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________________ 96 पल्लीवाल जैन जाति का इतिहास राज सम्मेद शिखर जी की यात्रा की। उसकी स्मृति में एक पद भी बनाया था। भगवान पार्श्वनाथ की वन्दना कर हृदय में विचार किया कि हे भगवान ! कब यह अवसर पाऊँ, जिस दिन मैं स्वस्वरूप का अनुभव कर पूर्ण स्वतन्त्रता प्राप्त करूं।' इस तरह कविवर ने देहली मे उसके बाद .0-12 वर्ष और जीवनयापन किया। उनका जीवन बड़ा ही सीधा-सादा और आडम्बरहीन था। दुनियाँ के भोग भाव उन्हे असुन्दर प्रतीत होते थे और प्रकृति के प्रतिकूल पदार्थों के समागम होने पर भी उनमे उनकी अरुचि तो रहती ही थी, पर उसकी चर्चा करना भी उन्हे इष्ट नहीं था। एक किवदन्ती है कि एक बार मथुरा मे पडित जी अपन एक सम्बन्धी के घर रुके । रात मे उनके सोने के लिये एक अलग कमरे मे पलग बिछा दिया गया। लेकिन रातभर पडित जी को नीद नही आई और वे पलग के चारो ओर घमते रहे। उनको नीद न आने का कोई और कारण नही बल्कि पलग के गद्दे के ऊपर बिछा रेशमी चादर था। वे रातभर यह ही विचार करते रहे कि न जाने कितने कीडो को मारकर यह चादर तैयार की गई है, अत इस चादर पर मैं कैसे सो सकता हूँ। ऐसी थी उनकी विरक्ति । तथा अहिंसा के प्रति प्रेम । ___ कहते हैं कि कविवर को एक सप्ताह पहले अपने मृत्यु के समय का परिज्ञान हो गया था, उसी समय से उन्होने अपना समय और भी धर्म साधन मे बिताने का प्रयत्न किया और कुटुम्बियो के प्रति रहा-सहा मोह भी छोड़ने का प्रयास किया। सवत् 1923 या 1924 मे ठीक मध्यान्ह के पश्चात् इस नश्वर शरीर का परित्याग कर देवलोक को प्राप्त किया। उसी दिन गोम्मटमार का स्वाध्याय पूरा हुआ था। उन्होने अपने शरीर का त्याग महामन्त्र का जाप करते-करते किया था।
SR No.010432
Book TitlePallival Jain Jati ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnilkumar Jain
PublisherPallival Itihas Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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