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ज्ञानदिवाकर, मर्यादा शिष्योत्तम, प्रशांतमूर्ति आचार्यश्री भरतसागर जी महाराज की स्वर्णजयंती वर्ष के उपलक्ष में :
श्री कुमुदचन्द्राचार्य विरचित कल्याणमंदिर स्तोत्र
मून, नृतनपद्यानुवाद, अर्थ, यंत्र. मंत्र. ऋद्धि. साधनविधि
गुण, फल तथा श्रीमद्देवेन्द्रकीर्तिप्राणीता कल्याणमन्दिर स्तोत्र पूजा सहित
लेखक पण्डित कमलकुमार शास्त्री 'कुमुद
भारतवर्षीय अनेकान्त विद्वत् परिषद्
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(समर्पण)
प. पू. वात्सल्य रत्नाकर आचार्य श्री १०८ विमलसागर जी महाराज के
पट्ट शिष्य मर्यादा-शिष्योत्तम ज्ञान-दिवाकर प्रशान्त-मूर्ति वाणीभूषण
भुवनभास्कर गुरुदेव आचार्य श्री १०८ भरतसागर जी महाराज
की स्वर्ण जयन्ती के उपलक्ष में आपके श्री कर-कमलों में प्रन्यराज
सादर-समर्पित
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भूमिका कल्याणमन्दिरस्तोत्र और उसके रचयिता
बैनधर्म में जहां ज्ञान को महत्त्व दिया गया है वहाँ भक्ति को भी उल्लेखनीय स्थान मिला है। स्वामी समन्तभद्र जसे उभट आचार्यों ने अपने अनेक ग्रन्थ या यों कहिए कि रत्न करण्यकश्रावकाचार को छोड़कर शेष सभी उपलब्ध ग्रन्थ अरिहन्त भगवान के स्तवन में ही रचे हैं। उनके स्वयम्भूस्तोत्र देवागमस्तोत्र, युक्त्यनुशासनस्तोत्र और जिनशतक (स्तुतिविद्या) ये स्तोत्र-ग्रन्थ अर्हद्भक्ति के उत्कृष्ट नमूने हैं और भारतीय स्तोत्र-साहित्य में वेजोड़ एवं अद्वितीय कृतियों हैं। प्राचार्य मानतुङ्ग का भक्तामरस्तोत्र, आचार्य धनञ्जय कवि का विषापहारस्तोत्र, प्राचार्य वादिराज का एकोभावस्तोत्र, श्रीभूपालकवि (भोजराज महाराज)का जिनचतुषिशतिकास्तोत्र और प्राचार्य कुमुदचन्द्र का प्रस्तुत कल्याणमन्दिरस्तोत्र ये स्तुति-रचनाएँ भी प्रर्हद्भक्ति की प्रपूर्वधारा को वहाने वाली है।
भक्ति और उसका उद्देश्य संसारी प्राणी राग, द्वेष, लोभ, अहंकार, प्रज्ञान आदि अपने दोषों मे निरन्तर दुखी बना चला मा रहा है और कभी-कभी वह कर्म की चपेट में इतना पा जाता है कि वह घबड़ा उठता है और उस दुःख से छूटने के लिये ऐसी बगह अथवा ऐसी प्रात्मा की तलाश करता है-उस ओर अपना
भक्तामरस्ताव अद्वितीय हैं और भारता)
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ध्यान केन्द्रित करता है जहाँ दुःख नहीं है और न दुःख के कारण राग, द्वेष, प्रज्ञानादि हैं। इस तलाश में उनकी दृष्टि वीतराग मात्मा में जाकर स्थिर हो जाती है और उसके दुःखमोचनादि गुणों में अनुराग करने लगती है। इस गुणानुराग को ही भक्ति कहते हैं । श्रद्धा, प्रार्थना, स्तुति, विनय, प्रादर, नमस्कार, पाराधना प्रादि ये सब उसी भक्ति के रूप हैं और भक्ति का यही प्रयोजन प्रथवा उद्देश्य है कि स्तुत्य के बे दुःलरहिता दिगुण भक्त को प्राप्त हो जाय- वह भी उन जैसा बन जाय । इसी बात को प्रस्तुत स्तोत्र में भी निम्न प्रकार बतलाया है -
* माष दुःखिजना बन्सल । हे प्रारब्ध!, कापण्यपुग्यबसते ! अशिमा रेग्य ! भवस्या नते मयि महेश दयो विषाय, दुखा.रोलन .. तत्परता विहि ।।
'हे नाथ ! प्राप दुखी जनों के वत्सल हैं, शरणागतों को शरण देने वाले हैं, परम कारुणिक हैं और इन्द्रिय विजेसामों में श्रेष्ठ हैं, मुझ भक्त को भी दया कर आप दुःख और दुःखदायी प्रज्ञानादि को नाश करने वाला बनायें।'
यही समन्तभद्र स्वामी ने, जिन्हें विद्वानों द्वारा 'माद्य स्तुतिकार' कहे जाने का गौरव प्राप्त है, स्वयम्भूस्तोत्र में शान्तिजिन का स्तवन करते हुए कहा है:
पोष - शाम्या विहितारमान्ति: गान्ते विधाता शरणं गतानाम् । भूया भवालेश...... बोपशान्ये, शान्ति fanो मे मावान् रमः ।।
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( ७ )
'है शान्तिजिन ! श्रापने अपने दोषों को शान्त करके श्रात्मशान्ति प्राप्त की है तथा जो आपकी शरण में श्रावे उन्हें भी प्रापने शान्ति प्रदान की है। अतः आप मेरे लिये भी संसार के दुःखों तथा भयों थमवा संसार के दुःखों के भयों को शान्त (दूर) करने में शरण हों ।'
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यही कारण है कि स्तुति में भक्त यह कामना करता है कि 'हे भगवन ! मेरे दुख का क्षय हो, कर्म का नाश हो, प्रासं रौद्र ध्यान रहित सम्यक मरण हो और मुझे बोल ( सम्यग्दर्शनादि का लाभ हो । श्राप तीनो जगत के बन्धु हैं, इसलिये है जिमेन्द्र ! मैं आपकी गरण को प्राप्त हुआ हूं।
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जैसा कि एक प्राचीन निम्नगाथा में बतलाया गया हैं। युवल-खो कम्म सो समाहिमरणं च बोहिलाहो प । मम होउ तिजगबंधव ! सव जिनवर ! परण-सरगम ।।
यहाँ एक प्रश्न हो सकता है कि वीतरागदेव की उपासना अथवा भक्ति से क्या दुःखों मीर दुःख के कारणों का अभाव सम्भव है ? जब वे वीतरागी हैं तो दूसरे के दु:म्बादि को हूर करने में ये समर्थ कैसे हो सकते हैं ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि वीतरागदेव विशुद्ध एक पवित्र मात्मा हैं उनके स्मराणादि से आत्मा में शुभ परिणाम होते हैं और उन शुभ परिणामों से पुण्य प्रकृतियों का उपार्जन तथा पाप प्रकृतियों का ह्रास होता है और उस हालत में के पाप प्रकृतियों भक्त के अभीष्ट दुःखों तथा दुःख के कारणों के प्रभाव में बाधक नहीं हो पातीं- उसे उसके अभीष्टफल की प्राप्ति अवश्य हो जाती है। इसी बात को एक निम्नपद्य में बहुत ही स्पष्टता के साथ में बतलाया गया है -
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नेष्टं विहन्तु शुभभाव-माण-रसप्रकर्षः प्रभरतरायः । त्वरकामधारेण गुणानुरागाभुत्याविरिष्टार्थकवाहबादेः ।।
'परिहन्तादि परमेष्ठियों के गुणों में भक्तिपूर्वक किया गाम काराधि प्रमोद कल को देता है। साथ ही उससे पैदा हुए शुभ परिणामों के सामर्थ्य से अन्तरायकर्म ( पाप कर्म) निर्वीर्य होकर नष्ट हो जाता है और वह इष्ट का विधात करने में समर्थ नहीं होता।' इसी स्तोत्र में और भी एक जगह कहा गया है:
हातिनि त्वयि विभो ! शिथिलोभवन्ति जन्तोः क्षणेन निविडा मपि कभवन्या: । सद्यो भुखङ्गममया इ मध्यभाग, ..
मभ्यागते वशिखण्डिन घन्दनरम ।।
'हे विभो ! जिस प्रकार चन्दन के वन में मयूर (मोर) के पहुंचते ही वृक्षों से लिपटे सर्प तत्काल उनसे अलग हो जाते हैं उसी प्रकार भक्त के हृदय में आपके विगजमान होने (स्मरणादि किये जान) पर अत्यात गाढ़ प्रष्ट कर्मों के बन्धन भी क्षण भर में ही ढीले पड़ जाते हैं।'
इतना ही नहीं बल्कि वह परमात्मदशा को भी प्राप्त हो जाता है । जैसा कि इसी स्तोत्र के निम्न पद्म में प्रतिपादन किया गया है: ध्यानाजिनेश भवतो भबिनः क्षणेन, देह विहाय परमात्मशां ग्रन्ति । सीवानलादुपसभावमपास्य लोके, चामीकर त्वमपिरावि धातुमेदाः ।।
'हे जिनेश ! जिस प्रकार धातुविशेष (अशुद्ध स्वर्णादि) अग्नि की तेज अचि से अपने पाषाणरूप अशुद्धभाव को छोड़कर शीघ्र ही सोना हो जाता है उसी प्रकार प्रापके ..यान
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से संसारी जीव भी शरीर का त्याग कर प्रशरीर परमात्मावस्था को प्राप्त हो जाते हैं।'
विद्यानन्दस्वामी भी अपनी प्राप्तविषय पर लिखी गई प्राप्तपरीक्षा में यही बतलाते हुए कहते हैं -
श्रेयोमागस्य संसिद्धिः, प्रसारात्परमेष्ठिनः । हत्यास्तद्गुणस्तोत्र, प्रास्त्रादौ मुनिपुङ्गा ॥
'परमेष्ठी के गुणस्मरणादि से स्तुति कर्ता को श्रेयोमार्ग (सम्यग्दर्शनादि) की प्राप्ति और ज्ञान दोनों होते हैं। बड़े-बड़े मुनीश्वरों ने उनका गुणस्खनन किया है।'
तत्त्वार्थ सूत्रकार महान प्राचार्य श्री गुद्धपिच्छ भी इसी बात को प्रदर्शित करते हुए अपने तत्त्वार्थसूत्र के शुरू में निम्नप्रकार मंगलाचरण रूप गुणस्तोत्र करते हैं : -
मोक्षमार्गस्य मेतार, भेशार कर्मभूभृताम् । मतारं विश्वतस्थाना, वारे तवगुणसम्पपे ।
यहाँ यह भी ध्यान देने योग्य है कि यद्यपि वीतराग देव को भक्त की स्तुति-प्रार्थना अथवा नमस्कारादि से कोई प्रयोजन नहीं है उसे वह करे चाहे न व.रे, क्योंकि वह वीतराग एवं वीतद्वेष है और इसलिए उसके करन से वह प्रसन्न और न करने से अप्रसन्न नहीं होता। फिर भी उसके पवित्र गुणों के स्मरण से भक्त का मन अवश्य पवित्र होता है जैसा कि समन्तभद्र स्वामी ने कहा है। न पूण्याऽस्थयि वीतरागे, म निपया मार! विवातवरे । तथापि ते सगुणस्मृति में, पुनाति वित्तं कुरितामेभ्यः ।।
इतना ही नहीं बल्कि वीतराग देव की स्तुति-प्रार्थनादिक करने वाला तो स्वभाषतः सुखों एवं श्रीसम्पन्नता को
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प्राप्त होता है और निन्दा करने वाला दुःस को पाता है। किन्तु वीतराग देव दर्पण की तरह दोनों में राग-द्वेष रहित रहते हैं। जैसा कि स्वामी समन्तभद्र और प्राचार्य धनंजय के निम्न पद्यों से प्रकट है:(क) मुहत्त्वयि श्रीसुभगत्वमरुनुते, द्विषा त्वयि प्रत्ययवरबलीयते । भवानुदासीनतमस्तपोरपि, प्रभो! परं चिमिदं तबेहिसम् ।।
--स्वयम्भूस्तोत्र ।। ६६1| (ख) उपति भल्या सुमुख: सुखामि, स्वपि स्वभावाहिमुखएक बुखम् । सबाऽवदातातिरेकरूप - स्सयोस्वमादर्श वामभासि ॥
...नियाहार : इस सब कथन से यह स्पष्ट हो जाता है कि परम वीतराग देव की भक्ति से संसारी जीवों को दुःखों का नाश प्रादि अभीष्टफल अवश्य प्राप्त होता है। अत: भक्ति को लेकर जैनधर्म में जैनाचार्यों द्वारा विपुल साहित्य की रचना होना सर्वथा उपयुक्त एवं स्वाभाविक है।
प्रस्तुत स्तोत्र के विषय मेंप्रस्तुत कल्याणमन्दिर स्तोत्र भक्तामरस्तोत्र की तरह अतिशयपूर्ण एवं भावगर्भ भक्तिविषय की एक श्रेष्ठ रचना है। इसके भाव और भाषा दोनों बड़े ही विशद है। इसमें भक्ति की जो धारा प्रवाहित है वह अनठी है। अनुश्रु तियों तथा स्तोत्र के अन्तःपरीक्षण से ज्ञात होता है कि इसकी रचना उस समय हुई है जब प्राचार्य महोदय पर कोई विपत्ति आई हुई थी। स्पष्ट है कि जैनाचार्यों ने जो स्तवन रचे हैं वे उन पर संकट पाने पर जिनशासन का प्रभाव और चमत्कार दिखामे के लिये ही रचे हैं। जैसे समन्तभद्र
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स्वामी ने शिवपिण्डी को नमस्कार करने के लिये बाध्य करने का प्रसंग उपस्थित होने पर स्वयम्भूस्तोत्र की रचना की, आचार्य मानतुङ्ग ने ४८ तालों के अन्दर बन्द किये जाने पर भक्तामर स्तोत्र बनाया, प्राचार्य धनञ्जयकवि ने अपने पुत्र के सर्प द्वारा इसे जाने पर विषापहारस्तोत्र को रचा और प्राचार्य वादिराज ने कुष्टरोग से पीड़ित होने पर एकीभाव स्तोत्र बनाया। उसी प्रकार माचार्य कुमुदचन्द्र पर भी किसी कष्ट के प्राने पर उनके द्वारा इस स्तोत्र की रचना हुई है। कहा जाता है कि इन्होंने इस स्तोत्र द्वारा भगवान पाश्वनाथ का स्तवन करके एक स्तम्भ से उनकी प्रतिमा प्रकटित की थी और जिनशासन का प्रभाव एवं चमत्कार दिखाया था ।
इस स्तोत्र का दूसरा नाम 'पाश्वंजिनस्तोत्र' भी है । जैसा कि इसके दूसरे पद्य में प्रयुक्त कमठ-स्मय- धूमकेतुः' नाम से प्रकट है, जो भगवान पार्श्वनाथ के लिये आया है। 'कल्याण मन्दिर' शब्द से प्रारम्भ होने के कारण इसे कल्याणमन्दिर स्तोत्र उसी प्रकार कहा जाता है जिस प्रकार श्रादिनाथ स्तोत्र को भक्तामर' शब्द से शुरू होने से 'भक्तामर स्तोत्र' कहा जाता है ।
इस सुन्दर कृति को भक्तामर स्तोत्र की तरह दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदाय मानते हैं। श्वेताम्बर इसे सन्मतिसूत्र भादि के कर्ता श्वेताम्बर विद्वान सिद्धसेन दिवाकी रचना बतलाते हैं और दिगम्बरस्तोत्र के अन्त में श्राये 'जननयन- कुमुदचन्द्र प्रभाम्वरा:' आदि पद्य में सूचित 'कुमुदचन्द्र' नाम से इसे दिगम्बराचार्य कुमुदचन्द्र की कृति मानते हैं । इस सम्बन्ध में यहां खास तौर से ध्यान देने योग्य बात यह हैं कि इस स्तोत्र में 'प्राग्भारसंभूतनभांसि रजांसि शेषाद
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( १२ )
आदि ३१ में पद्य से लेकर 'ध्वस्तोर्ध्वकेश विकृताकृतिमर्त्य मुण्ड' प्रादि ३३ वें पद्य तक तीन पद्यों में भगवान पार्श्वनाथ पर दैत्य क्रमश द्वारा किये गये उपसर्गों का उल्लेख किया गया है जो दिगम्बर परम्परा के अनुकूल है और श्वेताम्बर परम्परा के प्रतिकूल है; क्योंकि दिगम्बर परम्परा में तो भगवान पार्श्वनाथ को सोपसर्ग और अन्य २३ तीर्थकरों को नि प्रतिपादन किया गया है और श्वेताम्बरीय श्रागम सूत्रों तथा श्राचारांग नियुक्ति में वर्धमान ( महावीर ) को सोपसर्ग श्रीर २३ तीर्थंकरों को जिनमें भगवान पार्श्वनाथ भी हैं, निरुपसर्ग बतलाया है । जैसा कि उक्त नियुक्ति गत निम्नगाधा से प्रकट है
सम्बेसि तवोकम्मं निवसग्गं तु वण्णियं जिणाणं । पथरं तु वच्खमामहस सोषसगं सुणेपव्वं ॥ २४६ ॥
'सब तीर्थंकरों का तपःकर्म निरुपसर्ग कहा गया है और बर्द्धमान का तपः कर्म सोपसर्ग जानना चाहिए ।'
इस बारे में मेरा वह खोजपूर्ण लेख देखना चाहिए जो अनेकान्त ( वर्ष ६ किरण १०-११ पृष्ठ ३३६ । में क्या नियुक्तिकार भद्रवाहु और स्वामी समन्तभद्र एक हैं ?' शीर्षक के साथ प्रकाशित हुआ है ।
स्तोत्र के प्रारम्भ में भी भगवान पार्श्वनाथ के स्तवन की प्रतिज्ञा करते हुए उन्हें 'कमठस्मयधूमकेतुः' के नाम से उल्लेखित किया है ।
इसके सिवाय स्तोत्र में 'धर्मोपदेशसमये श्रादि १९ वें पद्य से लेकर 'उद्योवितेषु भवता' श्रादि २६
वें पद्य तक किया गया है
८ पद्यों में उसी तरह
प्रतिहार्यों का वर्णन
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( १३ )
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जिस प्रकार दिगम्बर भक्तामर स्तोत्र में २८ वें पथ से लेकर ३५ वें पद्य तक के ८ पद्यों में उनका वर्णन उपलब्ध है अन्यथा, श्वेताम्बर भक्तामर स्तोत्र की तरह इसमें भी चार ही प्रातिहार्यों (अशोकवृक्ष, पुष्पवर्षा, दिव्यध्वनि और चमर ) का कथन होना चाहिये था, किन्तु इसमें उन चार प्रतिहार्यो (सिंहासन, भामण्डल, दुन्दुभि और छत्र) का भी प्रतिपादन है जिनका दिगम्बर भक्तामर स्तोत्र में है और ताम्वर भक्तामर स्तोत्र में नहीं है। अतः इन बातों से इसे दिगम्बर कृति होना चाहिए ।
इसके रचयिता कुमुदचन्द्राचार्य का सामान्य प्रथवा विशेष परिचय क्या है और उनका समय क्या है ? इस सम्बन्ध में विद्वानों को विचार एवं खोज करना चाहिये । विक्रम की १२ वीं शताब्दी के विद्वान चादिदेवसूरि की जिन दिगम्बर विद्वान, कुमुदचन्द्राचार्य के साथ 'स्त्रीमुक्ति' आदि विषयों पर शास्त्रार्थ होने की बात कही जाती है, यदि वे ही कुमुदचन्द्राचार्य इस स्तोत्र के रचियता हैं तो इनका समय विक्रम की १२ वीं शताब्दी समझना चाहिए ।
अन्त में समाज के उत्साही विद्वान पं० कमलकुमार जी शास्त्री के प्रध्यवसाय की में सराहना करता हूँ कि जिन्होंने इस स्तोत्र को बहुपरिश्रम के साथ समाज के सामने इस रूप में प्रस्तुत किया है ।
इति शम् दरबारीलाल कोठिया,
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अपनी बात पुस्तक लिखने के पूर्व लेखक को अपनी प्रोर से कुछ लिखना ही चाहिये । इस परम्परा के नाते मैं निम्न पंक्तियां अपने प्रिय पाठकों के सम्मुख नहीं रख रहा हूँ; न ही स्तोत्र की स्वयं सिद्ध सर्वश्रेष्ठता का दिग्दर्शन कराने की मेरी अभिलाया अथवा साहस है । यहाँ तो केवल अपनी उस प्रक्षमता को प्रकट करना है; जो संभवतः किन्हीं सक्षम एवं कुशल हाथों की ही वाट जोहना-जोहता निराश सा हो रहा था। आशा है. इसलिये ग्राप प्रस्तुत पुस्तक में रह जाने वाली त्रुटियों एवं अभाव की भोर लक्ष्य करने के पूर्व उन अनेक कठिनाइयों और बाधामों की ओर अपना विशाल दष्टिकोण अपनायेंगे जिसके कारण "भक्तामर स्तोत्र से भी श्रेष्ठतर यह 'कल्याणमन्दिर स्तोत्र' जो कि वस्तुत: कल्याण का ही मन्दिर है, अपने उस सर्वाङ्ग सम्पूर्ण स्वरूप में अभी तक जनता के सामने नहीं मा सका और यही कारण है कि अपने स्थाति एवं लोकप्रियता के क्षेत्र में वह 'गुदड़ी का लाल' ही बना रहा । प्राद्योपान्त इस मङ्गलमय स्तोत्र का रमपान करके पाठक स्वीकार करेंगे कि इसमें वह भावपूर्ण भक्ति है जो कि मानन्द का एक पविरल निर्भर वहा सकने की शक्ति रखती है।
दैविक अतिशय एवं फलप्राप्ति ही मपेक्षा से ही प्रस्तुत स्तोत्र अन्य प्रसिद्ध प्रचलित जैनस्तोत्रों की तुलना में कितना अधिक चमत्कारपूर्ण है, इसको इतिहास की वह घटना ही स्पष्ट कर देती है कि जिसके द्वारा इस स्तोत्र के सम्माननीय रचयिता श्री कुमुदचन्द्राचार्य जी ने मोंकारेश्वर के शिवलिङ्ग से श्री १००८ श्री पार्वनाथ जी का सौम्य प्रतिबिम्ब प्रपार
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१५ ] जनता के समक्ष प्रकट कर विक्रमादित्य जैसे कद्वार व सम्राट का मस्तक नम्रीभूत कर दिया एवं पतितपावन जनधर्म की अपूर्व प्रभावना की । कहना नहीं होगा कि ऐसी अवस्था में पुस्तक की जितनी ही अधिक आवश्यकता थी, उतना ही अधिक उसकी सम्पन्नता में साधनो का अभाव था। उन्हीं सारी कठिनाइयों को आपके सामने रम्बे बिना मुझसे नहीं रहा जायगा । क्योकि उन्हें प्रकट न करने देना भो एक प्रकार की अपूर्णता सिद्ध होती।
अन्य स्नोत्रों की भांति इस स्तोत्र का पूर्ण अथवा अपूर्ण इतिहास जैन शास्त्रों में कहीं है, यह खोजग जहाँ एक समस्या बनी हुई थी, वहां दूसरी ओर श्लोकों के ऋद्धिमत्र तथा यंत्रों को शुद्धनम रूप से पुस्तक में देना प्रसंभव बना हुमा या । क्योंकि घोर प्रध्यवसाय एवं उद्योग के बाद इस स्तोत्र की एक ही प्रति देहली के पंचायती जनमन्दिर मे उपलब्ध हुई पौर वह भी प्रशुद्ध । परन्तु प्राकृतभाषा के विद्वान श्रीमान पडित बालचन्द्र जी सिद्धान्तशास्त्री देहली तथा श्रीमान पडित फूलचन्द्र जी सिद्धान्तशास्त्री वाराणसी की प्रसीम कृपा के लिये स्या कहा जाय कि जिन्होंने अनवरत श्रम करके ऋद्धियों, मंत्रों और यंत्रों में उपयुक्त संशोधन किये।
___ यहाँ यह स्पष्ट करना अधिक प्रावश्यक है कि प्रस्तुत पुस्तक में साधन विधिसहित दो प्रकार के ऋद्धि और मंत्र दिये गये हैं। एक तो वे जो प्रत्येक दलोक के नीचे दिये गये हैं
और दूसरे वे जो कि पुस्तक के मध्य में (पृष्ठ ९७ से पृष्ठ १४४ तक) अलग से ही यत्राकृतियों सहित प्रकाशित हैं। वह सब देहली से प्राप्त मूल प्रति का ही संशाधित रूप है। यद्यपि रूप इसका अवश्य संशोधित है तथापि एक प्रावश्यक प्रभाव
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। १६ । ऋद्धियों में विद्यमान होने के कारण पहले प्रकार की ऋड़ियां ही लोकों के नीचे स्थान पा सकी । वह प्रभाव है मूल ऋद्धयों में संज्ञा का लोप होना । इसी जटिलता के फलस्वरूप "महाबन्ध ग्रन्थ (महाधवल सिद्धान्त शास्त्र) के अनुमार ऋद्धियों की सनाए' उनमें जोड़ कर मूल के साथ बड़े ही कौशल से सामञ्जस्य स्थापित किया गया है । इस प्रकार श्लोकों के नीचे लिखी हुई ऋद्धियां एक सर्वथा नवीन एवं दुर्लभ वृति बन कर पारकों के सामने लाते हुए मुझे हर्ष का अनुभव हो रहा है। इस नई सूझ का विशेष श्रेय श्रीमान पं० बालचन्द जी सिद्धान्त शास्त्री को ही है, जिन्होंने सामजस्य स्थापित करने में सराहनीय उद्योग कर मुझे अनुगृहीत किया।
देहली से जो प्रति मुझे प्राप्त हुई वह वस्तुत: जैसलमेर के विशाल शास्त्र भंडार की मूल प्रति की ही प्रतिलिपि है किन्तु उसे प्राप्त करने में असफलता के अतिरिक्त और क्या हाथ नगता !
इस पुस्तक में प्रकाशित मंत्राम्नाय श्री देवचद लालभाई जैन पुस्तकोद्धारक संस्था सूरत से प्रकाशित स्तोत्रत्रय से लिया गया है। और यह मनाम्नाय इस स्तोत्रत्रय में आनार्य महाराज श्री जयसिंह जी सूरि द्वारा संग्रहीत हस्तलिखित प्रति से लिया गया है । इस मन्त्राम्नाय को रचना ग्यारहवीं शताब्दी के बाद हुई प्रतीत होती है। क्योंकि महान मनवादी श्री मल्लिसेनमुरि विरचित भैरवपद्मावतीकल्प नामक गन्थ में इन मन्त्रों का भधिकांश भाग पाया है और ये मलिन सेन सुरि ग्यारहवीं शताब्दी में हुए हैं। स्तोत्रनय की रचना भैरवपद्मावतीकल्प के बाद हुई है।
येन केन प्रकारेण सब कुछ हो जाने के बाद भी पुस्तक मानो स्वयं ही एक प्रभाव की पूर्ति के लिये पुकार रही थी
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और वह थी 'कल्याणमन्दिर यूजन' । उसके सम्बन्ध में इतना कहना ही पर्याप्त होगा कि बमुश्किल उसकी एक प्रति श्री पं0 जयकुमार जो शास्त्रो कारजा से प्राप्त हुई जिसका सुन्दर संशोधन अनेक ग्रन्थो के लेखक व सम्गदक श्रीमान ५० मोहनलालजी शास्त्री काव्यतीर्थ जबलपुर ने किया है । प्रतः उनका जितना भी अनुग्रह माना जाय थोड़ा है।
प्रस्तुत पुस्तक में हमने अग्रजी पढ़े लिखे सज्जनों के आनन्द के लिये इस स्तोत्र का अंग्रेजी अनुवाद भक्तामर, कल्याणमन्दिर, नमिऊणस्तोत्रत्रय नामक पुस्तक से उक्त कर इस पुस्नया में दिया है। जिसके लिए हम इस अनुवाद की प्रकाशिका "श्रीमान् मेठ देवचंद लालभाई जैन पुस्तकोद्धारक संस्था सूरत" तथा अनुवादक श्रीमान् प्रा० हीरालाल रसिकदास कापड़िया एम० ए० सूरत के विशेष प्राभारी हैं।
इस स्तोत्र के पद्यानुवाद के सशोधन में उदीयमान तरुण कवि श्री फूलचन्द जी जैन 'पुष्पेन्दु भूतपूर्व प्रध्यापक जैन गुरुकुल खुरई से अधिक सहयोग मिला, अतः उनका भी प्राभार माये बिना हम नहीं रह सकते ।
जैन समाज के लब्धप्रतिष्ठ सिद्धान्त शास्त्री विद्वान पं. दरवारीलाल जी कोठिया न्यायाचार्य व्याख्याता हि. वि. वि. वाराणसीका में अत्यन्त ऋणी हूँ, जिन्होंने इस पुस्तक की भूमिका लिख कर इस पुस्तक के गौरव को बढ़ाया है।
___ इस भक्तिरस के पुण्यमय पवित्र स्तोत्र से जैन समाज में धार्मिक भावना की अभिवृद्धि हो, संमार का दूषित वातावरण निर्दोष हो, भव्यात्मानों को शांति व माल्लाद का लाभ हो-यही इस प्रकाशन से मेरा अपना हार्दिक प्रयोजन है।
कमलकुमार जैन शास्त्री 'कुमब'
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भावश्यक सूचनाएं मन्त्रों के पाराधन में निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना पावश्यक है
१-मन्त्र पर पूर्ण श्रद्धान हो।
२- मन में ग्लानि न हो, चित्त शान्त हो और शरीर स्वस्थ हो।
३-मन्त्र की साधना के समय ध्यान इधर-उधर न रखे; मन्त्र में ही निहित हो, मन की प्रवृत्ति को चलायमान नहीं करे।
४-मन्त्र की साधना के समय भयभीत न होवे।
५–मैं अमुक कार्य के लिये अमुक मन्त्र की साधना कर रहा हूँ ऐसा किसी से नहीं कहे किन्तु गुप्तरूप से मन्त्र को सिद्ध करे।
६-शुद्ध एकान्तस्थान में मन्त्र की साधना करे ।
७–मन्त्रसाधना की समाप्ति तक स्थान परिवर्तन नहीं करे।
- जिस मन्त्र की जो साधनविधि है तद्रप ही कार्य करे अन्यथा प्रवृत्ति करने से विघ्न बाधाएँ उपस्थित हो सकती हैं और सिद्धि में भी प्राशङ्का हो सकती है।
-प्रारम्भ से समाप्ति पर्यन्त दीपक, धूपदान, प्रासनी, माला, वस्त्र प्रादि चीजों में परिवर्तन नहीं करे।
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१०-एक समय शुद्ध सात्विक भोजन करे। ११-जमीन या पाटे पर शयन करे । १२-- ब्रह्मचर्य व्रत से रहे। १३-हरएक मंत्र शुभ मिति में प्रारम्भ करे १४-धोती दुपट्टा बनयान प्रतिदिन धोकर सुखा देवे । १५-स्नान करने के बाद ही मन्त्रपाठ प्रारम्भ करे।
१६-धूप बाजारू न खरीदे, शोध कर अपने घर पर ही बनाये।
१७- तिलक लगाये। १८-घृत का दीपक बराबर जलाते
१९-मन्त्र प्रारम्भ करने से पूर्व प्रतिदिन अङ्गशुद्धि एवं सकलीकरण अवश्य करे ।
२०-चोटी में गांठ अवश्य लगा लेवे ।
२१-बार बार आसन न बदले । एक ही प्रासन से बैठ कर मन्त्र की साधना करे।
___ २२-जपसमाप्ति के बाद हवन करे पश्चात् श्रावक श्राविकाओं को भोजन करावे ।
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कल्याणमन्दिर को उत्पत्ति का संक्षिप्त
इतिहास [माज के संसार का स्तर यह है कि उसका बुद्धिवाद सहसा नाकारद स्वीकार नहीं करता करें म. क्यों? चमत्कार का सीधा सम्बन्ध 'श्रद्धा' से है-बुद्धि से नहीं। वह श्रद्धा-जिसे जिनपरिभाषा में सम्यक्त्व कहा जाता है संसार से निरन्तर उठती जा रही है इसीलिये ये पौराणिक चमत्कार किसी समय भले ही इतिहास को जीवित घटनाएं रही हों --- पर आज तो उन पर दन्तकया ही होने का आरोप किया जाता
कल्याणमन्दिर स्तोत्र की उत्पति की पीठिका भी एक ऐसी ही चमत्कारिक घटना है । जिसे निम्न कहानी में परि. लक्षित किया है । यद्यपि इस कहानी से कल्याणमन्दिर के कर्ता के सम्पूर्ण जीवन पर प्रकाश नहीं पड़ता तथापि उनके एकदेश जीवन पा सम्बन्ध इस कथा क से भलीभाति प्रकट होता है।]
ब्राह्ममुहुर्त की बेला है, शिवालयों में शङ्खनाद और घण्टानाद प्रारम्भ हो गये हैं । जो कसौटी पर कसे हुये भक्त हैं वहीं केवल इस शीत में उत्तरीय मोढ़े और अपनी लम्बी चोटी में गांठ लगाये तेजी से नमदातट की ओर बके जा रहे हैं । इन्हीं भक्तों में से एक वह है जो नित्यप्रति "गायत्री" का पाठ करता हुग्ना ग्राज भी अपनी निराली पगडंडी पर पग बढ़ाये चला जा रहा है 1......
