इसके अतिरिक्त 'नमिचन्द्रिका', 'मानव्यसन', और 'सप्तर्षि पूजा' नामक ग्रन्थ भी इन्ही के रचे हुए है। 'शिखर सम्मेदाचल महात्म्य (शिखिर विलास) नामक इनकी एक रचना हमारे संग्रह में है, जिसे इन्होने 1879 मे रचा था । वृन्दावन चौबीसी के साथ ही मनरग चौबीसी, पाठ का खूब प्रचार है । दोनो ही कई बार छप चुके है। भाव सौष्ठव जो मनरग के पाठ में है वह शब्दालकार की छटा मे वृन्द के पाठ मे छिप गया है।"
नेमिचन्द्रिका का नाम की एक और रचना भी बद्रीप्रसाद जैन ने काशी से सन् 1923 मे प्रकाशित की थी। जो सवत् 1761 के भादवा सुदी 2 सोमवार को रची गई है। पर उसमे रचयिता का नाम नही है।
'नेमिचन्द्रिका' के रचनाकाल को लेकर विद्वानो मे बहुत मतभेद है ।30 कुछ विद्वान इसका रचनाकाल सवत् 1883 मानते हैं। हिन्दी के मध्यकालीन खण्ड काव्य' मे डा० सियाराम तिवारी ने इसका रचनाकाल सन् 1823 ई तथा काशी नागरी प्रचारिणी सभा ने 'खोज विवरण' ('सभा' सन् 1926-28, प्रथम परिशिष्ट, सख्या 291) मे सवत् 1830 माना है। वस्तुत कवि मनरग ने
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इसकी रचना सवत् 1880 मे की थी, जैसा कि हमने प्रारम्भ मे हो कहा है । सवत् 1883 मे इस नेमिचन्द्रिका की कई प्रतियां की गई थी। इसकी एक प्रति दि० जैन मन्दिर (बडा तेरापथियो का), जयपुर मे उपलब्ध है (वेष्ठन-916), उसका लिपिकाल संवत् 1883 व लिपिकार -सुशाल चन्द पल्लोबाल है।29 इसकी पत्र सख्या 19 तथा कुल छन्द सख्या 86 है । नेमिचन्द्रिका मे लिखा है
'एक सहस्त्र अरु पाठ सतक, वरष असिति और ।
यही सवत् मो करी पूरण इह मुरण गौर ।।56।।' 'नेमिचन्द्रिका' एक खण्ड काव्य है । इसकी भाषा व्रज भाषा है जिस पर खडी बोली तथा कन्नौजी भाषा का भी प्रभाव है। इस खण्ड काव्य को कवि ने दोहा, चौपाई, सोरठा आदि छन्दो मे निबद्ध किया है। शैली सरल तथा मार्मिक है।।
जैसा कि ऊपर कहा गया है कि कवि मनरगलाल की प्रसिद्धि प० दौलतराम जैदी नहीं है । फिर भी इनका 'चौबीसी पूजा पाठ का तो दिगम्बर सम्प्रदाय मे बहुत प्रचार रहा है । 'नेमिचन्द्रिका' आदि अन्य रचनाएँ अप्रकाशित ही है। पल्लीवाल समाज का तो यह कर्तव्य हो जाता है कि अपनी जाति का गौरव बढाने वाले उस कवि को सब रचनायो का संग्रह तथा प्रकाशन करे। उन रचनाओ का आलोचनात्मक अध्ययन किसी विद्वान से लिखवाकर पल्लीवाल समाज मे खूब प्रचार किया जाना चाहिये, जिससे जातीय गौरव की भावना अधिकाधिक विकसित हो सके। इस तरह के पल्लीवाल समाज के अन्य विद्वानो या कवियो की रचनाओं को भी प्रकाश मे लाना चाहिए। {5-7) श्री बुधसेन पल्लीवाल
आपके बारे में विशेष जानकारी तो नही मिली है, लेकिन आपका नाम एक स्थान पर प्राता है। मापने प्राचार्य सकलकीर्ति कृत 'सद्भाषिता' की टीका सवत् 1946 मे की। इससे अनुमान
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लगाया जा सकता है कि आप बहुत विद्वान थे। आपने अन्य ग्रन्थो की टीकाएँ अथवा रचनाएँ की या नहीं, इसकी कोई जानकारी नहीं है। (5-8) प० नन्नमल जी
आपका जन्म सन् 1860 ई० में प्रागरा मे हुमा। आप प्रागरा के ही रहने वाले थे। आपकी जाति पल्लीवाल तथा गोत्र वारोलिया था। आप आगरा के 'दिगम्बर जैन विद्यालय के संस्थापक थे। आप बहुत विद्वान थे । आपने बहुत से शास्त्रो का अध्ययन किया था। आप नित्यप्रति धूलिया गज, आगरा, स्थित 'श्री पल्लीवाल दिगम्बर जैन मन्दिर' मे शास्त्र प्रवचन किया करते थे । आपका स्वर्गवास सन् 1920 मे आगरा में हो गया।
पडित जी के बारे मे एक बात प्रसिद्ध है। आप किसी छाते वाले के यहाँ नौकरी करते थे। आप वर्षभर मे मात्र छह माह ही नौकरी करते थे तथा बाकी के दिनो मे पाप आगरा तथा इसके आसपास के गांवो मे भ्रमण करके जैन धर्म का प्रचार करते थे। (5-9) लाला लालमन जैन
__ लाला लालमन जी जैन-समाज के उन अग्रणी लोगो मे से हैं जिन्होने जैन शास्त्रो को प्रकाशित करने का कार्य प्रारम्भ किया। इनका जन्म आषाढ सुदी 8 वि सवत् 1919 (सन् 1862 ई०) को तहसील रामगढ, रियामत अलवर (राजपूताना )मे सिपाही विद्रोह के पाँच वर्ष बाद हुआ था। इस गाँव को ठाकुर रामसिह जी ने सवत् 1810 मे बसाया था और लाला लालमन जी के पडदादा चैनसुख दास जी पल्लीवाल जैन चीमा-सामू (रियासत जयपुर) से ठाकुर साहब के साथ पाकर दीवान रहे थे। इस गाव को ठाकुर रामसिह जी के सुपुत्र स्वरूपसिह जी से महाराजा अलवर ने सवत् 1840 मे अपने प्राधीन कर लिया था।
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आपके पिता लाला लोकमन जी जैन धर्म के पक्के श्रद्धानी थे और साधारण सी परचूनी की दुकान करते थे। आपने बाल्यावस्था मे रामगढ के देवनागरी व उर्दू के स्कूल मे समयानुकूल उच्च शिक्षा प्राप्त करके संस्कृत का भी अच्छा अभ्यास कर लिया था।
आपका विवाह स. 1934 मे प्रागरा निवासी लाला घासीराम जी की सुपुत्री से हुआ था। शिक्षा पाने के बाद आप कुछ समय के लिए रियासत अलवर मे पटवारी हो गये। उन्ही दिनोआपके श्वसुर लाला घासीराम जी बदली होकर लाहौर मे गवर्नमेट प्रेस में आ गये और उन्होन आपको अग्रेजी व फारसी की शिक्षा दिलाने के लिए लाहौर मे सन् 1880 मे बुला लिया और फारसी का मिडिल पास कराकर अग्रेजी पढने के लिए रग महल स्कूल में दाखिल करवा दिया। सन् 1882 मे सरकार की तरफ मे डाक्टरी मे पढने वाले लडको को दस रुपये माहवार वजीफा दिया जाता था और उर्दू मिडिल तक की शिक्षा वाले लडके लिये जाते थे। आपको भी लाला घासीराम जी ने डाक्टरी श्रेणी मे दाखिल करवा दिया। जब सर्जरी पढने वाले कमरे मे सब विद्यार्थी एकत्रित हुये और एक लाश पोस्ट मार्टम के लिये लाई गई तब पोस्टमार्टम होते देखकर आपको डाक्टरी पेशे से घृणा हो गई और यहाँ से अपना नाम कटवा दिया। तब इनको अग्रेजी शिक्षा प्राप्त करने के लिए एक स्कूल में दाखिल करवा दिया।
लाला लालमन जी की इस बात से लाला घासीराम जी बहुत नाराज हुये । कुछ दिनो बाद जब लाला घासीराम जी का शिमला के गवर्नमेट प्रेस के लिए तबादला हो गया तब वे लालमन जी को बिना कुछ बताये शिमला चले गये । इस बात से लालमन जी को बहुत क्षोभ हुना।
फिर लाला लालमन जी ने लाला घासीराम जी के एक मित्र विलियम साहब की मदद से प्रेस का काम सीखा तथा दस
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रुपये माहवार पर नौकरी कर ली। आपको इस काम मे कभीकभी रात के ग्यारह-बारह बज जाते थे ।
आजीविका के लिए इतना परिश्रम करते हुये भी आपने अपने नित्यकर्म सामायिक, पूजन, जार व स्वाध्याय को कभी नही छोडा। इस कार्य के लिए उस ममय पुस्तके उपलब्ध नही होती थी, अत इन्होने अपने हाथ से लिखकर गुटके तैयार किये थे जिनमे से दो गुटके तो अभी तक आपकी यादगार के तौर पर लाहौर के मन्दिर जी के शास्त्र भडार मे रखे हुये है।
नित्य पाठ की, पूजन की व स्वाध्याय के लिये पुस्तको का लाहौर मे न मिलना एक प्रेम मे कार्यकर्ता के रूप मे आपको हृदय मे बहुत खटकता था। इस कारण आपके मन मे इन सबो के प्रकाशन का विचार आया। इस विचार के कुछ पोर जैनी भाई भी थे। इन सबो ने अनुभव किया कि किसी दूसरे छापेखाने मे धार्मिक पुस्तके छपवाये तो उनकी छपाई विनय व शुद्धतापूर्वक नही हो सकती है। अत एक छोटा सा निजी प्रेस खोलने का फैसला किया। यह कार्य बिना धन के असम्भव था, अत कुछ अन्य लोगो के आर्थिक सहयोग (हिस्सेदारी) के साथ सन् 1888 मे 'पजाब इकानोमीकल प्रेस' के नाम से अपना प्रेस खोल दिया। आप इस नौकरी का छोड कर इस प्रेस मे पच्चीस रुपये माहवार पर प्रिंटर व मैनेजर के पद पर कार्य करने लगे।
आपने अपनी मित्र मडली की राय के अनुसार 'जैन धर्मो नतिकारक' नामक एक छोटा सा ट्रेक्ट छपवाकर बिना मल्य के जैन समाज मे वितरण किया, जिसमे बन्द जैन ग्रन्थ भडारो मे जिनवाणी की चूहे तथा दीमको के कारण कितनी दुर्दशा हो रही है, इस बात का उल्लेख किया। इसके बाद जैन धर्म की छोटीछोटी पुस्तके आदि का प्रकाशन प्रारम्भ किया। ग्रन्थ प्रकाशन कार्य का प्रचार करने के उद्देश्य से 'जैन पत्रिका' (दिगम्बरी)
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नामक एक स्वतन्त्र मासिक पत्र निकलता था। श्वेताम्बर समाज का पत्र प्रात्मानन्द जैन पत्रिका' (श्वेताम्बरी) भी निकलती थी तथा श्वेताम्बर और स्थानकवासी समाज की धार्मिक पुस्तके भी छपती थी।
उस समय धार्मिक ग्रन्थो का प्रेस में प्रकाशित करवाना बहुत पाप समझा जाता था। सकीर्ण विचारधारा वाले लोग ग्रन्थो का प्रकाशन करने वाले लोगो को अधर्मी कहते थे तथा इस कार्य को जिनवाणी का अनादर समझते थे। मात्र हस्तलिखित ग्रन्थो को ही शुद्ध समझते थे। ऐसी विषम स्थिति का लाला लालमन जी को भी सामना करना पड़ा। उनको लोगो ने भलाबुरा भी कहा । लेकिन इन सबके बावजूद लालमन जी अपने कार्य मे सफल हुये।
प्रेम का उनका यह कार्य सन्1916तक सुचारु रूप से चलता रहा। लेकिन इसके बाद अग्रेजी सरकार की नीति तथा कागज के बढते हुये मूल्य के कारण यह कार्य बन्द कर दिया गया तथा कपनी के भागीदारो ने यह प्रेस दूसरो को बेच दिया। आपने अपने छोटे भाइयो लाला शभूनाथ तथा लाला छोटेलाल को भी प्रेस का कार्य सिखाया था। सन् 1916 के बाद इन दोनो ने भी प्रेस का काय छोडकर लाहौर मे ही अन्य व्यवसाय कर लिये। प्रापन अन्य लोगो को भी प्रेस का कार्य सिखाया था जो वाद मे पजाब तथा यू० पी० मे आ गये ।
आपन बहुत मे उच्चकोटि के जैन शास्त्रो का अध्ययन किया था। आपका नित्यप्रति स्वाध्याय करने का नियम था। आपने सभी तोर्थ स्थानो की यात्राएँ भी की। सन् 1918 में आप अपने जेष्ठ पुत्र लाला मनोहरलाल जी इ जीनियर के पास भीलवाडा (मेवाड) मे आ गये तथा वहाँ पर शास्त्र स्वाध्याय तथा धार्मिक
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चर्चाएँ करने लगे । सन् 1919 में आपने सातवी प्रतिमा धारण कर ली और घर मे रहकर ही अन्त तक धर्म साधन करते रहे | आप अपने अन्तिम समय में काफी बीमार रहे । अन्त मे आपका स्वर्गवास, समाधिमरण युक्त कार्तिक बदी 5 सवत 1981 ( यानि कि 18 अक्टूबर सन् 1924 को दिन के 2-45 बजे णमोकार मन्त्र व रिहन्त का मनन करते करते हो गया ।
आपके तीनो पुत्र मनोहरलाल जी, रोशनलाल जी तथा चन्दूलाल जी सुशिक्षित तथा अच्छे पदो पर कार्यरत थे । श्री रोशन लाल जी सन् 1919 से सन् 1935 तक लाहौर के दिगम्बर जैन मन्दिर जी के मन्त्री पद पर कार्य करते रहे ।
