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पत्नीवाल जाति के ऐतिहासिक प्रसम
कथा निम्न प्रकार है
संभालता था । एक
"भरत खण्ड के दक्षिण देश मे कुरुमराई नगर मे करमुण्ड नामक श्रीमान् श्रीमती के साथ रहता था। उसके यहाँ मतिवरन् नाम का एक ग्वाला लडका रहता था जो उसके ढोर दिन लडके ने देखा कि दावानल सुलगने से सारा वन खाक हो गया है, किन्तु बीच मे थोडे से झाड-हरे बच रहे हैं। तलाश करने पर पता चला कि वहाँ किसी साधु का प्राश्रम था और उसमे आगमो से भरी एक पेटी थी । उसने समझा, इन शास्त्र-ग्रन्थो की मौजदगी के कारण ही इतना भाग दावानल द्वारा भस्म होने से बच गया है। उन ग्रन्थो को वह अपने घर ले गया और उनकी पूजा करने लगा। किसी दिन एक मुनि उस व्यापारी के यहाँ आहार लेने आये । सेठ ने मुनि को आहार दिया उस लडके ने वे ग्रन्थ मुनि को दान दे दिये। मुनि महाराज ने सेठ तथा लडके दोनो को प्राशीर्वाद दिया । सेठ के पुत्र नही था। थोडे समय बाद वह ग्वाला लटका मर गया और उसी सेठ के घर पुत्र के रूप में जन्मा । बडा होने पर वही लडका कुन्दकुन्दाचार्य नामक महान् श्राचार्य हुआ ।' यह है शास्त्र दान की महिमा |
पिदठनाडु जिले के व्यापारी अपनी पत्नी
कुन्दकुन्दाचार्य ने स्वय अपने ग्रंथो मे अपना कोई परिचय नही दिया है । 'बारस अणुवेक्खा' ग्रथ के अन्त में उन्होने अपना नाम दिया है और 'बोधप्राभृत' ग्रंथ के भन्त मे वे अपने आपको 'द्वादश ग ग्रथो के ज्ञाता तथा चौदह पूर्वो का विपुल प्रसार करने वाले गमक गुरु श्रुतज्ञानी भगवान भद्रबाहु का शिष्य' प्रकट करते हैं । लेकिन कालनिर्णय के हिसाब से भद्रबाहु तथा आचार्य कुन्दकुन्द का समय अलग-अलग है, अत भद्रबाहु प्राचार्य कुन्दकुन्द के गुरु नही हो सकते। कुछ प्राचार्य पट्टावलियो ( गुर्वावली) के अनुसार प्राचार्य कुन्दकुन्द के गुरु श्री जिनचन्द्राचार्य थे ।