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{ २१ । "अरे जरा दूर से चलो; क्या दिखता नहीं है, कि मैं याह्मण हैं ?" परन्तु वे तो प्राचार्य वृद्धवादी जी थे, जो इस कट्टर ब्राह्मण की श्रद्धा की परीक्षा को ही नाम सुन कर निकले थे, प्रसएव जानबूझकर पुनः घुटनी का धक्का मार ही तो दिया। फिर क्या था ? विवाद प्रारम्भ हो गया: जैसा कि प्राचार्य वृद्धवादी जी चाहते ही थे। वह कट्टर ब्राह्मण वेद पारङ्गत एवं कूटताकिक था। ‘एको ब्रह्म से लेकर सहनों श्लोक उसकी जिह्वा पर नाच उठे । प्राचार्य जी ने भी व्यवहार धर्म का स्वरूप कहा । निवान एक ग्वाला वहां से निकला और वही मध्यस्थ ठहराया गया इस अनसुलझे विवाद के लिये।
"ब्रह्म सस्पं जगन्मिथ्या ...... प्रादि कह कर ब्राह्मण से संस्कृत की अपनी पूर्ण विद्वसा सामने उड़ेल दी।
"देखो भाई जैसे प्रापकी ये गायें हैं, यदि ये कहीं चली आवें तो आपका क्या गया ? यदि आप उन्हें अपनी मानते ही महीं।" आदि कह कर वृद्धवादी जी ने ग्वाले की बुद्धि के अनुसार ही व्यावहारिक बात करके अपना पक्ष प्रकट किया।
ग्वाले की बुद्धि में संस्कृत श्लोकों की तुलना में अपने ही ऊपर कुछ घटाये व्यावहारिक दृष्टान्तों के कारण शीघ्र ही सब कुछ समझ में आ गया। इस भांति उसने बद्धवादी जी का ही समर्थन किया । तथापि ब्राह्मण सन्तुष्ट नहीं हुआ। होते-होते राजा के पास दोनों पहुँचे और उन्होंने भी प्राचार्य जी की ध्यावहारिकता के कारण उनके ही पक्ष में निर्णय दिया।......
निदान ब्राह्मण को उनका शिष्यपमा स्वीकार करना ही पड़ा और समयानुसार ये 'कुमुदचन्द्र' नाम से सुसंस्कृत किये गये । ऐसे ही श्रद्धावान, विद्वान पुरुष की खोज में तो वृद्धवादी जी निकले ही थे।
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[ २ ] मास्मशक्ति का तेज छिपाये छिपता नहीं; यही कारण है कि उज्जयिनी नगरी में रहते हुये यद्यपि इन्हें अधिक समय नहीं हुमा सथापि ख्यातिका इनके परगों में नये : पौर एक दिन यह पाया कि वे विक्रमादित्य नरेश के राज्यदरबार के ऐतिहासिक नवरानों में से 'क्षपणक' नामक एक उज्ज्वल रन बन बैठ। कैसे ? उसका भी एक रहस्य है .....।
पीछे २ प्रजा का विशाल जनसमूह तथा सब से प्रागे राजा विक्रमादित्य एक विभूषित मातङ्ग पर बारूढ होकर चले जा रहे थे और दूसरी ओर से अपने में लीन, राजकीय मातडू से निर्भीक एक निस्पृह साधु । राजा शिवभक्त होकर भी सर्वधर्म समभावी था ही, परीक्षा के हेतु मन ही मन नमस्कार कर लिया । बस क्या था ! आत्मा का बेतार के तार का करट पवित्र प्रात्मा तक पहुंच गया और 'धर्मवृद्धिरस्तु का प्ररशीर्वाद अनायास ही उनके मुख से जोर से निकल पड़ा।
राजकीय कार्य से कुमुदचन्द्र जी को चित्तौड़गढ़ जाना पड़ा, मार्ग में धो पाश्वनाथ जी का एक जैन मन्दिर देख कर ज्योंही वे दर्शनार्थ घुसे कि एक स्तम्भ पर उनकी दृष्टि पड़ी। स्तम्भ एक अोर से खुलता भी था । इन्होंने उसे खोलने का उद्योग किया किन्तु सफलता में विलम्ब लगा। निदान उसी पर लिखित गुप्त संकेतानुसार उन्होंने कुछ प्रौषधियों के सहारे उसे खोल लिया तथा उसमें रखे हुए अटूट चमत्कारी शास्त्र देखे । एक पृष्ठ पढ़ने के पश्चात् ज्योंही वे दुसरा पृष्ठ पढ़ने लगे
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त्योंही अदृश्य वाणी हुई कि दूसरा पृष्ट तुम्हारे भाग्य में नहीं है और स्तम्भकपाट पुनः पूर्ववत् बन्द हो गया..... I अम्नु जितना मिला उतना ही क्या कम था, जो आगे जाकर कल्याणमन्दिर की भक्तिरस पूर्ण चमत्कार सिद्धि में कारण बना । यह घटना एक ऐसी घटना थी जो अक्सर उनके प्रात्मस्थर्य के समय उनकी आँखों में चित्रपट के समान अङ्कित हो जाया करती थी।
महाकालेश्वर का विशाल प्राङ्गण-जहाँ करोड़ों की संध्या में प्राज शंव और शाक्त बैठे हैं, नानाप्रकार के वैदिक यौगिक चमत्कारों का जिन्हें गर्व है। वे देखना चाहते हैं कि यह क्षपणक हम से बढ़ियां ऐसा कौनसा समस्कार दिखलाने का दावा कर रहा है, तथाकथित पाठों रस्न इसलिये प्रसन्न है कि आज उन्हें उनके अपने ही द्वारा पाली हुई ईष्या का साकाररूप देखने का सुयोग प्राप्त हो रहा है। उज्जयिनी मरेश विवेकी और परीक्षाप्रधानी थे। प्राभाविक शक्तियाँ हो उन्हें अपने वश में कर सकती थीं। हाँ, तो देदीप्यमान चेहरा अपनी ओर बढ़ता देख मानो शिवमूर्ति निस्तेज पड़ने लगी थी। राजा का संकेत पाकर कपिल द्विज बोला -. "तो क्षपणक जी करिये न नमस्कार शिवजी को; देखें आपका प्रारमवैभव।"
श्रद्धा वास्तव में बलवती होती है, उसके पागे सोचने या विचारने का कोई मूल्य नहीं । बस प्राचार्य जी की प्रांखों से वही चित्तौड़गढ़ का भव्य जिनमन्दिर. उसमें विराजमान वही सौम्यमूति पाश्र्वनाथ जी का बिम्ब, वही स्तम्भ और वहीं चमत्कारी पृष्ठ उस शिवमूर्ति के स्थान में दिखाई देने लगे !! एकाएक उनके मुह से भक्ति के आवेश में निम्न-श्लोक निवाल पड़ा
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( २४ }
करितोsपि महितोऽपि निरीक्षनोऽपि नूनं न चेतसि मया विद्युतोऽसि भवत्या । जातोऽस्मि तेन जन्बान्धव ! दुःखपात्र,
यस्मात्क्रिया: प्रतिफलन्ति न भावन्याः ॥ कल्याणमन्दिर श्लोक नं० ३०
..
इन भक्तिरस पूर्ण पंक्तियों में कहिये अथवा माचार्य श्री के उस पौगलिक वाणी में कहिये, कौन से ऐसे तत्त्व भरे थे, जिन्होंने कि उस समस्त विशाल जनसमूह को एक वारगो ही मन्त्रमुग्ध सा कर लिया। सब के नेत्र उसी एक व्यक्ति पर ही गड़े थे, उस मूर्ति की ओर कोई नहीं देखता था, जिसका कि एक २ परमाणु पराग मुद्रा में परिणत होने लग गया था। हाँ, समुदाय के चर्मचक्षु तो उस समय उस ओर मुड जबकि सर्वाङ्ग पूर्ण मुद्रा के प्रकाश पुञ्ज को तंज रश्मियां उनके पलकों से जा भिड़ी और फिर दांतों तले अंगुली दबाने के शिवाय उन्हें रह ही बया गया था, जो कि वास्तव में दयनीय था ।
परिणाम यह हुआ कि राजा समेत सभी उपस्थित जनता तत्काल समीचीन जैन-धर्म को अनुयायिनी हो गई। ओकारेश्वर का विशाल महाकालेश्वर का मन्दिर इसका ज्वलन्त प्रतीक है |
समयानुसार राजा की प्रेरणा पाकर श्री कुमुदन्द्राचार्य जी ने भक्तिरस से प्रतिप्रीत इस कलापूर्ण अद्वितीय चमत्कारी कल्याणमन्दिर स्तोत्र की रचना कर जन साधारण का महान कल्याण किया 1
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श्री पाश्र्वनाथाय नमः
कल्याण मंदिर स्तोत्र
मङ्गलाचरण श्रेयसिन्धु कल्याणकर, कृत निज पर कल्याण । पार्श्व पंचकल्याणमय, करो विश्व-कल्याण ।।
नीप्सितकार्य सिविधायक कल्यामन्दिरमुदारमवद्यभेदिभीताभयप्रदमनिन्दितमङघिपनम् । संसारसागर-निमज्जदशेषजन्तुपोतायमानमभिनम्य जिनेश्वरस्य ।।१।। यस्य स्वयं सुरगुरु गरिमाम्बुराशेः,
स्तोत्रं सुबिस्तृतमति नै विभु विधातुम् । -कल्याणमन्दिर सोत्र के इलोकों के ऊपर जो शीर्षक दिये गये हैं व देहली की प्रति के अद्धिमत्रों के फलानुसार पिले गये हैं।
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श्री बल्याणमन्दिर स्तोत्र सार्थ तीधेश्वरस्य 'कमठ' स्मयधमकेतो-- स्तस्याहमेष किल संस्तवनं करिष्ये ।।२।।
-(युग्मम) अनुपम करुणा की सु-मूर्ति शुभ, शिव मन्दिर अधनाशक मूल । भयाकुलित व्याकुल मानव के, अभयप्रदाता प्रति-अनुकूल ॥ विन कारन भवि जीवन ताग्न, भवसमुद्र में यान-समान । ऐसे पाद-पद्य प्रभु पारम. के प्रचूं मैं नित अम्लान ।। जिसकी अनुपम गुणगरिमा का, मम्बुराशि सा है विस्तार । यश-सौरभ सु-ज्ञान आदि का, सुरगुरु भी नहिं पाता पार ।। हठी कमठ शठ के मदमदन, को जो धूमकेतु-सा शूर । प्रति आश्चर्य कि स्तुति करता, उसी तीर्थपति की भरपूर ।।
श्लोकार्थ:-हे विश्वगुणभुषण | कलााणों के मन्दिर, अत्यन्त उदार, अपने और औरों के पापों के नाशक, संसार १-द्वाभ्यां युग्ममिति प्रोक्तं, त्रिभिः श्लोक विशेषकम् ।
कलापक चतुभिः स्या- तदूर्व कुलकं स्मृतम् ॥
अर्थ-- जहाँ दो श्लोकों में क्रिया का अन्दय हो उसे युग्म, तीन इलोकों में क्रिया का प्रत्यय हो उसे विशेषक, चार श्लोकों में किया का अन्वय हो उसे कलापक और इसीभांति जहाँ पांच छह सात आदि श्लोकों में क्रिया का अन्वय हो उसे कुलक कहते हैं।
नोट- इस स्तोत्र में मन्तिम श्लोक को छोड़ कर सर्वत्र "बसन्ततिलका' छन्द है ।
२- मोक्ष या कल्याण [कल्याणमक्षयम्वर्ग-इति विश्वलोपन कोषे पृ० १०७ श्लोक ४] -जहाण । ४-देवताओं का मन्त्री या इन्द्र के समान बुद्धिमान ।
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यंत्र मंत्र ऋद्धि प्रादि सहित के दुःखों में डरने वालों के अभयप्रद, अतिश्रेष्ठ, संसार-सागर में डूबते हुये प्राणियों के उद्धारक, श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्र के चरण कमलों को नमस्कार करके गम्भीरता के समुद्र, जिसकी स्तुनि करने के लिये विशाल बुद्धि ताला देवतागों का गुरु स्वयं वहस्पति भी समर्थ नहीं है, तथा जो प्रतापी कमठ के अभिमान को भस्मीभूत करने के लिये घूमकेतु अर्थात् सपुच्छग्रह (पुच्छल तारा) रूप हैं, उन तेईसवें तीर्थङ्कर श्री पार्श्वनाथ भगवान का मुझ जैसा अल्पज म्लवन करता है यह प्राश्चर्य है ! ।। १ ।। २ ।। निर्भयकरन परम परधान, भव-समुद जलतारन जान ।। शिवमन्दिर अघहरन प्रनिन्द, बन्दहं पास चरन-अरविन्द । कम ठमान-भंजन बरवीर, परिमासागर गुनगम्भीर ।। सुरगुरु पार लहैं नहिं जामु, मैं अजान जपों जस तासु ॥ श्लोक १-२-ऋद्धि ॐ ह्रीं मह णमो इठुकज्जसिद्विपरागं पजिणाणं ऋ ह्रीं मह णमो दध्वंकराण २ मोहिजिणाणं ।
मन्त्र- ॐ नमो भगवनो रिसहस्स तस्स पडिनिमित्तोण चरणपण्णत्ति इन्देण भणामइ यमेण उपाडिया जीहा कंठोठुमुहतालुया खीलिया जो मं भसह जो महसइ दुइदिठ्ठीए बज्जसिखलाए [३ देवदत्तस्स ] मण हिययं कोह जीहा खोलिया मेगालियाए ल ल ल ल ठः ठः ठः स्वाहा।
[-भैरवपद्मावतीकल्पे प्र. ८ श्लोक ८] विधि-श्रद्धापूर्वक उक्त मन्त्र को १०८ वार जपने के पश्चात् प्रतिवादी से वाद-विवाद करने पर जप करने वाले
१--जिन भगवान को नमस्कार हो। ३-प्रवधिज्ञानी लिनों को नमस्कार हो । :- पमुकस्य ।
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३० ]
श्री कल्याणमन्दिर स्तोत्र सार्थ
की विजय होती है । विपूर्वक प्रतिवादी का मुख बन्द हो जाता है और उसका पराजय होता है ।
ॐ ह्रीं कमठस्य धूमकेतूपमाय श्रीजिनाय नमः |
The poet declares his intention of praising Lord Parsvanatha
Having howed to the lotus feet of
thar Jineshvara ( Tirthankara, Lord Parsvanatha ). who is the ocean of greatness, whon ( even ) the preceptor of Gops ( Brihaspati) himself in spite of hiss upremely wide knowledge is unable to praise and who is a comet (or fire) in des*rnring the arrogance of Yamethethe feet which are the temple of bliss' which are sublime, which can destroy sins and give safety to the terrified, which are are fault less and (i.e. serva the purpose of) a life-boat for all beings sinking in the ocean of existence. I will indeed compose a hymn ( in honour of Him (1-2)
जलभय निवारक
सामान्य सोऽपि तत्र वर्णयितुं स्वरूप-मस्मादृशाः कथमधीश ! भवन्त्यधीशाः | १| घृष्टोऽपि कौशिकशिशु मंदि या दिवान्धो, रूपं प्ररूपयति किं किल धर्म रश्मेः ? ॥३॥
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यंत्र मंत्र ऋद्धि आदि सहित
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अगम अथाह सुखद शुभ सुन्दर, सत्स्वरूप तेरा अखिलेश ! | क्यों ऋरि कह सकता है मुझसा, मन्दबुद्धि मूरख करुणेश ! ॥ सूर्योदय होने पर जिसको, दिखता निज का १गात नहीं । ● दिवाकीति क्या कथन करेगा, ३मार्तण्ड का नाथ ! कहीं 1
श्लोकार्थ - हे सप्तभयविनाशक देव ! आपके गुणों का सामान्यरूप से भी वर्णन करने के लिये हम सरीखे मन्दबुद्धि वाले पुरुष कैसे समर्थ हो सकते हैं ? अर्थात नहीं हो सकते। जैसे जिसे दिन में स्वयं नहीं सूझता ऐसा उलूक (उल्लू) पक्षी का बच्चा धीट होकर भी क्या सूर्य के जगमगाते विम्ब का वर्णन कर सकता है 2 अर्थात् कदापि नहीं कर सकता ||३|| मनुष्यप्रति प्राह क्या हम
.
ज्यों विन छ उस्को पोस कहि न सके रविकिरन उक्षेत " ३- ऋद्धि- ॐ ह्रीं ग्रहणमो समुभयसामण बुद्धी मोहजिणं मंत्र-ॐ ह्रीं हरकतों बगलामुखी देवी नित्ये ! किन्न े ! मद्रवे! मदनातुरे ! वषट् स्वाहा ।
विधि पुष्यनक्षत्र के योग में इस महामन्त्रका २१ दिन तक १२००० जाप पूरा करने से तीनों लोक वशीभूत होते हैं।
ॐ ह्रीं
—
क्याधीशाय नमः ।
He points out his incompetency to under take
such a work.
On Lord 'how can persons like us succeed in giving even a general outline
१- शरीर २ – उल्लू नाम का पक्षी (दिवाकीति उलूके स्थातवि० लो० कोष पृ० १५५ श्लोक २१५) । ३ - सूर्य मानवानी जिलों को नमस्कार हो ।
४ –
।।
T
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३२ ] श्री कल्याणमन्दिर स्तोत्र सार्थ
of Thy nature ? Is indeed a young-one of an owl blind by day capble of describina ine orb of the hot-rayed one (Sun), however presumptuous it may be ?(3)
असमयनिधानवारक मोहक्षयादनुभवन्नपि नाथ ! मयों नूनं गुणान्गणयितु न तब क्षमेत । कल्पान्तवान्तपयस: प्रकटोऽपि यस्मा
न्भीयेत के.न जलधे ननु रत्नराशिः ? ॥४) यद्यपि अनुभव करता है नर, मोहनीय–विधि के क्षय से। तो भी गिन न सके गुण तुब सब, श्मोहेतर कर्मोदय से । ३प्रलयकाल में जब जलनिधिका, वह जाता है सब पानी पानी। रत्नराशि दिखन पर भी क्या, गिन सकता कोई ज्ञानो ? ॥
श्लोकार्थ-हे अनन्तगुणनिध ! जैसे प्रलयकाल के समय सब पानी निकल जाने पर भी साफ दिखने वाले समुद्र के रत्नों की गणना नहीं हो सकती, वैसे ही मोहाभाव से प्रतिभासमान आपके गुणों की गिनती भी किसी भी मनुष्य द्वारा नहीं हो सकती; क्योंकि आपके गुण अनन्तानन्त हैं ।।४।। मोहहीन जानै मन मांहि तोउ न तम गुन वरने जाहि ।। प्रलय-पयोघि कर जल ४वीन, प्रगटहि रतन गिने तिहि कौन ।।
१- वह कर्म जो मारमा को भुलाये रखता है और सदोष प्राप्त नहीं होने देता । २-शानावरणदि अन्य कर्म । ३- कल्पान्तकाल या परिवर्तनकाल।४-मन ।
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[ ३३
यंत्र मंत्र ऋद्धि श्रादि सहित ४ ऋद्धि- ॐ ह्रीं प्रणमोश्रकालमिच्छुवारयाणं 'सन्चो हिजिणाणं । मन्त्र ॐ नमो भगवति ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं श्रीं नमः स्वाहा ।
विधि - श्रद्धापूर्वक इस मन्त्र को ९ वर्ष तक हर वर्ष लगातार ४० रविवार के दिन प्रति रविवार को १००० वार अपने से गर्भपात और प्रकालमरण नहीं होता ।
ॐ ह्रीं सर्वपीडानिवारकाय श्रीजिनाय नमः |
He suggests that even the omniscieo: carnot commerate Thy virtues
'n sora: A Imortai is surely incapable of counting Thy merits, in spite of his realizing them, owing to the annihilation of his infatution, ( for ), who can measure the beap of jewels, though obvious, in the ocean emptied of waters at the time of the destruction of the universe ? (4)
प्रच्छशमप्रदर्शक
प्रभ्युद्यतोऽस्मि तव नाथ ! जडाशयोऽपि, कतु स्तवं लसदसंख्यगुणाकरस्य । बालोऽपि किन निजबाहुयुगं वितस्य, विस्तीर्णतां कथयति स्वधियाम्बुराशेः ? ||५|| - सर्वावधिज्ञानधारी जिनों को नमस्कार हो ।
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३४ ]
श्री कल्याण मंदिर स्तोत्र सार्थ
तुम प्रतिसुन्दर शुद्ध प्रपरिमित, गुणरत्नों की खानिग्वरूप । वचननि करि कहने को 'उमगा, अल्पबुद्धि मैं तेरा रूप ॥ यथा मन्दमति लघुशिशु अपने दोऊकर को कहै पसार । जल -निधि को देखहु रे मानव, है इसका इतना प्राकार ||
L
श्लोकार्थ हे गुणगणात्रिप! जैसे शक्तिहीन प्रबोध बालक सहज स्वभाव से अपनी पतली छोटी २ दोनों भुजाओ को पसार कर विशाल समुद्र के विस्तार फैलाव ) को बतलाने का असफल प्रयत्न करता है ठीक से ही है भगवत् । मे महामूर्ख तथा जड़बुद्धि वाला होकर भी पूर्व अपरिमित गुणों से सुशोभित आपके सच्चिदानन्द स्वरूप की अमर्यादित महिमा का वर्णन करने के लिये उद्यत हो गया हूँ ।। ५ ।
तुम असंख्य निर्मल गुण खानि । मैं मतिहीन कहौं निज वानि ॥ ज्यों वालक निज बांह पसार । सागर परिमित कहे विचार ।। ५ ऋद्धि - ॐ ह्रीं यह गमो गोधणवुद्धिकराणं प्रणतोहिजिणाणं । मन्त्र - ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ब्लूं ग्रहं नमः ।
विधि - प्रतिदिन श्रद्धापूर्वक १०८ बार ऋद्धि और मंत्र की जाप जपने से गुमी हुई मवेशी, लक्ष्मी तथा धन का लाभ होता है ।
ॐ ह्रीं सुखविधायकाय श्री पार्श्वनाथाय नमः ।
He mentions one by one the reasons of Commencing the lymo
though
dull-witted, have
Oh Lord ! I started to sing a song of Thine, the mine of
१ - उत्साहित हुआ । २ स्वरूप या स्वभाव ३-विस्तार या फैलाव ।
४
BAA
- श्रनन्त अवधिज्ञान वाले जिनों को नमस्कार हो ।
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यंत्र मंत्र ऋद्धि ग्रादि सहित
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innumerable resplendent virtures. (For) does not even a child describe according to its own intellect the vastness of the ocean by stretching its arms ? ( 5 )
सन्तानसम्पति प्रसाधक
ये योगिनामपि न यान्ति गुणास्तवेश !
वक्तुं कथं भवति तेषु ममावकाशः । जाता तदेव मसमीक्षित-कारितेयं,
जल्पन्ति वा निजगिरा नन् पक्षिणोऽपि ॥ ६ ॥
r
हे प्रभु! तेरे अनुपम सब गुण, मुनिजन कहने में असमर्थ । मुसा मूरख श्री प्रबोध क्या कहने को हो सके समर्थ ॥। पुनरपि भक्तिभाव से प्रेरित, प्रभु स्तुती को बिना विचार । करता हूँ, पंछी ज्यों बोलत, निश्चित बोली के अनुसार ॥
श्लोकार्थ - हे गुणगणालंकृतदेव ! आपके जिन अपरिमित गुणों का वर्णन करने में बड़े-बड़े योगी और घुरन्वर विद्वान तक अपने आपको ग्रममयं मानते हैं। उन गुणों का वर्णन मुझ जैसा अल्पज्ञ मानव कैसे कर सकता है? अतः स्तवन प्रारम्भ करने के पूर्व अपनी शक्ति को न तौल कर मैंने आपको जो स्तुति प्रारम्भ की है, वास्तव में मेरा यह प्रयत्न बिना विचारे ही हुआ, फिर भी मानवजाति की वाणी बोलने में प्रसमर्थ पशु पक्षी अपनी ही बोली में बोला करते हैं, वैसे ही मैं भी अपनी बोली में आपकी प्रभावशालिनी, पुण्यदायिनी स्तुति करने के लिये प्रवृत्त होता हूँ ॥ ६ ॥
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३६ ]
श्री कल्याणमंदिर स्तोत्र सायं
ર
जो जोगीन्द्र करहि तप खेद, तऊं न जानहिं तुम गुन भेद । भगतिभाव मुझ मन अभिलाख, ज्यों पंखी बोलहिं निज भाख ॥ ६ ऋद्धि - ॐ ह्रीं प्र णमो पुत्तइत्थिकराण कोठ्ठबुद्धीणं । मंत्र — ॐ नमो भगवति । श्रम्बिके ! अम्बालिके ! यक्षीदेवि यू यॉं ब्ले हल्की म्लं हसौं : र : रां रां दृष्ट्ि प्रत्यक्षं मम देवदत्तस्य वश्यं कुरु कुरु स्वाहा ।
( भैरवपद्मावतीकल्पे श्र० ६ श्लो० २ )
विधि - इस मंत्र से २१ वार दातोन मंत्रित कर उसी से दांत साफ करे पश्चात् २१ वार श्रद्धापूर्वक मंत्र का जाप जपने से इच्छित मनुष्य वश में होता है ।
ॐ ह्रीं श्रव्यक्तगुणाय श्री जिताय नमः ।
Oh Lord whence can it be within my scop to describe Thy merits, when even the masterly saints fail to do so? Therefore, this attempt of mine is a thoughtless act; or why, even birds do speak in their own tongue ( 6 )
अभीप्सितजनाकर्षक
प्रास्तामचिन्त्यमहिमा जिन ! संस्तवस्ते,
नामापि पाति भवतो भवतो जगन्ति । तीव्रातपोपहतपान्थजनान् निदाघे,
प्रीणाति पद्मसरसः सरसोऽनिलोऽपि ॥७॥
१- भाषा । २ - कोष्ठबुद्धिधारी जिनों को नमस्कार हो ।
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यंत्र मंत्र ऋद्धि मादि सहित
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है अचिन्त्य महिमा स्तुती की, वह तो रहे अापको दूर । जब कि बचाता भव-दु:खों से, मात्र आफ्का 'नाम' जरूर ।। प्रीष्म कु-ऋतु के तोत्र ताप से, पीडित पन्यो' हुये अधोर । पद्म-सरोवर दूर रहे पर नोषित करना सभीर ____इलोकार्य हे सातिशयनामन् ! जैसे गीष्मकाल में असह्य प्रचण्ड धूप से व्याकुल राहगीरों को केवल कमलों से युक्त सरोवर ही सुखदायक नहीं होते; पपितु उन जलाशयों को जल-फण-मिश्रित ठंडी २ झकोरे भी सुखकर प्रतीत होती हैं। वैसे ही हे प्रभो! प्रापका स्तवन ही प्रभावशाली नहीं है, वरन आपके पवित्र 'नाम' का स्मरण भी जगत के जीवों को संसार के दारुण दुःखों से बचा लेता है । वास्तव में प्रभु के गुणगान और उनके नाम की महिमा प्रचिन्त्य है ||७|| सुम जम महिमा अगम अपार, नाम एक त्रिभुवन आधार । पावे पवन पग्रसर' होय, ग्रीषम तपन निवारं सोय ॥ ७ ऋद्धि-ॐ ह्रीं अहं णमो अभिट्ठसाधयाणं बीजबुद्धीणं ।
मंत्र-ॐ नमो भगवमो प्रारमिस धंधेण बंधामि रक्ससाण,भूयाण खेयराणं,चोराण,दाढाण साईणीण, महोरगाणं अण्णे जेवि दुठ्ठा संभवन्ति तेसि सव्वेसि रण मुह गई दिछी बधामि धणु धण महाषणु ज: जः (जः ? ) ठः ठः ठः हुं फट् ( स्वाहा?)
-- भैरवपद्मावतीकल्पे प्र०७ श्लोक १७ ) विधि-हन बन के कठिन मार्ग पर चलते हुए भय उत्पन्न होने पर इस मंत्र द्वारा कुछ कंकरों को मंत्रित कर
-राहगीर । २ हवा । 1- कमलयुक्त सरोवर । ४-बीअबुद्धिषारी जिनों को नमस्कार हो ।
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३८ ] थी कल्याणमंदिर स्तोत्र सार्थ चारों दिशाओं में फेंकने से चोर, सिंह. मोदि का भय दूर
ॐ ह्रीं भवाटवी निवारकाय श्रीजिनाय नमः ।
God's name brtogs to an end the epele of briths and deaths
O Jina ! Let Thy hymn whose sublimily is inconceivable he out of considaration: ( for ). even Thy name sives the ( living beings of ihe ) three worlds from { this) worldly existence. Even the cool breeze of a lotus-lake gives deligbt in summer to the travellers formented by the immense beat ( of thco sun ). ( 7 )
कुपितोपदंशविनाशक हरतिनि त्वयि विभो ! शिथिलीभवन्ति,
जन्तोः क्षणेन निविडा अपि कर्मबन्धाः । सद्यो भुजङ्गममया इव मध्य-भाग .
मभ्यागते वनशिखण्डिनि चन्दनस्य ।।८।।
मन-मन्दिर में वास करहिं जब, अश्वसेन-वामा-न्दन । ढीले पड़ जाते कर्मों के, क्षण भर में दृढ़तर बन्धन ।। चन्दन के विटपों पर लिपटे, हों काले विकराल भुजङ्ग । वन-मयूर के आते ही ज्यों, होते उनके शिथिलिन प्रङ्ग ।
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१- वृक्षो। २- सर्प ।
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यंत्र मंत्र ऋद्धि प्रादिसहित श्लोकार्थ-हे कर्मबन्धनविमुक्त ! जिनेश ! जसे जंगली मयूरों के प्राते ही मलयागिरि के मुगन्धित चन्दन के सघन वृक्षों में कोउसकार लिपटे हुए भयङ्कर भुजङ्गों की दृढ़ कुण्डलिया तत्काल दाली पड़ जाती हैं ; वैसे ही ससारी जीवों के मन-मन्दिरों के उच्च सिंहासनों पर आपके विराजमान होने पर--प्रापका 'नाम-मंत्र' स्मरण करने पर उनके ज्ञानावरणादि अष्टकमों के कठोरतम बन्धन क्षणमात्र में अनायास ही ढीले पड़ जाते हैं | तुम प्रावत भविजन मन माहि. कर्मनिबंध शिथिल हो जांहि। ज्यों चन्दनतरु बोलहि मोर, इरहिं भजङ्ग लगे चहुँपोर ।।
८ ऋद्धि-ॐ ह्रौं पर्ह णमो उहगदहारीणं पादाणुसारीण।
__ मंत्र-ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथतीर्थङ्कराय हंस: महाहंसः पमहसः शिवहंस: कोपहंस: उरगेशहसः पक्षि महाविषभक्षि हुँ फट् ( स्वाहा ।)
...( भैरवपद्मावतीकल्पे प्र० १० श्लोक २९) विधि-इस मंत्र को प्रतिदिन १०८ बार जप कर सिद्ध करे । पश्चात् सपं उसे भावमी पर प्रयोग करे। प्रर्थात् मंत्र पढ़ते हुए झाड़ा देने से जहर दूर होता है।
ॐ ह्रीं कर्माहिबन्धमोचनाय श्रीजिनाय नमः । He mentions the result of contemplating God.