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लाला लालमन जी की प्रेरणा से कई धार्मिक कार्य बिभिन्न स्थानो पर हुये | भीलवाडा मे पचो से कहकर औषधालय खुलवाया, वहाँ के मन्दिर मे बहुत सारे ग्रन्थ मँगवाये । विजयनगर (मेवाड ) मे जिन चैत्यालय बनवाया जो बाद में एक शिखर बन्द प्रालीशान जिन मन्दिर बन गया । वहाँ भी शास्त्र भण्डार स्थापित करवाया । देवलिया के जिन मन्दिर मे नित्य पूजन का बन्दोबस्त करवाया । इस प्रकार लाला लालमन जी मात्र पल्लीवाल समाज के ही नही बल्कि पूरे जन समाज के लिए एक प्रादश पुरुष थे I
(5-10) पं० चिरन्जीलाल जो
आप पण्डित नन्नूमल जी के समकालीन थे । आप भी आगरा के ही निवासी थे । श्रापका जन्म मार्गशीर्ष सुदी 11 सवत् 1924 को हुआ था । प० नन्नूमल जी के मरणोपरान्त आपने श्रागरा के 'दिगम्बर जैन विद्यालय' का कार्यभार सँभाला । धूलिया गज (आगरा) स्थित श्री पल्लीवाल दिगम्बर जैन मन्दिर' मे आप समय-समय पर शास्त्र प्रवचन करते रहते थे ।
आपने 'पल्लीवाल जैन सम्मेलन' को बहुत सी सभाओ का सभापतित्व किया। आपकी धार्मिक वीद्वता तथा सामाजिक
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सेवामो के कारण मापको 'जाति-भूषण' को उपाधि से सम्मानित किया गया।
पडित जी 'दिगम्बर जैन बोडिंग हाउस', आगरा के प्रथम ट्रस्टियो मे से एक थे। बोडिंग भवन के निर्माण में आपका सराहनीय योगदान रहा । आप पल्लीवाल जाति के ही नहीं बल्कि आगरा जैन समाज मे भी ख्याति पुरुष थे।
चैत्र बदी 13 सवत् 1982 को आप दिवगत हो गये। (5-11) मुनि श्री सूर्यसागर जी
पाप पत्लीवाल जात्युत्पन्न थे तथा अलीगढ के रहने वाले थे। आपके बारे में अधिक जानकारी प्राप्त नहीं हो सकी है, लेकिन इतना मालूम है कि लगभग 70 (सनर) वर्ष पहले आपका चतुममि योग एक बार ललितपुर में हुआ था। (5-12) मा० कन्हैयालाल जो
मास्टर कन्हैयालाल जी का जन्म आगरा के ग्राम बरारा म सन् 1869 के सितम्बर मास मे हुआ था। आपके पिता का नाम श्री भरूलाल था। आप बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि और होनहार थे। बरारा का शिक्षण समाप्त करने के बाद माप प्रागरा भेज दिये गये। वहाँ एम० ए० तक की उच्च शिक्षा प्राप्त की। बाद में आपने एल० टी० को परीक्षा भी पास की। उसके उपरान्त आप अजमेर के 'नारमल स्कूल' के यशस्वी प्रधानाध्यापक पद पर रहे।
वि० स० '943 मे अठारह वर्ष की आयु मे आपका विवाह सस्कार हुमा । आपके दो सुपुत्र विष्णुचन्द्र और प्रकाशचन्द्र क्रमश वि० स० 1960 और वि० स० 1962 मे हुये ।
आप पर प्रार्य समाज जैसे सुधारवादी आन्दोलनो का बहुत प्रभाव था। आपने पल्लीवाल जाति की सामाजिक स्थिति सुधारने तथा जाति को संगठित करने के कई प्रयत्न किये। आपके प्रयत्नो
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से समाज के सभी विद्यार्थियो की एक सभा 'पल्लीवाल धर्म-वर्धनी क्लब' नाम से 11 दिसम्बर सन् 1892 में स्थापित हुई। इस क्लब ने समाज में एक क्रान्ति पैदा कर दी थी। इसी के फलस्वरूप वि. स. 1977 जेष्ठ कृष्णा 7 को बरारा अधिवेशन म 'पल्लीवाल जैन कान्फ्रेस' की स्थापना हुई, जिसके आप सभापति चुने गये। आपके प्रयासो से ही मुरैना तथा फिरोजाबाद के पल्लीवालो के साथ रोटी-बेटी का व्यवहार प्रारम्भ हुआ। अाज हम पल्लीवाल जाति को जिस सगठित रूप में देख रहे है उसका बनियादी श्रेय आपको ही जाता है। पल्लीवाल जाति के सुधारक के रूप में आपका प्रथम स्थान रहेगा।
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(5-3) कवि श्री बालाप्रसाद जो कानूनगो
आप हिन्दी (खडी बोली) के भक्त कवि थे। आपका जन्म माघ कृष्णा 6 सवत् 1937 को हुआ था। आपके पितामह दीवान शिवलाल जी का निवास स्थान खेडा मगलसिंह था। यह स्थान अलवर राज्य का ताजीमी ठिकाना था तथा श्री शिवलाल जी यहाँ पर दीवान पद पर आसीन थे। आपके पिता लाला सूरजबख्श जी का जन्म भी लेडे मे ही हुआ था, वहाँ धर्म साधन न होने से दीवान शिवलाल जी रामगढ (अलवर राज्य) आकर बस गये । आप पल्लीवाल जाति के लोह किरोडिया गोत्र के थे।
मापकी शिक्षा पूर्ण होने के बाद मा का विवाह राजगढ
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पल्लीवाल जैन जाति का इतिहास निवासी दीवान सम्मतराम जी की सुपुत्री से सवत् 1952 मे हया। प्रथम आपने सैटिलमैन्ट राज्य अलवर में राज्य सेवा प्रारम्भ की
और पश्चात् डिस्ट्रिक्ट गुडगाँवा व स्टेट पटियाला में भी सर्विस की। सवत् 1961 मे भयानक प्लेग मे पिता व भ्राता की प्राकस्मिक मृत्यु हो जाने से गुडगॉवा की सर्विस छोडकर पुन अलवर राज्य में रिवेन्यू डिपार्टमेन्ट मे मुलाजमत की और उत्तमता से राज्य सेवा सम्पादन करके आपने ऑफिस कानूनगो के पद से सन् 1941 में पेन्शन प्राप्त की।
आपके दो कन्याएं उत्पन्न हुई। पहली कन्या का थोडी आयु के बाद निधन हो गया। दूसरी कन्या जन्म के समय कन्या तथा भार्या का भी देहावसान हो गया। पत्नी की मृत्य के समय आपकी प्रायु मात्र 29 वर्ष की थी, फिर भी आपने दूसरी शादी करने से इन्कार कर दिया। आपने अपने भाई की एक मात्र कन्या का पूरी तरह से लालन-पालन किया तथा उसके पुत्र अमर चन्द को सवत् 1996 मे दत्तक पुत्र के रूप मे स्वीकार किया। ___ आपकी प्रारम्भ से ही धार्मिक कार्यों में विशेष रुचि थी। आपने कई बार तीर्थ यात्राएँ भी की। सेवा निवृत होने के पश्चात् तो आप अपना पूरा समय धार्मिक कार्यो मे ही व्यतीत करते थे। अापने कई पदो की रचनाएँ की। आपकी रचनायो मे 'श्रीचौबीस तीर्थकर पुराण' (पद्य) 'चतुर्विंशति जिन पूजा' (बालकृत) 'नित्य पूजन विधान', तथा 'वाल पद सग्रह' प्रसिद्ध है। जनवरी सन् 1963 मे आपका देहान्त हो गया।
'श्री चौबीस तीर्थकर पुराण' मे आपने अपना परिचय निम्न प्रकार दिया है
',रजवाडो मे है सरनाम, अलवर शहर महा सुग्व धाम । तेजसिंह तहाँ है भूपाल, पालत प्रजा सर्व दुख टाल । रजधानी ताकी विस्तार, तहाँ नजामत दश गुलजार । तिनमे एक रामगढ जान, जो है गुनी जनो की खान ।।
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पं० मक्खनलाल जैन पल्लीवाल भूषण व्याख्यान वाचस्पती
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का तँह बास ||
श्री जिन मन्दिर तहाँ उतङ्ग, मध्य विराजित श्री जिनचद । दर्शन से श्रध तुरत नशाय, शान्ति छवी बरनी नहि जाय । जैन समाज तहाँ गम्भीर, धर्म ध्यान में अति ही धीर । पूर्वजो का तहाँ निवास, वर्ष सैकडो पितामह जानो शिवलाल, करते थे धर्म ध्यान विशाल । सूरजबख्श पिता मम जान, जो थे महा गुणो की खान ॥ तिनका सुत जानो यह दास " बात" समान करत अरदास । पल्लीवाल जैन लो जान तेरापन्थी आम्ना मान ॥ बात प्रसिद्ध जगत के माहि, कवि कोई सन्तानी नाहि । मैं भी भयो हीन सन्तान, नाती दत्तक लीनो मान || ताको अमर चन्द शुभ नाम, वह भी करत राज को काम । मै कुछ और कियो नही काज, आयु बिताई सेवा राज || सेवा राज वर्ष छत्तीस, करके ली उपवेतन बीस । तास समय यह लिखा पुराण, ठाली बैठे शुभ सगत से यह फल लियो, छाड विकथा
धन्धा जाण ॥
जिनवर गुण
कह्यो ।
सज्जन जन यह प्रायस दियौ, ता प्रसाद यह साहस कियो । चौबीसो जिन पुराण निहार, कियो पद्य यह गद्य अनुसार । गद्य समान पद्य कियो जान कियो नही निज प्रोर मिलान । छन्द काव्य से हूँ अनभिज्ञ, भक्ति भाव उर भयो सर्वज्ञ । श्री जिनवर गूँथी गुण माल, शुद्ध करो मम भूल सभाल ॥ ज्ञानी जन से है श्ररदास, देख प्रशुद्धि करो मति हास | सम्वत विक्रम दोय हजार, पोप शुक्ल शुभ दशमी सार ॥ ता दिन पूरण भयो पुराण, श्री जिन पूरण सहाय प्रमाण ।'
दोहा - पूरण भयो पुराण यह श्री जिन दया प्रसाद । पढो भव्य नित प्रेम से, क्षमो बाल' प्रमाद ||
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पल्लीवाल जैन जाति का इतिहास यह गुणमाल जिनेश की, जो धारै उर माय ।
भव भव दु ख विनाश के, अन्त शिवालय जाँय ॥ आपकी सभी रचनाये एक बार प्रकाशित तो हो चुकी है, लेकिन उनकी अधिक प्रसिद्धि नही हो पाई है। 'श्री चौबीस तीर्थकर पुराण' (पद्य) आपकी एक बडी रचना है । इसमे चौबीसो भगवान का परिचय बहुत सुन्दर तरीके से दिया गया है । (5-14) ५० मक्खनलाल जो 'प्रचारक'33
पडित मक्खनलाल जी अपने समय के अद्वितीय आध्यात्मिक कवि थे। आप जैन धर्म के प्रकाण्ड विद्वान थे। आप जैन धर्म का प्रचार करने के उद्देश्य से स्थान-स्थान पर भ्रमण करते तथा जैन धर्म की गूढ बातो को बहुत ही सरल तथा सरस भजनो तथा हिन्दी पदो के रूप में प्रचारित करते थे। इसी कारण आप 'प्रचारक' उपनाम से प्रसिद्ध हो गये।
प्रापका जन्म सन् 1881 मे हुअा था । आपके पिता का नाम श्री डालचन्द पल्लीवाल तथा माता का नाम श्रीमती नारायनी देवी था। आप अलीगढ जिने को अतरौली तहसील के ग्राम काजमाबाद के निवासी थे। किसो समय इस गाँव मे पल्लीवाला के पचास घर थे, लेकिन अब तो शायद ही कोई पल्लीवाल वहाँ रहता हो।
पडित जी का विवाह अल्प आयु मे ही हो गया था, इस कारण इनकी शिक्षा प्रारम्भ मे ठीक से नही हो पाई। बाद मे आपने प्रथमा की परीक्षा पास की। आपने हस्तिनापुर के पास एक गाँव में बहुत समय तक अध्यापन कार्य किया। वही पर आपके पिताजी आ गये तथा गल्ले का व्यापार करने लगे। कुछ समय आपने चौरासी (मथुरा) के गुरुकुल मे अवैतनिक रूप से कार्य किया। अन्त मे प्राप दिल्ली आ गये तथा वही पर आपका स्वर्गवास 17 जून सन् 1972 का हो गया।
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विशिष्ठ व्यक्तियो का सक्षिप्त परिचय
आप बहुत ही सरल परिणामी थे तथा बहुत ही मधुरभाषी थे। साधर्मी भाइयो के प्रति आपके दिल में विशेष वात्सल्य भाव था। आपको समय-समय पर विभिन्न उपाधियो से सम्मानित किया गया । 'पल्लीवाल भूषण', 'व्याख्यान वाचस्पति', 'कुशल प्रचारक', 'कवि रत्न', 'ममाज-सेवी' प्रादि कई उपाधियो के साथ आपका स्मरण किया जाता है । विभिन्न सस्थाओ द्वारा प्रापको कई मानपत्र भी भेट किये गये।
आपका अधिकतर जीवन धर्म ध्यान मे ही व्यतीत हुआ। आपने कई पुस्तको को रचनाएँ की, जिनमे भव्य प्रमोद मक्खन जैन भजनमाला, ज्ञानानन्द भजनाकार, सिहोदर-बज्रकरण नाटक, तथा अकलक चरित्र बहुत प्रसिद्ध हैं। आपके सभी भजन बहुत ही मुन्दर तथा मनमोहक है । 'श्री सिद्ध चक्र के विधान' पर आपने कई भजन बनाये जो कि बहुत ही लोक प्रिय हैं। आध्यात्मिक जैन कवि के रूप मे आपको हमेशा याद किया जाता रहेगा।
