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समाज-दर्शन
अधिक गौरव की बात यह है कि जाति में बहुत से ऐसे महानुभाव भी हुए हैं जिन्होने जैन साहित्य को सुदृढ किया तथा जैन धर्म का प्रचार किया। इन व्यक्तियो ने बहुत से धार्मिक ग्रन्थो की रचना की। कवि धनपाल, प दौलतराम, कविवर मनरगलाल तथा वर्तमान मे प मक्खनलाल जी आदि विद्वान इसी जाति के रत्न थे। लेकिन जाति मे आज पहले जैसी धार्मिक भावना प्रतीत नही होती है, यह एक चिन्ता का विषय है ।
प्राचीनतम् शिलालेख तथा मूर्तिलेख बताते है कि प्रारम्भ में पल्लीवाल जाति दिगम्बर अाम्नाय को मानती थी। दिगम्बर प्राचार्य कुन्द-कुन्द पल्लीपाल जात्युत्पन्न थे। चन्द्रवाड का राजा चन्द्रपाल भी पल्लीवाल दिगम्बर जैन था। उसने वि स 1052 मे कई मूर्तियो की प्रतिष्ठा भी कराई । ऐसी कई मूर्तियाँ फिरोजाबाद के दिगम्बर जैन मन्दिर मे विराजमान है।
कालान्तर मे कुछ पल्लीवालो को इटावा अचल छोडकर गुजरात जाना पड़ा। जो पल्लीवाल कन्नौज मे ही रहे, वे हमेशा ही दिगम्बर धर्मानुयायी रहे । आज भी दिगम्बर धर्मानुयायी ही है। जो पल्लीवाल गुजरात चले गए वे भी बारहवी शताब्दी पर्यन्त दिगम्बर धर्मानुयायी ही रहे। तेरहवी शताब्दी के प्रारम्भ में कुछ लोगो ने श्वेताम्बर धर्म अपना लिया। 'पल्लीवाल जैन इतिहास' की भूमिका मे एक लेख का वर्णन है, जिसमे वि स 1207 में 'पल्ली-भग' के समय त्रुटित पुस्तक को ग्रहण करने की बात कही गई है। यहाँ पल्ली-भग से यह भाव निकलता है कि इस समय से ही पल्लीवाल दो अलग-अलग आम्नायो को मानने लगे। वैसे गुजरात मे स्थित अधिकतर पल्लीवाल दिगम्बर धर्मानुयायी हो रहे । अणिहल्लपुर (गुजरात) निवासी कवि धनपाल पल्लीवाल, जिन्होने वि स. 1261 मे 'तिलक मजरी सार' की रचना