Oh Lord when Thou art enshrined in the heart by a living being, his firm fetters of
1-सवाकुसारी इनिधारी जिनों को नमस्कार हो ।
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४० ]
श्री कल्यणमंदिर स्तोत्र साथ
Karmans, however tight they may become certainly loose within a moment like the serpent-bands of a sandal tree, immediately when a wild peacock arrives at its centre ( 8 )
सर्पवृश्विकविषविनाशक
मुध्यन्त एव मनुजाः सहसा जिनेन्द्र ! रौद्ररुपद्रवशतैस्त्वयि
वीक्षितेऽपि ।
गोस्वामिनि स्फुरिततेजसि दृष्टमात्रे, वीरेरिवाशु पशवः प्रपलायमानैः ||६||
बहु विपदाएँ प्रबल वेग से करें सामना यदि भरपूर प्रभु दर्शन से निमिषमात्र में हो जातीं वे चकनाचूर ।। जैसे गो-पालक' दिखते ही, पशु-कुल को तज देतं चोर । भयाकुलित हो करके भागें, सहसा समझ हुप्रा अब भोर ॥
श्लोकार्थ — हे संकटमोचन । जिस तरह प्रचण्ड सूर्य, पराक्रमी भूपाल तथा बलिष्ठ गो-पालकों ( ग्वालों ) के दिखते ही भय से शीघ्र भागते हुए चोरों के पंजे से पशु-धन छूट जाता है, उसी तरह हे कृपालुदेव ! भापकी वीतराग मुद्रा को देखते हो मानव महा-भयङ्कर संकड़ों संकटों से तत्काल छुटकारा पाते हैं।
तुम निरखत जन दीनदयाल, संकट तें छूटहि तत्काल । ज्यों पशु घेर लेहि निशि चोर, ते तज भागह देखत - भोर ॥
१- गायों का स्वामी ग्वावा ), सेजस्वी सूर्य तथा प्रतापी राजा । २ - प्रातःकाल ।
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पत्र मंत्र ऋद्धि प्रादि सहित
[ ४१ ६ ऋद्धि-ॐ ह्रीं अहं शमो विसहरविसविणासयाण 'संभिण्णसोदाराणं ।
मंत्र-* इंदसेणा महाविज्जा देखलोगाम्रो मागया दिदिबंधणं करिस्सामि भडाणं भूपाणं अहिण दाढ़ीणं सिंगोणं चोराण चारियाणं जोहाणं वाघाणं सिंहाणं भूयार्ण गंधवाणं . महोरगाणं प्रसि । अण्णे वि . ) दुससाणं विद्विबंधणं मुहबंधणं करेमि ॐ इंदरिंदे स्वाहा ।
विषि-दीवाली के दिन निराहार रह कर १०८ वार इस मंत्र का जाप करे । पश्चात् मार्ग में चलते हुए इस मंत्र को २१ बार बोलने से सब प्रकार का भय तथा अपांवों की नाश होता है।
ॐ ह्रीं सर्वोपद्रवहरणाय श्रीजिनाय नमः ।
He points pat advantage of seelng God.
Oh Lord of the Jinas ! No sooner art Thou merely seen by persons, than they are indeed epontaneously released from bundreds of borsi. ble adversities, like the beasts from the thieves that are fleeing away at the mere sigbt of (1) the sun resplendent with lustre, (2) the king or (3) the cowherd shining with valour. (9) .
१--सम्भिन धोतृत्व नामक ऋद्धिधारी जिनों को नमस्कार हो ।
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४२ ]
श्री कल्याणमदिर स्तोत्र मार्थ
तस्कर भय विनाशक त्वं तारको जिन ! कथं भविना त एव,
__त्वामुद्वन्ति हृदयेन यदुत्तरन्तः । यद्वा दतिस्तरति यज्जल मेव नन...
____ मन्तर्गतस्य ममतः - लिलामहः ।। १ ।। भक्त प्रापके भव-पयोधि' से, लिर जाते तुमको उधार । फिर कैसे कहलाते जिनवर, तुम भक्तों की दृढ पतवार ? || वह ऐसे, जैसे तिरती है, चर्म मसक जल के ऊपर । भीतर उसमें भरी वायु का, ही केवल यह विभो ! असर' ।।
इलोकार्थ-हे भवपयोधितारक ! जिस तरह अपने भीतर भरी हुई पवन के प्रभाव से चर्म-मसक पानी के ऊपर तैरती हुई किनारे लग जाती है, उसी तरह मन-वचन काय से आपको अपने मन-मन्दिर में विराजमान कर आपका ही रातदिन चिन्सवन करने वाले भव्यजन संसार सागर में बेखटके (बिला बाधा के ) पार लग जाते हैं।
भावार्थ-भव्यजन पापको अपने हृदय में धारण करके संसार-सागर से तिर जाते हैं, इसका मतलब यह नहीं है कि भव्यजन आप ( भगवान ) को सारने वाले हैं । यह तो उसी तरह की बात है जिस तरह से मसक अपने भीतर भरी हुई हवा के प्रभाव से पानी में तैरती है । अर्थात् मसक को तिरने में जैसे उसमें भरी हुई हवा कारण है, वैसे ही भव-समुद्र से भव्यजनों के तिरने में उनके द्वारा वार २ किया
१- संसार समुद्र । २-हृदय में धारण करके । ३ - प्रभाव ।
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यंत्र मंत्र ऋद्धि प्रादि सहित
[ ४३
गया श्रापका चिन्तवन ही कारण है। इसलिए हे भगवन् ! श्राप भवपयोधितारक कहलाते हैं ।
तूं भविजन तारक किम होह, ते चित्त घारि तिरहि ले तोह । यह ऐसे कर जान स्वभाउ तिरे मसक ज्यों गभितवाउ' ।।
१० ऋद्धि - ॐ ह्रीं अहं णमो लक्खरभयपणासयाणं उजुमदीण* ।
मंत्र-ॐ ह्रीं चक्रेश्वरी चक्रधारिणी जलजलनिहिपारउतारणि जलं थंभय दुष्टान् देश्यान् दारय दारय असि वोपसमं कुरु कुरु ॐ ठः ठः ठः? ) स्वाहा |
विधि-गुरुवार के दिन पुष्य नक्षत्र का योग पड़ने पर घरा संघ को शुद्ध हृदय से ६० सिद्ध करे । पात् कार्य पड़ने पर २१ वार मंत्र का आराधन करने से हर तरह के पानी का भय नष्ट होता है ।
ॐ ह्रीं भवोदधितारकाय श्रीजिताय नमः |
He suggests the advantage of consiant contemplation about God.
Oh Jina! How art Thou the saviour of
ני
mundane beings when (on the contrary) they themselves carry Thee in their hearts while crosing ( the ocean of existence ) ? Or indeed, that a leather bag (for holding water) floats in
१-हवा । २ – ऋजुमति मन:पर्ययज्ञानभारी जिनों को नमस्कार हो ।
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,
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४४ ] श्री कल्याणमंदिरस्तोत्र सार्थ water, is certainly the effect of ite it inside i:. { 10)
जलाग्निभय विनाशक यस्मिन् हरप्रभृतयो ऽपि हतप्रभावाः,
सोऽपि स्वया रतिपतिः क्षपितः क्षणेन | विध्यापिता हुतभुजः पयसाऽथ येन,
पीतं न कि तदपि दुर्धरवाडवेन ? ||११ जिसने हरिहरादि देवों का, खोया यश-गौरष-सन्मान । उस मन्मथ' का हे प्रभु ! तुमने,क्षण में मेंट दिया अभिमान ।। सच है जिस जल से पल भर में, दावानल' हो जाता शान्त । क्यों न जला देता उस जल को?, बडवानल' होकर प्रशान्त ॥
श्लोकार्थ--हे अनङ्गविजयिन् । जिस काम ने ब्रह्मा, विष्णु, महेश प्रादि प्रख्यात पुरुषों को पराजित कर जन साधा. रण की दृष्टि में प्रभावहीन बमा दिया है। हे जितेन्द्रिय जिनेन्द्र ! उसी काम ( विषय वासनामों) को पापने क्षण भर में नष्ट कर दिया, यह कोई आश्चर्य का बात नहीं है। क्योंकि जो जल प्रचण्ड अग्नि को बुझाने की सामथ्यं रखता है, वह जल जब समुद्र में पहुंच कर एकत्र हो जाता है, तब क्या वह अपने ही उदर में उत्पन्न हुए बडवानल ( सामु. त्रिक अग्नि ) द्वारा नहीं सोख लिया जाता? अर्थात नहीं मला दिया जाता ? ॥११॥
१-कामदेव २-जगल की भयानक भग्मि । ३- सामुहिक अग्नि जो समुद्र के मध्यभाग से उत्पन्न होकर अपार जलशशि का पोषण कर लेती है।
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यंत्र मंत्र ऋद्धि आदि सहित भावार्थ-जैसे कि जल अग्नि को बुझाता है। लेकिन उमी जल को बडवानल सोख लेता है; वैसे ही है भगवन् ! जिस काम ने हरिहरादिक देवों को जीत लिया है, उसो काम को मापने क्षण भर में पराजित किया है। जिन सब देव किये बस वाम, त लिन में जीत्यो सो काम । ज्यों जल कर अग्निकूलानि, बडवानल पीवै सो पानि ।।
११ ऋद्धि-ॐ ह्रीं अहं णमो वाग्यिालणबुद्धीर्ण विउलमदीणं'।
मंत्र-ॐ नमो भगवति अग्निस्तम्भिनि ! पञ्चदिग्यो. नरणि ! श्रेयस्करि ! प्रज्वल प्रज्वल प्रज्वल सर्वकामार्थसानि ! ॐ अनलपिङ्गलोय के शिनि ! महाधिव्याधिपतये स्वाहा।
विधि-इस महामंत्र को भोजपत्र पर केशर प्रथवा हरताल से लिखकर उसे बढ़ती हुई अग्नि में डालने से तज्जन्य उपद्रव शान्त होता है।
ॐ ह्रीं हुतभन्भयनिवारकाय श्री जिनाय नमः । श्री फन यद्धिपार्श्व ( नाथ ? ) स्वामिने नमः ।
He establishes the pre-ecidence of Lord Persyn fo virtue
Df His dispassion
Even that Cupid ( the husband of Rati ) wbo baffled even Harr ( Siva ) and others was destro. yed within a TIDIment by Thee. ( For ), is not even that water which extinguishes ( earthly)
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श्री कल्याणमंदिर स्तोत्र सार्थ
conflagrations swallowed up by the irresistible subrnatine Sre ? (i)
अग्निभय विनाशक
४६
स्वा मित्रनपरिमाणमपि प्रपना
स्त्वां जन्तवः कथमहो हृदये दधानाः । नश्यनिलावडेट चिन्त्यो न हन्त महतां यदि वा प्रभावः ॥ ११२
जन्मदिधिषु
छोटी मी मन की कुटिया में, हे प्रभु! तेरा ज्ञान प्रार । कार उसे कैसे जा सकते, भविजन भव-सागर के पार ? पर लघुता से वे तिर जाते, दीर्घभार से डूबत नाहि । प्रभु की महिमा हो अचिन्त्य है, जिसे न कवि कह सकें बनाहि ॥
लोकार्थ हे त्रलोक्यतिलक ! जिसकी तुलना किसी दूसरे से नहीं दी आ सकती. अथवा विश्व में जिसकी बराबरी कोई नहीं कर सकता, ऐसे प्रतिगौरव को प्राप्त । श्रनन्त गुणों के बोझोले भार से युक्त ) आपको हृदय में धारण कर यह जीव संसार-सागर से प्रतिशीघ्र कैसे तर जाता है अथवा माचर्य की बात है कि महापुरुषों की महिमा चिन्तवन में नहीं पा सकती ।। १२ ।।
तुम अनन्त गमा गुन लिये, क्योंकर भक्ति वरू निज हिये । ह्व लघुरूप तिरहि संसार, यह प्रभु महिमा अकथ अपार ||
९- विपुल मतिमन:पर्यय ज्ञानी जिनों को नमस्कार हो । २ - स्वामिनतुल्यरिमाणमपि इत्यपि पाठः । ३ मरलता से । ४ - महान ।
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यत्र मत्र ऋद्धि प्रादि सहित
[ ४७ १२-ॐ ह्रीं ग्रहणमो पणलभयवज्जयाणां दसपुरवीणं'।
मंत्र-ॐ ह्रां ह्रीं हह ह्रौं ह्रः सिमाउसा वांछित मे कुरु कुरु स्वाहा।
विधि-श्रद्धापूर्वक इस महामंत्र का १२५००० सवा लाख वार जप करने से समस्त मनोवांछित कार्यों की सिद्धि होती है।
Power nf the great is unimagioable.
Wh Maste: cw d: ... ... ...। Tesort to Thee soon CToss the ccean of births ( and deaths) with the grealest ease, wheti they carry in their heart, Thee, that excessively heavy (dignified )? Or why, prowess of the great is incomprehetisible. (12)
जलमिष्टताकारक क्रोधस्त्वया यदि विभो ! प्रथमं निरस्तो,
ध्वस्तास्तदा 'वद कथं किन कर्मचौराः ? | प्लोपत्य मुत्र यदि वा शिशिरा ऽपि लोके,
नील माणि विपिनानि न कि हिमानी ?॥१३ क्रोध-शत्रु को पूर्व शमन कर, शान्त बनायो मन-प्रागार । कर्म-धोर जीते फिर किस विध, हे प्रभु अचरज प्रपरम्पार ।।
१-दशपूर्वधारी जिनों को नमस्कार हो। २-रत-इत्यपि पाठः। नाश कर या खपा कर ।
-...
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४८ ]
श्री कल्याणमंदिर स्तोत्र सार्थ
लेकिन मानव अपनी आंखों देखहु यह पटतर संसार | क्यों न जला देता बन- उपवन, हिम-सा शोतल विकट ' तुपार ।।
श्लोकार्थ - हे कोपदभन ! यदि आपने अपने क्रोध को पहिले ही नष्ट कर दिया तो फिर श्रापही बतलाइये कि आपने क्रोध के बिना कर्मरूपी चोरों का कैसे नाश किया ? अथवा इस लोक में बर्फ ( तुषार एकदम ठंडा होने पर भी क्या हरे-हरे वृक्षों वाले वन उपवनों को नहीं जला देता है ? अर्थात जला ही देता है ।। १३ ।।
भ्र
कोध निवार कियो मन ज्ञान्त, कर्म सुभट जीते किहि भांत? ॥ यह पटतर देखहु संसार, नील विरख ज्यों दहै तुषार || १३ - ऋद्धि ह्रीं यो रिक्वभयवज्जपाण चोहमपुब्वणं । मंत्र — ॐ ह्रीं प्रसिझाउसा सर्वदुष्टान् स्तम्भय स्तम्भय ग्रंथय श्रंश्य मूक मूकय मोहय मोहय कुरु कुरु ह्रीं दुष्टान्
ठः ठः ठः स्वाहा 1
विधि - पूर्व दिशा की ओर मुख करके किसी एकान्त स्थान में बैठकर या २१ दिन तक प्रतिदिन मुट्ठी बाँधकर इस मंत्र का ११०० दार जप करने से सब तरह के दुष्ट-क्रूर व्यन्तरों के कष्टों से मुक्ति होती है।
ॐ ह्रीं कर्मचोर विध्वंसकाय श्री जिनाय नमः |
How couldst Thou indeed (manage to)
destroy Karman-thieves, when Thou, oh Omnipresent one! hadst at the very
२- पाला १
१ - दृष्टान्त । पूर्वधारी जिनों को नमस्कार हो ।
३- हरे वृक्ष ।
४ - बौदह
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यंत्र मंत्र ऋद्धि प्रादि सहित
[४९ outset annihilated aliger ? Or why, does not the maag of snow though cold burn forests having dark-blue ( or fig ) tress ? (13)
शत्रुस्नेह जनक त्वां योगिनो जिन ! सदा परमात्मरूप
__ मन्वेषयन्ति हृदयाम्बूजकोष देशे । पूतस्य निर्मलरुमे यदि वा किमन्य
दक्षस्य' सम्भवपदं ननु कणिकायाः ।।१४।। शुखस्वरूप अमल अविनाशी, परमातम सम ध्यावहिं तोय । निजमन कमल-कोष मधि ढूंढहि,सदा साधु तजि मिथ्या-मोह।। अतिपवित्र निर्मल सू-कांति यूत, कमलकणिका बिन नहिं प्रौर। निपजत कमलबीज उसमें ही, सब जग जानहिं और न ठौर।।
श्लोकार्थः --हे तरण-तारण ! महर्षिजन परमात्मस्वरूप प्रापको सदा अपने हृदयाम्बूज के मध्यभाग में अपने ज्ञानरूपी नंत्र द्वारा खोजते हैं। ठीक ही है कि जिस प्रकार पवित्र, निर्मल कान्सियुक्त कमल के बीज का उत्पत्तिस्थान कमल की कणिका ही है, उसी प्रकार शुखात्मा के अन्वेषण का स्थान हृदय-कमल का मध्यभाग ही है ॥१४॥ मुनिजन हिये कमल निष टोहि, सिद्धरूपसम ध्यावहि तोहि । कमलकणिका बिन नहिं पौर, कमल-बीज उपजन की ठौर ।
१४ ऋद्धि-ॐ ह्रीं ग्रहं गमो भंसणभयझवणाण'पटुंगमहाणिमित्तकुसलाणं ।
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- -सम्भदि इत्यपि पाठः । २-बाजामा। .. अष्टांगमहा. निमित्तविता में प्रवीण जिनों को नमस्कार हो ।
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५० ]
श्री कल्याणमंदिर स्तोत्र सार्थ
मंत्र - ॐ नमो मेरु महामेरु, ॐ नमो गौरी महागौरी, ॐ नमो काली महाकाली, ॐ नमो ) इंदे महाइंदे, ( नमो ) जये महाजये, ( ॐ नमो विजये महाविजये, ॐ नमो पण्णसमणि महापण्णसमिणि अवतर अवतर देवि अवतर (अवतर ) स्वाहा'
विधि - श्रद्धापूर्वक इस मंत्र का ८००० बार जप करके मंत्र सिद्ध करे तथा आईना को उक्त मंत्र से मंत्रित कर सफेद स्वच्छ पवित्र कपड़े पर रखे, फिर उसके सामने किसी कुंवारी कन्या को सफेद वस्त्र पहना कर बिठावे पश्चात् उससे जो बात पूछोगे उसका वह सच्चा उत्तर देगी ।
ॐ ह्रीं हृदयाम्बुजान्वेषिताय ( श्रीजिनाय नमः ।
O
Jina the Yogins always search after Thee, the supreme soul in the interior of their heart-lotus-bud Or why, is there any other abode for the pure and the unsulliedly splendid lotusseed than the pericarp
(14) चोरिकागत द्रश्य दायक
ध्यानाज्जिनेश ! भवतो भविनः क्षणेन,
देहं विहाय परमात्मदशां व्रजन्ति । तीव्रानलादुपल भावमास्य भावमस्य लोके, चामीकरत्वमचिरादिव धातुभेवाः ।। १५ ।।
जिस कुधातु से मोना बनता. तीव्र अग्नि का पाकर ताव | शुद्ध स्वर्ण हो जाता जैसे, छोड़ उपलता पूर्व विभाव ||
१ विकृत अवस्था १
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[ ५१
यंत्र मंत्र ऋद्धि प्रादि महित वैसे ही प्रभु के सु-ध्यान से, वह परिणति आ जाती है। जिसके द्वारा देह त्याग, परमात्मदशा पा जाती है ।।
श्लोकार्थ हे अलौकिकवानपुंज ! जैसे संसार में जिन धातुओं से सोना बनता है. वे नाना प्रकार की धातुएँ तेज अग्नि के हाव मे अपने पूर्व पाषाणरूप पर्याय को छोड़कर शीघ्र स्वर्ण हो जाती हैं, वैसे ही आपके ध्यान से संसारी जीव क्षणमात्र में शरीर को छोड़ कर परमात्मावस्था को प्राप्त हो जाते हैं। जब तुह ध्यान धरे मुनि कोय, तब विदेह परमातम होय । में धातू शिलालन त्याग, कनकस्वरूप धर्व जब प्राग।
१५ ऋद्धि-ॐ ह्रीं ग्रह णमो अक्खरधणप्पयाण विश्वगपत्ताण'।
मन्त्र--ॐ ह्रीं नमो लोए सम्वसाहूण, ॐ ह्रीं नमो उवज्झायाण, ॐ ह्रीं नमो प्रायरियाण, ॐ ह्रीं नमो सिद्धाण, ॐ ह्रीं नमो अरिहताण, एकाहिक, अहिक, चार्थिक, महास्वर, क्रोधज्वर, शोकज्वर, भयज्वर, कामज्वर, कलितरव, महायोरान्, बंष बष ह्रीं ह्रीं फट् स्वाहा ।
__विधि-इस अनादिनिधन महामन्त्र का मन में स्मरण करते हुए नूतन श्वेत वस्त्र के छोड़ में गांठ बांधे, उसको गूगल तथा घी की धूनी देवे; तदुपरान्त उस वस्त्र को ज्वरपीडित रोगी को उढावे । मन्त्रित गांठ रोगी के शिर के नीचे दबाने से सब तरह के ज्वर दूर होते हैं और रोगी को सुख की नीद भाती है।
ॐ ह्रीं जन्ममरणरोगहराय ( श्रीजिनाय ) नमः । 1-क्रियिक ऋविधारी विनों को नमस्कार हो ।
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५२ ]
श्री कल्याणमंदिर स्तोत्र सार्थ
Muditation of Jina leads to equality witw Him.
Oh Lord of the Jina ! by mediting upon Thee, mundane beings attain in a moment the supreme status leaving aside their body, as is the case in this world with pieces of ore which soon cease to be stones and become gold by the application of severe heat. ( 15 )
गहन वन-पर्वत भय विनाशक
प्रन्तः सदैव जिन ! यस्य विभाव्यसे त्वं, भव्यः कथं तदपि नाशय मे शरीरम् ? । मध्यविवर्तिनो
स्वरूपमथ
हि. यद् विग्रहं प्रशमयन्ति महानुभावाः ।। १६ ।।
जिस तन से भवि चिन्तन करते, उस तन को करते क्यों नष्ट ? | अथवा ऐसा ही स्वरूप है, है दृष्टान्त एक उत्कृष्ट ।। जैसे 'बीचवान बन सज्जन, बिना किये ही कुछ "आग्रह । झगड़े की जड प्रथम हटाकर शान्त किया करते " विग्रह ||
एमत्
शरीर के मध्य में करते हैं, उस शरीर
श्लोकार्थ हे देवाधिदेव ! जिस स्थित करके भव्यजन सदेव बापका ध्यान को ही आप क्यों नाश करा देते हो ? जिस शरीर में आपका ध्यान किया जाता है, श्रापको उसकी रक्षा करना चाहिये, परन्तु प्राप इससे विपरीत करते हैं । अथवा ठीक ही है, कि
१ पश्य । २३ विद्वेषयः मापनी कलह ।
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यंत्र मंत्र ऋद्धि प्रादि सहित मध्यस्थ महानुभाव विग्रह (शरीर और कलह ) को शान्त कर देते हैं। प्रतः आप भी ध्यान के समय याता के शरीर क मध्य में स्थित होकर विग्रह अर्थात् शरीर को नष्ट कर देते हो प्रति अापके ध्यान से शरीर छूर जाता है और प्रारमा मुक्त हो जाता है ।। १ ॥ जाके मन तुम कह निवास, विनस जाय क्यों विग्रह तास ॥ ज्यों महन्त विच प्रावं कोय, विग्रह मूल निवारं सोय
१. ऋद्धि-ॐ ह्रीं मह ामो गहणवणभयणासयाणं तविज्जाहराण। ___ मंत्र--ह्रीं नमो रिहताण पादौ रक्ष रक्षत. ॐ ह्रीं नमो सिद्धरणं कर्टि रक्ष रक्ष, ॐ ह्रीं नमो पायरियाणं नामि रक्ष रक्ष, ॐन्हीं ममो उवझायाणं हृदयं रक्ष रक्ष,मोह्रीं नमो लोए सम्बसाइण ब्रह्माण्ड रक्ष रक्ष, हो एसो पंच णमुक्कारो शिखा रक्ष रक्ष, ह्रीं सध्वपावपणासणो भासनं रक्ष रक्ष, ॐ ह्रीं मंगलाण च सम्वेसि परमं होइ मंगलं मात्मरक्षा पररक्षा हिलि-हिलि मातगिनि स्वाहा ।
विधि---श्रापूर्वक इस महामंत्र का प्रतिदिन पाप करने से कार्माणादि कर्मों का दोष दूर होता है ।
ॐ ह्रीं विवाह निधारकाय भीजिनाय नमः ।
Uh jina ! How is it that Thou destroyest that very body of the, Bhavyas in the interior of which they enshrina Thee ? Or why, ibia in the nature of an arbitrator (one who remains impartial):
१-विमाधारी विनों को नमस्कार हो। २-मोवारो इत्यपि पाता।
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५४ ]
श्री कल्याणमंदिर स्तोत्र सार्थ श्री कल्याण
for, great personages bring the discord (the body ) to an end (or this is the nature; for, great pergona who are impartial, remove the quarrel). (16)
युद्धविग्रह विनाशकपारमा मनीषिभिरयं त्वदभेदबूद्धया,
यातो जिनेन्द्र भवतीह भवत्प्रभावः । पानीयमप्यमृतमित्यनुचिन्त्यमानं,
कि नाम नो विषविकारमपाकरोति ।।१७।। है जिनेन्द्र सुम में अभेद रख, योगीजन निज को ध्याते। तव प्रभाव से तज विभाव वे. तेरे ही सम हो जाते ।। केवल जल को दत-श्रद्धा से, मानत है जो सुपासमान । क्या न हटाता विष विकार वह निश्चय से करने पर पान?।।
श्लोकार्थ हे जिनेन्द्रदेव ! जैसे पानी में "यह अमृत है" ऐसा विश्वास करने से मंत्रादि के संयोग से वह पानी भी विविका रजन्य पीड़ा को नष्ट कर देता है। वैसे ही इस संसार में योगीजन प्रभेदबुद्धि से जा प्रापका ध्यान करते हैं तब वे अपने प्रात्मा को प्रापके समान चिन्तवन करने से माप ही के समान हो जाते हैं ॥१७॥ करहि विवुध चे प्रातम ध्यान, तुम प्रभाव से होय निदान । जैसे नीर सुषा अनुमान । पीवत विविकार की हान ।
१७ ऋद्धि- ॐ ह्रीं मई णमो कुटुबुद्धिणालयाणं चारणाणं'।
१-पारण शिपारी जिनों को नमस्कार हो।
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यन्त्र मन्त्र ऋद्धि प्रादि सहित
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मंत्र - यः यः सः सः हः हः धः वः उरुरिल्लय रुह हु ) रुहान्त ॐ ह्रीं पार्श्वनाथ दह वह दुष्टमार्गविषं क्षिप ॐ स्वाहा ।
( श्रीपार्श्वनाथस्तोत्रे गा० १६ मं० वि० पृ० ७१ ) विधि - इस मन्त्र से ७ वार अल मंत्रित कर जिस जगह सर्प काटा हो उस जगह छिड़कने से तथा उसी मंत्रित जल को पिलाने से सर्प का विष नाश होता है। अन्य विधे ले अधुनों के बिष का असर भी दूर होता है ।
ॐ ह्रीं प्रात्मस्वरूपध्येयाय श्रीजिनाय नमः |
Efficacy of meditation is extra-ordinary O h Lord of the Jinas! this soul, when meditated upon by the talented as non-distinct from Thee attains to Thy prowess in this world. Does not even water when looked upon as nectar verily destroy the effect of poison ? (17)
+
सर्वविष विनाशक त्वामेव वीततमसं परवादिनोऽपि,
नूनं विभो ! हरिहरादिधिया प्रपन्नाः । कि काचकाम लिभिरीश ! सितोऽपि शङ्ख, नो गृह्यते विविधवर्णविपर्ययेण ? || १८ ||
हे मिथ्या सम अज्ञान रहित, सुज्ञानमूर्ति ? हे परम यती । हरिहरादि ही मान मना करते तेरी मन्दमती ॥
१- पूजा या उपासना |
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५६ ] श्री कल्याणमंदिर स्तोत्र सार्थ है यह निश्चय प्यारे मित्रों, जिनके होत पीलिया रोग । श्वेत शंख को विविध वणं, विपरीत रूप देखें वे लोग।
श्लोकार्थ--हे त्रिलोकायशिखामणे जिस तरह पीलिया रोग वाला व्यक्ति सफेद वर्ण वाले भी शंख को पीला और मीला मादि अनेक रंग वाला मानना है उसी प्रकार अन्य मतालम्बी पुरुष रागद्वषादि अन्धकार से रहित प्रापको ही ब्रह्मा, विष्णु, महेश प्रादि मान कर पूजते हैं ॥१८॥ तुम भगवन्त विमल गुण लीन, समलरूप मानहिं मतिहीन । ज्यों पीलिया रोग दृग गहै, वन विवर्न संस्ख सौ कहै ।। १८ ऋद्धि-ओं ह्रीं पई पामोकपिनियोससाणं पाहामणाणं
मत्र-मों ह्रीं नमो अग्हिताणं, प्रों ह्रीं नमोसिखाणं, ओं ह्रीं नमो आयरियाणं, मोह्रींनमोउवझायाण, प्रों ह्रीं नमो लोए सम्बसाहणं, ओं ममो सुभदेवाए. भगवईए सव्यसुभमए, बारसंगपवयण जणणीए, सरसइए, सम्बवाणि, सुवण्णवणे, मों अवतर अवतर वेषि, मम सरीरं, पविस पूवं, तस्य पविस, सव्वअणभयहरीए, अरिहंतसिरीए स्वाहा।
विषि—इस मन्त्र को पढ़कर चाक मिट्टी को मन्त्रित कर तिलक लगावे। फिर रात्रि के समय सब मनुष्यों के सोने पर हाथ में जल से भरी भारी लेकर एकान्त स्थान में खड़े खड़े लोगों की वार्ता श्रवण करे। जो बात समझ में पाये उसी को सत्य समझे। मन में विचारे हुए कार्य का शुभाशुभ फल इसी सरह जात होता है।
प्रों ह्रीं परवादिदेवस्वरूपध्येयाय नमः। १- मेष । २--मने रंग वामर । -प्रमाश्रमण विनोको नमस्कार हो।
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यंत्र मन्त्र ऋद्धि मादि सहित
[
७
homnipotent Being ? even the followera of the other { non Jaina ) schools philosophy certainly resort to Thee alone, mistaking Thee for Hari, Hara illa Others-- Tiles vai bun ignorance has departed. For, Oh God : is not even a white conch mistaken for one having Various colours by those who suffer from Kachakamali (eyediseases like colour-blindness ) ? (13)
वेत्ररोग विनाशक धर्मोपदेशसमये सविधानुभावा
दास्तां जनो भवति ते तरुरप्यशोकः । अभ्युद्गते दिनपतो स पहीदोऽपि,
किंवा विवोधमुपयाति नजीवलोकः ।।१६।। धर्म - देशमा के सु-काल में, जो समीपता पा जाता। मानप की क्या बात कई तक कम-शोक है हो जाता ।। जीववृन्द नहिं केवल जागत, रवि प्रकटित ही होते । तर तक सजग होत प्रति हर्षित, निद्रा तज पालस खोते ॥
इलोकार्थ है पुण्यगुणोरकीत ! धर्मोपदेश के समय आपकी समीपता के प्रभाव से मनुष्य को तो बात क्या वृक्ष भी अशोक ( शोकरहित ) हो जाता है। अथवा ठीक ही है
१-उपवेश । २-वृष।
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५८ ]
श्री कल्याणमंदिर स्तोत्र सार्थ
कि सूर्य का उदय होने पर केवल मनुष्य ही विवीध जागरण) को प्राप्त नहीं होते किन्तु कमल, पवार, तोरई प्रादि वनस्पति भी अपने संकोचरूप निद्रा को छोड़कर विकसित हो जाती है।
(यह अशोकवृक्ष प्रातिहार्य का वर्णन है ) निकट रहत उपदेश सुनि. तरुवर भये प्रशोक ॥
ज्यों रवि ऊँगत जीव सब, प्रगट होत भुबिलोक ।। १५ऋद्धि- ॐ ह्रींन, णमो अविस्खगटणासयाणं प्रागासगामीण।
मंत्र-हसब्यसएलोमोन, णंयाज्झाबमोन, पंप्रारीयप्रामोन, द्वासिमोन, णताहरिप्रमोन, हुलहुलु, कुलकुलु. चलुचुलु स्वाहा।
विधि-इस प्रभावशाली महामन्त्र को श्रद्धापूर्वक जपने से मत्स्यादिकों की हत्या करने वालों के बन्धन ( जाल ) में फैसो हुई मछलियों तथा जलघर जीव मुक्त हो जाते हैं । ॐ ह्रीं प्रशोकप्रतिहार्योपशोभिताय श्रीजिनाय नमः ।
Jina's vicinity pferis Soltrow.