प० मक्खनलाल जी ने अपना जीवन परिचय स्वय भी लिखा है । इसे इनकी पुस्तक 'भव्य-प्रमोद' के साथ प्रकाशित कराया गया है (प्रकाशक-सरलादेवी जैन पुस्तकालय, 2532, धर्मपुरा, देहली-110006 )। हम उसे ज्यो का त्यो निम्न प्रकार दे
पडित जी का जीवन परिचय स्वय उनकी कलम से
सबैया 31 जिला अलीगढ माहि तहसील अतरोली
ग्राम काजमाबाद का जनम हमारा है, पिताजी का नाम डालचन्द नरायनि मात
पल्लीवान जैन कुन्द कुन्द पथ धारा है, विक्रम संवत् इनईस पर अडतीस
माश पक्ष दिन शुभ रवि शशि तारा है,
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पल्लीवाल जैन जाति का इतिहास
मात तात का था इकलौता लाडिला तनुज
धरा नाम मक्खन जो लगा उन्हे प्यारा है। बालपने की दशा पाच वर्ष तक मात तात के खिलोने रहे
तीन चार वर्ष खेले बालन के सग मे, चार पांच वर्ष पढे ग्राम के मदरसे में
बुद्धि थी प्रबल रगे पढने के रग मे, किन्तु उस समय था रिवाज बुरा शादियो का
बालपने में विवाह होते बुरे ढंग मे, यह भी न समझ पाते कौन वर कौन वधू
कहते माँ बाप हम न्हाए लिये गग मे, विवाह तथा उसके बाद की दशाविक्रम उन्नीसे इक्यावन के फागुन में
मात तात किया था विवाह बडे हर्ष मे, उस समै था तेरे चौदह वर्ष का था बालपन
कुछ पढे कुछ रहे आर्थिक संघर्ष मे, श्रेपन मे जाय महाविद्यालय मथुरा मे
प्रथमा की पढ़ी थी पढाई चार वर्ष मे, छप्पन मे मात मुई गोना हो गया उधर
पिताजी थे वृद्ध फसे ग्रह परामर्श मे। एक वर्ष लो सोचते रहे करे क्या काम ___कोई भी पूछे नही पास न हो जब दाम । सम्वत् सर उनईस से सत्तावन मे जान
कार्तिक अष्टानिक विपे गजपुर किया पयान। हस्तनापुर के निकट ग्राम महल का नाम
अध्यापक बनकर किया पांच वर्ष लो काम, वही पिताजी मा गये गल्ले का करि काम
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विशिष्ठ व्यक्तियो का सक्षिप्त परिचय
कृपा जैनियो की रही कमा लिया कुछ दाम, चले गये हम सरधने पिता बने सुर
ईश
सेवा के बदले हमे दे गये शुभ माशीष, कन्याशाला दिवश में रंन समय शिशु शाल
शिक्षा दे नो वर्ष लो दिखला दिया कमाल, चौबीस वर्ष प्रचारकी की दिल्ली में श्राय
जैन अनाथाश्रम तना भवन दिया बनवाय. ईस्वी सन् उन्नीस से अडतीस लो करि काम
छोड अनाथालय किया एक वर्ष विश्राम |
करषा छन्द
ऋषभ ब्रह्मचर्याश्रम गुरुकुल मथुरा चौरासी सरनाम अवैतनिक छै वर्ष अधिष्ठाता के पद पर कीना काम । प्रार्थिक दशा सुधारि बनाया प्रति विशाल गुरुकुल का धाम, किया रातदिन कठिन परिश्रम घर का तजि कर काम तमाम ।
पुरुषारथ थक गये वुढापे मे सारे उत्साह भगे
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होकर उदास सब सम्थाप्रो से दिल्ली घर पर रहने
लगे ॥
दोहा
प्रौरस सुत कोई नही दत्तक सुत है एक नाम जितेन्द्र प्रकाश है राखे कुल की टेक, कौन किसी को देत है कौन किसी का लेत काटे इम भव प्रायके बोया पर भव खेत ।
'जीवन सम्बन्धी विशेष घटनायें "
उत्तर प्रदेश के जिला अलीगढ मे काजमाबाद एक कस्बा है वही हमारा जन्म सन् 1881 में हुआ। किसी समय इस ही काजमा - बाद मे पल्लीवाल जैनियो के 50 घर थे, लेकिन अब केवल 2 घर
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पल्लीवाल जैन जाति का इतिहास
हैं। सन् 1934 मे हमारे मन में यह भाव उत्पन्न हुआ कि यहाँ एक विशाल मेला कराया जाय । जैन समाज के कुशल व्याख्याता रायसाहब हकीम कल्याणराय जी, राजवैद्य प० इन्द्रमणी जी तथा बाबूलाल जी (ताले वालो ने ), बसतलाल जी मालिक बसत लौक फैक्ट्री अलीगढ ने इस कार्य मे पूरा-पूरा सहयोग दिया। यह महोत्सव इस इलाके मे अनूठे ढंग का रहा । यह मेला बडी धूमधाम से चार दिन चला। इस मेले मे जैन व अर्जुन बन्धुश्री ने पूरा सहयोग दिया ।
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हमारे कोई सन्तान नहीं थी इसलिये हमारी घर वालो अपनी चचेरी बहन चम्पादेवी के सुपुत्र चि० जितेन्द्र प्रकाश को फिरोजाबाद से सन् 1937 मे ले आई थी । सन् 1941 मे हमने गोद की रस्म कर दी । देहली व मथुरा का पढाई के पश्चात् 17 मई सन् 1946को फिरोजाबाद के सुप्रसिद्ध हकीम गुलजारीलाल जी जैन विशारद की सुपुत्री सरला देवी स जितेन्द्र प्रकाश का विवाह हुआ । उक्त अवसर पर हमने 501 रु० सामाजिक सस्थाओ को दान किये । अव जितेन्द्र प्रकाश के 4 लडके 4 लडकियाँ कुल 8 सन्तान है जिसमे सबसे बडी सुपुत्री शशि जैन का शुभ विवाह चि० सुरेश चन्द्र जैन सुपुत्र स्व० लाला बलदेव प्रसाद जी जन तिस्सा वालो से 10 जुलाई सन् 1967 में हुआ ।
हमारी स्त्री का सितम्बर 1950 मे लम्बी बीमारी के बाद स्वर्गवास हो गया ।
(5-15) मुनि श्री अनन्त सागर जी
मुनि श्री अनन्त सागर जी महाराज का जन्म वि स 1940 के लगभग हुआ या । प्राप पल्लीवाल जात्युत्पन्न थे तथा कानपुर मे साझे मे व्यापार करते थे । तीन साझेदारो मे से एक श्री उमराव सिंह जी भी पल्लीवाल थे ।
बचपन से ही आपको धर्म के प्रति बहुत रुचि थी । ससार
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की प्रसारता को विचारते हुये प्रापने क्षुल्लक दीक्षा धारण कर ली । एक दिन प्राप मन्दिर जी मे भगवान का ध्यान कर रहे थे उसी समय आपके मन में एक महान् विचार प्राया तथा भगवान की प्रतिमा के आगे अपने वस्त्र त्याग कर दिगम्बर दीक्षा धारण कर ली ।
आपने अपने दीक्षा काल मे मध्य भारत में बहुत भ्रमरण किया तथा धर्म का प्रचार किया। आपके धर्मोपदेशो से प्रभावित होकर बहुत से प्रजैन लोगो ने भी जैन धर्म स्वीकार कर लिया । कहते है कि धर्मपुरी (धार) का एक मुसलमान सूबेदार मुनि श्री बहुत प्रभावित हुग्रा तथा अपने क्षेत्र मे पशु हिंसा पर उसने रोक लगा दी ।
से
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मुनि श्री के जीवन मे कई बार उपसर्ग भी प्राये । एक बार जाडो के दिनो मे सायकाल आप जगल की ओर चले गये तथा एक शिला पर बैठ कर सामायिक करने लगे । ध्यान लगाते हुए आपको बहुत देर हो गई तथा रात्रि का समय हो गया । रात्रि मे मुनि विचरण नही करते है, अत आप इसी कारण उस शिला पर बैठे रहे । रात्रि मे अत्यधिक ठण्ड के कारण आपके शरीर की खाल गल गई, लेकिन आप अपने ध्यान से विचलित नही हुए ।
आपका स्वर्गवास वि० सवत् 1994 के लगभग इन्दौर मे हो गया ।
(15-16) डॉ प्यारेलाल जी
आपका जन्म दौसा (जयपुर) में 19 फरवरी सन् 1888 ई० को हुआ था | आपके पिता श्री मुरलीधर जी वहाँ पर सहायक स्टेशन मास्टर थे | आपने अपनी चिकित्सा सम्बन्धी पढाई आगरा मे सन् 1909 में पूरी करने के बाद सरकारी सेवा ग्रहण करली | आपका अधिकतर समय आगरा में हीव्यतीत हुआ। कुछ समय श्राप कानपुर तथा वाराणसी भी रहे। प्राप सन् 1943 में सेवा
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पल्लीवाल जैन जाति का इतिहास निवृत हो गये, तदोपरान्त पाप आगरा में रहने लगे। 90 वर्ष की दीर्घायु के बाद आपका दिनांक 31 दिसम्बर सन् 1978 को देहान्त हो गया ।
सरकारी सेवा से निवृत होने के बाद से ही आपका एक मात्र कार्य धार्मिक ग्रन्थो का अध्ययन करना था । मापने पागम के चारो अनुयोगो का बहुत बारीकी से कई बार अध्ययन किया। करणानुयोग जैसे कठिन विषय भी आपको बहुत सरल तथा रुचिकर लगते थे। आपने धवला, जयधवला तथा महाधवला का भी कई बार अध्ययन किया। यह कहना कोई अतिशयोक्ति न होगी कि पागम ग्रन्थो का जितना अध्ययन डाक्टर साहब ने किया उतना उनके समय मे शायद ही किसी ने किया हो । आपको ग्रन्थ खरीदने का भी बहुत शौक था। आपने अपना एक निजी पुस्तकालय ही बना लिया था जिसमे हजारो को सख्या मे शास्त्र थे। आपने बहुत से शास्त्र धूलियागज, आगरा के पल्लीवाल' दिगम्बर जैन मन्दिर मे दे दिये । इस मन्दिर मे जितने भी शास्त्र है उनमे ने अधिकतर डाक्टर साहब द्वारा दिये गये है। अापके निजी-पुस्तकालय मे कई हस्त लिखित ग्रन्थ भी थे जिन्हें उनके पितामह तथा पिताजी ने लिखे थे। आप बहुत सी जैन पत्रिकाओ के आजीवन सदस्य भी थे।
आप बहुत समय तक विभिन्न सामाजिक, शिक्षण तथा धार्मिक सस्थानो से सम्बन्धित रहे । आप मन्दिर जी मे प्रात काल शास्त्र प्रवचन भी करते थे। वर्षों से आप दिन में एक बार ही भोजन करते थे । आप इतनी बृद्धावस्था मे भी नित्य प्रति मन्दिर पाते थे। आप बहुत ही सरल परिणामी व्यक्ति थे। आपकी अन्तिम इच्छा थी कि आपके नेत्र दान कर दिये जायें तथा आपका दिवगत शरीर मेडिकल कानेज के विधार्थियो को अध्ययन हेतु दे दिया जाय । आपके पुत्रो द्वारा इस अन्तिम इच्छा की पूर्ति 31 दिसम्बर सन् 1978 को मापके दिवगत हो जाने पर पूरी कर दी गई।
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विशिष्ट व्यक्तियों का संक्षिप्त परिचय
121 __अापके चार पुत्र थे। बडे पुत्र डा. रतनलाल जी 'सेठ' कानपुर में अपनी 'पैथोलोजीकल लैब' चलाते थे। सेठ जी भी बहुत धार्मिक व्यक्ति थे तथा इनको अपनी समाज से विशेष मोह था। आप हमेशा कानपुर से मन्दिरो की कार्यकारिणी मे सक्रिय रहे । कानपुर में पल्लीवालो के घर एक दो ही रहे हैं । वे भी नौकरी के कारण ही वहाँ पहुँचे है। लेकिन सेठ जी अवेले ही हर महावीर जयन्ती पर तथा क्षमावाणी पर्व पर बडे मन्दिर के सामने एक प्याऊ लगवाते थे तथा उसके ऊपर एक बडा बैनर 'पल्लीवाल प्याऊ' के नाम का ढंगवाते थे। यह उनकी पल्लीवाल समाज के प्रति अटूट श्रद्धा का नमूना है । वे कानपुर मे अकेले पल्लीवाल पोने पर भी अन्य जैन समाज के सामने अपनी समाज का अस्तित्व सिद्ध करते रहे । सेठ जी का देहान्त भी अपन पिता की मृत्यु के कुछ समय बाद ही हो गया तथा तब से कानपुर मे पल्लीवाल जाति का नाम ऊँचा करने वाला कोई भी नहीं रहा । 15 17) श्री मिठुनलाल जी कोठारी
श्री मिठ्ठनलाल जी का जन्म दिनाक 26 सितम्बर सन् 1890 को ग्राम पहरसर (जिला भरतपुर) में हुआ था । आपके पिता का नाम श्री मूलचन्द था। 9 वर्ष की आयु मे आप लाला चिरजीलाल जी के दत्तक पुत्र के रूप मे आये । लाला चिरजीलाल भरतपुर राज्य मे काय करते थे । उनके स्वर्गवास के बाद श्री मिट्ठनलाल जी को उनके स्थान पर रख दिया गया। आपके विश्वसनीय कार्या के कारण आपका राज्य के दफ्तर कोठार मे कोठारी पद पर पदोन्नत कर दिया गया।
आप सामाजिक तथा धार्मिक क्षेत्र मे सक्रिय रहे । भरतपुर के 'पल्लीवाल श्वेताम्बर जैन मन्दिर' की स्थिति सुधारने मे आपका विशेष योगदान रहा। आपके प्रयासो से ही 'पल्लीवाल जैन कान्फ्रेस' की स्थापना हुई। आपने कई तीर्थ यात्राएँ भी की।
