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पन्लोवाल जैन जाति का इतिहास
गच्छे' पद का प्रयोग हुप्रा है। इस गच्छ से सम्बन्धित यही सबसे प्राचीन लेख उपलब्ध है। अत पलकोय गच्छ को उत्पत्ति का समय विक्रम को बारहवी शताब्दो का पूर्वार्द्ध मानना उचित है।
प्राचीन लेखो मे पल्लकीय गच्छ, पालकीय गच्छ तथा पल्ली गच्छ का प्रयोग प्रचुर मात्रा मे मिलता है। शब्दो की समानता के आधार पर इम गच्छ को पल्लीवाल जाति से सम्बन्धित मान लिया गया है। लेकिन ऐसा कोई प्रमाण नही है जो पल्लकीय गच्छ का पल्लीवाल जाति से विशेष सम्बन्ध होना सिद्ध करता हो। बहुत से ऐसे लेख उपलब्ध है जिनसे सिद्ध होता है कि पल्लीवाल जाति के लोगो ने दूसरे गच्छो के मानिध्य मे शास्त्र लिखवाये तथा मूर्तियो की प्रतिष्ठाएँ करवाई । बहुत कम लेख ऐसे है जिनमे पल्लीवाल जाति तथा पल्लकोय-गच्छ का एक साथ नामोल्लेख मिलता है। इसके विपरीत पल्लीवाल जाति के अतिरिक्त अन्य जातियो के लोगो ने पल्लकोय गच्छ के प्राचार्यो से मति प्रतिष्ठाए करवाई , ऐसे कई लेख मिलते है ।
इतना ही नही, पल्लीवाल ज्ञातिय नेम इ के वशज वीरधवल तथा भीमदेव, वि म 1302 मे उज्जैन मे तपागच्छीय परम्परा मे दीक्षित हुये तथा क्रमश मुनि विद्यानन्द तथा मुनि धर्मकीति के नाम से विख्यात हुये। मुनि श्री विद्यानन्द जो बाद मे सूरि पद मे विभषित हुये तथा श्रीमद् विद्यानन्द सूरि के नाम से विख्यात हुये।
यदि पल्लीवाल जाति का पल्लकीय गच्छ से विशेष सम्बन्ध रहा होता तो वीर धवल तथा भीमदेव को तपागच्छ में दाक्षित होने के बजाय पल्लकीय गच्छ मे ही दोक्षित होना चाहिए था। लेकिन उन्होने ऐमा नही किया। इसम तो यही सिद्ध होता है कि पल्लकीय गच्छ तथा परलीवाल जाति मे कोई विशेप सम्बन्ध नही था ।
यदि हम यह माने कि पल्लकीय गच्छ के प्राचार्यो ने पाली की जनता को प्रतिबोधित किया, जिससे उन्होने जैन धर्म स्वीकार