Leave aside ihe case of a human being, (for). even a tree becomes free from sorrow ( Asoka) on account of 119 being in Thy proximiiy at the time 1hou preachest religion Aye, does not the world of living beings including even trees awake at the rise of the sun ? (19)
१-माकाशगामी जिनों को नमस्कार हो।
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यन्त्र मन्त्र ऋद्धि प्रादि सहित
उच्चाटनकारक चित्र विभो । कथमबाड मुखवन्तमेव,
विष्वक् पतविरला सुपुष्पवृष्टिः । त्वद्गोचरे सुमनसां यदि वा मुनीश !,
गच्छन्ति ननमध एव हि बन्धनानि ।।२०।। है विचित्रता सुर बरसाते, मभी प्रोर से सघन-सुमन । नीचे डठल ऊपर पखुरी, क्यों होते हैं हे भगवन ।। है निश्चित, सुजनो मुमनों के, नीचे को होते बन्धन । तेरी समीपता की महिमा है, हे वामा–देवी नन्दन ।।
लोकाथं हे धमसाम्राज्यनायक ! देवों के द्वारा प्रापके ऊपर जो सधन पुष्पों की वृष्टि की जाती है, उनके डंठल नीचे को पोर और पाखुरी ऊपर की ओर रहती हैं, मानों वे डंठल इसी बात को सूचित करते हैं कि प्राप की निकटता से भव्यजनों के कर्मबन्धन नीचे को हो जाते हैं अर्थात् नष्ट हो जाते हैं ॥ २० ॥
( पुष्पवृष्टि प्रातिहार्य का वर्णन है) सुमनवृष्टि जो सुर कहि, हेट वीट मुख सोहि ।
स्यों तुम सेवत सुमनजन, बन्ध अधोमुख होहिं ॥ २०ऋति-ह्रीं महं णमो गहिलगहणालयाणं आसीविसाणं ।
मन्त्र-ॐ ह्रीं नमो भगवरो, ॐ (?) पासनाहस्स थमय सब्वामो ई ई, ॐ जिशाणाए मा इह, अहि हवंतु, ॐक्षा क्षी-हीं झू नौं सः स्वाहा। २ अवज्ञानरहित बने अथवा धागप्रवाहरूप से । २- नीचे ३ पापी विष ऋद्विधा (जिनों को नमस्कार हो ।
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६. ]
श्री कल्याण मंदिर स्तोत्र सार्थ
विधि-इस प्रभावक मंत्र से सफेद फल को १०६ वार मंत्रित कर उमे राज्यप्रमुख को सुधाने से वह साधनेवाले के वश में होता है और अपराध क्षमा कर देता है। ॐ ह्रीं पुष्पवष्टि प्रातिहार्योपशोभिताय श्रीजिनाय नमः ।
Jina s predette is miraculons
Vh pervader of the universe ! it is a matter of surprise that uninterinpled shower of celestial blossoms falls all around with their stalks turned down-wards: or why. ( it is natural thal) in Thy presence, oh master of saints ? fetters (stalks) of the good-minded ( flowers ) ( ought to ) certainly fall down. (23)
शुष्कवनोपवनविकाशक स्थाने गभीरहदयोदषिसम्भवाया:
पीयूषतां तव गिरः समुदीरयन्ति । पीत्वा यतः परमसम्मदसङ्गभाजो,
भव्या प्रजन्ति तरसायजरामरत्वम् ॥२१॥ प्रति गम्भीर हृदय-सागर से, उपजत प्रभु के दिव्यवचन । मम्मृततुल्य मान कर मानव, करते उनका अभिनन्दन । पी-पीकर जग-जीव 'वस्तुतः, पा लेते मानन्द अपार । अजर अमर हो फिर ये जगकी, हर लेते पीड़ा का भार ।।
१-निश्चयपूर्वक ।
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यंत्र मत्र ऋद्धि प्रादि सहित श्लोकार्थ- हे त्रिभुवनपते ! आपके प्रति उदार प्रभाध हृदयरूपी समुद्र से उत्पन्न हुई टिश्य-वाणी ( दिव्यध्वनि ) को संमारी जीव सुधासमान बतलाते हैं, सो यह बात सोलर पाना सच है क्योंकि धर्मानगगी भव्यजन मापकी उस अमृततुल्यवाणी का पान करके निराकुल प्रक्षय अनन्तसुख को प्राप्त करते हुए अमर पमर पद को प्राप्त करते हैं ॥२१॥
( यह दिव्यध्वनि प्रातिहार्य का वर्णन है ) उपजी तुम हिय उदधितं, वानी मुधा-समान । जिहि पीवत भविजन लहहि अजर अमर पद थान ।।
२१ ऋद्धि-ॐ ह्रीं ह्रीं अहं णमो पुफियतरुवनय गणं दिदिविसाणं।
मंत्र- ॐ अरिहंतसिद्धप्रायग्यि उवज्झायमठ्यसाह {णं' ) सव्वषम्मतित्थयाण, ॐ नमो भगवईए सुमदेवयाए शानिदेवयाए सवपवयणदिवयाण. दसण्हं दिसापालाणं चउर्ह लोगपालाणं, ॐ ह्रीं अरिहतदेवाणं नमः ।
विधि-श्रद्धापूर्वक इस मंत्र को १०६ वार जपने से सब कार्यों की सिद्धि होती है, जय-जय होती है मौर हिंसक जानवर सर्प चौरादिकों का भय दूर होता है।
ॐ ह्रीं अजरामरदिव्य ध्वनिप्रातिहार्योप-शोभिताय ( श्री ? ) जिनाय नमः ।
Jiga's sermon leads to immortality
is proper that tay speech which springs up from the ocean of Thy grave
१. युष्टि विपत्रिपारी जिनों को नमस्कार हो ।
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६२ ]
श्री कल्याणमंदिर स्तोत्र सार्थ
heart is spoken of as ambrosia: fo:, by drinking it, the Bhavyas who relict; participate in the supreme joy, quickly attain the status of permanent youth and immorlality (21)
__ मधुरफलप्रदायक स्वामिन् सुदूरमवनम्य समुत्पतन्तो,
___ मन्ये वदन्ति शुचयः सुरचामरौधाः । ये 5 स्म नति विदधत मुनिपुङ्गवाय,
ते न नमूर्ध्वमतयः खलु शुद्धभावाः ॥२२॥ दुरते चार-चवर 'अमरों से, नीचे से ऊपर जाते । भन्यजनों को विविधरूप से, विनय सफल वे दर्शाते ॥ शुद्धभाव से नतशिर हो जो, तव पदाज में झुक जाते। परमाद्ध हो ऊध्वंगतो को, निश्चय करि भविजन पाने ।।
लोकार्थ-हे समवसरणलक्ष्मीमशोभितदेव ! जब देवगण प्राप के कपर चंवर ढोरते हैं तब वे पहिले नीचे की ओर झुकते हैं और बाद में ऊपर की ओर जाते हैं मानो वे जनता को यह ही सूचित करते हैं कि जिनेन्द्रदेव को 'झुक झुक कर नमस्कार करने वाले व्यक्ति हमारे समान ही ऊपर को जाते हैं मर्थात् स्वगं या मोक्ष पाते हैं ॥२२॥
( यह चंवर प्रातिहार्य का वर्णन है) कहहिं सार तिहुंलोक को, ये सुरचामर दोय । भावसहित जो जिन नमें, तसु गति अरष होय ।।
१–यों द्वारा २-मस्तक झुका कर ३-चरणकमल
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यंत्र मंत्र ऋद्धि आदि सहित
[ ६३
२३ ऋॐि ह्रीं यह णमो तरु-पत्तणासवाणं 'उग
तवाणं ।
मत्र - प्रों हत्थुमले विणुमुडुमल ( ले ? ) ॐ मलिय ॐ सतुहुमाणु सीधुपता जेगया, मायासपायालगतॐ अलिजरेस सजरे स्वाहा ।
विधि - इस मंत्र को ७ बार जपते हुए मुख के सामने अपनी दोनों हथेलियों को मसल कर अच्छे प्रादमी के पास मिलने को जाने से लाभ होता है तथा राजा की ओर से सम्मान मिलता है।
·
ह्रीं चामरप्रातिहार्योपशोभिताय श्रीजिनाय नमः ।
The poet describes the fourth Pratiharya
Oh Lord ! I think, the clusters of
the sacred or bright) celestial chowrLOS (Chamarao) which firat bend very low and then rise up proclaim that those pure-hearted persons who bow 10 ( Thee) this raster of the sages are sure to the highest grde (22)
राज्यसन्मानदायक
गभीरगिरमुज्ज्वल हेमरत्न सिंहासनस्थमिह भव्य शिखण्डिनस्त्वाम् । मालोकयन्ति रभसेन दन्तमुच्चे -
श्रमीकराद्रिशिरसीव नवाम्बुवाहम् ||२३||
१-तप वाले जिनों को नमस्कार हो ।
श्यामं
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६४ ]
श्री कल्याण मंदिर स्तोत्र साथ उसवल हेम सुरल-'पीठ पर. श्याम सु-तन शोभित 'अनुरूप । प्रतिगम्भीर सु-'निःसृत वाणी, बसलाती है सत्य स्वरूप ॥ ज्यों सुमेरु पर ऊँचे स्वर से, गरज गरज धन बरसे घोर । उसे देखने सुनने को जन, उत्सुक होते जसे मोर ||
श्लोका--ह भगवन् : स्वपीनाना और रलक्षित सिंहासन पर विराजमान और दिपध्वनि को प्रकट करता हुमा प्रापका सांवला शरीर ऐमा जान पड़ता है जैसे स्वर्णमय सुमेरुपर्वत पर वर्षाकालीन नवीन कारने मेघ गर्जना कर रहे हों। उन मेघों को जैसे मयूर बड़ी उत्सुकता से देखते हैं उसी प्रकार भव्य जीव प्रापको भी बड़ी उत्सुकता से देखते हैं ॥२३॥
( यह सिंहासन प्रातिहार्य का वर्णन है) सिंहासन गिरि मेरु सम, प्रभु धुनि गरजत घोर । श्याम सुतन घनरूप लखि, नाचत भविजन-मोर ।।
२३ ऋद्धि ॐ ह्रीं ग्रह णमो बज्भय । बंधण ) हरणाणं 'दित्त तयाणं ।
मंत्र-ॐ नमो भगवति ! चण्डि ! कास्यायनि! सुभग' दुर्भगयुवतिजनानां (मा कर्षय पाकर्षय ह्रीं र र टयू संबोषट् 'देवदत्ताया हुवयं घ धे।
___विधि--इस मंत्र को दिन तक प्रतिदिन १०८ वार जपने से इच्छित स्त्री का आकर्षण होता है। ___ॐ ह्रीं सिंहासन प्रातिहार्योपशोभिताय श्री जिनाय नमः ।
-सिंहासन । २-प्रपूर्व ३.--प्रभी तरह निकलने वाली । ४.-मे। ५-दीप्ततप बाले जिनो को नमस्कार हो । ६-उस का नाम लेना चाहिये जिसका पाकर्षक करना है।
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यंत्र मंत्र ऋद्धि प्रादिसहित
[६५
The poet describes the fifth Pratikarya
The Bhavyas here ardently look ! Thee who art dark (in complexion ), whose speech is grave and who art seated on a glittering golden lion-throne studded with jewele, as is the case with the peacocks who eagerly inok at the mightily thundering, dark and fresh cloud which has arisen 10 the sumrnit of the golden Tountain (Meru) (23)
शत्रुविजित राज्यप्रदायक उद्गच्छता तव शितिधुतिमण्डलेन,
लुप्तच्छदच्छविरशोकतरुर्बभूव । सान्निध्यतोऽपि यदि वा तव वीतराग !
नीरागता व्रजति को न सचेतनोऽपि ? ॥२४॥ तुव तन भा'-मण्डल से होते. सुरता के पल्लव' छवि-छीन । प्रभुप्रभाव को प्रकट दिखाते, हो जड़रूप चेतना-हीन ।। जब जिनवर की समीपतातें, सुरतरू हो जाता गत-राग तब न मनुज क्यों होवेगा जप, वीतराग खो करके राग ? ।।
भावार्थ-हे वीतरागदेव ! जबकि अापके दैदीप्यमान भामण्डल की प्रभा से अशोक वृक्ष के पत्तों की लालिमा भी लुप्त हो जाती है, अर्थात् आपकी समीपता से जब वृक्षों का
१-गोलाकार कान्तिपुन्ज । २-पत्र। -लानिमारहित ।
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श्री कल्याणमंदिर स्तोत्र सार्थ राग ( लालिमा । भी जाता रहता है तब ऐसा कौन सचेतन पुरुष है जो आपके पान द्वारा या प्रापको समीपता से बीतसगता को प्राप्त न होगा ? ॥२४॥
(यह भामण्डल प्रातिहार्य का वर्णन है ) छवि हत होहि प्रशोकदल, तुत्र भामण्डल देख। घोतमम के निकट रह, रहत न गग विसेख ।। २४ ऋद्धि-ॐ ह्रीं अहं णमो रज्जदावयाणं 'तत्ततधाण ।
मंत्र-ॐ ह्रीं भरकरूपधारिणि ! चण्डशूलिनि ! प्रतिपक्षसैन्यं चूर्णय चूर्णय. धर्मय घुर्मय, भेदय भेदय,ग्रस ग्रस,पच पच, खादय स्वादय, मारय मारय हुँ फट् स्वाहा ।
(-श्री भैरव ५० क० अ० ५ श्लो०१७) विधि-श्रद्धापूर्वक इस मंत्र को १०८ बार जप कर चारों ओर लकीर फेरने से दुश्मन को सेना मैदान छोड़ कर भाग जाती है । साधक को जय होती है और हिम्मत बढ़ती है।
ॐ ह्रीं भामण्डलप्रातिहायंप्रभास्वते (श्री)जिनाय नमः ।
Ered God's presence destroys passions.
The colour of leaves of Asoka tree is ohacured by the dark halo of the orb cf Thy light (Bhamandala) which is spreading above Or why, oh passionless one! which animate being is not set free from allachment (and aversion) by the influence of Thy mere presence ? (24)
१-तप्ततप वाले जिनों को नमस्कार हो ।
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[ ६७
यंत्र मंत्र ऋद्धि प्रावि सहित
असाध्य रोग शामक
भो भो प्रमादमवधूय भजध्वमेन - मागत्य निवृतिपुरी प्रति सार्थवाहम् ।
एतन्निवेदयति देव !
जगस्त्रयाय
निःसुते ||२५||
"
नभ मंडल में गूंज गूंज कर, सुरदुन्दुभि' कर रही निनाद । रे रे प्राणी प्रातम हित नित, भज ले प्रभु को तज परमाद ।। मुक्ति धाम पहुंचाने में जो सार्थवाह वन तेरा साथ । देंगे त्रिभुवनपति परमेश्वर, विघ्नविनाशक पारसनाथ || भावार्थ है मुक्तिसार्थकवाहक ! प्रकाश में जो देवों के द्वारा नगाड़ा बज रहा है वह मानो चिल्ला-चिल्लाकर तीनों लोकों के जीवों को सचेत ही कर रहा है. कि जो मोक्षनगरी की यात्रा को जाना चाहते हैं वे प्रमाद छोड़कर भगवान पार्श्वनाथ की सेवा करें ।। २५ ।।
( यह दुन्दुभिप्रातिहार्य का वर्णन है )
सीख कहै तिहुँ लोक को, यह सुर-दुन्दुभिनाद । शिवपथ सारथिवाह जिन, भजह तबहु परमाद ।। २४ ऋद्धि - ॐ ह्रीं श्रीं णमो हिडलमलणाणं महा
तवाण' ।
1 – दुन्दुभि नाम का देवताओं का बाजा । २ शब्द | ३- सारथि सहायक वा असर ४- महातपधारी जिनों को
नमस्कार हो ।
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६८ ]
श्री कल्याणमंदिरस्तोत्र सार्थ
मंत्र - ॐ नमो भगवति ! बद्धगरुडाय सर्वविषविनाशिनि ! छिन्द छिन्द, भिन्द भिन्द, गृह गृह, एहि एहि भगवति ! विद्ये हर हर हूँ फट् स्वाहा ।
- ( श्री भैरवपद्मावतीकल्प श्र० १० श्लो० १६ १
विधि - इस मंत्र का शुद्ध पाठ करते हुए जहर चढ़े आदमी के नजदीक जोर जोर से डोल बजाने से जहर उतर जाता है ।
ॐ ह्रीं दुन्दुभिप्रातिराति श्रीतितमः ।
The seventh Pratiharya viz., the celestis) dram like the previous objects is suggestive.
०
God! I believe that the celestial drum which is resounding in the sky announces to the three worlds :- Haloo, Haloo, shake off itleness, approach ( this god ) and resort to him the leader of the caravan leading to (proceeding towards) the city of the final emancipation ( 25 )
वचन सिद्धिप्रतिष्ठापक
उद्योतितेषु भवता भुवनेषु नाथ !,
तारान्वितो विधुरयं विताधिकारः ।
१ - विह्निताधिकारः इत्यपियाठः ।
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यत्र मंत्र ऋद्धि प्रादि सहित
मुक्ताकलापकलितो' न सितातपत्र--
व्याजास्त्रिधा धृततनु धवमभ्युपेतः ।।२६।। अखिल-विश्व में हे प्रभु ! तुमने, फैलाया है विमल-प्रकाश । मत: छोड़ कर स्वाधिकार को, ज्योतिर्गण आया तव पास ।। मणि-मुक्ताओं को झालर युत. प्रातपत्र' का मिष लेकर । त्रिविध-रूप घर प्रभु को सेबे,निशिपति तारान्वित होकर ।।
उलोकार्य-हे अपूर्वतेजपुञ्ज ! आपने तीनों लोकों को प्रकाशित कर दिया, अब चन्द्रमा किसे प्रकाशित करें ? इसीलिए वह तीन छत्र का वेष धारण कर अपना अधिकार वापिस लेने की इच्छा से आपकी सेवा में उपस्थित हुआ है। छत्रों में जो मोती लगे हैं वे मानों चन्द्रमा के परिवार स्वरूप सारागण ही ६॥
( यह छत्रत्रय प्रातिहार्य का वर्णन है ) तीन छत्र त्रिभुवन उदित, मुक्तागत छवि देत । त्रिविधरूप धरि मनहुँ सति, सेवत नखतसमेत ॥ २६ ऋद्धि-ॐ ह्रीं ग्रह णमो जयपदाईणं 'घोरतवाण।
मंत्र-ॐ ह्रीं श्रीं प्राङ्गरे महाविद्ये येन-येन केनचित मम पापं कृतं कारितम् अनुमतं वा सत् पापं तमेव गच्छतु ॐ ह्रीं श्रौं प्रत्यङ्गिरे महाविद्य स्वाहा ।
विधि-प्रातःकाल एकान्त स्थान में पूर्वदिशा की मोर मुख करके तथा सन्ध्या समय पश्चिम की ओर मुख करके
१- कलितोकछवसितात इत्यपि पाठः । २-छत्र। ३-नक्षत्रों सहित । ४-घोरतपधारी जिनों को नमस्कार हो।
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४. ] श्री कल्याणमंदिर स्तोत्र सार्थ दोनों हाथ जोड़कर अम्मलिमुद्रा से १०८ वार मंत्र का जाप करने से दूसरों की विद्या का छेद होता है।
ॐ ह्रीं छत्रत्रयप्राति हायं विराजिताय श्रीजिनाय नमः । The post deligentes the eighth or the fipal Pratiharya
hLord ! as the worlds nave peer: (already illuminated by Thee, this rioon accompanied by stars, (being thus) deprived of her authority has certainly approached Thee by assuming the three bodies in the disguise of the ( three ) canopies which are shining on account of their being adorned by a cluater of pearls. (28)
वरविरोधविनाशक स्वेन प्रपूरितजगत्त्रयपिण्डितेन,
कान्ति-प्रताप-यशमामिव मञ्चयेन । माणिक्य-हेम-रजतप्रविनिमितेन,
'साल त्रयेण भगवनभितो विभासि ॥२७॥ हेम-रजत-माणिक से निर्मित, कोट तीन अति शोभित से । तीन लोक एकत्रित होके, किये प्रभू को देष्ठित से ।। अथवा कान्ति-प्रताप-सुयश के, संचित हुये 'सुकृत से ढेर । मानो चारों दिशि से प्राके, लिया इन्होंने प्रभु को घेर ।।
१-शाम इत्यपि पाठः । २-दी। -पुण्य ।
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[७१
यत्र मत्र ऋद्धि प्रादि सहित श्लोकायं-हे प्रतापपुरज ! समवसरण भूमि में आपके कारों पोर माणिक्य, स्वण और चांदी के बझे तीन कोट हैं, वे मानो आपकी कान्ति, प्रताप और कीर्ति के वर्तुलाकार समूह ही हैं।॥ २७ ॥ प्रभु तुम शरीर दुति रजत जेम, परताप पुंज जिमि शुद्ध हेम । अतिधवल सुजश 'रूपा समान, तिनके गह तीन विराजमान ।।
२७ ऋद्धि-ॐ ह्रीं अई गम) खलदृट्ठणासयाणं "घोरपरक्कमाणं।
____ मंत्र-ॐ ह्रीं नमी अरिहंताण, ॐ ह्रीं नमी सिद्धा, ॐ ह्रीं नमो पाइरियाणं, ॐ ह्रीं नमो ज्वज्झायाण, ॐ ह्रीं नमो लोए सम्यसाहणं, ॐ ह्रीं नमो गाणाय, ॐ ह्रीं नमो दसणाय, ॐ ह्रीं नमो चारित्ताय, ॐ ह्रीं नमो तवाय, ॐ ह्रीं नमो त्रैलोक्यवशंकराय ह्रीं स्वाहा ।।
विधि--इस महामंत्र का श्रद्धापूर्वक उच्चारण करते हुए जल-मंत्रित कर रोगी को पिलाने तथा उस पर छींटा देने से उसकी पीड़ा एवं दृष्टि-दोष ( नजर ) दूर होती है।
ॐ ह्रीं वप्रत्रयविराजिताय श्रीजिनाय नमः । The poet depicts the triad of remparts
Va (all) knowing being | Thou sbinest in all directions on accouat of the triad of the ramparts beautifully made of rubies, gold and silver-the triad whico 19 as it were the store of Thy lustre, prowess and glory, thal fill up the three worlds and are amassed togeiher (27)
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श्री कल्याणमंदिर स्तोत्र सार्थ
यश कीर्तिप्रसारक दिव्यत्रजो जिन ! नमन्त्रिदशाधिपाना
मुत्सृज्य रत्नरचितानपि मौलिबन्धान् । पादो श्रयन्ति भवतो यदि का परत्र',
त्वत्सङ्गमे सुमनसो न रमन्त एव ॥२८|| झुके हुये इन्द्रों के मुकुटों, को तजि कर सुमनों के हार। रह आसे जिन चरणों में ही, मानो समझ श्रेष्ठ प्राधार । प्रभु का छोड़ समागम सुन्दर, सु-मनस' कहीं न जाते हैं। तव प्रभाव से वे त्रिभुवनपति !, भव-समुद्र तिर जाते हैं ।
श्लोकार्थ-हे देवाधिदेव ! पापको नमस्कार करते समय में गुटों में जगी हुई
विमानाय सके श्रीचरणों में गिर जाती हैं मानो वे पुष्पमालायें प्रापसे इतना प्रेम करती हैं कि उसके पीछे इन्द्रों के रत्ननिर्मित मुकुटों को भी वे छोड़ देती हैं। अर्थात् आपके लिये बड़े बड़े इन्द्र भी नमस्कार करते हैं। सेवहि सुरेन्द्र कर नमित भाल, तिन सीस मुकुट सब देहि माल । सुव चरन लगत लहलहै प्रीति,नहि रमहिं और जन सुमन रौति ।।
२८ ऋद्धि-ॐ ह्रीं अर्ह णमो उवदववज्जणाण घोर• गुणाण ।
1-बापरत्र इत्यपि संभवति । २ -- फूलों। ३-विदान । ४.-बोरगुण बाले जिनों को नमस्कार दो।
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यंत्र मंत्र ऋद्धि आदि सहित मंत्र - ॐ ह्रीं शिवाय बुलु चुलु हुल हुलु कुलु कुलु मुलु मुलु कुरु स्वाहा।
विधि - इस प्रभावक मंत्र का श्रद्धापूर्वक एक लाख बार जप पूरा करने से दोनों लोकों में जय प्राप्त होती है, प्रताप बढ़ता है. पराधीनता नाश होती है तथा मनोरथ पूर्ण होते हैं ।
ॐ ह्रीं पुष्पमाला निषेवितचरणाम्बुजाय श्रहंते नमः ।
[ ७३
उपसमू इच्छिय मे कुरु
The poet praises God by resorting to a rhetorical inconsistency.
On Jina! celestial garlands of the
bowing lords of heavens leave aside their diadems, (even) though (they are) studded with jewels and resort to Thy feet. Or indeed the good-minded ( flowers ) do rat find pleasure any where else when there is Thy company. ( 28 )
आकर्षणकारक
त्वं नाथ ! जन्मजलधे विपराङ्मुखोऽपि, यत्तारयत्य सुमतो निजपृष्ठलग्नान् । युक्तं हि पार्थिवनिपस्य सतस्तवैव,
चित्रं विभो ! यदसि कर्म विपाकशून्यः ॥ २६
१ - पृष्ठिलग्नान् इत्यपि पाठः ।
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७४ ]
श्री कल्याणमंदिर स्तोत्र सार्थ भव-सागर से तुम परान्मुख', भक्तों को तारो कैसे ? । यदि तागे तो कर्म-पाक के, रस से शून्य अहाँ कैस ? ॥ प्रधोमुखो परिपक्व कलश ज्यों स्वयं पीठ पर रम्ब करके । ले जाता है पार सिन्धु के, तिरकर और तिरा करके ।।
इलोकार्थ-हे कृपालू देव ! जिस तरह जल में अघोमुख ( उलटा ) पक्का घड़ा अपनी पीठ पर मारून मनुष्यों को जलाशय से पार कर देता है, उसी तरह भव-यमुद्र से परान्मुख हुए आप अपने अनुयायी भव्यजनों को तार देते हो सो यह उचित ही है । परन्तु घडा तो जलाशय से यही पार कर सकता है जो विपाकसहित ( पकाया हुआ ) है; परन्तु आप तो विपाक ( कर्मफलानुभव ) रहित होकर तारते हैं। यह आपकी अचिन्त्य महिमा है ।। प्रभु भोगबिमुख तन कर्म दाह, जन पार करत भव-जल निवाह । ज्यों मादी कलश सुपक्व होय लै भार अधोमुख तिरहि तोय ।।
२९ ऋद्धि-ॐ ह्रीं अहं णमो देवाणुप्पियाणं घोरगुण' बंभचारीण।
मन्त्र---ॐ तेजोई सोम सुधा हंस स्वाहा । ॐ ग्रह ह्रौं ५वीं स्वाहा ।
विधि-भोजपत्र पर इस मत्र को लिखे और मोमबत्तो पर लपेटे फिर मिट्टी के कोरे घड़े में पानी भर कर उसमें उसे डालने से दाहज्वर नाश होता है।
ॐ ह्रीं संसारसागरसारकाय श्रीजिनाय नमः ।
-विमुख । २-ौंधा अर्थात मुह नीचे की पोर तपा पीठ कपर की पोर ।। -धोखाधारी जिनों को नमस्कार हो
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यंत्र मंत्र ऋद्धि श्रादि सहित
Even one who indirectly follows Jing i e directly follows Jainism gets liberated
On Lord I though Thou hast turned
away Toy face from the ocean of births (and deaths), yet Thou enablest the living beings clinging to Thy back to cross it Nevertheless, this is justifiable in the case of Thine that art the good governor of the world (Parthiva-nipa) This is also seen in the case of an earthen pot (Parthiva-nipa). But, this is strange that Thou art not subject to the effects of Karmans (Karma-vipaka-sunya ) whereas that earthen pot is not so. (There is another interpretation possible, viz., it is
strange that Thou enablest the beings to cross Samsara even when Thou art Karmavipaka-sunya, but such is not the case with
an earthen pot which is not annealed. (29)
असभवकार्यसाधक
aqram ! gåned,
कि वाऽक्षरप्रकृतिरप्य लिपिस्त्वमीश !
facàgazìsfa
जनपालक
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थी कल्याणमन्दर स्तोत्र सार्थ
प्रज्ञानवत्यपि सदैव कथञ्चिदेव,
ज्ञानं त्वयि स्फुरति विश्व विकासहेतुः ।।३०।। जगनायक जगपालक होकर, तुम कहलाते दुर्गत क्यों ? | यद्यापः अक्षर" मय स्वभाव है तो फिर अलिखित अक्षत क्यों" ज्ञान झलकता सदा पाप में, फिर क्यों कहलाते अनजान' । म्व-पर प्रकाशक अज्ञ जनों को, हे प्रभु ! तुम ही सूर्य समान ।।
लोकार्थ--हे जगपालक! आप तीन लोक के स्वामी होकर भी निर्धन हैं। अक्षरस्वभाव होकर भी लेखनक्रियारहित हैं; इमी प्रकार में अज्ञाना होकर भी त्रिकाल और त्रिलोकवर्ती पदार्थों के जानने वाले जान से विभूषित हैं।
जिस अलकार में शब्द से विरोध प्रतीत होने पर भी वस्तुतः विरोध नहीं होता उसे विरोधाभास अलंकार कहते हैं। इस श्लोक में इमी अलकार का प्राश्रय लेकर वर्णन किया गया है। उपर्युक्त अर्थ में दिखने वाले विरोध का परिहार इस प्रकार है
हे भगवन् ! ग्राप त्रिलोकीनाथ हैं और कठिनाई से जाने जा सकते हैं । अविनश्वर स्वभाव वाले होकर भी आकार रहित ( निराकार ) हैं । अज्ञानी मनुष्यों को रक्षा करने वाले हैं । आप में सदा केवलज्ञान प्रकाशित रहता है। तुम महाराज निर्धन निरास.तज विभव विभव सब जग विकास। अक्षर स्वभाव से लख न कोय, महिमा अनन्त भगवन्त सोय ॥
१-काशहेतुः इत्यपि पाठः । २-दरिद्र, प्रत्यन्त कठिनाई से बानने योग्य । ३ - प्रसरस्वभाव होकर भी मोमस्वरूप। -लिपि से लिखे नहीं जा सकते, फर्मलेपरहित । ५-प्रशानी होकर भो चमस्थ प्रशानियों को संगघन करने वाले ।
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यंत्र मंत्र ऋद्धि प्रादि सहित
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३० ऋद्धि-ॐ ह्रीं प्रर्ह पामो अपुवबलपदाण ग्रामोसहिपत्ताण ।
मंत्र-ॐ ह्रीं ग्रह नमो जिणाणं. लोगुत्तमाणं. लोगनाहाणं, लोगहियाणं. लोगपईवाणं, लोगपज्जोनगराणं, मम शुभाशुभं दर्शय दर्शय ॐ ह्रीं कर्णपिशाचिनी मुण्डे स्वाहा ।
विधि-श्रद्धापूर्वक इस मंत्र को शयन करते वक्त १०८ वार जपने से स्वप्न में किये हुए कार्य का संभावित शुभाशुभ फल मालूम पड़ता है।
ॐ ह्रीं अद्भुतगुणविराजितरूपाय श्रीजिनाय नम: ।
in Saviour of mankind ( Sarapalaka)! though Thou art the master of the universe, yet Thou arl poor ( Durgata) Oh God ! although Thy very nature is a letter ( Akshara ). yet Thou art notforming an alphabet (thou art Alipi) Moreover, how is it that knowledae the acause of ihe illumination of the universe permanently shines in Thee, ever when Thou art ignorant ( Ajianavoti)?