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पल्लीवाल जैन जाति का इतिहास
15-18 7.बैनीप्रसाद जैन
आप इतिहास तथा राजनीति के एक महान् स्कॉलर थे। आपका जन्म 19 फरवरी 1895 मे हुआ । आपके पिता बरारा (जिला प्रागरा) के रहने वाले थे, लेकिन आपका अधिकाश समय इलाहाबाद मे व्यतीत हुआ । आपने इतिहास में पी एच डी की उपाधि प्राप्त की । आप इलाहाबाद विश्व विद्यालय मे प्रोफेसर के पद पर कार्यरत रहे। आपने अपन क्षेत्र मे बहुत ख्याति अजित कर ली थी। महात्मा गाधी ने भी एक बार प्रापसे देश के सविधान का मसौदा तैयार करने के सम्बन्ध मे परामर्श किया था। आपके द्वारा लिखित 'जहाँगीर का इतिहास' एक महान् कृति है । आपकी अन्य कृतियाँ 'कन्सेप्ट ऑफ पॉलिटिकल साइन्स' 'भारत की पुरानी सभ्यताये', 'इण्डियन सिटीजनशिप' ए वी सी प्रॉफ सिविक्स' तथा 'भारत पाकिस्तान प्रोवलम' हैं। भारत पाकिस्तान प्रोबलम' आपकी अन्तिम कृति है । अपका स्वर्गवास दिनाक 8 अप्रेल 1945 को हो गया। (15-19) सेठ छवामोलाल जी
सेठ छदामीलाल जी ने जैन धर्म को प्रभावना हेतु विपुल धनराशि व्यय करके ऐतिहासिक महत्व के जो कार्य किये हैं, उममे मम्पूर्ण जैन समाज भलि भाती परिचित है। इन्होने धार्मिक कार्यो मे करोडो रुपये की धनराशि देकर एक महान कार्य किया।
सेठ जी के पूर्वज फिरोजाबाद से दक्षिण में लगभग 5 किलोमीटर दूर जमुना के तट पर स्थित चन्दवार नामक गाँव मे निवाम करते थे । ऐसा अनुमान किया जाता है कि सेठ जी के पूर्वज चन्दवार के प्रमुख एव राजमान्य प्रतिष्ठित नागरिक थे। कालान्तर मे चन्दवार उजडने लगा तथा फिरोजाबाद आबाद होने लगा, अत सेठ जी के पूर्वज भी चन्दवार छोडकर फिरोजाबाद आकर रहने लगे।
सेठ जी का जन्म 12 जून 1896 को फिरोजाबाद नगर में
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विशिष्ठ व्यक्तियो का सक्षिप्त परिचय
हुआ था । प्रापके पिता का नाम श्री मोतीलाल जी तथा माता का नाम श्री मती कुन्दन बाई था। बचपन में ही सेठ जी की माताजी का देहान्त हो गया था। जब इनकी आयु लगभग 10-11 वर्ष की थी तभी इनके पिताजी का भी स्वर्गवास हो गया । तेरह वर्ष की अल्पायु में इनका विवाह हो गया । इस प्रकार छोटी उम्र में ही इन पर गृहस्थी का बोझ आ गया ।
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सेठ जी बहुत ही परिश्रमी व्यक्ति थे । इन्होने फिरोजाबाद मे काच का व्यवसाय प्रारम्भ किया। सन् 1925 में फिरोजाबाद मे ही 'जैन ग्लास वर्क्स' के नाम से एक कारखाना स्थापित किया, जिसे सन् 1928 में फिरोजाबाद के निकट हिरनगी में स्थानान्तरित कर दिया । प्राप कुगल व्यवसायी थे, इसी कारण कुछ समय मे ही आपन काच उद्योग में बहुत ऊंचा स्थान प्राप्त कर लिया । 13 मार्च 1957 को आपकी धर्म पत्नी श्रीमती शर्बती बाई का देहान्त हो गया ।
इन दिनों देश के स्वतन्त्रता संग्राम का बहुत जोर था । गाधी जी के नेतृत्व में विभिन्न मान्दोलन चल रहे थे । तभो सन् 1930 से सेट जी इन ग्रान्दोलनो के लिए नियमित रूप से प्रति मास 500 सौ रुपये गुप्त दान के रूप मे देते रहे ।
सन् 1947 मे सेठ जी ने साढे छह लाख रुपये की धन राशि से श्री छदामीलाल जैन ट्रस्ट' की स्थापना की। आज इस ट्रस्ट मे करोडो रुपये हैं । इस ट्रस्ट के अन्तर्गत सेठ जी ने एक विशाल जैन मन्दिर, जैन पार्क, धर्मशाला, पुस्तकालय, एक डिग्री कॉलेज तथा इसी प्रकार की अनेक जन उपयोगी सस्थाये स्थापित की, जो इस समय बड़े सुचारु रूप से जनता की सेवा मे सलग्न है ।
जैन मन्दिर आदि के निर्माण कार्य पूरे हो जान पर सेठ जी के मन मे एक विचार और आया । दक्षिण के श्रवणवेलयोल मे जिस प्रकार भगवान बाहुबली की मूर्ति स्थापित है, उसी प्रकार
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पल्लीवाल जैन जाति का इतिहास
की एक मूर्ति उत्तर भारत में भी स्थापित की जाय । सच्चे मन से की गई उनकी यह इच्छा भी पूर्ण हुई। उन्होने दक्षिण में कारकल के निकट मगलपादे नामक पहाडी मे से 130 टन वजन की तथा 45 फुट ऊँची प्रतिमा बनवाई। भगवान बाहुबली की इस विशाल प्रतिमा ने 12 जून 1975 को फिरोजाबाद में पदार्पण किया।
सेठ जी को उक्त धार्मिक सेवायो को देखते हुये, 20 अक्टूबर 1972 को प्रापका दिल्लो मे प्रभिनन्दन किया गया तथा आपको 'श्रावक शिरोमणि' की उपाधि से विभूषित किया गया। प्राप अपने जीवन के अन्तिम समय तक धार्मिक सेवाप्रो मे लगे रहे । 12-13 जनवरी सन् 1976 की रात्रि को कुछ प्रातताइयो ने सेठ जी की निर्मम हत्या कर दो तया जैन समाज न एक महान् धर्म प्रेमी को हमेशा के लिए खो दिया।
आज सेठ जी द्वारा स्थापित 'श्री छदामीलाल जन ट्रस्ट' के द्वारा निम्नलिखित सस्थानो का सचालन हो रहा है- (1) श्री दिगम्बर जैन महावीर जिनालय, (2) श्री मोतीलाल जैन पार्क, (3) श्री कानजी पुस्तकालय, (4) श्री वर्णी स्वाध्याय कक्ष, (5) श्रीमती शर्बतीदेवी जैन धर्मशाला, (6) श्री सी एल जैन डिग्री कॉलेज, (71 श्री छदामीलाल जन जूनियर हाईस्कूल, हिरनगाँव, (8) श्री चन्द्रपाल दिगम्बर जैन पाठशाला, चंद्रवार, (9) श्री मोतीलाल जैन धर्मार्थ औषधालय । सेठ जी के नाम से इस ट्रस्ट द्वारा ही एक 'मैटरनिटी हॉस्पीटल' (श्रीमती कुन्दन बाई महिला चिकित्सालय) तथा त्रिमूर्ति-बालोद्यान भी बनवाया गया है।
सेठ जी की उक्त धार्मिक एव सामाजिक सेवामो के कारण सेठ जी का नाम अमर रहेगा। (5-20) मुनि श्री क्षमासागर जी
मापका गृहस्थावस्था का नाम श्री करोडीमल था। पाप
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बागरा के रहने वाले थे । प्रापका जन्म सन् 1898 ई में हुआ था । आपकी धार्मिक कार्यों में विशेष रुचि थी । श्राप नित्य प्रति धूलिया गज प्रागरा स्थित ' प दि जैन मन्दिर मे पूजा-पाठ करने के लिए आते थे तथा स्वाध्याय भी करते थे । श्रापके अन्तिम दिनों मे नेत्र ज्योति नष्ट प्राय हो गई थी । उसके बाद भी आप धार्मिक क्रिया का पूर्ण पालन करते थे । सन् 1979 में आपके पैर में बहुत चोट लग गई थी तथा वहा पर फोडा बनकर पक गाथा | माते प्रग्रेजो दवाइयाँ लेने से साफ इन्कार कर दिया तथा दिनाक 14 अक्टूबर 19:9 को समाधि पूर्वक मरण करने का निश्चय किया । श्रापने क्रम से आहार, दूध तथा जल का त्याग किया। दिनाक 23 अक्टूबर को जल का भी त्याग कर दिया । फिर उस समय उपस्थित मुनि श्री श्रुत सागर जी महाराज से दिनाक 25 अक्टूबर 199 को दिगम्बर दीक्षा धारण की तथा अब वे मुनि क्षमासागर हो गये । श्रापने बहुत धैर्यपूर्वक तथा विवेक सहित समाधि ली। 18 दिन उपरान्त दिनाक 1 नवम्बर सन् 1979 ( कार्तिक सुदी 11 ) को इस नश्वर शरीर को त्याग दिया। आगरा के अन्दर समाधिमरण का यह प्रथम अवसर था । आपके अन्तिम दर्शनार्थ हजारो जैन तथा जैनेतरो को प्रतिदिन भीड लगी रहती थी । इससे जैन धर्म की बहुत प्रभावना हुई ।
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( 15-21 ) श्राविका सर्वती बाई
पल्लीवाल जाति में आप एक महान् महिला सन्त हुई है । आपके पिता का नाम श्री सावलदास जी था तथा वे प्रागरा के रहने वाले थे । सवंती बाई का जन्म सन् 1900 ई. के लगभग हुआ था । आप शादी के कुछ दिनो बाद ही विधवा हो गई थी । आप अपने पिता के घर ही रहती थी । उन दिनो भारत के स्वतन्त्रता संग्राम का बहुत जोर था । श्राप भी इससे बहुत
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प्रभावित हुई तथा अपने देश सेवा करने का निश्चय किया । पने विभिन्न प्रान्दोलनो मे सक्रिय भाग लिया। इसके कारण आपको दो बार जेल भी जाना पडा । आपने अन्य महिलामो को भी इन आन्दोलनो मे भाग लेने के लिए प्रेरित किया ।
देश प्रेम के साथ साथ आपमे धार्मिक सस्कार भी पूरी तरह से थे । आप सभी धार्मिक कार्यों मे हमेशा भाग लेती रहती थी । एक बार एक मुनि सघ आगरा मे आया । आप मुनि श्री के प्रवचनो को ध्यान पूर्वक सुनती थी। आपके मन में भी वीतरागता का भाव उत्पन्न हुआ तथा तत्काल ही आर्यिका दीक्षा धारण कर ली । कहते है कि आप यह दीक्षा ग्रहण करने से पूर्व अपने पिता के घर तक तो गई, लेकिन बाहर से ही ग्रावाज दे कर कह दिया कि वह दीक्षा ग्रहण कर रही है । उन्होने इस समय घर के अन्दर प्रवेश करना उचित नही समझा। आपने आर्थिका के रूप में कई स्थानो का भ्रमण किया तथा जन धम का प्रचार किया ।
(15-22) बाबूप्रताप चन्द जी
श्री प्रताप चन्द जी का जन्म आगरा मे फाल्गुन कृष्णा 5 सवत् 1960 ( यानि कि 6 फरवरी सन् 1904 ) को हुआ था । आपके पिता श्री गनपतराय जैन धर्मात्मा व्यक्ति थे । आपकी शिक्षा केकडो ( राजस्थान) में तथा बाद मे आगरा मे हुई ।
आपने सन् 1921 मे 'राजकीय रेलवे पुलिस की नौकरी प्रारम्भ की। 40 वर्ष की राजकीय सेवा के बाद 1 जनवरी सन् 1962 मे श्राप सेवा निवृत हो गये ।
आपको साहित्य लेखन मे प्रारम्भ से ही रुचि थी। आपके fafभन्न लेख 'सरस्वती' 'चाँद' तथा 'साप्ताहिक प्रताप' 'जैसी उच्च स्तरीय पत्रिकाओ मे प्रकाशित हुये । जैनियो को तो शायद कोई ही हिन्दी पत्रिका शेष रही होगी, जिसमे इनके लेख अथवा समी
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क्षाहँ न प्रकाशित हुई हो। अन्यथा आपने प्रत्येक जैन पत्रिकामो मे आपके लेख प्रकाशित हुये हैं । 'श्री पल्लीवाल जैन पत्रिका' के अाप दो बार सम्पादक रह चुके हैं । पहले सन् 1925 में तथा फिर मन् 1984 से 1985-86 तक । आप एक वर्ष तक 'अमर भारती के भी सम्पादक रहे। ___आपकी लगभग सभी जैन विद्वानो से मुलाकात हुई है। तथा उनसे सामाजिक तथा धार्मिक चर्चाएं भी हुई है । प्राप
आगरा की विभिन्न सामाजिक एवं धार्मिक संस्थानो से भी सम्बध रहै है। आप आगरा की कई जैनेतर सस्थाओ से भी जुडे हुये हैं।
