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पल्लीवाल जैन जाति का इतिहास
(४४) पल्लोवाल जाति को सामाजिक तथा माथिक स्पितिः
विक्रम की ग्यारहवी शताब्दी के मध्य मे चन्द्रवाड पर पल्लीवाल जैन राजा राज्य करता था। इससे स्पष्ट है कि ग्यारहवी शताब्दी में जाति की सामाजिक स्थिति बहुत अच्छी रही, तभी तो पल्लीवाल जाति के किसो व्यक्ति का चन्दवाड पर आधिपत्य था। जैन समाज मे इस जाति का अच्छा प्रभाव रहा । जाति के लोगो ने कई मूर्तियो की प्रतिष्ठाएँ भी कराई। अकेले राजा चन्द्रपाल ने 51 प्रतिष्ठाएँ करवाई थी।
तेरहवी शताब्दी के मध्य तक जाति की स्थिति अच्छी रही। लेकिन सवत् 1251 मे राजा जयचन्द्र पर मुहम्मद गौरी के पात्रमरण के बाद इस जाति के लोगो को बहुत कष्ट उठाने पडे । बहुत से लोग तो अपना मूल स्थान छोड कर गुजरात की ओर भाग गये तथा जाति का विघटन हो गया। सत्रहवी शताब्दी तक गुजरात खण्ड की ओर भागे पल्लीवालो मे से अधिकतर पुन अपने मूल स्थान की ओर वापिस आ गये तथा वे पूर्वी राजस्थान और
आगरा क्षेत्र में बस गये। सत्रहवी-अठारहवी शताब्दी मे पल्लीवाल जाति ने जैन समाज मे पहले जैसा सम्मान फिर से प्राप्त कर लिया था। इसी कारण समय-समय पर विभिन्न कवियो तथा विद्वानो द्वारा इस जाति को याद किया जाता रहा है।
अठारहवी शताब्दी के उत्तरार्द्ध मे जाति के कई लोग विभिन्न राज्यो मे अच्छे-अच्छे पदो पर प्रासीन थे। कई लोग बडे बडे काश्तकार तथा जमीदार थे। वई लोग राज्यो में दीवान पद पर आसीन थे। जमीदारी प्रथा समाप्त होने तक जाति के कई लोग जमीदार थे।
पल्लीवाल जाति कभी किसी एक प्रकार के व्यवसाय से