These apparent contradictions can by removed be rendering the verse as follows :--
१-प्राम-प्रौषधि प्राप्त जिनों को नमस्कार हो ।
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श्री कल्याणमन्दिर स्तोत्र सार्थ - --- ... --- - - -
__
..
--
Saviour cianici 's Tho ar! the master of the universe, Thou art realized wjih great difficulty (Durgala ). Or, Oh Saviour of mankind: ( Janapa) : though Thosd art the master of the universe, Thou art bald-headed ( Alakadurgata ). Or Though are the protector from the mundane existence ( Durga tas Thy very lahire is imperishable ( Akshara ), Thou art no1 enshroudid with Karman ( Alipi). And there is no wonder if knowledge, the cause of the illusi. naljon of the universe, always slines in Tliee, Evarn wheath 'Thou redeemest the ignorant (Ajnan avatil (30)
शुभाशुभ प्रश्न दर्शक प्रारभारसम्भूतनमामि रजांसि रोषा--
दत्यापितानि कमठेन शठेन यानि । छायापि तैस्तव न नाथ ! हता हताशो,
ग्रस्तस्त्वमी भिरयमेव परं दुरात्मा ।।३।। पुरव वर विचार क्रोध करि, कमठ धूलि बहु बरसाई। कर न सका प्रभु तव तन मैला, हुमा मलिन खुद दुखदाई। कर करके उपमर्ग घनेरे, थकि कर फिर वह हार गया। कर्मबन्ध कर दुष्ट प्रपंची, मुंह की खाकर भाग गया ।
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यंत्र मंत्र ऋद्धि प्रादि सहित
| ७९ दलोकार्थ हे जितशत्रो ! प्रापके पूर्वभव के वरी 'कमळ' ने माप पर भारी धूल उड़ा कर उपसर्ग किया परन्तु वह धूलि आपके शरीर की छाया भो नष्ट नहीं कर सकी, प्रत्युत तिरस्कार की दृष्टि से किया गया उसका यह कार्य तो दूर रहे किन्तु विफल मनोरण हताश वह दुष्ट कमठ का जीव ही रज-कणों ( पापकर्मों से कस कर जकड़ा गया || ३१ 11 कोयौ सु फमत निज़ वैर देख तिन करी घल वर्षा बिमख । प्रभु तुम छाया नहिं भई हीन, सो भयो पापि लम्पट मलीन ।
३१ ऋद्धि-ॐ ह्रीं अई णमो इविण्णत्तिटावयाणं बेलोसहिपत्ताणं ।
मंत्र-ॐ ह्रीं पाश्वयक्षदिव्यरूपाय महा (घ? } वर्ण एहि एहि ाँ कों ह्रीं नम: ।
-( भ. प. क. प्र. ३ श्लो० १९ ) विधि-इस मंत्र को श्रद्धापूर्वक जपने से दुष्ट दुश्मनों का पराजय होता है तथा उपद्रव शान्त होते हैं।
ॐ ह्रीं रजोवृष्टयक्षोभ्याय श्रीजिनाय नमः । Thone who try to harass Got are caught in their own trap.
M asses of dust which entirely filled up the sky and which were thrown up in rage by malevolent Kamatha failed to mar, oh Lord, even Thy loveliness. On the contrary, that very wretch whose hopes were shattered, was caught in this trap (of masses of dust). (31)
१-खे नीधि ऋद्धि प्राप्त जिनों को नमस्कार हो।
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८० ]
श्री कल्याणमन्दिर स्तोत्र सार्थ
दुष्टताप्रतिरोधी यद्गर्जतिघनौघमदभ्रभीमं,
भ्रश्यत्तडिन्मुस'ल मांसलधोरघारम् । दत्येन मक्तमथ दुस्तरवारि द.
तेनैव तस्य जिन ! दुस्त रवारिकृत्यम् ॥३२॥ उमड़ घुपड़ कर गर्जत बहुविध, तड़कत बिजली भयकारी । बरमा अति घनघोर दत्य ने. प्रभ के सिर पर कर डारी। प्रभु का कछु न बिगाड़ सकी वह मूसल सी मोटी घारा। स्वयं कमठ ने हठधर्मी वश, निग्रह अपना कर डारा ।'
श्लोकार्य हे महाबल ! प्राप पर मुसलपार पानी वर्षा कर कमर ने जो महान उपमग किया था उससे प्रापका क्या बिगड़ा? परन्तु उसी ने स्वयं अपने लिये तलवार का घाव कर लिया । अर्थात ऐमा खोटा कृत्य करने के कारण स्वयं उमने . घोर पापकर्मों का बन्ध कर लिया ।। ३२ ॥ गरजतन्त घोर घन अन्धकार, चमकत विज्जु जल मुसल धार । वरषठ कमठ धर गान रुद्र, दुस्तर करत निज भवसमुद्र ।।
३२ ऋद्धि-ॐ ह्रीं अहं णमो अमदणासयाणं जल्लोसहिपत्ताणं ।
मंत्र- ॐ भ्रम भ्रम केशि भ्रम केशि भ्रम माते भ्रम माते भ्रम विभ्रम विभ्रम मुह्म मुह्य मोहय मोहय स्वाहा ।
t-शकारो पि क्वचित् । २-अल्लोषषि ऋद्धि प्राप्त जिनों को.नमस्कार हो।
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यंत्र मंत्र ऋद्धि प्रादि सहित [८१ विधि- इस मंत्र को जपते हुए जमीन पर न गिरे हुए सरसों के दाने मंत्रित कर घर की चौखट पर डालने से उस घर के लोग गहरो निद्रा में निमग्न हो जाते हैं ।
ॐ ह्रीं कमठदत्यमुक्तवारिधाराक्षोम्याय श्रीजिनाय नमः ।
On Jina! that very shower which was let loose ( upon Thee) by the demon ( Kamatha )--the shower which was urilordable and excessively horrible and which was accompanied by a range of thundering mighty clouds, flashes of lightnings horribly emanating (froia ilie sky ) d ler.ble diops of water thick like a club served in hia own ( Kamatha's ) case the purpose of a bad sword . ( 320
उल्कापातातिवृष्टयनावृष्टिनिरोधक ध्वस्तोर्ध्वकेशविकृताकृति-मर्त्यमुण्ड--
पालम्बद्धयदवक्त्रविनियंदग्निः । प्रेतवजः प्रति भवन्तमपोरितो यः
सोऽस्याभवत्प्रतिभवं भवदुःखहेतुः ॥३३॥ कालरूप विकराल वक्ष विच, मृतमंडन की परि माला । अधिक भयावह जिनके मुख से, निकल रही अग्नीज्वाला ।।
१--छाती।
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५२ ।
श्री कल्याणमांदर स्तोत्र सार्थ
अगणिन प्रेत पिशाच असुर ने, तुम पर स्वामिन भेज दिये। भव भव के दुखहेतु क्रूर ने, कर्म अनेकों बांध लिये ॥ ___इलोकार्थ हे उपसर्गविजयिन् | कमठ के जीव में मापको कठोर तपस्या से चलायमान करने की खोटी नियत से जो विकराल पिशाचों का समूह माप की तरफ उपद्रव करने के लिये दौड़ाया था, उससे आपका कुछ भी बिगाड़ नहीं हुमा परन्तु उस कर कमठ के ही अनेक खोटे कर्मों का बन्ध हुग्रा, जिससे उसे भव भव में असह्म यातनाएँ झेलनी पड़ी ।।३३।। वस्तुछन्द -मेघमाली आग बल फोरि ।
भेजे तुरत पिशाचगान, नाथ पास उपमर्ग करन । अग्निजाल मलकत मुख धुनि,करंत जिमि मत्तवारण।। कालरूप विकराल भन, मुण्डमाल तिह कठ।
व निसंक वह रंक निज, करे कर्मदृढ़ गठ ।। ३३ ऋद्धि ॐ ह्रीं पह णमो प्रसणिपातादिवारयाणं सम्बोसहिपताणं ।
मंत्र ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ग्रां श्री ग्रः क्लीं क्लीं कलिकुण्ड पासनाह ॐ चुरु चुरु मुरु मुरु फुरु फुह फर फर { फार फार । किलि किलि कल कल धम धम ध्यानाग्निना भस्मीकुरु कुरु पुरय पुरय प्रणतानां हितं कुरु कुरु हुं फट् स्वाहा ।
विधि इस मंत्र का श्रद्धापूर्वक स्मरण करने से राज्य भय, भूतभय, पिशाचभय, डाकिनी शाकिनी हस्ती सिह सर्प विच्छ आदि का भय नष्ट होता है। ॐ ह्रीं कमठदत्यप्रेषिसभूतपिशाचाद्यक्षोम्याय श्रीजिनाय नमः ।
t...मदोन्मत हापी। २- सयौं पविघ्रिाप्त विनों को नमस्कार हो।
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यंत्र मंत्र ऋद्धि प्रादि सहित
[ ८३
Even that very troop of the ghosts that
was sent against Thee by him ( Kamatha }-- the ghosts who were ( round their necks ) garlands (reaching their chests) of skulls of human beings, with dishevelled and erect hair and distorted features, and who were belching fire from their dreadful mouths became the cause of mundane sufferings in every birth in hie ( Kamain)cise (20)
भूतपिशाचपीडा तथा शत्रुभय नाशक
धन्यास्त एव भूवनाधिप ! ये त्रिसन्ध्यमाराधयन्ति विधिवद्विधुतान्यकृत्याः ।
भक्त्योल्ल-सत्पुलकपक्ष्मल देह-देशाः,
पादद्वयं तव विभो ! भुवि जन्मभाजः ॥ ३४ ॥
पुलकित वन सु-मन हर्षित हो, जो जन तज मायाजंजाल । त्रिभुवनपति के चरण-कमल की सेवा करते तीनों काल ॥ तु प्रसाद भविजन सारे लग जाते भवसागर पार । मानवजीवन सफल बनाने, धन्य धन्य उनका अवतार ॥
श्लोकार्थ - हे त्रिलोकीनाथ ! जो प्राणी भक्ति से उत्पन्न रोमार्यो से पुलकित होकर सांसारिक अन्य कार्यों को छोड़कर तीनों सन्ध्याओं में विधिपूर्वक प्रापके चरणों की भाराधना करते हैं संसार में वे ही धन्य है ||३४||
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५४ ]
श्री कल्याणमन्दिरम्तोत्र सार्थ
जे तुब चरन कमल तिहुंफाल, सेवहि नजि मायाजजाल। भाव-भगति मन हरष प्रपार, धन्य धन्य जग तिन अवतार । ३४ ऋद्धि- अह्रींग्रहणमो भूतवाहावहारयाण विट्ठोसहिपत्ताण ।
मंत्र--ॐ नमो अरिहंताण ॐनमो भगवद महाविजज्जाए सत्तठाए मोर हुलु हुलु बुलु चुलु मयूरवाहिनीए स्वाहा।
विधि-पौष कृष्णा १० ( गुजराती मगसिर कृष्णा १० वी ) के दिन निराहार रहे कर इस मंत्र का श्रद्धापूर्वक १००८ बार जप करे। परदेशगमन, व्यापार तथा लेन-देन के समय उक्त मन्त्र का ७ बार स्मरण करने से लक्ष्मी और अनाज का लाभोता है।
ॐ ह्रीं त्रिकालपूजनीयाय श्रीजिनाय नमः ।
Thuse who devore their time in worshipping
God are sorting to
Lord of the universe blessed are those persons alone: who. by invingJ Isidee their other activities worship here the part of Thy feet, oh mighry one, torce a day ( tawn na and sunsat ) itcording to the prescribed rules, with the different parts of their bodies covered up with bristling hurripiration of devoilon. ( 34 )
१-- जिनका मल औषधिरूप परिणत हो गया है, उन जिनों को नमस्कार हो।
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यंत्र मंत्र ऋद्धि प्रादि सहित
E५
मृगी उन्माद अपस्मार विनाशक अस्मिन्नपारभवमानिधी मनीमा !
मन्ये म मे श्रवणगोचरतां गतोऽसि । ग्राकगिते तु तव गोत्र-पवित्र-मन्त्र,
कि वा विपद्विषधरी सविध समेत ?।।३५ इस असीम भव सागर में नित, भ्रमत अकथ दुख पायो। तोऊ सु-यश तुम्हारो साचों नहिं कानों सुन गयो । प्रभु का नाम-मन्त्र यदि सुनता. चित्त लगा करके भरपूर । तो यह विपदारूपी नागिन, पास न माती रहती दूर ।।
श्लोकार्थे - हे सङ्कटमोचन ! इस अपार संसार सागर में मैंने आपका नाम नहीं सुना अर्थात् पाएकी उत्तम कीति मेरे कानों द्वारा नहीं सुनी गई; क्योंकि निश्चय मे यदि आपका नामरूपी पवित्र मन्त्र मैंने सुना होता तो क्या विपत्तिरूपी नागिन मेरे समीप पाती ! अर्थात कभी न पाती ॥३५ । भवसागर मुंह फिरत अजान, मैं तुब सुजस सुन्यौ नहि कात् । जो प्रभुनाम मत्र मन घरं, तासौं त्रिपति भुजंगम डरै ॥ २५ ऋद्धि -ॐ ह्रीं अर्ह णमो मिगोरोप्रचारयाणं मणबलोणं ।
__ मत्र--ॐ नमो अरिहताण जम्ल्यूं नम:,ॐ नमा सिद्धाणं भम्ल्यू नमः, ॐ नमो पायरियाणं स्म्ल्ब्यू" नमः, ॐ नमो उवज्झायाण मरव्यू नमः, ॐ नमो लोए सन्वसाहूण छायूं नमः, देवदत्तस्य (अमुकस्य) संकटमोक्षं कुरु कुरु स्वाहा ।
विधि--सुन्दर चौकी पर इस मंत्र को लिख कर श्री -मनोबल घारी जिनों को नमस्कार हो ।
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श्री कल्याणमन्दिरस्तोत्र सार्ष पार्श्वनाथ स्वामी की प्रतिमा को पधरावे, पश्चात् चमेली के फूलों को चौकी पर चढ़ाते हुए ५०० वार मन्त्र का जाप करे । मह जप खडे र काम करना चाहिये : इस गर्ग संकों का नाश होता है और सर्वत्र जय जयकार होता है ।
मों ह्रीं पापन्निवारकाय भोजिनाय नम: ।
The poet commences self-examioation and
resorts to repeolance
Oh Lord of the saints ! I do not believe
that Thou hast ( Thy name has) ever come within ine range of my ears, in this endless ocean of existence; otherwise, can the venemons reptile of disasters approach (me), after toe pure incantation (in the form) of Thy appellation has been listened to (by me)?(35)
सर्पदशीकरण जन्मान्तरेऽपि तव पादयुगं न देव !
___ मन्ये मया महित-मीहित-दान-दक्षम् । तेनेह जन्मनि मुनीश ! पराभयानां,
जातो निकेतनमहं मथिताशयानाम् ॥३६॥ पूरव भव में तव चरनन की, मनवांछित फल की दातार । की न कभी सेवा भावों से, मुझ को हुआ आज निरधार ।। प्रतः रंक जन मेरा करते, हास्यसहित अपमान अपार । सेधक प्रपना मुझे बनालो, अब तो हे प्रभ जगदाधार !!
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[ ८७
यंत्र मन्त्र ऋद्धि श्रादि सहित
श्लोकार्थ - हे वरद ! मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि पहिले के अनेक जन्मों में मैंने मनोवांछित फलों के देने में पूर्ण समर्थ आपके पवित्र चरणों की पूजा नहीं की, इसीसे इस जन्म में में मर्मभेदी तिरस्कारों का श्रागार ( घर ) बना हुआ हूँ ६६
मनवांछित फल जिनपद मोहि, मैं पूरव भव पूजे नाहि । मायामगन फिर्यो धग्यान, करहि रंकजन मुझ अपमान || ३६ ऋद्धिह्रीं णमो वालवसीय रणकुसलाण वचणबलीगं मंत्र ॐ नमो भगवते चन्द्रप्रभाव चन्द्रेन्द्रमहिताय नयनमनोहराय ॐ चुलु चलु गुलु गुलु नीलभ्रमरि नीलभ्रमरि मनोहरि सर्वजन वश्यं कुरु कुरु स्वाहा ।
। श्री भै० ० ० ० ० ६ श्लोक १८ ) विधि - दीपमालिका के दिन पीली गाय के शुद्ध घृत का दीपक जलाकर नये मिट्टी के बर्तन में काजल बनाये । पश्चात् कार्य पड़ने पर काजल मांख में लगाने से सब प्रादमी वश में होते हैं।
ॐ ह्रीं सर्वपराभवहरणाय श्रीजिनाय नमः ।
A worshipper of God can never suffer from bumitlutions and disappointments
Op
b God ! I believe that Thy ( pair of ) feet capable of granting desired gifts has not been worshipped by me even in the previous births That is why I have (now)
१- वचनबली जिनों को नमस्कार हो ।
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थी कल्याणमन्दिर स्तोत्र सार्थ
become in this birth an object of humiliations and an abode of frustrated hopes (36)
नूनं न मोहतिमिरावत-लोचनेन,
पूर्व विभो ! सकृदपि प्रविलोकितोऽसि । मर्माविधो विधुरयन्ति हि मामनर्थाः,
प्रोचप्रबन्धगतयः कथमन्यथै ते ! १३७।। दृढ़ निश्चय करि माह-तिमिर से, मुद मुंदे से 4 लोचन । देख सका ना उनसे तुमको, एकवार हे दुखमोचन ॥ दर्शन कर लेता गर पहिले तो जिसकी गति प्रबल अरोक । ममंच्छेदी महा अनर्थक, माना कभी न दुख के थोक ।।
श्लोकार्थ-हे कष्ट निवारक देव ! मोहरूपी सघन अन्धकार से प्राच्छादित नेत्रसहित मैंने पूर्वजन्मों में कभी एक बार भी निश्चयपूर्वक आपको अच्छी तरह नहीं देखा, ऐसा मुझे दृढ़ विश्वास है ! यदि मैंने कभी प्रापका दर्शन किया होता तो उत्कट संसारपरम्परा के वर्द्धक मर्मभेदो अनर्थ मुझे क्यों दुखी करते ? क्योंकि मापके दर्शन करने वालों को कभी कोई भी अनर्थ दुःख नहीं पहुंचा सकता ॥३७॥ मोह तिमिर खायो दुग मोहि, जन्मान्तर देख्यो नहिं तोहि । तो दुर्जन मुझ संगति ग, मरूमछेद के कुवचन कहैं ।
३७ ऋद्धि-ॐ ह्रीं यह पमो सन्वराज-पयावसीयरणकुसलाणं कायबलीणं ।।
१-नेव । २--कायबली जिनों को नमस्कार हो ।
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यंत्र मन्त्र ऋद्धि आदि सहित
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- ॐ प्रमृते ! मृतोद्भवे ! मृतण ! प्रभुत श्रावय श्रावय सं मं क्लीं क्लीं ( ह. हृ ? ) ब्लूं ब्लूं (ह्रां ह्रीं' ) द्रां ह्रीं ह्रीं ह्रीं ? ) दावय छात्रय ह्रीं स्वाहा |
( - श्री ० १० क० प्र० २ श्लोक ८ )
विधि - श्रद्धापूर्वक इस मन्त्र से जल मन्त्रित कर श्राचमन करने से भूत ग्रह तथा शाकिनी आदि के उपद्रवों का नाश होता है।
ॐ ह्रीं सर्वम ( सर्वा ) नर्थमथनाय श्रीजिनाय नमः |
The sight of God averts adversities.
| is certain, oh Omnipotent ore ! that Thou hast not been formerly seen even once by me whose eyes are blinded by the darkness of infatuation. For. otherwise, how can these misfortunes which pierce the vital parts of the heart and which are quickly appearing in a continuous sucession, make me miserable ? ( 37 )
प्रसह्यकष्ट निवारक
श्राकणितोऽपि महितोऽपि निरीक्षितोऽपि,
नूनं न चेतसि मया विद्युतोऽसि भक्त्या । जातोऽस्मि तेन जनबान्धव ! दुःखपात्रं,
यस्मात्क्रियाः प्रतिफलन्ति न भावशून्याः ।। ३८
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i
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१०]
श्री कल्याणमन्दिरस्तोत्र सार्थ
का
देखा भी है, पूजा भी है, नाम भक्तिभाव अ० श्रद्धापूर्वक, किन्तु न ते इसीलिये तो दुःखों का मैं गेह बना हूँ फले न किरिया बिना भाव के है लोकोक्ति सुप्रचलित ही ॥
श्रवण किया । व्याज किया निश्चित हो ।
·
1
-A
श्लोकार्थ हे जनबान्धव ! पहिले किन्हीं जन्मों में मैंने यदि आपका नाम भी सुना हो. आपकी पूजा भी की हो तथा आपका दर्शन भी क्रिया हो तो भी यह निश्चय है कि मैंने भक्तिभाव से आपको अपने हृदय में कभी भी धारण नहीं किया, इसी लिये तो अब तक इस संसार में मैं दुःखों का पात्र ही बना रहा. क्योंकि भावरहित क्रियाएं फलदायक नहीं होतीं ॥ ३८ ॥
सुम्यो कान जस पूजे पाय, नैनन देख्यो रूप अघाय । भक्तिहेतु न भयो चित चाव, दुखदायक किरिया बिन भाव ॥ ३८ ऋद्धि - ॐ ह्रीं ग्रहं णमो तुम्सहकट्टणिवारयाणं खीरसवीण ।
मन्त्र — ॐ ह्रीं श्रीं ऐं अहं क्लीं ब्लें न यूँ नमिऊण पासनाह दुःखारिविजयं कुरु कुरु स्वाहा ।
विधि - इस चिन्तामणि मन्त्र का श्रद्धापूर्वक सवा लाख वार जप करने से चिन्तित कार्यों की तत्काल सिद्धि होती है । ॐ ह्रीं सर्वदुःखहराय श्रीजिनाय नमः ।
Prayers. eic., void af sincerity are fruittess.
Op
h philanthropist ! though I have even heard, worshipped and seen Thee,
- घर । २- क्षीरस्रावी ऋद्धिधारी जिनों को नमस्कार हो ।
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यन्त्र मन्त्र ऋतिपादि सहित
yet I Have not reverentally enshrined Theo in my heart Hence I have become an object of miseries: for, aclicre, (sech as hearing, worshippin and seeing The perfermed without sidcerity ( Bhava) do not yield fruits. (28)
सर्वज्वरशामक त्वं नाथ ! दुखिजनवत्सल ! हे शरण्य !
कारुण्यपूण्य वसत ! वशिनां वरेण्य ! भक्त्या नते मयि महेश ! दयां विधाय,
दुखाकुरोहलनतत्परतां विघहि ॥३६।। दीन दुखी जीवों के रक्षक, हे करुणासागर प्रभुवर । पारणागत के हे प्रतिपालक, हे पुग्योत्पादक ! जिनवर ।। है जिनेश ! में भक्तिभाव वधा, शिर धरता तुमरे पग पर । दुःखमूल निर्मूल कसे प्रभु, करुणा करके अब मुझ पर ।।
इलोकार्थ- हे दयालुदेव ! श्राप दीनदयाल, शरणागतप्रतिपाल, दयानिधान, इन्द्रियविजेता, योगीन्द्र और महेश्वर हैं पस: सच्ची भक्ति से नम्रीभूत मुझ पर दया करके मेरे दुखाकुरों के नाश करने में तत्परता कीजिये ।। ३९ ॥ महाराज शरनागत पाल. पतित उपारन दीन दयाल । सुमरन करहुं नाय निज शीस, मुझ दुख दूर करहु जगदोस ।।
३९ ऋद्धि-ह्रीं महं णमो सम्बजरसंतिकरणाणं सप्पिसवीणं'।
१- धुलरूपी जिनों को नमस्कार हा ।
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{ ९२ श्री कल्याणमदिरस्तोत्र सार्थ
मन्त्र-व्यू क्लीं जये विजये जयंते अपराजिते, जम्ल्यू जंभे, मल्ल मोहे, म्म्ल्यूँ स्तम्भे, मल्ब्यू स्तम्भिति, । अमुकं ) मोठ्य मोहय मम वश्य कुरु कुरु स्वाहा ।
विधि-इस मन्त्र के जाप में स्त्री का परम्पर में अाकर्षण होता है । मनुष्य साधं तो +त्री और म्बी साधे तो पुरुप ब्रश में होता है।
ॐ ह्रीं जगजीवदयालवे श्रीजिनाय नमः ।
The poel prigs to God to be gracious.
Us Lord, the cherishet cf affec!11! !os
the miser.tble ! the Protector the hoty abode of compassion (os residence of mercy and merit) ! the best amongst those who have contraolled their senses! great God! have pity on nie who devotedly bow to Thee; and abow readiness to destroy sprouls of my sufferings. (39)
विषमज्वविघातक निः सख्यसारशरणं शरणं शरण्य ...
मासाद्य सादितरिपुरथितावदातम् । त्वत्पादपङ्कजमपि प्रणिधानवन्ध्यो,
बन्ध्योऽस्मि तद्भुवनपावन ! हा हतोऽस्मि॥४०॥ १-- 'सावितरिपु' इति भित्रं पद वा ।
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यन्त्र मन्त्र ऋद्धि प्रादि सहित
{६३ हे शरणागत के प्रतिपालक प्रशरण जन को एक शरण । कामविजेता त्रिभुवन नेता, चारु चन्द्रसम विमल वरण ।। तव पद-पङ्कज गा करके हे. प्रतिभाशाली बडभागी। कर न सका यदि ध्यान अापका, हूँ अवश्य तव हतभागी॥
श्लोकार्थ - हे भवनपावन ! अापके अशरशरण, शरणागतप्रतिपालक, कर्मविजेता और प्रसिद्ध प्रभावशानी चरण-कमलों को प्राप्त करके भी यदि मैंने उनका ध्यान नहीं किया तो मुझ सरीखा प्रभागा कोई नहीं ।। ४० ।। कर्मनिकदन महिमा सार, पसरनसग्न सुजम बिम्नार । माहि मेये प्रभु तुपरे पांग, नो मुझ जनम अकारथ जाय ।।
४० लि.... पो . हा- गलाम मधुसबीणं ।
मन्त्र--ॐ नमो भगवते भल्ब्यूँ नमः स्वाहा
विधि -श्रद्धापूर्वक इस मंत्र के जाप जाने से सब प्रकार के विषमज्वर दूर होते हैं
ॐ ह्रीं सर्वशान्तिकराय श्रीजिन चरणाम्बुजाय नमः ।
ven after having attaired as a refuge Thy Jotus-feet, which are the resina piac:: of innumerablroxellences, which are An ohject ît to be resorted to aid the which h.18 0:9troyed the fams prowess of forg { liki
१ -महसवाणं तथा महरसवाणं इत्यपि पाठः मधुमाकी जिनों को नमस्कार हो।
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९४]
श्री कल्याण मन्दिरस्वोत्र सार्य
attachment of which has destroyed enemies üni 2ch is 'nel-1:07:1. purit) I?! am lacking in the profound religious meditation, oh Purifier of the universe (or pure in the worlds!! lam fit to be killed and hence ulas, I arr: undore. (401
प्रस्त्रशस्त्रविघातक
देवेन्द्रवन्ध ! विदिताखिलवस्तु-सार !
संसारतारक ! विभो ! भुवनाधिनाथ ! । प्रायस्व देव ! करुणाहृद ! मां पुनीहि,
सीदन्नमय भयदन्यसनाम्बुराशेः ।।४।।
अखिल वस्तु के जान लिये है सर्वोत्तम जिसने सब सार । हे जगतारक ! हे जगनायक ! दुखियों के हे करुणागार ।। वन्दनीय हे दयासरोवर ! दोन दुखी का हरना त्रास । महा-भयङ्कर भवभाग र से, रक्षा कर प्रश्न दो सम्बवास ।।
श्लोकार्थ- हे देवेन्द्रवन्ध सर्वज्ञ, जगततारक, त्रिलोकी नाथ, दयासागर, जिनेन्द्र देव ! आज मुझ दुखिया की रक्षा करो तथा भतिभयानक दुःख-सागर में बचाप्रो । सुरगन वन्दित दयानिधान, जगतारन जगपति जगजान । दुखसागर तें मोहि निकास, निरभ थान देहु सुख सस ।
४१ ऋद्धि---ॐ ह्री अहं णमो वप्पलाहकारयाण प्रमइसवोण ।
१-- ममततायी जिनों को नमस्कार हो ।
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यन्त्र मन्त्र ऋद्धि आदि सहित
[ ९५ मन्त्र-ॐ नमो भगवते ह्रीं श्रीं क्लाए नम: स्वाहा
विधि-श्रद्धापूर्वक इस मन्त्र का जाप करने से बरी के अस्त्र शस्त्रादि कुण्ठित हो जाते हैं।
ॐ ह्रीं जगन्नायकाय श्रीजिनाय नमः ।
Un object of Worship for the lords of gods Conversant with the essence of fivery object ! Savicur from this worldly existence (the ferryman that enables to cross the ocean of existence ) | Pervader of the Universe ! Ruler of the world ! save me, ota God: oh reservoir of cempassion ! purity me who am now-a-days sinking in the terrifying sea of sufferings. ( 41 )
स्त्रीसम्बन्धिपमस्तरोगशामक यद्यस्ति नाथ ! भववर घिसरोरुहाणां,
भक्तः फलं किमपि सन्ततसञ्चितायाः' । तन्मे त्वदेकशरणस्य शरय ! भूयाः,
__ स्वामी स्वमेव भुवनेऽत्र भवान्तरेऽपि ॥४२।। एकमात्र है शरण मापकी, ऐसा मैं हूँ दीनदयाल । पाऊँ फल यदि किश्चित करके, धरणों की संवा चिरकाल ।। तो हे तारनतरन नाथ हे, अशरणा शरण मोक्षगामी । बने रहें इस परभव में बस, मेरे आए मदा स्वामी ।
१-सम्तात त्याप पाठः ।
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१६ श्री कल्याण मन्दिरस्तोत्र सार्थ
इलोकार्थ- हे नाथ ! आपकी स्तुति कर मैं आपसे पन्य किसी फल को चाह नहीं रखता. केवल यही चाहता है कि भव भवान्त गे में सदा आप ही मेरे स्वामो रहे, जिसमें कि मैं आपको अपना प्रादर्श बना कर अपने को मापके समान बना सक् । ४२ ॥ मैं तुम चरन कमल गुन गाय. बहुविधि भक्ति करी मन लाय । जन्म जन्म प्रभ पावई तोहि, यह सेवाफन दोजे मोहि ।।
४२ ऋद्धि-ॐ ह्रीं अहं णमो इत्यिरत्तरोपणासयाण प्रमखीणमहाणसाणं 1 । ___मन्त्र ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं प्रहं अमिमा उसा भूर्भुवः स्वः चक्रेश्वरी देवी सर्वगेगं भिद भिद ऋद्धि वृद्धि कुरु कुरु स्वाहा ।
विधि -श्रद्धापूर्वक इस मंत्र का प्रतिदिन १०८ दार जाप करने से स्त्रीसम्बन्धी समस्त कठिन रोगों का नाश होता है और सर्व सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं ।
*ही असारणशरणाय श्रीजिनाय नमः ।
Oh Lord ! i: there can be any IAward whatscever for my having been devoted to Thy lolus-ent for a series of births, mavest Thou yield protection in me who have thee as the only reluje ( or Thee alone as the refuge) and mayes Thou alone be my master in this world and even in my future life { incarnations). (48)
५-मक्षीणमहानस ऋद्विषारी जिनों को नमस्कार हो।
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यंत्र मंत्र ऋद्धि आदि सहित
बन्धनमोचक एवं वैभववर्द्धक इत्थं समाहितधियो विधिवजिनेन्द्र !