आगरा के महावीर दिगम्बर जैन इन्टर कॉलेज की स्थापना आपने ही वर्तमान भवन मे महावीर दिगम्बर जैन जूनियर स्कूल के रूप मे 22 अक्टूबर 1942 को कराई थी। 'आगरा अन्त. धर्म सस्थान' मे मन् 1974 से आप पक्रिय जुडे रहे है। वर्षों से आप आगरा के प्रार्य- विशप तथा मुफ्ती साहब से भी जुड़े रहे हैं । आप पल्लीवाल समाज के साथ माथ आगरा के भी माननीय सदस्य हैं । हम अापकी दीर्धायु को कामना करते है जिससे आप समाज को और अधिक मार्ग दर्शन प्रदान करते रहे। (5-23) श्री जैनेन्द्र कुमार जी___श्री जैनेन्द्र कुमार जी प्रेमचन्दोत्तर यग के श्रेष्ठ कहानीकार के रूप में विख्यात है। आपका जन्म अलीगढ जिले के कौडियागज नामक कस्बे मे सन् 1905 मे हुआ था। बाल्यावस्था मे ही आपके पिता की मृत्य हो गई, प्रत प्रापका पालन-पोषण मापकी माता और मामा ने किया। आपकी प्रारम्भिक शिक्षा हस्तिनापुर के जैन गुरुकुल ऋषि ब्रह्मचर्याश्रम मे हुई। सन् 1919 मे आपने मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की। उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए आपने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया किन्तु सन् 1921 के अहयोग प्रान्दोलन में भाग लेने के कारण आपकी शिक्षा का
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क्रम टूट गया । आपमें स्वाध्याय की प्रवृत्ति छात्र जीवन से ही थी। जेल मे स्वाध्याय के साथ ही आपने साहित्य सृजन का कार्य भी प्रारम्भ कर दिया। आपको पहली कहानी 'खेल सन् 1928 में 'विशाल भारत' में प्रकाशित हुई थी। उसके बाद आप निरन्तर साहित्य सृजन मे प्रवृत्त रहे हैं । अापको 'हिन्दुस्तान एकेडमी' पुरस्कार साहित अन्य कई पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।
श्री जैनेन्द्र कुमार जी ने कहानी, उपन्यास, निबन्ध, सस्मरण आदि अनेक गद्य विधानो को समृद्ध किया है । अापकी प्रमुख साहित्यिक कृतियों निम्नलिखित है। निबन्ध सग्रह-प्रस्तुत प्रश्न, जड़ की बात, पूर्वादय, साहित्य का
श्रेय और प्रेय, मथन,सोच विचार, काम, प्रेम और
परिवार। उपन्यास - परख, सुनीता, त्याग पत्र, कल्याणी, विवर्त, सुखदा,
व्यतीत, जयवर्धन, मुक्ति बोध । कहानी संग्रह- फांसी, जयसन्धि, वातायन, नीलम देश की राज
कन्या, एक रात, दो चिडियाँ, पाजेब । (इन सग्रहो के बाद जैनेन्द्र जी की समस्त कहानियाँ दस भागो में प्रकाशित की गई है।) सस्मरण-- ये और वे।' अनुवाद - मन्दाकिनी (नाटक), पाप और प्रकाश (नाटक) प्रेम
__मे भगवान (कहानी सग्रह)।
उपर्युक्त रचनामो के अतिरिक्त अापन सम्पादन कार्य भी किया है। बहुत • मय से ग्राप दिल्ली मे रह रहे है। हम आपकी दीर्घायु की कामना करते है। (5-24) श्री श्यामलाल वारोलिया
माप प्रागरा के प्रमुख समाज सेवी थे। मापका जन्म आगरा
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के पास ग्राम मिढाकुर मे दिनाक 13 सितम्बर सन् 1905 ई० को हुआ था। आपके पिता का नाम श्री नारायणदास तथा माता का नाम श्रीमती चमेली बाई है। मिढाकुर से प्राकर आप धलिया गज, आगरा मे बस गये । आपने मिडिल तक की शिक्षा प्राप्त की।
यद्यपि पाप मुनीमगीरी तथा दलाली करते थे तथापि सामाजिक कार्यों में आप विशेष रुचि लेते थे । आप आगरा की विभिन्न धार्मिक एव शैक्षणिक संस्थानो के पदाधिकारी रहे । आपकी हार्दिक इच्छा थी कि पल्लीवाल जाति का निष्पक्ष इतिहास सबो के सम्मुख पाये । आपने इतिहास लिखवाने के लिए कई उद्यम किये। आपकी सत्प्रेरणा से ही प्रस्तुत इतिहास भी लिखा जा मका है।
सन् 1982 मे आपका आगरा मे निधन हो गया। (5-25) प्रायिका शान्तिमती जी
आप मुनि श्री शान्तिसागर जी महाराज (अलावडे वालो) के गृहस्थावस्था की बहिन है। आपका जन्म वि० सवत् 1968 मे अलवर जिले के अलावडा नामक ग्राम मे हुआ था। आपके पिता का नाम श्री छोटेलाल जी तथा माता का नाम श्रीमती चन्दन बाई था। 40 वर्ष की आयु में आपने आचार्य श्री विमल सागर जी महाराज भिण्ड वालो) से आर्यिका दीक्षा ग्रहण कर ली। कुछ वर्ष पूर्व आपका स्वर्गवास हो गया। (5-26) मा० रामसिंह जी
आप मेरे पूज्य पिताजी हैं । आपका जन्म 1 अगस्त सन् 1915 को प्रागरा जिले की किरावली तहसील के मगूरा नामक ग्राम मे हुआ था। आपके पिता श्री चन्द्रभान जैन ण्टवारी थे तथा आपके बाबा (पितामह) श्री नन्दकिशोर जी एक बडे जमीदार थे। बच. पन मे ही माता की मुत्यु हो जाने के कारण आप अपने पितामह
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तथा मातामह के साथ ही रहे । आपने अपनी प्रारम्भिक शिक्षा अछनेरा के स्कूल मे पूर्ण की। एम० ए० (हिन्दी) तथा एल० टी० की परीक्षाएँ आगरा विश्वविद्यालय से उत्तीर्ण की।
अपनी शिक्षा पूर्ण करने के उपरान्त प्रापने विभिन्न शिक्षण सस्थानी में अध्यापन का कार्य किया । आपने सबसे अधिक समय (25 वर्ष) क्रे० जी० इन्टर कालेज, श्रागरा में अध्यापन कार्य
किया ।
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विद्यार्थी काल से ही आपने देश के स्वतन्त्रता संग्राम मे भाग लेना प्रारम्भ कर दिया। आपने कई आन्दोलनो में भाग लिया । कुछ समय आप आगरा की शहर काग्रेस कमेटी के अध्यक्ष भी रहे ।
प्रारम्भ में आप आर्य समाज से बहुत प्रभावित थे, लेकिन परम पूज्य क्षुल्लक श्री स्वरूप सागर जी महाराज तथा ब्रह्मचारी श्री मूलशकर जी देसाई के सम्पर्क में आने के बाद आपकी रुचि जैन धर्म के प्रति बढती गई। जैन धर्म के प्रति विशेष रुचि देखकर आपके साले श्री सुगनचन्द ने प्रापको कई शास्त्र भेट किये । फिर तो आपने अनेक आगम ग्रन्थो का अध्ययन किया । आप पिछले पच्चीस वर्षो से नित्य प्रति सायकाल धूलिया गज, आगरा स्थित श्री पल्लीवाल दिगम्बर जन मन्दिर मे शास्त्र प्रवचन करते
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थे । आपकी विद्वता के कारण बाहर के लोग भी अपने यहाँ शास्त्र प्रवचन के लिए आपको बुलाते रहते थे । आपकी गिनती बड़े पडितो में थी ।
आप हमेशा खद्दर पहनते थे । चमडे का जीवन भर के लिए त्याग था । पिछले 25 वर्षों मे आपने जमीकद का भी सर्वथा त्याग कर दिया था । आपने कभी कोई ट्यूशन नही किया । जब कभी प्रापको बाहर धार्मिक प्रवचनो आदि के लिए जाना पडता था, तब कभी भी समाज से कोई भेट स्वीकार नही की, बल्कि
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जितना हो सका स्वय दान दिया। आप धार्मिक कार्यों के लिए भेंट स्वीकार करना अच्छा नही मानते थे। आपके पाजीवन छना पानी पीने का नियम था। इसीलिए आप हमेशा अपने साथ एक छन्ना रखते थे। जब कभी छन्ना ले जाना भूल जाते, तो वे कहीं पानी नही पीते थे।
आपने कई पत्र-पत्रिकामो का भी सपादन किया। समाज की पत्रिकामो 'पल्लीवाल-बन्धु' तथा 'श्री पल्लीवाल जैन पत्रिका' का प्रापने कई वर्षों तक सपादन किया । आपके बहुत से लेख विभिन्न पत्र-पत्रिकामो मे प्रकाशित हो चुके हैं। आपने तीन पुस्तके भी लिखी है। वे है- 'भगवान महावीर और उनका दिव्य सन्देश', 'जैन धर्म के प्रवर्तक' तथा 'भगवान आदिनाथ'। 'भगवान आदिनाथ' अभी नक अप्रकाशित ही है ।
आप विभिन्न शिक्षा संस्थाप्रो की कार्यकारिणी से भी सम्बन्धित रहे । कुछ समय तक आप आगरा कॉलेज के ट्रस्टी रहे। समाज द्वारा सचालित 'करतूरी देवी जैन विद्यालय, आगरा' के आप बहुत समय तक व्यवस्थापक रहे ।
प्रापका स्वर्गवास 24 अप्रैल सन् 1978 को प्रागरा मे हो गया। (5-27) मुनि श्री श्रुति सागर जी
आपका जन्म वि सवत् 1971 मे ग्वालियर के निकट मोहना नामक ग्राम मे हुआ था। आपके गृहस्थ जीवन का नाम श्री दयाराम था। आपके पिता का नाम श्री टेकचन्द तथा माता का नाम श्रीमती सरस्वती देवी था । युवावस्था मे पाप मुरैना आकर रहने लगे तथा वही पर हलवाई का व्यवसाय करते थे। आपको प्रारम्भ से ही धर्म के प्रति विशेष रुचि थी। इसी के फलस्वरूप आपने सातवी प्रतिमा धारण कर ली। तदुपरान्त 26 मई सन् 1974 को मापने प्राचार्य कुन्थ सागर जी से दिगम्बर दीक्षा
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धारण कर ली। आज भी आप स्थान-स्थान पर विहार करके मनुष्यो को धर्मोपदेश दे रहे है। ___ आपको कविता बनाने को बहत रुचि थी। ब्रह्मचारी अवस्था मे आपने चौबीसो भगवान के पूजन को अलग-अलग रचना की तथा कुछ भजन भी लिखे। पूजन की पुस्तक तो प्रकाशित भी हो चुकी है।
आपने अपने आगरा चातुर्मास के समय पल्लीवाल समाज के वयोवृद्ध श्री किरोडीलाल जी को विधिवत समाधिमरण करवाया। श्री किरोडीलाल जी को उनके अन्तिम समय मे दिगम्बर दीक्षा ग्रहण करवाई तथा उनका नाम मुनि क्षमासागर रखा। मुनि क्षमा सागर जी का दिगम्बर दीक्षा ग्रहण करने के 18 दिन बाद स्वर्गवास हो गया । (5-28) श्री सुगनचन्द जी जैन
आपका जन्म आगरा मे सन् 1917 को हुआ था। आपके पिता का नाम श्री गोकुन वन्द जैन था। जब आपकी प्रायु लगभग 20 वर्ष की थी तब ही आपके पिता का स्वर्गवास हो गया। अत प्राप पर ही पूरी गृहस्थी का बोझ आ गया । आपने आगरा मे ठेकेदारी का व्यवसाय प्रारम्भ किया । कुछ वर्षो तक तो तो आप इस कार्य मे रहे, लेकिन आपको यह कार्य अच्छा नहीं लगा। आप आगरा छोडकर जयपुर चले गये तथा वही पर नौकरी प्रारम्भ कर दी। आप अपने अन्तिम समय तक जयपुर ही रहे । अापका सन् 1967 मे आकस्मिक निधन हो गया।
अपने पिता की भाँति आपको भी जैन धर्म में विशेष रुचि थी। पल्लीवाल जाति के यथासम्भव आप ही पहले व्यक्ति रहे है जिन्होने अपने घर मे जैन शास्त्रो तथा पुस्तको की लाइब्रेरी खोली। आपने इस लाइब्रेरी का नाम अपने पिता के नाम पर 'गोकुल लाइब्रेरी' रखा। इसके अन्तर्गत उस समय उपलब्ध
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विशिष्ठ व्यक्तियो का संक्षिप्त परिचय
लगभग सभी जैन ग्रन्थ तथा पुस्तके सम्मिलित थी तथा इनकी सख्या हजार तक थी । आप स्वय तो स्वाध्याय करते ही थे, साथ ही दूसरो को भी स्वाध्याय करने के लिए ग्रन्थ उपलब्ध कराते थे। आगरा से जयपुर चने जाने पर आपको यह लाइब्र ेरी बन्द करनी पड़ी, लेकिन आपके स्वाध्याय का क्रम कभी नही टूटा ।
जयपुर मे आप 'महावीर भवन' तथा 'पद्मपुरा क्षेत्र कमेटी' से सम्बद्ध रहे । प्रापने प० चैनसुखदास जी तथा डॉ० कस्तूर चन्द जी कासलीवाल के साथ भी काफी कार्य किया । आपने कई लेख भी लिखे, जिन्हे विभिन्न पत्र-पत्रिकाओ मे प्रकाशित
कराया ।
(5-29) मुनि श्री शान्तिसागर जी
आपका जन्म वि सवत् 1972 में अलवर के अलावडा नामक ग्राम में हुआ था। आपके पिता का नाम श्री छोटेलाल तथा माता का नाम श्रीमती चन्दन बाई था। आपको बचपन से ही जैन धर्म के प्रति विशेष रुचि थो। इसी कारण आपने 67 वर्ष की आयु मे प्राचार्य श्री निर्मलसागर जी महाराज से दिगम्बर दीक्षा ग्रहण कर ली। आज भी श्राप धर्मोपदेश देकर लोगो को कल्याण मार्ग पर लगा रहे है ।
(5-30 ) अन्य प्रभावशाली व्यक्ति
