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पल्लीवाल जैन जाति का इतिहास
'श्री नाभेय श्रिय दिश्यात् यस्याशतटयो टा. ।
भेजुर्मुखाम्बुजोपान्तभ्रान्तभृडगावलिश्रमम् ॥1॥ यह एक सुन्दर काव्य है जिसमे आवश्यकतानुसार विभिन्न अलकारो का भी प्रयोग किया गया है।
इसका सर्वप्रथम प्रकाशन 'लालभाई दलपतभाई सस्कृति विद्यामदिर, अहमदाबाद' से सन् 1959 में हुआ था जिसकी विस्तृत भूमिका गुजरात कालेज, अहमदाबाद के सीनियर लेक्चरर श्री नारायन मनीलाल कसारा ने लिखीत है। (5-2) तयागच्छीय श्रीमद् विद्यानन्दसूरि एवं श्री धर्मघोषसूरि
पल्लीवाल जातीय प्रसिद्ध श्रेोष्ठि नेमड के पुत्र राहड तथा उनके पुत्र के पुत्र जिनचन्द्र की चाहिणी नामा धर्म परायणा सुशीला स्त्री से एक कन्या तथा पाँच पुत्र हुए थे। चौथा और पाचवा पुत्र वीर धवल और भीमदेव थे। नमड का समस्त परिवार दृढ जैन धर्मी, धर्म कर्म परायण गुरु भक्त एव सस्कार पवित्र था।
नेमड के कुल मे इन दो-वीर धवल और भीमदेव ने ससार को असारता का विचार करके भव सुधारने की शुभ भावनासो के उदन से आकर्षित होकर तथागच्छीय देवभद्रसूरि, विजयचन्द्रसूरि और देवेन्द्र सूरि की प्राम्नाथ मे वि० स० 1302 मे उज्जैन नामक प्रसिद्ध एव ऐतिहासिक नगरी मे भगवती दीक्षा ग्रहण की
और श्री वीरधवल मुनि विद्यानन्द और श्री भीमदेव धर्मकीर्ति नाम से क्रयश विश्रुत हए।
दोनो भ्राताओ ने गुरू सेवा मे रहकर कठिन सयम साध कर उत्तम चारित्र प्राप्त किया एव शास्त्राभ्यास करके प्रशसनीय विद्वता प्राप्त की। विश्रानन्दसूरि ने 'विद्यानन्द' नामक व्याकरण बनाया। श्री देवेन्द्र सूरि द्वारा रचित 'नव्य कर्म' ग्रन्थो का श्री धर्मघोषसूरि (धर्म कीर्ति) के साथ रह कर सपादन किया।