सान्द्रोल्लसत्पुलककञ्चुकिताङ्गभागाः । त्वद्विम्बनिर्मल मुखाम्बुजबद्धलक्ष्याः' , ये संस्तव तव विभो ! रचयन्ति भव्याः।।४३
। पार्या छन्द) जननयनकुमुदचन्द्र-प्रभास्त्र: स्वर्गसम्पदो भुक्त्वा । ते विगलितमलनिच या, अचिरान्मोक्षं प्रपद्यन्ते ।।४४।। है जिनेन्द्र । जो एकशि नव निरत इकटक कमल-बदन । भक्तिसहित सेवा से पुलकित, रोमाञ्चित है जिनका तन ।। अथवा रोमावलि के ही जो. पहिने हैं कमनीय वसन । यों विधिपूर्वक स्वामिन् तेरा, करते हैं जो अभिनन्दन ।।
जन-द्गरूपी 'कुमुद' वर्ग के, विकसायनहारे राकेश ! | भोग भोग स्वों के वैभव, मष्टकममल कर निःशेष ॥ स्वल्पकाल में मुक्तिधाम को, पाते हैं वे दशाविशेष । जहाँ सौख्य साम्राज्य अमर है, आकुलता का नहीं प्रवेश ।।
___ भावार्थ हे जितेन्द्रिय जिनेश्वर ! जो भव्यजन उपरोक्त प्रकार से प्रमादरहित होकर प्रापके देदीप्यमान मुखारविन्द
1 --'लन लक्ष्यं शरख्यकम्' इत्यभिषारितामगिकोष
का , लोक ४१, २-चन्द्र ।
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श्रो कल्याणमन्दिरस्तोत्र मार्थ की ग्रोर टकटकी लगाकर और सघन तथा उठे हुए रोमाञ्चरूपी वस्त्र पहिन कर विधिपूर्वक प्रापकी स्तुति करते हैं, वे भव्य देवलोक की सुखकर विविध सम्पत्तियों को भोग कर अष्टकर्मरूपी मल को प्रात्मा से दूर कर अविलम्ब अविनाशी मोक्ष मुख पाते हैं ।। ४३ ॥ ४४ ।
इहि विधि श्रीभगवन्त, सुजस जे भविजन भाहि । हे निज पुण्य भंगार मुनि सिरपार पनाम हिं ।। रोम रोम हुनसंत अंग, प्रभु गुन मन ध्यावहि । स्वर्ग सम्पदा भुज, वेग पंचम गति पावहि ।। यह 'कल्याण मन्दिर' कियो, कुमुदचन्द्र की बुद्धि ।
भाषा कहत बनारसी, कारन समकित मुद्धि ।। ४३ ऋद्धि-*ह्रीं अह णमो बंदिमोप्रगाणं मब्बसिद्धायदणाणं
मंत्र - ॐ नमो भगवति । हिडिम्बवासिनि ! मल्लल्लमांसप्पियेन हयल मंडलपइदिए तुह रणमत्ते पहरणटू पायासमंडि ! पायालमंडि सिद्धमरि जोइणिमंडि सन्यमुझमंडि कज्जलं पडउ स्वाहा।
( - श्री भै० ५० क० प्र० ९ श्लोक० २२ ) विधि-अँधियारी अष्टमी के दिन ईशान की ओर मूख करके इस मंत्र का जाप जपे। काले धतूरे के तेल का दीपक जला कर नारियल की खोपड़ी में काजल पाड़े 1 उम काजल से कपाल पर त्रिशूल का निशान बनाने तथा नेत्रों में लगाने से सब प्रकार के मय नष्ट होते हैं और चित्त की उद्विग्नता
१-- सम्पूर्ण सिदायतनों को नमस्कार हो ।
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[ ९९
यंत्र मंत्र ऋद्धि श्रादि सहित
ॐ ह्रीं चित्तसमाधिस (सु) सेविताय श्रीजिनाय नमः । ४४ ऋद्धि ॐ ह्रीं श्रहं गमो श्रवस्वयमुदायमस्स वाणद्धिरिसिस्स |
मंत्र- मठ्ठाणे, पणटुकम्मटुनद्वसंसारे । परमदुनिट्टिश्रट्टे भट्टगुणाधीसरं वंदे ॥
विधि - राई, नमक, नीम के पत्ते, कड़वी तुमड़ी का तेल तथा गुगल इन पांचों चीजों को एकत्रित कर उक्त मंत्र से मंत्रित करे, पश्चात् पिछले पहर प्रतिदिन ३०० वार हवन करने से रोग, दुश्मन तथा कष्टों का नाश होता है ।
ॐ ह्रीं परमशांतिविधायकाय श्रीजिनाय नमः ।
The poet sume up the paneggric and suggests his name. OF
h Lord of the Jinas! oh Omni-potent Being the Bhavyas who compose Thy hymn in accordance with the prescribed rules, with their mind thua concentrated, with portions of their body thickly covered up with hair standing erect and with their eyes (attention) fixed upon the pure face-lotus of Thy image, and whose heap of dirt is destroyed, attein in no time, on Moon ( in opening } the night-lotuses ( Kamuda - Chandra ) ( in the
१- वर्धमानबुद्धि ऋद्धिधारी ऋषि को नमस्कार हो ।
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१०० ] श्री कल्याणमन्दिरस्तोत्र सार्थ
forin) of eyes of human beings | salvation after enjoying the exceedingly brillian! prosperities of heaven ( 43-44 )
इति श्री कल्याणमन्दिरस्तो समाप्तम् ।
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श्रीपाश्वनाथाय नमः
श्रीमद्देवेन्द्र कोतिप्रणीता कल्याणमन्दिरस्तोत्रपूजा
पर्व-पीठिका श्रीमदगीर्वाणसेण्यं प्रबलतरमहा-मोहमल्लातिमल्ले । कान्तं कल्याणनाथं, कठिनगठमनो-जातमत्तसिंहम् ।। नत्वा श्रीपार्श्वदेवं, कुमुविधुकृतो,रम्यकल्याणधाम्न. । स्तोत्रस्योच्च विशालं, विधिवदनुपम, पूजनं कथ्यतेऽत्र ।।
पंचवर्णेन चूर्णन, कर्तव्यं कमल पर। घेदवाधिकरं वेद्यां, कणिकामध्यमं बुधः । घौतवस्त्रधरः प्राज्ञः,श्लेष्मादियाधिवजितः । बाह्याभ्यन्तर-संशुखो,जिमपूजा-विधानवित्।। गुरोराशा विधायोच्च.,शिरस्या-दरतस्तत्तः । पृष्ट्वा सङ्घपति पूजा प्रारम्भःनि यतेजसा।। आदी गन्धकुटीपूजां, विधायामल-वस्तुभिः । पश्चानोमहवादीनां, तप्तोऽची परमेष्ठिनाम् ।।
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श्री कल्याणमन्दिरस्तोत्र सार्थ ततो गत्वा गुरोरने, भारती-मुनि-पूजनं । कृत्वेलाशुद्धिकार्य च, क्रमेणागमकोविदः । सतोऽम्लानांच सामग्री,कृत्वा सद्गी: बुधोत्तमः ।।
पूजनं पार्श्वनाथस्य, कुन्मिन्त्र-पुरस्सरम् ।। एतस्पद्यसप्तकं पठित्वा स्वस्तिकस्योपरि पुष्पाञ्जल क्षिपेत् ।
== == भोपार्श्वनाथस्तवन
{ सोरा छन्द) पारस प्रभु को नांउ. सार मुघासम जगत में। मैं बाकी बलि जाउ. अजर अमर पद मूल यह ।।
हरिगीता छन्द ( २८ मात्रा } राजत उतंग प्रशोक तरुवर, पवन-प्रेरित थर- हरे । प्रभु निकट पाय प्रमोदनाटक, करत मानो मन हरै।। तस फूल गुग्छन भ्रमर गुंजत, यही तान सुहावनी। सो जयो पाय जिनेन्द्र पातक, हरन बग चूड़ामनी ।। निज मरन देखि अनंग उरप्यो,सरन ढूंढस जग फिरयो। कोई न राखे चोर प्रभु को, माय पुनि पायन गियो ।। यों हार, निज हथियार डारे, पुष्पवर्षा मिस भनी। सो जयो पार्वजिनेन्द्र पातक, हरन जग चूमनी ॥ प्रभु अग नील उतंगगिरि , वानिशुचिसरिता ढसी। सो भेदि भ्रम गजवंत पर्वत, ज्ञान-सागर में रली ।।
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यन्त्र मन्त्र ऋद्धि प्रादि सहित
[ १०३
नय सप्त-भंग - तग्ग-मण्डित, पाप-ताप विनाशिनी । मी जयो प्राइवेजिनेन्द्र पातक, हरन जग-चूड़ामनी ॥
-
1
चन्द्राचिचय-छवि-चारु चंचल, चमर-वृन्द सुहावने ढोलें निरन्तर यक्षनायक, कहत क्यों उपमा बने || यह नीलगिरि के शिखर मानो, मेघ भरि लागी घनी । सो जयो पारवं जिनेन्द्र पातक, हरन जग चामती ॥
होरा जवाहर चित बहुविध हेम-प्रासन राजये । तह जगत जनमनहरन प्रभुक्त नील वरन बिराजये ॥ यह जटिल वारिजमध्य मानौ, नीलमणिकर्णिका बनी। सो जयो पार्श्वजिनेन्द्र पातक, दृश्न जग - चूड़ामनी ||
P
जगजीत मोह महान जोधा, जगत में पटहा दियो । सो शुक्ल- ध्यान - कृपानबल जिन, विकट बेरी वश कियो ।। ये बजत विजय महानदुन्दुभि जीत सूचं प्रभुतनी । सो जयो पर जिनेन्द्र पतिक, हरन जग चूड़ामनो
7
-
हृदमस्थ पद में प्रथम दर्शन, ज्ञान चारित प्रादरे । अब तीन तेई छत्रछल सों करत खाया छवि भरे || प्रतिधवल रूप अनूप उन्नत सोमबिम्ब-प्रभा हनी । सो जयो पाश्र्वंजिनेन्द्र पातक, हरन जग-चूड़ामती ॥ द्यूति देखि जाकी चन्द्र लाजे, तेज सौं रवि लाजई । तव प्रभा मण्डल जोग जग में, कौन उपमा छाजई ।। इत्यादि अतुल विभूतिमंडित, सोहये त्रिभुवन धनी । सो जयो पार्श्व जिनेन्द्र पातक, हरन जग-चूड़ामनी ॥
या श्रगम महिमा सिन्धु वक्री, शक्र पार न पावहीं। तजि हास भय तुम दरस " मथुरा" भक्तिवश यश गावहीं ॥
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१०४] श्री कल्याणमन्दिरस्तीत्र सार्थ
अध होड पदमा शानियो. मैं सा पेचक रहो। कर जोरि यह वरदान मांगों, मोक्षपद जावत लहौं ।
स्थापना
प्राणतस्वः समायातं, फणिलाञ्छन-संयुतम् । वामामातृसुतं पावं. यजेहं तद्गुणाप्तये ।।
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं महावीजाक्षरसम्पन्न ! श्री पाश्र्वनाय, जिनेन्द्र ! मम हृदये अवतर अवतर सवौषट् । इत्या ह्वाननम् ।
____ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं महाबीजक्षरसम्पन्न ! श्रीपार्श्वनाथमिनेन्द्र ! मम हृदये तिष्ठ तिष्ठ : छः । इति स्थापनम् ।
ॐ ह्री श्री गली महाबीजाक्षरसम्पन्न ! श्रीपाश्वनाथ जिनेन्द्र ! मम हृदयसमीपे सन्निहितो भव भव वषट् । इति सत्रिधिकरणम् । परिपृष्पाञ्जलि क्षिपामः ।
अष्टकम वियद्गङ्गासिन्धु - प्रमुखशुचितीर्थाम्बुनिबहैः । शरच्चन्द्राभासः, कनकमय-भृङ्गार-निहितः ।। यजेऽहं पाश्वेशं, सुरनरखगाधीशमाहितं । चिदानन्दप्राज, कमठ-रचितोपद्र-जितम् ॥ ॐ ह्रीं कमठोपद्रवजिताय श्रीपाश्वनाथाय जलम् । स्फुरद्गन्धाहूत-प्रचुर-फणिसंरुद्ध - तरुजः । रसैः क रास्य निविड़भवसन्तापहरणः ।।यजे.
लौं कमठोपद्रजिताय श्रीपार्षनाथाय चन्दनम।
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यन्त्र मन्त्र ऋद्धि पूजन आदि सहित
।१०५
प्रखण्डै: शालीय-पगत-तुष-रक्षतमयः । प्रपुजैरानन्द-प्रणयजनकै नेत्रमनसाम् ।। यजेऽह पाश्र्वेशं, सुरनरखगाधीशमाहितं । चिदानन्दप्राज्ञ, कमठ-रचितोपद्रव-जितम् ।।
ॐ ह्रीं कमठोपद्रवजिताय श्रीपार्षनाथाय प्रक्षतम् । मरुद्दामदभुत - विकच सरसी - जातबकूलः । लवङ्गरामोद-भ्रमरमिलितः पुष्पनिचयः । * ह्रीं कमठोपद्रवजिताय श्रीपाश्वनाथाय पुष्पम् । सदन रापूर्ण - प्रवरघृतपक्वान्नसहितः । रसादध नै वेधै - रतुलकाञ्चनपात्रविधुत यजे०।।
ॐ ह्रीं कमठोपद्रवजिताय श्रीपाश्वनाथाय नैवेद्यम् । हविर्जातः रम्य - विदलितदिशाकीर्णतमसः। प्रदीप्त मर्माणिक्य विशदकलधौताचिरमलैः।।यजे०।। * हीं कमठोपद्रवजिताय श्रीपार्श्वनाथाय दीपम् । सुकर्पू रोत्पन्न - रमरतरु - सच्चन्दनभवः । सुधूपौधैः श्लाघ्य-मिलदलिगणागुज्जितरवैः ।।यजे० ॐ ह्रीं कमठोपद्रवजिताय श्रीपाश्वनाथाय घूपम् । सुपक्वैः नारङ्ग-मुकशुचिष्माण्डकरकैः । फलै मोचाम्राई विखुशिवसम्पद्वितरणः पायजे०॥
लीं कमठोपद्रव जिताय श्रीपाश्र्वनाथाय फलम् ।
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१०६
श्री कल्याणमन्दिरम्तोत्र सार्थ
जलै र्गन्धद्रव्य विशदसदकैः पुष्पचकः । सुदीप सधूपं बहुफलयुत र धंनिकरः ।। यजेऽहं पाश्वेशं, सुरनरखगाधीशमाहितं । चिदानन्दप्राज़, कमठ-रनितोपद्रव-जितम् ।। ॐ हीं कमठोपद्रवजिताय श्रीपाश्र्वनाथाय अध्यंम ।
जय माल शताब्दजीवी समशत्रुमित्रो, हरिप्रभाङ्गो हतमारदर्पः । सपादचापद्धयतुङ्गकायो, यस्तं सदा पार्वजिनं नमामि।। निराभूषशोभं, परिध्वस्तलोभ,
चिदानन्दरूपं, नतानेकभूपं । स्तुवे पाश्वदेवं, भवाम्भोधिनावं,
त्रिषड्दोषहीनं, जमत्पूज्यमानम् ।। शिवं सिद्धकार्य, घरानन्ततर्य,
रमानाथमीशं, जितानङ्गपाशम् ॥स्तु वे ०।। शतेन्द्राय॑पाद, स्फुरदिव्यनाद,
गणाधीशमाधं, लसद्देववाद्य हरं विश्वनेत्रं, त्रिशुभ्रातपत्रं,
क्षुधाबहिनीर, द्विधासङ्गापुरम् ॥स्तुवे० ।।
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मन्त्र मन्त्र ऋद्धि पूजन प्रादि सहित [१०७ दिशाचेलवन्तं, वरं मुक्तिकान्त,
निरस्तारिमोह, पुरु सौख्य गेहम् ।। स्तवे पार्श्वदेव, भवाम्भोधिनावं,
विषड् दोषहीन, जगत्पूज्यमानम् ।। जराजन्म मुक्त, वरानन्दयुक्तं,
हतक्रोधमानं, कृतनानदानम् ।। स्तुवे० ।। अविद्यापहारं, सुविद्यागभीरं,
स्वयंदीप्तिमूर्ति,जगत्प्राप्तकीतिम्।।स्तुवे ०।। यतिवरवृषचन्द्र, चित्कलापूर्णचन्द्र ।
विमल गुणसमृद्धं, नम्रनागामरेन्द्रम् ।। जिनपतिमहिधार, दुःमसन्तापहारं ।
भजति नमति सारं, सौख्यसारं लभेत ॥ ॐ ह्रीं कमठोपद्रजिताय श्रीपाश्वनाथाय जयमालाघ्यम् ।
सर्वजीवनयायुक्तः, सर्वलोकान्तिकाचितः । पार्श्वदेवः श्रियं दद्यात्, नित्यं पूजाविधायिनाम् ।।
इत्याशीर्वादः ।
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अष्टदल कमल पूजा
कल्याण-मन्दिरमुदार-मवद्यभेदि—
भीताभयत्रदममितिमम् ।
संसारसागर- निमञ्ज-दशेषजन्तु -
पोतायमानमभिगम्य जिनेश्वरस्य ||
सम्मङ्गलालय मुदासिकल जूहारि, संसारभीतमनसामभयप्रदायि ।
जन्माब्धिमध्य सुमत्तरि यत्पदाब्जं,
त पार्श्वनाथमनषं प्रयजे कुशाचैः ॥१॥ ॐ ह्रीं भवसमुद्रपतज्जन्तुतारणाय क्लीं महाबीजाक्षर सहिताय श्रीपार्श्वनाथाय श्रयंम्
1
यस्य स्वयं सुरगुरु र्गरिमाम्बुराशेः,
स्तोत्रं सुविस्तृतमति नं विभु विधातुम् । तीर्थेश्वरस्य कमठस्मयधूमकेतो
स्तस्याहमेष किल संस्तवनं करिष्ये ||
वाचस्पति ने गुरुवारिनिषेः समर्थः,
कर्तृ" धिया स्तवमनन्तगुणस्य यस्य । तीर्थाधिपस्य कमठोद्धतगर्वहतुः
तं पार्श्वनाथमनधं प्रयजे कुशाः ॥ २ ॥ ॐ ह्रीं श्रनन्तगुणाय क्लींमहाबीजाक्षरसहिताय श्री पार्श्वनाथाय अर्घ्यम्
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यंत्र मंत्र ऋद्धि पूजन आदि सहित [१०६ सामान्यतोऽपि तव वर्णयितुं स्वरूप
___ मस्मादशाः कथमधीश ! भवन्त्यधीशाः । धृष्टोऽपि कोशिकशिशु यदि वा दिवान्धो,
रूपं प्ररूपयति कि किल धर्मरश्मः ॥ संक्षेपतोऽपि भुवि विस्तरितु महत्त्वं,
दक्षा भवन्ति न हि तुच्छधियो यदी यम् । घूका जड़ा दिनकरस्य यथा स्वरूपं,
तं पाश्वनाथमनघं प्रयजे कुशाचैः ।।३।। ॐ ह्रीं चिद्रूपाय क्लींमहाबीजाक्षरसहिताय
श्रीपार्श्वनाथाय अध्यम् । मोहनयादनुभवन्नपि नाथ ! मत्यो,
नूनं गुणानाणयितुं न तव क्षमेत । कल्पान्तवान्तपयसः प्रकटोऽपि यस्मा -
मीयेत केन जलधे नंगु रत्नराशिः ।।
निर्मोह ? कोऽपि मनुजो गुणसंहते नों,
संख्यां करोति गहनायंपदस्य यस्य । रत्नस्य वा प्रलयवायुहतस्य वार्धे-..
स्तं पार्श्वनाथमनध प्रयजे कुशायः ॥४॥ ॐ ह्रीं गहन गुणाय क्लीमहाबीजाक्षरसहिताय
श्रीपार्श्वनाथाय अध्यम् ।
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श्री कल्याणमन्दिरस्तोत्र साथ
श्रभ्युद्यतोऽस्मि तव नाथ ! जडाशयोऽपि, कर्तुं स्तवं लसदसंख्यगुणाकरस्य । बालोऽपि किं न निजबाहुयुगं वितत्य, विस्तीर्णतां कथयति स्वधियाम्बुराशेः ||
इच्छन्ति मन्दमत्तयः स्तवनं विधानुं, दिसा
११० ]
यस्य प्रकृष्टगुणिनः शिशवो स्थान | सानुयुगतं जलवेः प्रमाणं
तं पार्श्वनाथमनघ प्रयजे कुशाचंः ||५||
ॐ ह्रीं परमोन्नत गुणाय क्लींमहाबीजाक्षरसहिताय श्रीपार्श्वनाथाय श्रर्घ्यम् ।
ये योगिनामपि न यान्ति गुणास्तवेश ! वक्तुं कथं भवति तेषु ममावकाशः । जाता तदेवमसमीक्षितकारितेयं,
जल्पन्ति वा निजगिरा नतु पक्षिणोऽपि ॥
गम्या गुणा यदि महद्वपुषां न यस्य,
तत्रावकाश ह् तुच्छधियां कथं स्यात् । गायन्ति पत्रिण इवात्र जनास्तथापि,
तं पार्श्वनाथमनधं प्रयजे कुशार्थः ॥ ६ ॥ * ह्रीं प्रगम्यगुणाय क्लीं महाबीजाक्षरसहिताय श्री पार्श्वनाथाय अर्घ्यम |
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पत्र मन्त्र ऋद्धि पूजन प्रादि माहित
प्रास्तामचिन्त्यमहिमा जिन ! संस्तवस्ते,
नामापि पाति भवतो भवतो जगन्ति । तीव्रातपोपहतपान्थजनानिदाघे,
प्रीणाति पद्मसरसः सरसोऽनिलोऽपि ।। 'स्तुगा बदन्ति मनाः सुखिनो कि न,
नाम्नव यस्य मरुता नलिनाकरस्य । सूर्यातपातपथिकाः शिशिरं यथा नु,
तं पार्श्वनाथमनघं प्रयजे कुशायः ।।७।। ॐ ह्रीं स्तवनार्हाय क्लीमहाबीजाक्षरसहिताय
श्रीपार्श्वनाथाय अध्यम् । हृििन त्वयि विभो ! शिथिलीभवन्ति
जन्तोः क्षणन निविडो अपि कर्मबन्धाः । सद्यो भुजङ्गममया इव मध्यभाग..
मभ्यागते वनशिखण्डिनि चन्दनस्य ।। यस्मिन्स्थिते हृदि विनाशमुपंति बन्धः,
पापस्य शुद्धमनमो भविनो मयूरे। संरुद्धचन्दननगो ऽहिरिवार याते,
तं पार्श्वनाथमनघं प्रयजे कुशावः ॥८।। ह्रीं कर्मबन्ध विनाशकाय क्लीमहाबीजाक्षरसहिताम
श्रीपाश्वनाथाय प्रय॑म् ।
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षोडशदल कमलपूज
मुच्यन्त एव मनजाः सहसा जिनेन्द्र -- रौद्ररुपद्रवशतैस्त्वयि वीक्षितेऽपि । गोस्वामिनि स्फुरिततेजसि दृष्टमात्रे,
चौरैरिवाशु पशवः प्रपलायमानैः ॥ दृष्टे पलायनपराः किल भूतवर्गा,
यस्मिन् विमुच्य महान्। दोषाचराः पशुपताविव गोसमाजं, तं पार्श्वनाथमनघं प्रयजे कुशाद्यः ||६|| ॐ ह्रीं दुष्टोपवर्गविनाशकाय क्लीं महाबीजाक्षरसहिताय श्री पार्श्वनाथाय अर्घ्यम् ।
त्वं तारको जिन ! कथं भविनां त एव, वामुद्वहन्ति हृदयेन यदुत्तरन्तः । यद्वा दृतिस्तरति यज्जलमेष नून
भन्तर्गतस्य मरुतः स किलानुभावः ।। संसारिणां भवति यो हृदि संस्थितोऽपि,
सन्तारकः किल निरन्तर चिन्तकानां । भस्त्रागतो मरुदिवाम्बुनिधी समर्थ -
स्तं पार्श्वनाथमनघं प्रयंजे कुशावः ॥ १०॥ ॐ ह्रीं सुध्येयाय कवींमहाबीजाक्षरसहिताय श्री पार्श्वनाथाय प्रम
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यन्त्र भन्न ऋद्धि पूजन प्रादि सहित [११३ यस्मिन्हरप्रभृतयोऽपि हतप्रभावाः.
सोऽपि त्वया रतिपतिः क्षपितः क्षणेन । विध्यापिता हुतभुज: पयसाथ येन,
पीत न कि तदपि दुर्धरवाडवेन ।। येनाहतं हरिहराषि-महत्त्वमुच्चः,
सोऽनन्तको जिनवरेण तो हि येन । बानां निरिट तार धमलेन.
बं पार्श्वनाथपनध प्रयजे कुशावः ॥११॥ ॐ ह्रीं मनङ्गमयनाय सीमहाबीजाक्षरसहिताप
श्रीपार्श्वनाथाय प्रयम् । स्वामित्रनल्पगरिमाणमपि प्रपना...
स्त्वां जन्तवः कथमहो हृदये दधानाः । जन्मोदधि व सरन्त्यतिलाषवेन,
चिन्स्यो न हन्त महतां यदि वा प्रभावः ।। प वाहका हृदि जनाः कथमुस्तरन्ति,
संसारवारिधिमहो गुरुमप्यतुल्यम् । चिन्त्यो न जातु महतां महिमात्र लोके,
तं पार्श्वनाथमम प्रयजे कुशाः ।।१२।। ॐ ह्रीं मतिमममुखे सीमावरीजाक्षरसहिताय
श्री पारवनाथाय मम ।
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श्री कल्याणमन्दिरस्तोत्र सार्थ
क्रोधस्त्वया यदि विभो ! प्रथमं निरस्ती,
ध्वस्तस्तदा वद कथं किल कर्मचौरा: प्लोषत्यमुत्र यदि वा शिशिरापि लोके, नीलद्माणि विपनानि न कि हिमानी ॥
११४ ]
जित्वा कुषं पुनरलं शठमोहदस्यु -- येन प्रणाशित उदारगुणन चित्रं । सौम्येन कर्दमजमत्रं हि मेनवाधु
तं पार्श्वनाथमनघं प्रयजे कुशाद्यैः ॥ १३॥
कोही सताय श्रीपार्श्वनाथाय प्रर्ध्यम् ।
।
त्वां योगिनो जिन ! सदा परमारमरूपमन्वेष्यन्ति हृदयाम्बुजकोषदेशे । पूतस्य निर्मलरुचे यदि वा किमन्य-दक्षस्य सम्भवपदं ननु कणिकाया: ।।
यं साधवो हृदयतामरसे विकाशे,
ध्यायन्ति शुद्धमनसी यत ईड्यमानम् । चित्तादृतेन हि पदं वपुषीह पूतं,
सं पार्श्वनाथमनघं प्रयजे कुशाः ।।१४।।
ॐ ह्रीं महन्मृग्याय
महाबीजाक्षरसहिताय
श्री पाश्चंतावायव्यम |
i
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पत्र मन्त्र ऋद्धि पूजन प्रादि सहित
[११५
ध्यानाज्जिनेश ! भवतो भविनः क्षणन,
देहं विहाय परमात्मदशां व्रजन्ति । तीवानलादुपलभावमपास्य लोके,
चामीक रत्वमधिरादिव धातुभेदाः ।। यस्येह मानब उपति पदं गरिष्ठ,
सध्यानतो झटिति सहननं विसज्य । हैम यथानल वशाद्विदृषद्विशेष,
तं पार्श्वनाथमनघं प्रयजे कुशाधः ॥१५॥ ॐ ह्रीं कर्मकिट्टदहनाय क्लींमहाबीमाक्षरसहिताप
श्रीपाश्र्वनापाय प्रध्यम । मन्तः सदेव जिन ! यस्य विभाव्यसे त्वं,
भव्यः कथं तदपि नाशयसे शरीरम् । एतत्स्वरूपमय मध्यविवतिनो हि,
यद्विग्रहं प्रशमयन्ति महानुभावाः ॥ योऽन्तर्गतो ऽपि भविनो क्पुरत्र वेगा--
निर्नाशयत्य खिलदुःखमय विचित्रम् । माध्यास्थिक: लिमिवाशु महत्तरः स्वं,
ते पार्श्वनाथमनघं प्रयजे कुशायः ॥१६॥ ॐ ह्रीं देहदेहिकलहनिवारकाय क्लींमहाबीजाक्षर.
सहिताय श्रीपाश्वनापाय मध्यम ।
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श्री कल्याणमन्दिरस्तोव सार्थ
आत्मा मनीषिभिरयं त्वदभेदबुद्धधा,
११६ ]
ध्यातो जिनेन्द्र ! भवतीह भवत्प्रभावः ।
पानीयमप्यमतमित्यनुचिन्त्यमानं,
किं नाम तो विषविकारमपाकरोति ॥
विद्वद्भिरण यदभिनधियायमात्मा,
समुहिः । माम्यं प्रति सलिलं विषनाशकं वा, तं पार्श्वनाथमनघं प्रयजे कुशाद्यैः ॥ १७॥ ॐ ह्रीं ससारविषसुधोपमाय क्लामहाबीजाक्षरसहिताय श्रीपार्श्वनाथाय मध्यंम । स्वामेव वोततमसं परवादिनो ऽपि,
नूनं विभो ! हरिहरादिधिया प्रपन्नाः । किं काच कामलिभिरीश ! सिनोऽपि शङ्खो नो गृह्यते विविषवण विपर्ययेण ॥
·
यै ध्वस्तमोहतिमिरं कुप्रथप्रलग्नाः, कृष्णादिबुद्धिमनुदारमुपाश्रयन्ति । नेत्रामया इव यथार्थ - विवेकहीना,
तं पाश्र्वनाथमनधं प्रयजे कुशार्थः ॥ १८ ॥ ॐ ह्रीं सर्वजनबन्धाय क्लीं महाबीजाक्षरसहिताय श्री शश्वनाथाय प्रयं म ।
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यन्त्र मन्त्र ऋद्धि आदि सहित
धर्मोपदेशसमये सुविधानुभावा
दास्तां जनो भवति ते तरुरप्यशोकः । अभ्युद्गते दिनपतौ स महीरुहोऽपि
किं वा विबोधमुपयाति न जीवलोकः ॥ सद्रजल्पनविधौ वसुचारुहोऽपि
शोकातिरिक्त वह ग्रम्य किमन्यवृत्तं । भानूदये सति यथा किल वारिजात
1 ११७
तं पार्श्वनाथमनघ ं प्रयजे कुशाद्यैः ||१६|| महानीजाक्षर
ॐ ह्रीं शोकविना
सहिताय श्रीपारवनाथाय अध्यंम् । चित्रं विभो ! कथमवाङ मुखवृन्तमेव, विश्वक्पतत्यविरला सुरपुष्पवृष्टिः । स्वद्गोचरे सुमनसां यदि वा मुमीश !,
गच्छन्ति नूनमध एव हि बन्धनानि || रेजे सुरप्रसव - संततिवृष्टिरुद्धा,
स्वामोदवासितदिसावया यदीया |
प्रत्पादमाश्रितजना भृशमूहगाः स्यु
तं पार्श्वनाथमनघं प्रयजे कुशाद्यैः ॥ ॐ ह्रीं सुरपुष्प वृष्टिशोभिताय क्लीं महाबीजाक्षरसहिताय श्री पार्श्वनाथाय श्रयंम् ।
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श्री कल्याणमंदिर स्तोत्र सार्थ
स्थाने गमीरहृदयोदधिसम्भवाया:,
पीयूषतां तव गिरः समदोरयन्ति । पीत्वा यत: परमसम्मइसङ्गभालो,
भव्या व्रजन्ति तरसाप्यजसमरत्वम् ।। गम्भीरहज्जलधिजातवचो हि यस्य,
प्रीणाति चारु जनताममृतोपमं तत् । निःस्वाध गच्छति जनः किल मोक्षधाम,
तं पार्श्वनाथमनघं प्रयजे कुशायः ॥२॥ ॐ ह्रीं दिव्यध्वनिविराजिताय क्लीमहावीजाक्षरसहिताय
श्रीपाश्वनाथाय अर्घ्यम । स्वामिन्सुदूरमवनस्य समुत्पतम्तो,
मन्ये वदन्ति शुचय: सुरचामरोघाः । येऽस्म नति विदधते मनिपुङ्गवाय,
ते नून भूर्ध्वगतयः खलु शुद्धभाषाः ।। यस्य प्रकीर्णकयुगं वदतीव लोकान,
दुग्धाब्धिफेनवलं सुरवीज्यमानं । बन्दाररुग्रगतिरेव जिन सदेति,
तं पार्श्वनाथभनषं प्रयजे कुशायः ॥२२॥ * ह्रौं सुरचामरविराजमानाय स्लीमहाबीजाक्षरसहिताय
श्रीपाश्वनाथाय प्रय॑म् ।
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यंत्र मंत्र ऋद्धि मादि सहित ११ श्यामं गभीरगिरमज्वलहेमरल..