उपर्युक्त व्यक्तियो के अतिरिक्त और भी बहुत से धार्मिक व्यक्ति समय-समय पर होते रहे हैं। आगरा के ब्रह्मचारी श्री रामचन्द जी, प रामनाथ जी ( दूध वाले), श्री रतनलाल जी
मुनीम तथा श्री सूरजभान जी 'प्रेम' के नाम उल्लेखनीय है । अन्य लोगो में अलीगढ के हकीम कल्याण राय जी, ग्राम मई के पडित मानक चन्द जी, मथुरा के प, इन्द्रचन्द जी, ग्राम बहराइच के प. सुमेर चन्द जी, आगरा के श्री नेमीचन्द जी बरवासिया, अलीगढ के वैद्य रामलाल जी, फिरोजाबाद के गगाप्रसाद जी
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पल्लीवाल जैन जाति का इतिहास
जन तथा कचौड़ाघाट के पं० झुन्नीलाल जी मुख्य है। ___ श्री बाबुलाल जी (मनेपुरा, जिला प्रागरा) ने लगभग पच्चीस वर्ष पूर्व ब्रह्मचारी दीक्षा ग्रहण कर ली थी। वे वर्षों तक ब्रह्मचारी स्वरूपानन्द जी के नाम से उदासीन आश्रम इन्दौर मे रहे। आजकल आगरा मे रह रहे हैं।
नागपुर क्षेत्र के श्री विद्याधर जी उमाठे का नाम विशेष उल्लेखनीय है । आप स्वावलम्बी कॉलेज ऑफ ऐड्यूकेशन, वर्धा के प्राचार्य है। आपने कई शैक्षिक पुस्तके लिखी है। आप सामाजिक एवं धार्मिक कार्यो मे विशेष रुचि लेते है। आपने 'अनेकान्त प्रकाशन' नामक संस्था की स्थापना की, जिसके अन्तर्गत कई धार्मिक/आध्यात्मिक ग्रन्थो का प्रकाशन हया है।
राजनैतिक क्षेत्र मे भी कई पल्लीवाल बन्धु बहुत सक्रिय रहे हैं । वर्तमान मे सासद श्री जे० के० जैन का नाम विशेष उल्लेखनीय है। कई वैज्ञानिक भी इस जाति को सुशोभित कर चुके है । स्व० डॉ० पदमचन्द जैन, (पुत्र श्री दौलतराम जी, रुनकता (आगरा) निवासी 'सैन्ट्रल ड्रग रिसर्च इन्स्टीट्यूट,' लखनऊ के एक सुविख्यात वैज्ञानिक थे।
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षष्टम-अध्याय
भारत के स्वतन्त्रता आन्दोलन में
पल्लीवाल जाति का योगदान
पल्लीवाल जन जाति जनसंख्या की दृष्टि से एक छोटी जाति है, लेकिन भारत के स्वतन्त्रता आन्दोलनो मे यह सहभागी रही है।34 इन आन्दोलनो मे पल्लीवाल जाति के सैकडो स्त्री-पुरुष तथा बच्चो ने सक्रिय भाग लिया। बहुत से लोगो को विभिन्न आन्दोलनो मे भाग लेने के कारण कई बार जेल भी जाना पड़ा। इन आन्दोलनकारियो मे से कुछ का ही विवरण प्राप्त हो सका है, जो निम्न प्रकार है
श्री रघुवर दयाल जी पुत्र श्री रामदयाल जी जैन का जन्म दिनाक 28-10-1889 को मउ (इन्दौर) में हुआ था। इन्होने सन् 1911 में MA मे इन्दोर से व LLB इलाहाबाद से 1913 मे कर लिया था। माप उसके बाद कुछ समय कनेडियन मिशन कॉलेज मे लेक्चरार रहे। और फिर श्री अर्जुनलाल सेठी के स्वतन्त्रता संग्राम मे गिरफ्तार हो जाने के बाद माप त्रिलोकचन्द्र जैन हाई स्कूल इन्दौर के हैड मास्टर हो गये उसके बाद आप उत्तरी व पच्छिमी रेल्वे मे प्रोफिस हो गये । और लाहोर चले गये । जहाँ एक अग्रेज प्रोफिस के किसी भारतीय से यह कहने पर कि
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पल्लीवाल जैन जाति का इतिहास
Your India Blady उसका पोट दिया । आप सन् 1936 मे Pereonal officer N W Rly केपद से सेवा मुक्त कर दिये गये थे। उनके स्वयम् कहने के अनुसार आप महात्मा गाधी जी के साथ प्रसिद्ध डडी मार्च मे भी गये थे। स्वतन्त्रता के आन्दोलन में एक बार जेल गये ।
आपकी जैन दर्शन मे शुरु से ही रुची थी । सन् 1913 में आपने जैन धर्म पर सरस्वती मे लेख दिया था। बचपन में ही आपने चमडे का प्रयोग जीवन भर के लिये छोड दिया था । आप काफी समय तक अखिल भारतीय दिगम्बर परिषद के महा मत्री रहे। आपने करीब एक लाख रुपये का रघबर दयाल रामदयाल जैन चैरेट बिल ट्रष्ट की स्थापना कर जिसके द्वारा बहुत से जैन धर्मावलम्बियो को दिक्षा दान में सहयोग दिया व अन्य धार्मिक कार्यों में पैसे का सद उपयोग किया। एक बार किसी दुकानदार ने आपको केशर चमडे का बुरादा मिला हुआ दे दिया जिसके पश्यचाताप व आत्म शुद्धि हेतु 3 रोज का अन्सन किया।
आप महात्मा गाधी जी के काफी सम्पर्क में थे और सन् 1948 में महात्मा गाधी जी की भस्मी को लेकर कैलाश पर्वत व मान सरोवर झील ले गये थे । आपकी मृत्यु 9 जून 1969 को देहली मे हो गई। रत्न त्रियधारी पुत्र श्री रघुवर दयालजी अच्छे विद्वान थे। जिन्होंने मन्त विनोबा जी के सम्पर्क मे रह कर भूदान मे कार्य किया वे विनोबा जी के आखरी समय तक उनके व्यक्तिगत सचिव रहे। श्री महावीर प्रसाद जैन स्वतन्त्रता सेनानी
श्री महावीर प्रसाद जैन का जन्म 10 जुलाई सन् 1922 को प्राम गविन्दगढ राज्य अलवर मे हुमा था । आपके पिता का नाम
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स्वतन्त्रता मान्दोलन में पल्लीवाल जाति का योगदान
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श्री कातिचन्दजी था जो पटवारी थे। 1933 में उनका स्थानान्तरण अलवर हो गया, अत तभी से आप भी अलवर में ही रहने लगे व प्रापका विद्यार्थी जीवन यही निकला । 1938 से क्रातिकारी गति विधियो मे देशी राज्य व ब्रिटिश राज्य के विरुद्ध भूमिगत रह कर कार्य शुरू किया । कुछ नोजवानो को सगठित कर अरावलो को श्रृखलामो मे छुप कर बम बनाना व अन्याय के विरुद्ध परचे निकालना शुरू किया। क्रातिकारी साहित्य की पुस्तकालय स्थापित कर लोगो में ऐसे साहित्य का वितरण करते रहे । गुप्त रूप से हस्तलिखित नवजागरण मासिक पत्रिका राजस्थान में निकालते । एक बार पैसे की दिक्कत आई तो अपने घर से जेवर लेकर हथियार इक्ट्ठा करने धन को देदिया । प्रथम बार सन् 1942 में भारत छोडो आन्दोलन में पहले दशहरे के दिन अपने सगठन के कार्यकर्तामो के साथ तार काटे । बाद में दिवाली के दिन शहर के पोस्ट आफिसो व तमाम लेटर बक्सो में आग लगाई व दिवाली की दोज (11-11-1942) को प्रथम बार आप गिरफ्तार हुए व आपके विरुद्ध षडयन्त्र के व आगजनी (120 to 435' PC) के अन्दर मुकदमे में चालान हुआ व फलस्वरूप 2 साल 6 माह की सख्त सजा दी गई। वहाँ से मुक्त होने के बाद आप विद्यार्थी संगठन मे पूर्ण रूप से लग गये । प्रत सन् 1944 मे आप अलवर राज्य विद्यार्थी काग्रेस के अध्यक्ष व 1945 मे राजपूताना के विद्यार्थी को सगठित करने के फलस्वरुप राजपूताना विद्यार्थी काग्रेस के अध्यक्ष चुने गये । सन् 1946 मे अलवर राज्य मे ‘गैर जुम्मेदार मिनिस्टरो की छोडो" अन्दोलन हुआ, उसमे भी आप सर्व प्रथम व्यक्ति थे, जो जेल गये ।
1948 मे भारत आजाद होने के बाद मापने पुलिस में उपनिरिक्षक के पद पर कार्य किया । उसमे बहुत मेहनत व ईमानदारी से कार्य करने के फलस्वरूप प्रापने बहुत अच्छी
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पल्लीवाल जैन जाति का इतिहास
ख्याति पाई व सन् 1974 मे आपने 319K, 300 ग्राम नाजायज अफीम पकड कर सारे विश्व का रिकार्ड तोडा जो रिकार्ड प्राज तक कायम है। 1981 मे राज्य सेवा से मुक्त होकर आप आजकल सामाजिक सेवा, धार्मिक कार्यों व प्राध्यात्मिक उन्नति मे लगे है । श्री भागचन्द्र जैन स्वतन्त्रता सेनानी
आप ग्राम मलावकी तहसील लक्ष्मणगढ (अलवर) के रहने वाले थे । अलवर मे विद्यार्थी जीवन मे ही महाबीर प्रसाद जी के सम्पर्क में आने के बाद क्रान्तिकारी गतिविधियों में भाग लेना शुरू किया । सन् 1942 मे स्वतन्त्रता आन्दोलन ' भारत छोडो' में रेल के तार काटे व पोस्ट प्रॉफिस मे आग लगाई जिसके फलस्वरूप षडयन्त्र केस मे मुलजिम रहे । किन्तु पुलिस इनको गिरफ्तार नही कर सकी और ये भूमिगत रह कर कार्य करते रहे । भारत स्वतन्त्र होने के बाद राजस्थान विधान सभा काग्रेस पार्टी के काफी समय तक सचिव रहे। बाद में आपने अलवर मे ही वकालत शुरू कर दी । कुछ वर्ष पूर्व ग्रापका स्वर्गवास हो गया ।
श्रीमति कमला जन-स्वतन्त्रता सेनानी
श्रीमति कमला पुत्रो किशोरीलाल जैन मलावली ग्राम तहसील लक्ष्मणगढ (अलवर) की रहने वाली थी । आपके पति का छोटी आयु में ही देहान्त हो गया था । उसके बाद देश की सेवा में कार्य किया । सन् 1946 मे अलवर राज्य प्रजामंडल के प्रान्दोलन " गैर जिम्मेदार मिनिस्टरो कुर्सी छोडो" मे आपको भी अन्य महिलाओ के साथ पुलिस ने पकड कर जगलो मे छोड दिया । स्वतन्त्र भारत में आपने राज्य सेवा की और अन्त मे आप विकास अधिकारी के पद से राज्य सेवा से मुक्त हुई । राज्य सरकार ने आपको भी स्वतन्त्रता सैनानी घोषित किया है । श्री पन्नालाल जैन
आपका बचपन ब्यावर जिला अजमेर में व्यतीत हुआ ।
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स्वतन्त्रता आन्दोलन में पल्लीवाल जाति का योगदान
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आपने अलवर में आकर व्यापार किया व प्रजा मंडल की गतिविधियो में भाग लिया । आप भी सन् 1946 में गैर जुम्मेदार मिनिस्टरो कुर्सी छोडो' आन्दोलन मे अलवर में जेल गये थे। जिला-पागरा बाबू उत्तम चन्द वकील
आप आगरा के निकट बरारा नामक ग्राम के रहने वाले थे। 1936 से आप राष्ट्रीय क्षेत्र में अधिक प्रकाश मे माये और जिला काग्रेस कमेटी के सदस्य और मडल काग्रेस कमेटी के पदाधिकारी बराबर रहे । आपन अपने किसानो को सगठित किया । सन् 1940 के आन्दोलन मे आप नजरबन्द कर लिए गये और लगभग एक साल जेल मे रहना पडा। सन् 1942 के आन्दोलन मे आप 9 अगस्त को ही गिरफ्तार कर लिए गये और मई 1944 को छोडे गये । कुछ समय पूर्व प्रापका स्वर्गवास हो गया। बाबू नेमीचन्द जैन
आप जोतराज वसैया (आगरा) के रहने वाले थे। आप सन् 1930 से राष्ट्रीय क्षेत्र में कार्य करते रहे। इस आन्दोलन मे एक साल की सजा हुई थी। आप मडल काग्रेस कमेटी के प्रमुख कार्यकर्ता रहे। सन् 1940 मे आप नजरबन्द कर लिए गये । सन् 1942 मे आप पर यह जुर्म लगाया गया कि कागारोल का डाक बगला जलाया गया था तथा पुन नजरबन्द कर लिए गये। श्रो पीतम चन्द जन -
आप रायभा ग्राम के रहने वाले थे। पापको टलीफोन के तार काटने के सिलसिले में गिरफ्तार कर लिया और कई माह तक तगरवन्द रखा गया । श्री श्यामलाल जैन
आप भी रायभा के रहने वाले थे तथा आप भी श्री पीतम
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पल्लीवाल जैन जाति का इतिहास चन्द जी के साथ उसो अभियोग मे गिरफ्तार किये गये थे। आपको जेल में लकवा मार जाने के कारण बहुत कष्ट हुआ था। श्री बाबूलाल जैन
आप मनेपुरा गांव के रहने वाले हैं, बाद में प्रागरा आ गये। आप अपने मडल काग्रेस कमेटी के मन्त्री थे, अत 9 अगस्त 1942 के आन्दोलन मे नजरबन्द कर लिये गये और दो माम बाद छोडे गये। श्री गुलजारी लाल जैन--
