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पल्लीवाल जैन जाति का इतिहास
वि स 1063 में इसने एक फुट अवगाहना की भगवान चद्रप्रभु की स्फटिक मणि की पद्मासन प्रतिमा की प्रतिष्ठा करायी । इस राजा के मत्री का नाम हारुल था जो लम्बकचुक (लमेचू) जाति का था। इसने भी वि स 1053 से 1056 तक कई प्रतिष्ठाये करायी थी। इसके द्वारा प्रतिष्ठित कतिपय प्रतिमाएं चदवार के मन्दिर मे अब भी विद्यमान है। ऐसे भी उल्लेख प्राप्त हुये हैं कि चदवाड मे कुल 51 (इक्यावन) प्रतिष्ठाएँ हुई थी । राजा चदपाल का उल्लेख 'हिन्दी विश्व कोष' (भाग-7)14 मे भी मिलता है ।
इतिहास ग्रथो से ज्ञात होता है कि चन्दवाड मे 10 वी शताब्दी से लेकर लगभग 15-16 वी शताब्दी तक जैन नरेशो का ही शासन रहा है। इस काल मे पल्लीवाल और चौहान वश का शासन रहा। इन राजाओं के मत्री प्राय लम्बकचक (लमेच ) या जैसवाल होते थे । इन मत्रियो ने भी अनेक मन्दिरो का निर्माण कराया तथा प्रतिष्ठाएँ करवायी। इन गजामो के शासन काल मे यह नगर जन और धनधान्य से परिपूर्ण था। नगर मे अनेक जैन मन्दिर थे।
इस नगर का ऐतिहासिक महत्व भी रहा है। यहाँ के मदानो तथा ग्वारो मे कई बार इस देश के भाग्य का निर्णय हुआ। चद्रवाड मे एक दुर्भेद्य किला था। वि स 1251 (मन् 1194) मे चद्रवाड नगर मे शहाबुद्दीन मुहम्मद गौरी तथा कन्नौज के राजा जयचन्द्र में भीषण युद्ध हुआ। गौरी कन्नौज तथा बनारस की ओर बढ रहा था। कन्नौज नरेश गौरी के उद्देश्य को समझ गया और उसे कन्नौज पर आक्रमण करने से रोकने के लिये भारी सैन्यदल के साथ चन्द्रवाड मे प्रा डटा। यहाँ दोनो सेनानी के बीच घमामान युद्ध हुआ । जयचन्द हाथी के हादे पर बैठा हुआ सन्य सचालन कर रहा था, तभी शत्रु का एक तीर पाकर जयचद को लगा और वह मारा गया। जयचद की सेना भाग खडी हुई। गौरी की फौजे