सिंहासनस्थमिह भव्यशिखण्डिमस्त्वाम् । पालोकयन्ति रभसेन नदन्तमुच्च ...
श्वामीकराद्विशिरसीव नवाम्बुवाहम् । सद्धेमरस्लमयकेशरि - विष्ठरस्थं,
यं भव्यकेकिन अभीक्ष्य नदस्यजस्र । जाम्बूनदाचल शिखाघसमन्यमानाः,
सं पार्वनायमनघं प्रयजे कुशायः ॥२३॥ ॐ ह्रीं पीठायनायकाय क्लींमहाबीजाशरसहितान
श्रीपार्षनाथाय अय॑म् । उद्गच्छता तष शितिद्युतिमण्डलेन,
लुप्तम्छदच्छवि रसोकतरु बभूव । सानिध्यतोऽपि यदि वा तव वीतराग !
नीरागतां ब्रजति को न सचेतनोऽपि ॥ वामप्रभावलयतोऽतिविचित्रकान्तिः,
__ रेजे ह्यशोफतहरुञ्चतमोऽपि यस्य । संसर्गतो भवति रागयुतो न कोऽत्र,
तं पाश्वनाथमनघ प्रयजे कुशाः ।।५।। हों भामण्डलमण्डिताय फ्लीमहाबीजाक्षरसहिताय
श्रीपाश्नाथाय प्रय॑म ।
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विंशतिदक्षकमल पूज
भो भो प्रभादमवधय मजध्वमेनमागत्य निव तिपुरी प्रति सार्थवाहम् । एतन्निवेदयति देव ! जगत्त्रयाय, मन्ये नक्ष्नभिनभः सुरदुन्दुभिस्ते ॥ गीर्वाणदुन्दुभिरतोय वदश्यजत्र
मेनं निषेवय जिनं प्रविहाथ मोहम् । यस्मै त्रिविष्टपजनाय नदन्नभोक्ष्णं,
1
तं पार्श्वनाथमनथं प्रयजे कुशाद्यैः ||२५|| ॐ ह्रीं देवदुन्दुभिनादाय स्लीमहाबीजाक्षरसहिताय श्री पार्श्वनाथाय प्रय॑म् ।
उद्योतितेषु भवता भुवनेषु नाथ !
तारान्वितो विधुरयं विहता धिकारः । मुक्ताकलाप कलितोल्लसितातपत्रव्याजास्त्रिधा धृततनु ध्रुवमम्युपेतः
7
॥
येन प्रकाशित इहेत्य कृतत्रिरूपो लोकत्रयोधवलछत्र मिषेण चन्द्रः । सोडग्रहः किमिव यस्य करोति सेवा.
सं पार्श्वनाथमनव प्रयजे कुशाद्यैः ||२६|| ॐ ह्रीं छत्रत्रयमहिताय क्लींमहायोक्षरसहिताय
पावसाचाच प्रम
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यन्त्र मन्त्र ऋद्धि मादि सहित [१२१ स्वेन प्रपूरित जगत्त्रयपिण्डितेन,
कान्तिप्रतापयशसामिव सञ्चयेन । माणिक्यहेमरजतप्रविनिमितेन,
साल त्रयेण भगवनभितो विभासि ।। यः शोभते मणिसुवर्णसुरौप्यजेन,
तेज: प्रभाव-शुचिकीर्तिसमुच्चयेन । शालत्रयेण-दिवि चामरनिमिलेन,
तं पार्श्वनाथमनघप्रयजे कुशाद्यैः ॥२७॥ ॐ ह्रीं शालत्रयाधिपतये क्लींमहाबीजाक्षरसहिताय
श्रोपाश्वनाथाय अध्यम् । दिव्यस्रजो जिन ! नमत्रिदशाधिपाना
मत्सृज्य रत्नरचितानपि मौलिबन्धान् । पादौ श्रयन्ति भवतो यदि वापरत्र,
त्वत्सङ्गमे सुमनसो न रमन्त एवं ।। माल्यं सुभक्तिभरनम्रसुराधिपानां,
सन्त्यज्य चारुमुकुट पदमाश्रितं हि । यस्यानिश सुमनसां महदेव सेव्यं,
सं पाश्वनाथ मनघप्रयजे कुशाचैः ॥२८॥ ॐ ह्रीं भक्तजनामवनपतिराय क्लींमहावीजाक्षरसहिताय
श्रीपाश्र्वनाथाय पय॑म् ।
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श्रीकरणपरिस्तो का
त्वं नाथ ! जन्मजलध विपराङ्मुखोऽपि, यत्तारयत्यसुमतो निजपृष्ठलग्नान् ।
युक्तं हि पार्थिवनिपस्य सतस्तबंव,
यस्तारयत्यतनुरङ्गभृतो
चित्रं विभो ! यदसि कर्मविपाकशून्यः ॥ विचित्रं, संसारवाधिविमुखोऽपि सुभक्तियुक्तान् । यन्मृत्तिकामय इवात्र घटोऽम्बुराशी,
तं पार्श्वनाथमनधं प्रयजे कुशाद्यैः ।। २६ ।। ॐ ह्रीं निजपृष्ठलग्नभयतारकाय क्लींमहाबीजाक्षरसहिताय श्री पार्श्वनाथास अर्ध्यम् ।
१३२
विश्वेश्वरोऽपि जनपालक ; दुर्गतस्त्व,
कि बाक्षरप्रकृतिरप्य लिपिस्स्वमीश ; अज्ञानवत्यपि सदैव कथंचिदेव,
ज्ञानं स्वयि स्फुरति विश्वविकाश हेतुः ।। यः सर्वलोकजनताधिपति दरिद्रो,
व्यक्ताक्षरोऽप्य लिपिरित्युदितो महद्भिः । ज्ञानी किलाश इति विस्मयनीय मूर्तिः,
तं पार्श्वनाथमनचं प्रयजे कुशाद्यैः ||३०|| ॐ विस्मयनीयमूर्तये क्लींमहाबीजाक्षरस हिताय श्रीश्वनाथाय मध्यंम |
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यन्त्र मन्त्र ऋद्धि पूजन मादि सहित
प्रारभारसम्भृतनभांसि रजांसि रोषा
दुत्थापितानि कमठेन शठेन यानि । छायापि तैस्तव न नाथ ! हता हताशो,
ग्रस्तस्त्वमीभिरयमेव परं दुरात्मा । या लोकमूद्धवितता हि खलेन कोपा -
दुस्थापिता कमठपूर्वचरण धूलिः । पाच्छादिता तनुरहो न तयापि यस्य,
तं पाश्र्वनाथमनप्रयजे कशावः ॥३१॥ ह्रीं कमठोत्यापितधूल्युपद्रवजिताय क्लींमहाबीजामार
सहिताय श्रीपाश्वनाथाय अध्यम् । यद्गजित - धनौघ • मदभ्रभीम,
अश्यत्तडिम्मुसल-मांसल-धोरघारम् । दत्येन मुक्तमष दुस्तरवारि वने,
तेनैव सस्य जिन ! दुस्तरवारिकृत्यम् ।। नीर विमुक्तमसुरेण सवज्रपातं,
वर्षाभवं घनतरं यदुपद्रवाष । सस्थासूरस्य बत दुःखदमेब जातं.
तं पाश्वनाथमनघप्रयजे कृशाः ॥३२॥ *ही कमठतजलधारोपसर्गनिवारफाय सीमहाबीबा
क्षरसहिताय श्रीपार्श्वनामाम प्रयम् ।
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श्री कल्याणमन्दिरम्तोत्र सार्थ
ध्वस्तोलकेशविकृताकृति–मर्त्य मुण्ड,
प्रालम्बद्भयदवत्र विनयंदग्निः, प्रेतवज: प्रति भवन्तमपीरितो यः,
सोऽस्याभवत्प्रतिभवं भवदुःखहेतः ।। पशाचिको गण उपद्रव -भूरियुक्तो.
दत्येन यं प्रतिनियोजित उद्धतेन । तद्देस्यकस्य पुनरुन - भयप्रदोऽभूत्,
तं पाश्र्वनाथमनघं प्रयजे कुशाचः ।।३३।। ॐ ह्रीं कमठकृतपैशाविकोपरबजयनशीलाय सीमहा
बीजाक्षरसहिताय श्रीपाश्र्वनाथाय प्रय॑म् । घन्यास्त एव भुवनाधिप ! ये त्रिसन्ध्य
माराधयन्ति विषिव द्विधुतान्यकृत्याः । भक्त्योल्लसत्पुलक - पक्ष्मसदेहदेशाः,
पादद्वयं तव विमो भुवि जन्मभाजः । पादारविन्दयुगलं प्रणमन्ति भक्त्या,
यस्य प्रशान्समनसः किल धर्मवन्तः । सद्भक्तयः परिहृताखिल-गेह-कार्या
स्तं पाश्वनाथमनघप्रयजे कुशायः॥३४॥ ॐ ह्रीं चामिकवान्दताय क्लीं महाबीजाक्षरसहिताय
श्रीपाश्वनाथाय प्रयन ।
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यन्त्र मन्त्र ऋद्धि पूजन आदि सहित अस्मिन्नपारभववारिनिधौ मनीश !
मन्ये न में श्रवणगोचरतां गतोऽसि । प्राणिते तु तक गोत्रपवित्रमन्त्रे,
किं वा विपद्विषधरी सविध समेति ।। यन्नाम नंव श्रुतमत्र जनेन येन,
___ स प्रायशो हि भववारिनिधो निमग्नः । श्रुत्वा गतः शिवपुरं बहनस्त्रिशुद्ध था,
पाश्वनाथमनघं प्रयजे कुशाधः ॥३५॥ ॐ ह्रीं पवित्रनामधेयाय क्लींमहाबीजाक्षरसहिताय
श्रीपार्श्वनाथाय प्रय॑म् । नम्मान्तरेऽपि तव पादयुगं न देव ;
मन्ये मया महितमीहितदानदक्षम् । तेनेह जम्मान मुनीश : पराभवानां,
जातो निकेतनमहं मथिताशयानाम् ।। यत्पादपङ्कजमलं न हि येन पूतं,
संपूजितं जगति संसरणान्तरेऽपि । दुःखाशिनां भवति सोऽग्रचरः सदैव,
स्तं पार्श्वनाथमन, प्रयजे कुशाचः ॥३६॥ ॐ ह्रीं पूतपादाय क्लींमहाबीजाक्षरसहिताय
धीपार्कमाषाय पध्यम ।
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१२
श्री कल्याणमन्दिरस्तोत्र सार्थ
नूनं न मोहतिमिरावृतलाचनेन,
पूर्व विभो ! सकृदपि प्रविलोकितोऽसि । मर्माविष) विधुरयन्ति हि मामनर्थाः,
प्रोग्रत्प्रबन्धगतय. कथमन्यते ।। मोहान्धकारपटलावतचक्षया यो,
नेक्षितो भुवि जबञ्जवकूपगेन । येनात्र तस्य मनुजत्वमल निरर्थ.
तं पार्श्वनाथ पनघ प्रयजे कुशाध: ।।३७॥ * ह्रीं दर्शनीयाय क्लींमहाबीजाक्षरसहिताय
श्रीपाश्वनाथाय मय॑म् ।
बाणितोऽपि महितोऽपि निरीक्षितोऽपि,
ननं न चेतसि मया विधुतोऽसि भक्त्या । जातोऽस्मि तेन जनबान्धव ! दुःखपात्र,
यस्मात्क्रियाः प्रतिफलन्ति न भावशून्याः।। किं वा श्रुतोऽपि यदि येन सुपूजितोऽपि.
किं वोक्षितोऽपि हुद्भभक्तिभराद्धृतो न । यस्तस्य नैव फलदः खलु हीनभक्ते -
स्तं पाश्र्वनाथमनघ प्रयजे कुशाः ।।३।। ॐ ह्रीं भक्तिहीनजनमाध्यस्थाय क्लीमहाबीजाक्षरसहिताम
भीपालनाबाय प्रय॑म् ।
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मन्त्र मन्त्र ऋद्धि पूजन मादि सहित
त्वं नाथ ! दु:खिजनवसल ! हे वारण्य ; कारुण्य - पुण्यवसते वशिनां वरेण्य ? भक्श्मा नते मयि महेश ? दर्या विधाय
दुखाङ कुरोद्दलनतत्परतां विधेहि ॥ बात्सल्यवान् जनदुःखदनेषु
यः प्रत्यहं नत जनेषु दयासमुद्रः । सद्भक्तिभावकलितेषु भृशं शरण्य
स्तं पार्श्वनाथमनधं प्रयजे कुशाद्यैः ||३६|| ह्रीं भक्तजनवत्सलाय क्लीं महाबीजाक्षरसहिताय श्रीपार्श्वनाथाय अर्घ्यम् ।
[ १२७
-
निः सख्यसारशरणं शरणं शरण्य -
मासाद्य सादितरिपुप्रथितावदातम् । त्वत्पादपङ्कजमपि प्रणिधानवन्ध्यो,
बन्ध्योऽस्मि तद्भुवनपावन हा हतोऽमि ॥
भूयिष्ठभाग्यसवनं मदनाग्निनीरं, यत्पादतामरसयुग्ममनल्पतेजः । संपूज्य गच्छति जनः शिवतामनर्घ्यं
तं पार्श्वनाथमनष प्रयजे कुशाः ॥४०॥ ॐ ह्रीं सौभाग्यदाय रुपदकमलयुगाय क्वींमहाबीजाक्षरस हिलाब श्रीपाद नामाय मर्थ्यम् ।
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१२८ ]
श्री कल्याणमंदिर स्तोत्र सार्थ
unnarrannaamanna mruna
देवेन्द्रवन्ध ; विदिताखिलवस्तुसार
संसारतारक ? विभो भवनाधिनाथ ? त्रायस्व देव करुणाहृद ? म पुनीहि,
सीदन्तमद्य भयदव्यसनाम्बुराशेः ।। गीर्वाणनाथनत - पादपयोजयुग्म -
स्त्राता भवाम्बुनिधिमग्नशरीरभाजाम् । यः सर्वलोक - परमार्थ - पदार्थवेदी,
त पार्श्वनाथमनघ' प्रयजे कुशायः ॥४१॥ ॐ ह्रीं सर्वपदार्थवेदिने कलीमहाबीजाक्षरसहितास
श्रीपार्श्वनाथाय अध्यम् । यस्ति नाथ ; भवद घ्रि-सरोव्हाणां,
भक्तेः फलं किमपि सन्ततसञ्चिताया: । तन्मे त्वदेकशरणस्य शरण्य ? भूया:,
स्वामी त्वमेव भुवने व भवान्तरेऽपि ॥ यत्पूर्वजन्मकृत-पुण्यक्तां जनानां.
सभाव्यते भवभवेऽपि हि यस्य सेवा । उन्मामंवासितवतां ननु पापभाजां,
स पार्श्वनाथमनपं प्रयजे कशाचः ॥४२॥ * ह्रीं पुण्याहजमसेव्याय कलीमहाबीजाकारसहिताय
श्रीपाश्र्वनाथाय प्रध्यम् ।
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यंत्र मंत्र ऋद्धि पुजन यादि सहित [१२६ इत्थ समाहितधियो विधिज्जिनेन्द्र ?
सान्द्रोल्लमत्पुल ककञ्चकिताङ्गभागाः । स्वद्विम्बनिमल मुखाम्बुजबद्धलक्ष्याः,
ये संस्तवं तव विमो? रचयन्ति भव्या: ॥ यन्मूर्तिरम्यवदनाम्बुज – दत्त नेत्रा,
। ये मानवा स्तुतिसूधारस-मापिबन्ति । नूनं भवन्ति सततं मरणातिगास्ते,
तं पार्श्वनाथमनघप्रयजे कुशायः ॥४३॥ ॐ ह्र जम्ममृत्युनिवारकाय क्लींमहाबीजाक्षरसहिताय
श्रीपादवनाथाय अध्यम् ।
( प्रार्या छन्द)
जननयनकुमुदचन्द्र-प्रभास्वराः स्वर्गसम्पदो भुक्त्वा । ते विगलितमलनिचया, अचिरान्मोक्ष प्रपद्यन्ते ।।
ये लोकनेत्र - कमदेन्दुनिभं प्रतुष्टा,
___ संपूजयन्ति यमनन्तचतुष्टयाद्यम् । ते मोक्षमव्ययपदं ध्रुवमा नुवन्ति, ___पाश्र्वनाथमनघप्रयजे कुशाद्यैः ।। ॐ ह्रीं कुमुदनन्द्रयतिसे वितपादाय स्लीमहाबीजाक्षर.
सहिताय श्रीपार्श्वनाथाय प्रय॑म् ।
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१३०
श्री कल्याणमदिर स्तोत्र सायं
शालिनी छन्द) कागीदेशे बाराणसी-पुरंशो,यो बालत्वे प्राप्तवैराग्यभावः। देवेन्द्रायः कीर्तितं तं जिनेन्द्र, पूर्णार्येन प्रार्चये वामुखेन ।। ॐ ह्रीं सर्वगुणसम्पन्नाय क्लीमहाबीजाक्षरसहिताय
श्रीपार्श्वनाथाय पूर्णाय॑म् । समुच्च य ज य माल
शतमखनूतपाद, शान्तकारिचक्र.
शमदमयमगेहं, शङ्करं सिद्ध कार्यम् । सरसिजदलने, सर्वलोकान्तिकार्य,
सकलगुणनिधानं, संस्तवे पाश्वदेवम् ।। भवजलनिधि-पततामुत्तरणं, देवमनन्तगुणं जनशरणं । चिद्रूपं बहुगुणसमुदाय,उत्तमगुणगण-हत भवपाशं । रम्यारम्य -- गणम्तवनीयं, कर्मबन्ध -- निर्बन्धमजेय । दुष्टोपद्रव नाशन-बीर, सुध्ये यं जितमन्मथशर ॥ गरिमाक्रोधमहानल--- कुशदं, हृदि मृग्यं महनामतिविशदं । कर्मदाहत्तीवाग्नि-मतुल्यं, गतरमात्मपद गतशल्य ।। संसृतिविषहरणामृत- कूपं, पदनतनाग – नरामर-भूपं । तङ्गाशोक – महोरुह-सरितं,उद्गमवष्टियतं सुरमहितं ।।
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यंत्र मंत्र ऋद्धि प्रादि सहित
1१३१
योजनमितदिव्यध्वनिजदं,सुरचामर - वीज्यं तविपदं । पीठत्रय..-नायकमघमथन, हरितविभावलय गणसदनं ।। दानवारिदुन्दुभि – सध्वानं, श्वेतालपवारण-गुणमान । मणिहेमान-शाल त्रितयं,पदनतभक्त--जनावनसुदय।। पृष्ठलग्न-जनतारण.-दक्ष, विस्मयनीयं हतमदकक्ष । हतकमठोत्यापित-बहधलि जितमुसलोपम-जलधारालि ।। हलपशाचिक विप्लवजालं. नत मिष्ठजम गुणमाल । पूतनामधेयं शिवभाज, वरपवित्रपाद जिनराज ॥ दर्शनोयमपहत धनपापं, भक्तिहोन-- भविमध्यमरूपं । भक्तिनम्रजन-वत्सलवन्त,भूरिभाग्य - दायकमरिहन्त ।। लोकलोक पदार्थविवेद्य, पदनतस्कृति-नरभिवन्द्यं । जन्मजरा-मरणच्युतदेवं, कुमुदचन्द्र'यतिकृतपटसेवम् ॥
। पत्ता । विश्वादिपेनान्वयन्योमनिगम,सद्भव्यबारानिधिधर्मचन्द्रं । देवेन्द्रसत्कोतित-पादयम्म,श्रीपालनार्थप्रणमामिभक्त्या।। ॐ ह्रीं श्रीं ऐं अह रकमठोपद्रवजिताय श्रीपाश्वनाथाय
जयमालाघ्यम् । यः प्राग्विप्र इभोऽनु द्वादशदिवि, स्वर्गी तत: खेचरः । पश्चादच्युतकल्पजो निधिपतिः, गवेयके मध्यम ।।
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श्री कल्याणमन्दिरस्तोग सार्थ इन्द्रोऽभूत्तत ईशतां शुभ वचः, प्रानन्दनामानते । ग्रोणिस्तत उग्रवंशतिलकः, पाषट् स वो रक्षतात् ।।
इत्याशीर्वादः, परिपुष्पाञ्जलि क्षिपेत् । गुणे वेदाङ्गचन्द्राब्दे, शाके फाल्गुनमासके । कारंजाख्यपुरे नूनं, पूजेयं सुविनिर्मिता ।।
इति श्रीबलात्कार-गच्छीयभट्टारकेन
श्री भइवेन्द्रकीर्तिना विरचिता।
॥ कल्याणमंदिरपूजा समाप्ता ॥
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यन्त्र, मंत्र, गुण वा फस विवरण
ETीश्वरस्य कमास्यकलोसम्यहमेश्य दिव्य मरुनधनकीयो
पाय म्वर्य मुरगुरुगरिमाम्धुराशेः स्तोत्रंसुविस्तृत निर्मविभुनिभनुम् ।
कल्याणमेदित्मदाम्पयदि ताभयपदनिन्दिनपहि पद्मम ।
itil ranepartnerNELNILEnetauditing
श्लोक,२ ऋद्धि-ॐ ह्रीं महं णमो पासं पास पास फण।
ॐ ह्रीं ग्रह णमो दचकराए। मत्र-नमो भगवते अभीप्सितकामंसिद्धिं कुरु कुरु स्वाहा ।
गुण-इस फद्धिमंत्र के प्रभाव तथा श्री पाश्वनाथ स्वामी के प्रसाद से लक्ष्मी (धन) का लाभ एवं मनोवांछित कार्य सिद्ध होते हैं। ___फल-प्रथम द्वितीय श्लोक सहित ऋद्धि-मंत्र की भावपूर्वक प्रारापना से भद्दलपुर (भेलसा-विदिशा) के अत्यन्त भद्र परिणामी सुभद्र श्रेष्ठी के मनोभिलषित (इष्ट कार्यों) की सिद्धि हुई थी।
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१३४ ]
श्री कल्याणमंदिर स्तोत्र सार्थ
रूप प्ररुपति कि किन धर्मरश्मे:१॥३॥
Red:
:
शेऽपि कौशिकशिशुर्यदि या दिवाइयो,
सामान्यतोऽपि लय वर्णयितुं स्वखप--
वा
नि
ह
द
न
।
Mineraniliyan
श्लोक ३ ऋद्धि-ॐ ह्रीं प्रहं णमो समुद्दे ( ६ ? ) भयं { ?)
साम्यति (समन ?) बुद्धीणं । मंत्र-ॐ भगवत्यै पदहनिवासिन्य नम: स्वाहा।
गुण- इसके प्रभाव तथा श्री पाश्वनाथ स्वामी के प्रसाद से पानी का भय नहीं रहता और न दरयाव में डगमैंगाता हुआ जहाज डूबता है।
___ फल-पाटलिपुत्र (पटना) नगर के विक्रमसिंह राजा में तृतीय इलोकसाहित ऋद्धि-मंत्र की भावसहित भाराधना से रनों से लदे जहाज की समुद्र के तूफान से रक्षा की थी।
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यत्र मंत्र ऋमि पूजन प्रादि सहित
१३५
म्भोयेत का मलय ने राम ॥
कल्पान्तवान्तपरमः प्रकटोऽपि यम्मा
माहक्षयादनुभवपि नाथ! मयों ,
श्लोक-४ ऋद्धि-* ह्रीं अर्ह णमो धम्मराए जयतिए। मत्र-ॐ नमो भगवते ह्रीं श्रीं क्लीं मह नम: स्वाहा ।
गुण-इस प्रकार मंत्र के प्रभाव सपा श्री पार्श्वनाथ स्वामी के प्रसाद से असमय में गर्भपात वा अकालमरण नहीं होता और सन्तान चिरजीठी होती है।
___ फल - अयोध्या के राजा यश कीति की राजमहिषी यशस्वती देवी ने चतुर्व काव्य सहित ऋद्धि-मंत्र का माराधम कर अपने गर्भ की रक्षा की और पशस्वी राजकुमार को प्रसप किया था।
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१३६ }
श्री कल्याणमन्दिर म्तोष सार्थ
बिस्तीर्णता कययति स्वधियाबुराशेः१॥॥ ।
बालोऽपि कि न निजबाहुयुगं वितन्य,
भ्युपतोऽस्मि नव नाथ ।जडादायोऽपि
श्लोक ५ ऋद्धि-ॐ ह्रीं प्रहं णमो धणबुद्धि (बुड्डि) कमए । मंत्र-ॐ पद्मिने नमः।
गुण-इस प्रकार इस मंत्र के प्रभाव तथा श्री पार्श्वनाथ स्वामी के प्रसाद से चोरी गया हुआ और जमीन में गड़ा हुमा धन एवं गुमा हुमा गोधन प्राप्त होता है।
फल-कारंजा के भूषणदस महाजन ने पंचम काव्य सहित उक्त मंत्र की साधना से अपनी गुप्त लक्ष्मी और चोरों बारा चराये हुए गोधन को प्राप्त किया था।
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यंत्र मंत्र ऋद्धि पूजन प्रादि सहित
जयन्ति वा निजगिरा नन् पक्षिणोऽपि
30
न मो भग
मः स्वाहा
जाता नदेवमसमीक्षितकारितेयं
ये योगिनामपि न यान्ति गुणास्तवेश।
'क्षा भी प्रों हो
Id Epile gerne
श्लोक ६ ऋद्धि-ॐ ह्रीं प्रहं णमो पुसइच्छी (स्थि?) कराए। मंत्र-ॐ नमो भगवते ह्रीं श्री ब्रां श्रीं क्षां भी प्रो हौं
नमः ( स्वाहा। गुण-सन्तति और सम्पत्ति की प्राप्ति होती है।
फल-उज्जयिनी नगरी में प्रसिद्ध हेमदस श्रष्ठी ने एक मुनि के उपदेश से वृद्धावस्था में षष्ठ काव्यसहित उक्त मत्र को पाराधना से पुत्ररत्ल को प्राप्त किया था।
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१३८ ।
श्री कल्याणन्टि र सोसाई
प्राणाति पामरमः सरमाइनिस्तोऽपि ।७।।
तीनान पहन पान्यजनान्निदाघे
आस्तामचिन्त्यमहिमा जिन संस्तवस्ते,
PAAMANADA
T
ak
in nitie
श्लोक ७ ऋद्धि-ॐ ह्रीं ग्रह गमो माहण झाणाए । मत्र--ॐ नमो भगवते शुभाशुभकथयित्रे स्वाहा ॥
गुण-परदेश गये हुये पति अथवा स्वजन सम्बन्धी को २७ दिन के भीतर खबर मिलती है। यंत्र को पास में रखने से साधक जिसकी इच्छा करता है उसका आकर्षण साधक के प्रति होता है।
फल - हांसी । जिला हिसार ) की राजकुमारी प्रियगुलता ने अपने पति का जो विवाह के उपरान्त ही विदेश में जीवन-यापन कर रहा था सप्तम काव्य सहित उक्त महामंत्र के प्रभाव से सकुशल समागम प्राप्त किया था।
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यंत्र मंत्र ऋद्धि पूजन आदि सहित
[१३९
मभ्यागते वनशिपर्याण्डनि चन्दनम्य ॥१॥
सयो भुजङ्गलमया इय प्रध्यभाग
हदनिमि त्वयि विभो शिथिलीति,
1:18
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श्लोक
ऋद्धि-ॐ ह्रीं अह णमो उन्ह (ह') गदहारीए । मत्र-ॐ नमो भगवते मम सर्वाङ्गपीडाशांति कुरु
कुरु स्वाहा।
गुणः-१८ प्रकार का उपदंश, पित्तम्बर तथा सर्वप्रकार की उष्णता शान्त होती है ।
फल-श्रावस्ती नगरी का चण्डकेतु ब्राह्मण उपदंश की असह्य पीड़ा से मरणासन्न हो रहा था। पष्टमकाव्य-सहित उक्त मंत्र की प्राराधना से नवीन जीवन प्राप्त हश्रा या ।
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१४० ]
श्री कल्याणमदिर स्तोत्र सार्थ
चौररिवाशु पशवः प्रपलायमानैः ।।
गोस्वामिनि स्फुरिसतेनसि दृष्टमाचे
वन हूँ या
हामी त्रिभु
मुख्यन्त एव मनुना. महसा निन्छ !
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|
श्लोक ऋद्धि--ॐ ह्रौं अहं णमो को पं हं सः। मन्त्र-ॐ ह्रीं श्रीं ह्मलीं त्रिभुवन ह्रस्वाहा।
गुण सर्प, गोह, विच्छ और छिपकली प्रादि विषले जन्तुनों का विष असर नहीं करता। विर्षले जन्तुषों के सताये जाने पर ऋद्धि-मत्र को बोलते हुए १०८ वार झाड़ना चाहिये ।
___ फल-काशीदेश के सिद्धसेन ब्राह्मण ने नवम काव्यसहित मत्र की आराधना से काले सर्प द्वारा सताये हुए विदग्धसेन को प्राणदान दिया था।
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यंत्र मंत्र ऋद्धि पूजन मादि सहित
| १४१
मातस्य महा किमानुभव मामा
__ या रतिस्तरति यज्जयमेर न्न -
।
मः
त्वं तारको जिन। कथ भखिना न सब
5
आजमातरम
।
श्लोक १०
ऋद्धि-ॐ ह्रीं अह णमो (a ) रपणासणाए । मत्र ॐ ह्रीं भगवत्य गुणवत्यै नमः स्वाहा ॥ गुण-चोर, ठग वगैरह के भय का नाश होता है।
फल-वाराणसी नगरी के राजा विश्वसेन ने भक्ति पूर्वक दशवें काध्यसहित मंत्र की जाप अपने से चोरों, ठगों और डाकुओं द्वारा प्रातङ्कित प्रजा को अभयदान दिया था।
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१४२ ।
श्री कल्याणमंदिर स्तोत्र सार्थ
पीतं न किं तदपि सुर्धरवान ॥१९॥
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विध्यापिता हुतभुजः पयसाथ येन
म.
यास्मनहरप्रभृतयोऽपि हताभावाः,
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लोक ११
ऋद्धि-ॐ ह्रीं प्रहं णमो वारिबाल (पालणा) बुद्धीए। मत्र-ॐ सरस्वत्यै गुणवत्यै नमः स्वाहा ॥
गुण-यंत्र पास रखने से साधक पानी में नहीं बता है। जनशासन की रक्षिका देवी पाराधक की प्रथाह जल से ! रक्षा करती है तथा कुदेवादिकों का भय नष्ट होता है।
फल—मगधदेश के कंचनपुर नगर के प्रतापी राजकुमार ने शत्रुमों द्वारा समुद्र में गिराये जाने पर ग्यारहवे काव्यसहित उक्त मंत्र की माराधना से अपनी रक्षा की थी।
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यंत्र मत्र ऋद्धि जन आदि सहित
[१४३
चिन्त्यो न हन्त महतां यदि वा प्रभावः।।३।।
जन्मोदधि लघु तरन्त्पति - लाश्वेन ,
स्वामिन्नल्पगरिमाणमपि प्रपन:
यो ।
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ग्लोक १२ ऋद्धि - ह्रीं अहं णमो अग्गल (भय बजणाए । मंत्र ॐ नमो (गगवत्यं) चण्डिकाय नमः स्वाहा ।
गुण-हर प्रकार अग्निभय नष्ट होता है ! चुल्लू भर पानी उक्त मत्र में मंत्रित कर अग्नि पर डालने से वह शान्त हो जाती है और मंत्र का प्राराधक उस अग्नि पर चल सकता है । तो भी जलता नहीं है।
फल-वाराणसी नगरी के देवदत्त बढ़ई ने मुनि द्वारा उपदिष्ट कल्याणमन्दिर के बारहवें श्लोकसहित उक्त मत्र को प्राराधना से प्रचण्ट दावानल का शान्त किया था।
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श्री कल्याण मदिर स्तोत्र सार्थ
नीलमाणि विषमारिन किं हिमानी १।१३।।
-
opacetdooral
पनोयन्यमुत्र यदि दा शिशिपियोले
कोधस्त्वया यदि विभेर । प्रथम मिस्तो
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श्लोक १३ ऋद्धि-ॐ ह्रीं अहं णमो इक्खवज्जगाए । मंत्र-ॐ नमो भगवत्यं) चामुण्डाय नमः स्वाहा ।
गुण-सात दिन तक प्रतिदिन भारी भर पानी उक्त मंत्र से १०८ बार मंत्रित कर खारे जल के कुएँ बावड़ी मादि में डालने से पानी अमृततुल्य हो जाता है।
फल-श्री जम्बूस्वामी के समय श्रावस्ती नगरी के सोमशर्मा ब्राह्मण ने अपने बगीचे की खारी बावड़ी को उक्त मंत्र द्वारा अमृत के समान मधुर जल वाली करके जैनधर्म की 'अपूर्व प्रभावना की थी।
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यन्त्र मन्त्र ऋद्धि पूजन आदि सहित
[ १५५
दक्षम्य सम्भवप नन् कर्णिकाया.||१४||
नाATFT ENA |
पुताय निर्मरकरुयदि बा किमन्य
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त्या योगिनो जिन स्टा परमात्मा
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श्लोक १४ ऋद्धि-दीप णमोझ {झ?) सण (भय) झूस (भव?णाए। मन्त्र- नमो (महाराति?) कालरात्रि (अये ? नमः स्वाहा ।
गुल-शत्रु क्रोध होड़ कर बरभाव तज देता है और निर्मल विचार मामा बन जाता है । अपना उसका नाश हो जाता है।
फल-दतिया राज्य के राजकुमार भद्र ने अपने मात्र राजा भीम का वैरभाव पौदहवें काव्यमाहित बक्त मंत्र के प्रारापन से दूर कर अपना परममित्र बना लिमा पर।
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११६]
श्री कल्याणमन्दिरस्तोत्र सार्थ
चामीकरत्वमचिरादिव धातुभेदाः॥१५॥
के.