आप फिरोजाबाद के रहने वाले थे नथा नगर के प्रतिष्ठित व्यक्तियो में से थे। आपको पुलिस ने सन् 1940 के आन्दोलन मे नजरबन्द कर लिया था। आप फिरोजाबाद म्यूनिसिपल बोर्ड के चेयरमेन भी रहे। श्री पंचसिंह
आप एत्मादपुर के निकट 'रत्ना के बास' नामक ग्राम के रहने वाले थे। आपने भो स्वतन्त्रता संग्राम मे सक्रिय हिम्सा लिया तथा जेल गये । आपके दोनो पुत्र तेजसिह तथा उत्तमचन्द ने आन्दोलनकारियो को सहयोग दिया। श्री उम्मेवीलाल जी
आप सादन-खेडा के रहने वाले थे। आपने देश के स्वतन्त्रता संग्राम में सक्रिय हिस्सा लिया। आप सुधारवादी प्रवृत्ति के व्यक्ति थे तथा आर्य समाज के स्वामी श्रद्धानन्ट जी के काफी निकट थे। स्वामी श्रद्धानन्द जी आपके घर भी रूके थे। मा० रामसिह जी
आप मगूरा नामक ग्राम के रहने वाले थे तमा बादमे आगरा आकर रहने लगे। आपने स्वतन्त्रता संग्राम में सक्रिय हिस्सा लिया, लेकिन जेल कभी नही गये। कुछ समय आप आगरा शहर काग्रेस कमेटी के अध्यक्ष भी रहे ।
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स्वतन्त्रता आन्दोलन में पल्लीबाल जाति का योगदान
बाबू हुकुम चन्द जैन
आप फिरोजाबाद के रहने वाले हैं । आपने सन् 1942 आन्दोलन में बहुत काम किया, लेकिन जेल नही गये । बाबू गोर्धनदास जैन
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आप सन् 1930 के आन्दोलन में जैन सेवा मण्डल के उपमन्त्री थे । मण्डल ने यह निश्चय किया कि मन्दिरो में खादी के वस्त्र पहनकर लोग दर्शन करने जावे तथा खादी के वस्त्र ही वहाँ स्तेमाल हो । आपने इस कार्य के लिए सत्याग्रह तक भी किया । सन् 1940 के प्रान्दोलन मे भी आपने काफी भाग लिया था । सन् 1942 के आन्दोलन में पुलिस ने आपको इस अभियोग में कि आप गुप्त रीति से प्रान्दोलन का सचालन करते है तथा 'आजाद हिन्दुस्तान' का प्रकाशन और सपादन करते हैं, गिरफ्तार कर लिया । डेढ साल तक नजरबन्द रखा गया । प्राप वार्ड तथा जिला काग्रेस कमेटी के सदस्य एव पदाधिकारी रहे हैं । बाबू किशनलाल -
सन् 1930 के आन्दोलन मे आपको कारावास हुआ । हार्डी बम केस के आप भी अभियुक्त रहे । आप सन् 1940 के आन्दोलन मे नजरबन्द किये गये, फिर सन् 1942 मे प्रापको 9 अगस्त से पूर्व ही क्रान्तिकारी होने के कारण पुलिस ने नजरबन्द कर दिया था। लगभग 2 साल बाद श्राप को छोडा ।
बाबू चिम्मनलाल -'
आपको सन् 1942 के प्रान्दोलन में ध्वंसात्मक कार्य करने के अपराध में गिरफ्तार किया गया था। जब केस सावित नही हो सका तो नजरबन्द कर दिया गया आपको सरकार ने क्रान्तिकारी ना था। प्राप वार्ड काग्रेस कमेटी के उत्साही
कार्यकर्ता
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पल्लीवाल जन जाति का इतिहास
श्री श्यामलाल सत्यार्थी
आपको सन् 1930 के आन्दोलन में 6 मास को कडी सजा हुई थी। आपकी पत्नी तथा पुत्र इसी बीच स्वर्ग सिधार गये थे। श्रीमती शरबती देवी___आप स्वर्गीय बाबू सांवलदास जी की सुपुत्री थी । सन् 1930 के आदोलन मे आपको कारावास मे कठोर सजा भुगतनी पड़ी थी, बाद मे प्राजिका हो गई। बाबू प्रताप चन्द जी
आपने सन् 1930 मे काग्रेस की आर्थिक सहायता के लिए बहुत उद्यम किया था। आन्दोलनकारियो के मित्र होने के कारण
आप सन् 1942 में मरकारी नौकरी से मुत्तिल हो गये थे । प० कृष्ण चद पालीवाल, सेठ अचल सिंह, महेन्द्र जी आदि के निकट सम्पर्क में रहे। समाचार सग्रह भी करते थे। जैन समाज में स्वदेशी आन्दोलन चलाया। बाबू फूलचन्द बरवासिया
श्री फूलचन्द बजाज, श्री ग्यारेलाल बजाज आदि के साथ सन् 1930 के ही आदोलन से राष्ट्रीय कार्य किया। खादी प्रचार के कार्य मे तथा दिगम्बर जैन मन्दिरो मे खादी के प्रचार के लिए काफी उद्योग किया। सन् 1942 के आन्दोलन में भी काफी सहयोग दिया। लाला करोडीमल-- ___आप सन् 1930 से काग्रेस के मुख्य कार्यकर्ता रहे। उम आन्दोलन के प्रचार के लिए सत्याग्रह किया तथा सन् 1942 के आन्दोलन में भी बहुत काम किया। सरकार के गुप्तचर विभाग ने आपकी भी देखरेख रखी थी। जिला-मथुरा श्री गोकुलचन्द जी--
आप मेघपुर नामक ग्राम के रहने वाले थे। सन् 1942 के
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स्वतन्त्रता प्रान्दोलन में पल्लीवाल जाति का योगदान
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आन्दोलन मे आपने सक्रिय भाग लिया, जिसके फलस्वरूप एक साल की कडी सजा हुई। आप मथुरा के ब्लॉक प्रमुख भी रहे। श्री जुगलकिशोर जी
आप 'सजा के नगला' नामक ग्राम के रहने वाले थे। सन् 1942 के आन्दोलन में भाग लेने के कारण आपको जेल भेज दिया गया। आजकल गौरक्षा कार्यक्रमो मे भाग ले रहे है। श्री गंदालाल जी
आप 'जोधपुर' नामक ग्राम के रहने वाले थे। सन् 1942 के आन्दोलन मे आपको भी जेल हो गई थी। श्री बाबूलाल जी
आप ‘सजा के नगला' के निकट बरौली नामक ग्राम के रहने वाले थे। प्राप स्वतन्त्रता आन्दोलनो के सक्रिय कार्यकर्ता थे, लेकिन जेल नही गये। जिला-भरतपुर श्री प्रभूदयाल जी
सन् 1942 के आन्दोलन में भाग लेने के कारण आपको भो जेल की सजा भुगतनी पड़ी। जिला-अलीगढ श्री जैनेन्द्र कुमार जी___ आप अलीगढ के निकट कौडिया गज नामक कस्बे के रहने वाले थे। जिस समय आप काशी हिन्दू विश्वविद्यालय मे पढ रहे थे, उस समय असहयोग आन्दोलन का जोर था । अापने भी इन आन्दोलनो मे सक्रिय भाग लिया तथा जेल गये।।
उक्त स्वतन्त्रता सेनानियो के अतिरिक्त कुछ और व्यक्ति भी जेल गये, लेकिन उनका विवरण उपलब्ध न होने के कारण यहाँ उनका उत्लेख नहीं किया जा सका है । कुछ अन्य लोगो ने
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पल्लीवाल जैन जाति का इतिहास
भी अप्रत्यक्ष रूप से आन्दोलनकारियो को सहयोग दिया तथा छटपुट घटनाओ में भाग लिया, उनमे से श्री दौलत राम पटवारी (रुनकता, आगरा), श्री (डा.) किशनचन्द जी (आगरा), श्री शिवचरन जी (रायभा, आगरा), श्री कजोडीमल (खेडली, भरतपुर), श्री (मु शी) रामजीलाल जी (आगरा) आदि हैं।
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प्रवशिष्ट
अलवर राज्य के जैन दीवान
अलवर राज्य की स्थापना एवं उसके विकास तथा सचालन मे दिगम्बर जैन धर्मानुयायी पल्लीवाल जाति में उत्पन्न दीवानो का योगदान उल्लेखनीय है । ये दीवान महाराजा साहब के अत्यन्त विश्वासपात्र थे तथा राज्य सचालन में दक्ष थे। अलवर राज्य के सस्थापक महाराजा प्रतापसिह (1740 से 1771) जी ने जब माचेडी से अलवर को अपनी राजधानी बनाया तो उनके साथ दीवान रामसेवक जी भी अलवर आये तथा बहुत समय तक शासन को सुव्यवस्थित करने में अपना योग दिया। ये अलवर राज्य के प्रथम दीवान थे।
महाराजा प्रतापसिह जी के पश्चात् महाराजा बख्तावरसिह जी (179 to 1815) से अलवर के शासक बने । इनके दीवान थे रामलाल जी जो रामसेवक जी के सुपुत्र थे। ___इन्होने भी अपनी निष्ठा एव शासन दक्षता में महाराजा का मन जीत लिया और जब तक जीवित रहे दीवान पद को सुशोभित करते रहे।
महाराजा बनेसिह जी (1815 से 1857) के समय मे पहिले सालगराम जी और फिर बालमुकुन्द श्री दीवान हुये तथा अपनी शासनदक्षता के कारण राज्य में अत्यधिक लोकप्रिय हुये। ये चारो ही दीवान जैन धर्मानुयायी थे तथा पल्लीवाल जाति अलवर राज्य मे पल्लीवाल जाति के विशाल सख्या होने का प्रमुख कारण भी इन दीवानो को अपने जातीय भाइयो को सरक्षण प्रदान करना हो सकता है । अलवर नगर में माज भी इन दीवानो की बडी बडी हवेलियाँ हैं जो अपने पूर्व वैभव की कहानी को जैसे सबको सुनाती रहती हैं। पूरा चौक ही दीवानो के चौक के नाम से जाना जाता है।
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परिशिष्ट
'पल्लीवाल शब्द : एक दृष्टि'
-राजवंद्य श्री जिनेश्वदास मन (यह चिट्ठी सतना (रीवा) से राजवैद्य श्री जिनेस्वदास जैन ने दिनाक 15 अगस्त सन् 1923 को लिखी थी। इसकी प्रति मुझे
आगरा के वयोवृद्ध श्री श्यामलाल जी वारौसिया ने उपलब्ध कराई थी जो कि श्री नेमो वन्द जी बरवालिया से मिलो एक डायरी में नोट की हुई थी। उसे यहाँ प्रस्तुत किया रहा है -लेखक) ___ पालीवाल या पल्लीवाल शब्द इस अपनी जाति का होना चाहिये अस्तु इस पर मेरा जो विचार है उसे मै लिखता हूँ। प्रथम तो पल्लीवाल मे जो पल्ली शब्द है वह कोषो मे 5 अर्थ प्रगट करता है (1) दिशा का साकेतिक हे अर्थात तरफ के है उस तरफ, इस तरफ, (2) संस्कृत में छोटे-छोटे ग्रामो को पल्ली कहते हैं, (3) पल्ली नाम सफेद चद्दर का भी है, (4) पल्ली छिपकली एक जाति का कीडा मशहूर है, (5) पल्ली एक छुप जाति की औषधि है।
यह तो हुमा शब्द का अर्थ । अब जाति नाम के अन्तर्गत जो यह शब्द पल्ली है यहाँ पर यह एक मनुष्य समुदाय के ग्रोह को इस एक पल्लीवाल शब्द के कहने से ग्रोह का एक श्रेणी ज्ञान होता है ।
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पल्लीवाल शब्द एक दृष्टि इसलिये यहाँ एक श्रेणी वाचक अर्थ पैदा होता है। प्रब श्रेणीबद्ध कुछ मनुष्य समुदाय को क्यो कहा गया कि देवदत्त, चन्द्र किशोर, मदनमोहनादि प्रभृति एक लिंग भागी होने पर भी तीनो व्यक्तियो की श्रेणी निर्दिष्ट नही समझी जायेगी क्योकि इन तीनो में तीन श्रेणी (जाति) के हैं । तब आवश्यकता हुई कि इन व्यक्तियो के नाम के आगे जो जो उनकी जाति (श्रेणी) हो वो वो शब्द लिखे या पुकारे जावे । यहाँ पर पाख्यात की युक्ति की आवश्यकता है। आख्यात उसे कहते हैं जिसके एक बार के उपदेश से जिसका सब जगह ग्रहण हो वह जाति समझी जायेगी। अस्तु जातियाँ प्राय देश, ग्राम, नगर, स्थान व्यापार ऋषि आदि के नाम पर ही उत्पन्न होती है। और वश प्राय राज चिन्हो पर होते है। इसी सिद्धान्तानुसार हमारी पल्लीवाल जाति की एक देश के अन्तर्गत साकेतिक दिशा के अर्थ को लेते हुये रचना हुई है। अब जो हमारे लोगो मे से जो लोग यह कहते है कि यह पल्लीवाल' शब्द न होकर पालीवाल' होना चाहिये, कारण कि पालीवाल ब्राह्मण जिनका कि निकास बीकानेर के एक पाली स्थान से है, इसलिये हमको भी अपने ग्रोह को पालीवाल के नाम से ही पुकारा जाना चाहिये । यहाँ पर हमारे भाई भूल मे है कारण कि उन्होने ब्राह्मण जाति के इतिहास को नही देखा है। यह पालीवाल ब्राह्मण वास्तव मे सनाढ्य ब्राह्मण है । यहाँ के सनाढ्यो से इनका व्यवहार नहीं है क्योकि यह लोग (पालीवाल ब्राह्मण) पहले यहा नही रहते थे। ये लोग मुसलमान बादशाहो के समय से जबकि एक मुसलमान बादशाह ने बीकानेर के अन्तर्गत पाली नगर पर चढाई को और उस को कुछ काल के बाद जीत लिया। उस समय पर लूट-मार आदि के कारणो से वहाँ के सनाढ्य ब्राह्मण भाग का इस देश की तरफ पाकर के अनेक नगरो मे बसे वे सब उस स्थान (पाली) के होने से इधर के देशो मे पालीवाल ब्राह्मण कहलाने लगे और धीरे-धीरे प्रब एक उन लोगो की जाति बन गई, देखो
