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समाज दर्शन
समाज में पहले बाल-विवाह का प्रचलन था। अब वह विल्कुल समाप्त हो गया है । 60-70 वर्ष पहले तक अनमेल विवाहो का भी प्रचलन था। पचास वर्ष के पुरुष भी पत्नी के मर जाने के बाद नाबालिक कन्याप्रो से विवाह कर लेते थे । यह कुप्रथा प्राय भारत की सभी जातियो मे प्रचलित थी। लेकिन ऐसा अब शायद किसी भी जाति मे नही होता है।
सामान्यत समाज मे पुरुष कई शादियाँ नही करते है। सत्रियो मे भी पुनर्विवाह प्राय नही होता है। समाज मे अन्तर्जातीय विवाह करते है लेकिन फिर भी अधिकाश लोग समाज मे ही शादी विवाह करना पसद करते है।
(4-11) जातीय सभायें/सस्थायें
पल्लीवाल जाति को आज हम जिस सगठित रूप में देख रहे है उसके पीछे समाज के पुराने लोगो का बहुत योगदान रहा है । आज से लगभग सौ वर्ष पहले तक समाज एक प्रकार से असगठित था। उसका कोई अपना ऐसा मच नही था जिससे समाज की कोई एक ध्वनि प्राती हो । समाज को सगठित तथा उन्नतशील बनाने के उद्देश्य से एक सस्था की स्थापना 11 दिसम्बर सन् 1892 मे समाज के उत्साही एव शिक्षित युवको द्वारा की गई। इस सस्था का नाम 'पल्लीवाल धर्म प्रवर्धनी क्लब' रखा गया। जिस समय इस सस्था की नीव रखी गई, उस समय 'पार्य-समाज' जैसे लोकप्रिय सुधारवादी आन्दोलनो का जोर था। पल्लीवालो की उक्त सस्था भी इनसे प्रभावित रही तथा इस सस्था का भी मुख्य उद्देश्य समाज में फैली कुरीतियो को दूर करना तथा समाज को प्रगतिशील बनाना रहा। कुछ समय बाद इस सस्था का नाम परिवर्तित करके 'पल्लीवाल जैन महासमिति' कर दिया गया। इसका प्रथम अधिवेशन सन् 1920 मे आगरा मे हुआ । इस सस्थाने वीस