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पल्लीवाल जैन जाति का इतिहास
'पालीवाल ब्राह्मण इतिहास' । अब हमको अपने लिये यह भी देखना प्रावश्यक है कि बीकानेर के पाली नगर मे प्रथम से और अब तक जैन का कोई चिन्ह या एक पुरुष भी नही रहा है तो कैसे मान लिया जावे कि हमारी जाति भी पालीवाल शब्द से ही विषित करी जावे। यदि दूसरे पाप कहै कि उन ब्राह्मणो मे से ही कुछ लोगो ने जैन धर्म धारण कर लिया होगा. वह जैन पालीवाल कहलाने लगे। इसके लिये अभी तक कोई इतिहास नही मिला है । दूसरे सनातन से जैन धर्मी बिना किसी विशेष कारण वा किसी चमत्कार के जैनी होना नही हो सकता। इतिहास भी इसको पुष्ट करते हैं। और वर्तमान में अपनी जहाँ-जहाँ पर है वहाँ के हर एक व्यक्ति से पल्लीवाल शब्द ही सुना जाता है। सबसे प्रबल प्रमाण पल्लीवाल शब्द ही होने का एक यह भी है कि हमारे पूज्य श्री 1008 श्री कुन्दकुन्दाचार्य की जीवनी व गुरूवावली मे पल्लीवाल शब्द का ही प्रयोग किया गया है । यह कुन्दकुन्दाचार्य वि स 5 मे अपनी 49 वर्ष की अवस्था मे प्राचार्य पद पर विराजमान हुये थे, जिसको ग्राज 1983 वर्ष होते है और पल्लीवाल ब्राह्मणो को 1025-1050 वर्ष होते है । निकास व प्रख्यात होते हुये, तो ऐसी हालत मे कैसे माना जा सकता है कि हम लोग किस प्रमाण से पल्ली शब्द को प्रथक करके पालीवाल लिख सकते हैं। इसके अतिरिक्त ५० दौलतराम जी व कविरत्न प० मनरगलाल जी आदि जो वि स. 1837 से वि० स. 1891 तक मे हुये है जिनमे से मनरगलाल जी के स्वहस्त लिखित 'चौबीसी पाठ' जो कि हमारे पास है उसमे भी पल्लीवाल शब्द ही लिखा है । और पल्लीवाल जैन को कई जातियो मे गोत्र के नाम से पुकारा जाता है और साखा के नाम से भी है । जैसे वि० स० 1164 मे सिंघवी गोत्र की स्थापना के अन्तरगत एक
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'पल्लीवाल शब्द : 'एक दृष्टि'
149 साखा है । उस सिंघवी गोत्र के इतिहास में पल्लोवाल शब्द ही प्राया है।
अस्तु उपरोक्त वाद- विवाद पर और भी गहरी दृष्टि डालने से ज्ञात होता है कि पल्लीवाल शब्द ही है, जब कि हमको माज करीब 2000 वर्षों के इतिहास से अपनी जैन जातीय अन्तरगत पल्लीवाल जाति के लिये 'पल्ली' शब्द ही मिलता है । तब आज हम को किस न्याय से किस कारण, किस इतिहास, किस सिध्दान्त से इस पल्लीवाल शब्द को बदलकर पाली शब्द मानना चाहिये । मेरी समझ मे तो आता नही, जिसकी समझ मे आवे वह महाशय इसका प्रमाण सहित प्रकाश करे । पूर्ण निर्णय करके तब बदलना होगा। यो तो आजकल कुछ हर बात में धीगाधीगी होती ही है । (2) पालोवाल ब्राह्मण (6)
ईसा की बारहवी शताब्दी मे मारवाड के 'पालो' नगर मे सनाढ्य ब्राह्मणो को एक बडी बस्ती थी । राठौड वश की स्थापना से पूर्व मडोर के प्रतिहार शासको ने उन्हे पालो और उसके आस-पास के क्षेत्र का अधिकार सौ पा था । पाली में रहने के कारण ये ब्राह्मण पालीवाल नाम से प्रसिध्द हो गये । ये लोग बहुत ही सपन्न थे । सपन्नता की चरम सीमा पर पहुँचने के बावजूद वे कभी शाति पूर्ण जीवन व्यतीत नही कर पाये । असाधारण सपत्ति के कारण वे लुटेरो की आँखो मे खटकते रहे । कभी जन-जातियो ने तो कभी लुटेरो ने उन्हे लूटा । निरन्तर लूटपाट के भय से सन् 1193 मे (एक अन्य मान्यतानुसार वि स 1292 के लगभग) उन्होंने निश्चय किया कि कन्नौज के राठौड़ राजा के पोते सियाजी की मदद लेवे जो कि उस समय उनके क्षेत्र से गुजर रहा था । सिवाजी ने उनकी सुरक्षा व्यवस्था की जिम्मेदारी स्वीकार कर ली । बदले में उसकी
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पल्लीवाल जैन जाति का इतिहास
कुटिलता से बेखबर अनुग्रहीत ब्राह्मणो ने सियाजी को पाली मे निवास करने का आमन्त्रण दे दिया । पालीवाल ब्राह्मण फिर परेशानी में पड गये । होली के दिन सियाजी ने धोखे से पालीवालो के प्रमुख सदस्यों की हत्या कर मारवाड में राठौड वंश के शासन की नीव रख दी । लाचार पालीवाल, पाली पर मुसलमानो के आक्रमण तक, वही रहते रहे । प्राक्रमण के समय उन्होने युध्द मे अनुदान देने से साफ इन्कार कर दिया, फलस्वरूप राजा ने उन्हे देश निकाला दे दिया ।
अपना देश छोड़ने के बाद उनके सामने यह प्रश्न उठा कि वे कहाँ जाये । उन्होने तय किया कि अब वे ऐसा स्थल ढढेंगे जो भौगोलिक दृष्टि मे सुरक्षित हो और जहाँ ग्राक्रमण का खतरा न हो । यही सोचकर उन्होने जैसलमेर में रहने का निर्णय लिया । चूकि पालीवाल कुशल व्यापारी थे, इसलिए उन्हे जैसलमेर जैसे प्रदेश को भी सपन्न बनाने मे सफलता मिली। कर्नल टॉड ने उनकी इस व्यापारिक कुशलता का उल्लेख करते हुये लिखा है कि उस समय समस्त प्रान्तरिक व्यापार उनके ही हाथ मे था और उन्ही के पैसे से वहा के व्यापारी अन्य प्रान्तो के साथ व्यापार करते थे । वे किसान को उसकी फसल गिरवी रख कर आर्थिक मदद देते थे । प्रदेश की सरी ऊन और घी खरीदकर दूसरे प्रातो मे बेचते थे । मरु प्रदेश मे खडीन मे पानी एकत्रित कर सिचाई व्यवस्था उन्होने ही की थी। पेदावार मे इतनी रुचि वे इसलिये और भी लेते थे क्योकि वे शासन को बतोर कर के दी जाने वाली पैदावार भी खरीदते थे। कुल मिलाकर पालीवाल जैसलमेर आकर प्रसन्न थे
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किन्तु भाग्य न फिर उनका साथ छोड दिया । स्वरूपसिह मेहता के दीवान पद पर आसीन होते ही उनके परेशानी के दिन प्रारंभ हो गये । दीवान स्वरूपसिंह के निरकुश व्यवहार से प्रजा हताश होने लगी । स्थिति तब और भी बिगड़ गयी जबकि स्वरूपसिंह की मृत्यु के बाद उसका बेटा सालिम सिंह
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'पल्लीवाल शब्द • एक दृष्टि'
151 दीवान बना । सालिम सिंह का समय जैसलमेर के इतिहास का सबसे बुरा समय माना जाता है । उसके अत्याचारो के कारण प्राज भी जैसलमेर निवासी उसे जालिमसिंह कहते हैं । जैसलमेर के किले के पूर्वी ढलान पर सालिम सिंह की भव्य हवेली उसके अत्याचारो को प्रतीक मानी जाती है । एडम्स ने अपनी पुस्तक 'द वेस्टर्न राजपूताना स्टेट्स' मे इस हवेलो के विषय मे लिखा है । 'बदनाम सालिम सिह के घर की नक्काशी भव्य है जिसमे कि लगभग एक सौ साल पहले अपने अत्याचारो से इस देश को उजाड दिया था।'' कर्नल टॉड ने लिखा है कि सालिम सिह ने न जाने कितने लोगो की हत्या की।
कहा जाता है कि उसने समृदिशाली परिवारो को नष्ट कर बीस माल में लगभग दो करोड रुपया एकत्र किया। जैसा कि स्पष्ट है वे समृध्दिशाली परिवार पालीवाल ब्राह्मणो के ही थे। जिस तरह का व्यवहार सालिम सिंह ने पालीवालो के साथ किया उससे उसको ईर्ष्या साफ झलकती है। येन केन प्रकारेण उनको सपत्ति हथियाना उसका प्रमुख लक्ष बन गया था । उसने न केवल मन चाहे कर थोपे बल्कि इन गॉवो को जब जी चाहा तब लूटा । गमिह को राजगद्दी पर बैठाने का सफल षड्यन्त्र रचने के बाद उसके अत्याचारो की सीमा न रही । गजसिह के सत्तारूढ होने के दो साल मे उसने दड नामक कर के माध्यम से चौदह लाख रुपये वसूले । जव पालीवालो ने इस कर का विरोध किया तब उसने उनकी जि दगी हराम कर दी । हर रोज लूटमार और लडकियो के साथ दुर्व्यवहार का सिलसिला शुरू हो गया। बात इतनी बढ़ गयी कि ब्रिटिश एजेंट ने 17 दिसबर सन् 1821 को अपनी सरकार को यह लिखा कि जैसलमेर निवासियो को यह लग रहा है कि ब्रिटिश सरकार के साथ की गई सन् 1818 की सधि दीवान को
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पाल्लीवाल जैन जाति का इतिहास प्रश्रय दे रही है और इसलिए उन्हे उसके दुर्व्यवहार को झेलना होगा। किन्तु ब्रिटिश सरकार ने हस्तक्षेप करना उचित नही समझा।
अन्त मे हार कर पालीवालो ने अपने आत्म सम्मान की रक्षा करने के लिए जैसलमेर छोडना ही उचित समझा। 84 गाँवो के पाच हजार परिवारो ने तह तय किया कि वे एक रात एक निश्चित पहर मे अपने गाँव छोड देगे । 'हमारे बाद मे गांव खडहर बन जायेगे और इसमे कोई नही बस पायेगा'। इन दर्द भरे शब्दो के साथ उन्होने अपने गांव छोड दिये । इसके बाद वे लोग कहाँ गये यह तो पता नहीं लेकिन आज वे ब्राह्मण पालीवाल नाम से पूरे राजस्थान ने बिखरे हुए है।
पालीवाल गाँवो के खडहरो से यह सिद्ध होता है कि उन्हे अच्छे गाँव बसाने का ज्ञान था । जब जसलमेर के ग्राम गाँवो मे छप्पर पडे झोपडो मे लोग रहते थे, तब यहाँ उनके लिए पत्थर के घर बनवाये गये थे। मुख्य सडक गाँव के बीच से निकाली गयी थी। ज्यादातर घरो में जानवरो के लिए पानी पीने के स्थान की अलग से व्यवस्था की गयी थी। गाँव मे ही थोडी दूरी पर चरागाह बनाया गया था। गाँव के बीच मे भव्य और ऊँचा उठा हुमा मन्दिर था। हर गाव का अपना श्मशान था, जिसमे छोटेछोटे स्मारक बनाने का रिवाज था । इन स्मारको से यह भी पता चलता है कि पालीवाल ब्राह्मणो मे भी सती प्रथा प्रचलित थी।
जैसलमेर मे स्थित पालीवालो के 84 गाँवो में से कुलधरा सबसे आकर्षक है । सुप्रसिद्ध फिल्म-निर्माता मृणाल सेन न अपनी बहुचर्चित फिल्म 'जनेसिस' की पूरी शूटिग यहा पर ही की कुछ लोगो का मत ह कि कुलधरा बनियो की वस्ती थी । लेकिन ऐसा मानना गलत है । पालीवाल ब्राह्मण व्यापार मे इतने अधिक दक्ष थे कि शायद इसी कारण बहुत से लोग उन्हे बनिया समझ बैठे । वस्तुत. वहाँ के निवासी पालीवाल ब्राह्मण ही थे।
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पल्लीवाल शब्द एक दृष्टि
संदर्भ सूची
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प्राम-मगरा (प्रागरा)। माता का नाम-श्रीमती अगूरी देवी जेन । शिक्षा-एम एस सी (भौतिक विज्ञान), सेन्ट जोन्स कॉलेज,मागरा
1971, पी एच डी (भौतिक विज्ञान), प्रागरा विश्व
विद्यालय, 1983 । वर्तमान कार्य क्षेत्र-तेल एव प्राकृतिक गैस आयोग, अकलेश्वर
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पलवर)।
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