तीज्ञानसादपलभावशास्त्र
ध्यानान्जिनेश । भवतो भविन मणेन ,
श्लोक १५ शुद्धि- लों मई एमो तक्खरचय (व ? ) खियाए ।
मन्त्र ॐ नमो गंधारि (रये?) नमः श्री क्ली में ब्लूई स्वाहा।
गुण - चोरी गई हुई वस्तु वापिम मिलती है।
फल--राजगृहो नगरी के दिव्यत्वामी ब्राह्मण ने १५ बें इलोकसाहित उक्त मन्य को सिद्ध करके चोरी गया इमा अपना पन मन्त्राराधना के प्रभाव से पुनः प्राप्त किया था ।
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दे
मनत् स्वमप्रभय मध्यविवर्तिनों
यन्त्र मन्त्र ऋषि पूजन सहित
यद् विग्रत् प्रशमयति महानुभावी : ।। १६ ।।
ॐ
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上
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मां
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[ १४०
अन्तः सदैव जिन यस्य विभा
श्लोक १६
ऋद्धि-ॐ ही आहे सभी रागभयपणासए ।
मन्त्र -- ॐ नमो गोरी ( गौर्यायें ? ) इन्द्रे (इन्द्राये ? ) ब (बज्रायें ? ) ह्रीं नमः स्वाहा ।
गुण- पर्वत पर भी उपसर्ग नहीं होता तथा बीहड़ बन में भी भय का नाश होता है।
फल- द्वारकापुरी नगरी में प्रदत्त अष्ठी ने जो कि दुष्ट डाकुओं द्वारा निर्जन वन में ले जाया गया था, कल्याणमन्दिर के १६ वें लोकसहित उक्त मन्त्र के चित्तवन से छुटकारा पाया था।
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१४= }
शनीयमय मृतमित्यनु - चिन्त्यमानं ।
श्रीमती सार्थ
कि नाम को विश्वविकार मपा करो कि 199019
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द्रीं नमः ९
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(स) No
ॐ ॐ
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मो धृ
आत्मा मनीषिभिरयं यदभेदबुध्या
श्लोक १७
ऋद्धि-ॐ ह्रीं घई समो कुद्ध ( ट्ठ ? ) बुद्धि (डिट 7 )
कासए ।
b
मन्त्र - ॐ नमो घृति देव्यं ह्रीं श्रीं क्लीं ग्लू ऍ द्रां ह्रीं नमः (स्वाहा ) |
गुरण – यन्त्र पास रखने पर विग्रह ( वंर विरोध ) वास होता मौर विजय प्राप्त होती है ।
फल - कौशाम्बी देश के मृगापुत्र राजा ने भीषण संग्राम मैं पराक्रमी राजा भद्रबाहु को इस मन्त्र के प्रभाव से पराजित किया था ।
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पत्र मन्त्र ऋद्धि पूजन अदि माहित
[१४९
नो गृहयते विविध विपर्पोज १८॥
..100°ा
.
or ora
कि फग्यकामलिभिरीशा सितोऽपिसको
त्यामेय वीततमसे परियादिनोऽपिं.
___titane
kya
i trey
श्लोक १० ऋद्धि-ॐ ह्रीं अई णमो पासे सिद्धा मुनि ?।
मन्त्र-ॐ नमो ज ( सु! ) मतिदेव्यै विषनिर्णाशिन्यै नमः स्वाहा।
गुण---जिम स्त्री या पुरुष को भय कुर भुजङ्ग ने काटा हो उसके मुख, शिर और ललाट पर उक्त मन्त्र से मन्त्रित जल के छोटे चुल्लू में भर भर कर उस समय तक मारता रहे जब तक वह निविष न हो जाय । इस मन्त्र से सर्प का विष उतर जाता है।
___ फल--कम्पिना नगरा के घमंगोर नाम थे. पाल ने एक मनि द्वारा प्रदत्स उक्त महामन्त्र के प्रभाव में सपं द्वारा सत्तामे पये सैकड़ों मानवों को प्राणदान दिया था ।
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१५० ]
श्री कल्याणमन्दिरस्तोत्र सार्थ
किवा विधमुपयानि र जोबनाम पर
अभ्युन दिन सौ मस्तीहापि
धर्मायदेशान्ये मरिधानुभाग -
जय
anthali eSK HERER
प्रचोक १६ ऋद्धि- मई शमो अविरलगदे (!) णासए ।
मन्त्र--ॐ (नमो भगवते ) ही श्री क्लीं क्षां भी नमः (स्वाहा )।
गुणा--नेपपीड़ा दूर होता है। जब मोख पाई हुई हो तब भोगपत्र पर रसोंद ने लिख कर गले में बौषमा पाहिये।
फल--देश की चम्पापुर मगरी के विजयमा रामठो ने विदेश में कुसामुमो के मात्रबल से नेत्रज्योतिरहित साथियों को इस महामन्त्र की साधना से पुनः ज्योति प्रदान को थी।
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सुनीश !
याचसुमनसां यदि वा
मन्त्र मन्त्र ऋद्धि पूजन आदि सहित
यदति ननम एव हि 201
अक
ह्या
श्लोक
ऋद्धि--ॐ ह्रीं नई (ग) प ( हा १ ) सए ।
भूत्वं रा है पारस
मः
[२५१
चित्रं विभो। कथमवाड सुखवृन्तमेष
२०
मो गिल ( गहिल १) विज्ञ
मन्त्र - ( भगबस्थे म ( वये १ ) नमः स्वाहा ।
गुण-- विधिपूर्वक मन्त्राराधन से उच्चाटन धर्म जिसे साधक महीं चाहता उसका मिराकरण होता है ।
फ --कुरुजाङ्गल देश को हस्तिनागपुर नगर निवासिनी राजन कुमारी मनङ्गलीला मे २० वे इसोकसहित मन्त्र की पासमा से कामान्ध पुरुष का उच्चाटन कर अपने सतीत्व की रक्षा की भी
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१५२ ]
श्री कल्याणमन्दिरस्तोत्र सार्य
भव्या प्रजन्ति बरसाप्यानरामान्यम् ॥१
यीत्वा यतः परमसमदसमभाता
स्याने गभीर हदयाच - सम्भवायाः,
Dayahang Rautahip. .
श्लोक २१ ऋद्धि-डीआई णमो पुरिफ (य) ग (त) सब (१)ताए।
मन्त्र-भगवती ( ? ) पुष्पपक्षावकारिणि (स्वं?) नमः ( स्वाहा )।
गुण- सूबे हुए वन-उपवन के वृक्ष पुन: पल्लवित होने लगते हैं।
फल- राजपुताना प्राम्स की नागीर मारी के ग्राहका मामक माली ने एक मुनि द्वारा प्रदत कल्याणमन्दिर के २१ वे लोकसहित, उक मत की साधना करके शुष्क उपवन के वृक्षों को पुनः पल्लवित कर लोगों को पाइनर्यचकित किया था और जैन धर्म को प्रभावना बढ़ाई की।
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यन्त्र मन्त्र ऋद्धि पूजन आदि सहित
१५३
ने ननम्यगतयः रचलु शुद्धभायाः ॥२०॥
येऽस्मै नतिं विदधने मुनिपुङ्गवाय,
स्वामिन्सुमवनभ्य समुन्यतन्ना
tu
ri pe me
श्लोक २२ ऋद्धि-ॐ ह्रीं मई णमो तरुष (प!) पणासए । मन्त्र- नमो पावत्यै मायूं नमः स्वाहा ।
गुरण -बन उपवन बिम वृक्षों में किसी कारण से फल लगमा पर हो जाते हैं उनमें पुन: मधुर फल पंवा होने लगते हैं।
फR-कौशाम्बी नगरी के समरिणदत राहो के उद्यान में राघव माली में एक मुमि द्वारा प्राप्त इस स्तोत्र के २२ ३ लोक सहित उक्त मन्त्र की साधना द्वारा फलरहित वृक्षों को मधुर फलदायक किया था।
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१४४]
श्री कल्याणमन्दिरस्तोत्र मार्थ
यामीकरादिशिरसीव नवाम्बुब्रहम् ।।२31
आलोकयन्ति रभसेन नदन्तमुच्चै
श्यामं गभीरगिर मुज्ज्वर-हेमरत्व -
-
-
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श्लोक २३ ऋद्धि-हीबई बमोबज ( 32 ? ) य हरणाए।
मन्त्र-ॐ नमो ( ४ ) श्रीं क्लीं मां झों ममः नमः (वाहा )।
गुण-राज दरबार मैं अय, सम्मान सपा हर जगह मान्यता होती है।
फन-अमनपुर नगर के राजा वीरसवाहारा पदव्युह राज्य सचिव समति ने इस स्तोत्र के २३ ३ इलोक सहित क मन्त्र को पासपना से पुनः राज्य सम्मान प्राप्त किया था ।
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सान्निध्यतोऽपि यदि वा तव वीतरागण !..
यन्त्र मन्त्र ऋद्धि पूजन आदि सहित
नीरागनी ब्रजति को न सचेतनोऽपि ॥ २४॥
मः
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ॐ
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श्री/ड श
छप
उच्छला नद
[१४५
शितिद्युतिमण्डलेन,
श्लोक २४
ऋद्धि- ह्रीं भई रामो मागास ग ( गा ? ) मियाए । मन्त्र — ॐ ह्रीं भ्रां श्रीं षोडशभुजे (जाये ?) पद्म (शिन्यै ) ( ? ) हो नमः (स्वाहा ) |
गुण-हाथ से गया हुया प्रपमा राज्य दया स्थान पुनः प्राप्त होता है।
फल -- सालिसी नगर के राजा चन्द्रसेन ने शत्रु द्वारा बिमित प्रदेश पर इस स्तोत्र के २४ वें श्लोक सहित उक्त मन्त्र की प्राराधना से पुनः अपना स्वामित्व स्थापित किया था ।
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१५६]
श्री कल्याणमन्दिर स्तोत्र सार्थ
मन्ये नदमिनभा सुरदुन्दुभिस्त .. २६
Ma
Act
in
एतन्त्रिवेदयति दर जगत्त्रयाय
भी भी प्रमादमवधूय भजमन -
in
122
-
-
---
-
---
|
Ideaitan
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श्लोक २५ ऋद्धि-ही भई मो हिदक { हिंदण ! ) मलापायाए।
मन्त्र--ॐ नमो (x) धरणेन्द्रपद्मावत्यै नमः (स्वाहा)।
गुण--रोग, शोक मोर पीड़ा का नाश होता है। हर्ष बढ़ता है तभा सर्व प्रकार के रोग शाम्त होते है।
फल-प्रतिष्ठान देश की कामन्दिका नगरी के स्वादस नामक महाजन ने इस स्तोत्र के २५ वे काव्य सहित उत्त मंत्र को साधना द्वारा प्रसाध रोगों को शाम किया था ।
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यन्त्र मन्त्र ऋद्धि. पूजन आदि सहित
व्याशा जस्ता जिगर : २६००
श्री श्रू य.
ग्रा
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मक्ताकलाप कलिलोन्यमितात पत्र
ANSHE
योनिता भवता भुवनेषु माथ। .
-
-,
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Is
they upreti
श्लोक २६ ऋद्धि-ॐ ही भई णमो जयंवेयपासेवताये।
मन्त्र-ॐदी श्री श्री अ' श्रः पन्ने (मार्य ? ) नमः ( स्वाहा )।
गुगा-राज्यसभा में साधक की सम्मति तथा उसके कहे हुए ववम सर्वश्रेष्ठ माने जाते हैं।
फल----शिवपुर नगर के दीर्घदर्शी नामक मन्त्री ने इस स्त्रोत्र के छन्वीसवें काव्यसाहित उक्त मन्त्र की साधना से राज्य दरबार में अपने वचनों को सर्वश्री प्रमाणित किया था।
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१५८ ]
श्री कल्याणमन्दिरस्तोत्र सार्थ
मालत्रयेण भगवन्तभितो विभासि ॥२७॥
व
माणिक्यांहदरजतपत्र - निर्मितन
स्बेन प्रप्रितजगत्मय चिपिडतेन
ण न्द्र प्रभा
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श्लोक २७ ऋद्धि-- ही यह एमो खज-दुदृणासए ।
मन्त्र--सी श्री धरोपमावतीवलपराक्रमाय नमः { स्वाहा )
गुण----दुश्मन पराजय को प्राप्त होता है पौर वर-विरोष छोड़ कर शत्रु शाम्त होता है।
फल - हर्षवती नगरी के अधिपति मेघमाली ने इस स्तोत्र के २७ में फास्यसहित उक्त मन्त्र के प्रभाव से शत्र राजामों को परास्त कर उन्हें मपमा मित्र बनाया पा!
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यन्त्र मन्त्र ऋद्धि पूजन मारि महिन
त्वत्सङ्गमे सुमनसो न समन्त एव ॥३॥
पादौ यन्ति भवतो यदि वापरत
दिव्यस्जो जिन! नमन्त्रिदशाधिपाना -
श्लोक २० ऋद्धि- ही पाई एभो तव (दव ) वजणार | मन्त्र--*ही श्री डी को ( कौं ? ) वपद स्वाहा ।
गुण- संसार में द्वितीया के चान्द्रमा की तरह निरन्तर यश पौर कोति बढ़ती है और जगह जगह विजय प्राप्त होती है !
फल----विशालापुरी नगरी में विश्वभूषण श्राह्मण में इस स्तोत्र के २८३ काथ्यसहित इस मंत्र के मारापन से राज्य में यश प्रात किया था।
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१९० }
युक्तं हि पार्थिवनि सतस्तवैच
श्री कल्याणमन्दिरस्ती सार्थ
चित्रं वियदति कर्मविपाकशून्यः
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ॐ ह्रीं को
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त्यं नाथ! जन्मजलधे बिपराड़ मुखोऽथि
श्लोक २६
ऋद्धि - ॐ ह्रीं श्रीं समो देवापि (पि ? ) याद |
मन्त्र - हो क्रीं ह्रीं ह्र फट स्वाहा |
2
गुण---- सर्वजन प्रसन्न होते हैं। जिसको प्रसन्न करना है उसे उक्त मन्त्र से मन्त्रित सुपारी, इनायची धथवा लॉंग खिलावे ।
फल---हिपुरी के लखीवर नामक ग्वाल ने इस स्तोत्र के २६ वें काव्यसहित उक्त मन्त्र की साधना द्वारा अनेक पुरुषों को प्रसन्न किया था ।
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यन्त्र मन्त्र ऋद्धि पूजन प्रादि सहित
[१६१
ज्ञाने त्वयि स्फुरति विसविक महेतु
अज्ञानवत्यपि सदैव कचिदेव,
विश्वापि अनपालक दुर्गतस्त्वं,
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उलोक ३० ऋद्धि-ॐ हो भह णमो भद्दा ( बला x ) प । मन्त्र-ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ब्लू प्रौ (प्रो ! ) नमः स्वाहा ।
गुणा---परिपक्व ( कच्चे ) मिट्टी के बड़े द्वास कुए में पानी निकाला जाता है।
फल-दक्षिण मधुरा की गुणवती नाम को स्त्री ने इस स्तोत्र के ३० ३ लोकसाहित उक्त महामन्त्र को पारापना करके मिट्टी के काले पड़े से पानी निकाल कर दर्शकों को पारयचकित किया था।
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१६२ ] श्री कल्याणमन्दिरको साथ
ग्रस्तस्त्वमभिरयमेव परं दुरात्मा ॥३१॥
छायापि तैस्तव न नाथ! हा हताशी
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भाभग
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क्ष
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प्रारसम्भृतनभांसि रजांसि सेवा
श्लोक ३१
ऋद्धि-ॐ ह्रीं अर्ह रामोजी ( वी ? ) या ( भा ? ) ( १ ) ( ? ) ताए ।
मन्त्र — ॐ नमो भगवति चक्रधारिणि भ्रमय भ्रामय, मम शुभाशुभं दर्शय दर्शय स्वाहा ।
गुण – फुछे पये शुभाशुभ प्रश्न का फल ज्ञात होता है।
फल
- मित्रा नदी के तट पर उथिमी नगर के कनककात ब्राह्मण ने इस मन्त्र का फल प्राप्त किया था।
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7
दैत्येन मुक्तमा दुस्तरवारि बजे,
यन्त्र मन्त्र ऋद्धि पूजन आदि सहित
तेनैव तस्य जिन। दुस्तरवारिकृत्यम् ॥ ३२ ॐ नमो:
नमो भगवते
दिस्वाहा।
स्थर सही
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想起
你做我
म
-
དུབ་ཟེལ་ལ
यद्र्जर्जितधनासद - अभीमं
श्लोक ३२
रामो मटुमट्ट ( द ? ) शामए ।
[ १६३
ऋद्धि-ॐ
मन्त्र - ॐ नमो भगवते मम शत्रुन् बंधय बंधय ताब्य ताडय, उन्मूलय उन्मूलय, जिद बिंद, भिद सिंह स्वाहा ।
गुण- दुष्ट पुरुष का चल निर्बल होता है, शत्रु को सांपातिक प्रस्त्रादिविद्या का जोर नष्ट होता है तथा अपनी दुष्टता को छोड़ देता है ।
फल - राजग्रही नगरी के विश्व-विख्यात शिव मन्दिर में बिराजमान सत्यशील मुनि ने इस स्तोत्र का पाठ करते हुए उक्त मन्त्र के प्रभाव से मन्दिर की अधिष्ठात्री देवी द्वारा कृत उपसर्गों पर विजय प्राप्स को बो तथा उसकी दुष्टता का दलन किया था।
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१६]
श्रील्याणमन्दिरस्तोत्र मा
मोऽस्याभवत्यनिभा भवातु:08
प्रेसजः प्रति भवन्तमयीरितो या
ध्वस्तीर्थ केशाविकृताकृति मर्यमुण्ड
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श्लोक ३३ ऋद्धि-- हो आह रणमो जवित्ताय ( ? ) खिताए । मन्त्र-ॐ ह्रीं श्री वृषमादितीर्थङ्करेभ्यो नमः स्वाहा ।
अथवा ऋ असं प्रमु पसु चंपुशीने वावि भधशाकु अममुनने पाम ।
गुण-अतिवृष्टि, अनावृष्टि, उत्कापात एवं टिड दिन को रोककर संभावित दुर्भिक्ष से जनता की रक्षा होती है ।
फल – सिरपुर (थीपुर) नगर के पुखराज कृषक ने इस स्तोत्र के ३३ वें काध्यसहित उक्त मन्त्र को साधना द्वारा उसके प्रभाव से सम्भावित दुर्भिक्ष को रोका था।
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यन्त्र मन्त्र
पूजन आदि सहित
[१६५
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पादइयं तव विभो । भुधि जन्मभानः॥ ३४॥
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भक्त्यालसत्पलकपदमल - देहदेशाः ।
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ॐनमो भ ग व ते भूत पिशा,
चन्यास्त एप भुवनाध्यिा ये निसय
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इलोक ३४ ऋद्धि-ॐ ह्रीं मई णमो 'जि भरसायतकखणणं ।
मन्त्र-ह्रीं नमो भगवति (ते!) भूतपिशापराचसखेतालान ताब्य ताइय, मारय मारय स्वाहा।
गुण-भूत, पिशाच, राक्षस, शाकिलो और आकिनो को पोड़ा तथा शत्रुभय का विनाश होता है।
फल-गोदावरी नदी के किनारे पैठनपुर नगर के प्रतापकुवरको पिशाच द्वारा सताये जाने पर अतधो नाम के वरिणकपुत्र ने इस स्तोत्र के ३५ में काव्यसहित इस मन्त्र की बाप जय पार तया इसी मंत्र से मन्त्रित जल को पिलाकर पिशाच की बाधा दूर की थी।
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१६६ ]
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आकर्णित नुं
श्री मन्दिरस्तोत्र सार्थ
किंवा विपदिषधी सविधं समेति ॥४५॥७
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श्लोक ३५
ऋद्धि की बहु रामो मिज्जतिजणासए ।
अस्मिन्त पाद्भवर्णादिनिधौ मुनीशः
मन्त्र -- ॐ नमो भगवति ( ते १ ) मिगियागदे अपस्मारे (मृग्युन्मादापस्मारादि ? ) रोगे ( ग ? ) शांतिं कुरु कुरु स्वाहा ।
गुण-- मृगी, जम्माद, अपस्मार और पागलपन यादि साध्य रोग शान्त होते हैं।
वरिक ने इस स्तोत्र के ३५
फल -- पाटलिपुत्र जगर के मिंग को साधना से बनेकों के मृगीरोग को दूर किया था।
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लेनेह जन्मनि मुनीश ! पराभवानी,
यन्त्र मन्त्र ऋद्धि पूजन आदि सहित
जाती निकेतनमह मथितादायानाम ३८ ॥
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नमः स्वाहा ।
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जन्मान्तरेऽपि तव पादयुगं न देख !,
श्लोक ३६
ऋद्धि-ॐ ह्रीं मई रामो मा (प्रां ?) हुं फट् विचक्राए । महानागकुल विपशांतिकारिणि (एथे?)
मन्त्र --- ह्रीं
गुण- इस महामन्त्र के प्रभाव से काला नाग पकड़े यो काटे नहीं और इसी मन्त्र से कंकड़ों को मंत्रित कर सर्प के ऊपर फेंके तो वह फीलित हो जाता है तथा उसका विष मसर नहीं करता है ।
फल – मिथिलापुरी नगरी के मनवी नाम के पीबी ने दिगम्बर मुनि द्वारा प्रदत्त इस शो के ३६ वें क्लोसहित उक्त मंत्र के भाराभन से बड़े बड़े विषधरों को वश में किया था ।
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१६६ ]
विध विधुरयन्ति हि मामन,
श्री कल्याणमन्दिर स्तोत्र सार्थ
प्रोद्यन्यैनं ३
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नूनं न मोहतिमिरावृन - लोचनेन
श्लोक ३७ ऋद्धि - ॐ ह्रीं भई रामो बो (खो ? ) भि हों खाभिए । मन्त्र - नमो ( ) भगवति ( ते ? ) सवराजाप्रजावश्य ( श ? ) कारिणि ( से ? ) नमः स्वाहा ।
गुण-यंत्र को पास में रख कर उक्त मंत्र से ७ संकरों को मंत्रि कर क्षीरवृक्ष के नीचे उन्हें ऊपर उछाल कर घर केले पश्चात् नगर के चौराहे पर डालने से राजा से मिलाप होता है, श्रेष्ठ पुरुर्षो से सन्मान
प्राप्त होता है ।
फल – जालन्धर नगर के मानोमल सज्जन ने इस मंत्र का भाराषन कर पुरुषों से सन्मान पाया था और राजा से मिलाप हुधा वा ।
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4
जातोऽस्मि तेन जनबान्धव । दुःखपात्र,
यन्त्र मन्त्र ऋद्धि पूजन आदि सहित
यस्मात्किया प्रतिफलन्तिन भावशून्या दे
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आकर्षितोऽपि महितोऽपि निरीक्षतोऽपि
श्लोक ३८ ऋद्धि-ॐ ह्रीं महं रामो हि (ट्टि ?) मिट्टि (ट्टि ? )
मरकं ( भक्स्वं ? ) कराए |
मन्त्र-ॐ जानवा ( जनेवा ) न्हारणापहारिण्यं भगवत्ये खारी देव्यै नमः स्वाहा |
गुण--महरुवा, जनेवा, उदर तथा हृदय की पीड़ा नष्ट होती है । होली की राख को उक्त मंत्र से २१ बार मंत्रित कर रोग दूर होने तक प्रतिदिन उससे झाड़े
फल --- काशीपुर नगर के शिवम ब्राह्मण ने मुनिप्रदत्त इस मंत्र की साधना द्वारा चक रोगों से पीड़ित मनुष्यों की पीड़ा दूर की थी।
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१७० }
भक्त्या न ते अति महेश। दयां विधाय
श्री कल्याणमन्दिर स्तोत्र सार्थ
दुखाङ्कुरीयननन्परतां विधेति ॥ ३ ॥
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त्वं नाथ। दुःखिजनवत्सल ! हे शरण्य!
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श्लोक ३०
ऋद्धि-ॐ ह्रीं नई मो सता (चा?) वरिएगु ( ? )
विजं ।
मन्त्र - नमो भगवते ( अमुकस्य ) सर्वश्वरशान्ति कुरु कुरु स्वाहा'
गुण-- सर्वज्वर तथा सति दूर होता है। भूर्जपत्र पर मंत्र लिख कर रोगी के कएउ में धूप देकर बांध देवे ।
फल – पद्मखण्ड नाम की नगरी में इन्द्रप्रभ ने इस स्तोत्र के ३६ लोकसहित इस मंत्र को सिद्ध करके इसके प्रभाव के देशों मनुष्यों को पीश दूर को थी ।
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यन्त्र मन्त्र ऋद्धि पूजन प्रावि सहित
[१७१
नयोऽस्मि नमन यावर हा हलोऽस्मिson
नि:सरल्यासारडा
त्वत्याद बडुजमणि प्रशिक्षारबनायो
श्री श्री र
शरण वारयच -
_Remarahtaurant
श्लोक ४० ऋद्धि--झी भई णमो उन्द ( एहसीम (य१) पास।
मन्त्र--ॐ नमो भगवते झन्वर यूनमः स्वाहा।
गुण इकतरा, तिवारी, चौथिया मादि विषमस्वर दूर होते हैं।
पल-पोरीपुर नगर के रन्द्रशेखर महाशय ने इस ४० वें काम्यसहित इस मंगकी पाराधना के प्रभाव से विषमज्वरपीड़ित मनुष्यों का कह मिटाया था।
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१७२ 1
श्री कल्याणमन्दिरम्यान मार्थ
सीदन्नमय भादव्य सनाम्बरा . ।। ८१ ।।
म:।
न
अयस्य देव । करुणाहद। मा पुनीहि .
देवेन्द्रबन्ध विदिनाचिन्न - वस्नुसार।
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___Haraki
श्लोक ४१ ऋद्धि--ॐ ह्रो मह णमो वप्पला हव्य ( ? ) ए ।
मन्त्र--* नमो भगवते यमयारि नमो ह्रीं श्रीं क्ली ऐंब्लू नमः ( स्वाहा )।
गुण---संग्राम में तीर, तलदार, परछा, भाला तथा अन्य प्रस्त्र शस्त्र सापक को घायल नहीं कर पाते।
फल---उत्सर मथुरा के राजा श्रीदर्शन ने इस स्तोत्र के ४१ में काश्यसहित मंत्र की पाराश्ना से संग्राम में शत्रु राजाओं के भस्थ-पास्त्रों को कुण्ठित कर अपनी वा अपने सेवकों की रक्षा की थी।
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तन्मे त्वदेकारणस्य
स्वाहा ।
पासए ।
यन्त्र मन्त्र ऋद्धि पूजन आदि सहित
स्वामी त्यमेव भुवनेश्च भवान्तरेऽपि ॥५२॥
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[ १५३
यद्याकंन नाथ।
श्लोक ४२
ऋद्धि-ॐ ह्रीं यह णमो इत्थि बन्ध ( रस १ ) (रोम)
भवदप्रिमरोहाणां
मन्त्र -- ॐ नमो भगवते श्रीप्रसूत रोगादिशान्ति कुरु कुरु
गुण स्त्रियों का प्रदररोग दूर होता है, बहता हुआ परि रुक जाता है तथा गर्भ का स्तम्भन होता है।
फल -- ---वक्त मंत्र की साधना द्वारा धन श्रेष्ठी को पुत्री मदनसेना ने अपने प्रदरादि रोगों को दूर कर नवजीवन प्राप्त किया था ।
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१७३ ]
ये संस्तवं नव विभा ! रचयन्ति भत्या: ४६३०
त्वद्विम्ब निमलमुरवाम्बुजब्दुलक्ष्याः.
स्तम्भय जुमय श्रृंधन क
श्री मन्दिरस्ताव सार्थ
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後
ॐ
नमो लिङ्क महासिद्ध जगतसिंह
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श्लोक ४३
247
इत्थं समाहितधियो विधिवजिनेन्द्र !
नाकाबन्
णमो बंदि माक्ख ( ? ) बा
ऋद्धिहीं ( गा ? ) ए ।
मन्त्र ॐ नमी सिद्धि (द्ध ? ) महासिद्धि (द्ध ?) जगत् सिद्धि ( १ ) जयसिद्धि (द्ध ? ) ( सहिताय कारागारबन्धनं ) मम रोगं हिन्द बिन्द, स्तम्भय स्तम्भय, जुभव अभय, मनोवांदित ( तं ? ) सिद्धिं कुरु कुरु स्वाहा ।
गुण---बन्दी बचनमुक्त हो जाता है, रोग शान्त होते हैं तभा इष्टकार्यो की मिद्धि होती है ।
पल-पलकापुरी के चन्द्रप्रभ मंत्री ने इस काव्य वा मंत्र के प्रभाव के बने को बन किया था।
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यंत्र मंत्र ऋद्धि पूजन यादि सहित
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जननयनकुमुदचन्द्र
लोक ४८
ऋद्धि - ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं नमः ।
मंत्र-ॐ नमो धरणंन्द्र पद्मावतीसहिताय श्रीं क्लीं ऐं श्रहं नमः (स्वाहा ।
गुण-लक्ष्मी की प्राप्ति मौर व्यापार में लाभ होता है। फल -- तिलकपुर नगरी के मिथ्यात्वी भ्रमरदत्त वैश्य ने इस स्तोत्र के ४४ वें काव्यसहित इस मंत्र की प्राराधना के प्रभाव से विपुल सम्पत्ति प्राप्त की थी।
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कल्याणमन्दिर मन्त्रसाधन की विधि
श्लोक १,२ - लाल रेशमी वस्त्र पनि कर, लाल रेशम की माला लेकर, पर्वत के ऊपर पूर्व की ओर मुख करके, लाल आसन पर बैठ कर ६० दिन तक प्रतिदिन १००८ बार श्रद्धासहित ऋद्धि मन्त्र का जाप जपे तथा निर्धूम प्रति में कपूर, कस्तूरी, चन्दन और शिलारस मिश्रित घूर क्षेपण करे ।। १,२ ॥
में
श्लोक ३ - लाल मुंगा की माला लेकर एकान्त पश्चिम की ओर मुख करके, सफेद आसन पर बैठकर श्रद्धापूर्वक २७ दिन तक प्रतिदिन १००० वार ऋद्धि-मन्त्र का जाप अ तथा निर्धम श्रग्नि में गूगल, चन्दन, छाड़ - छबीला और घृत मिश्रित धूप क्षेपण करे यंत्र पाम रखे ||३||
श्लोक ४ - व मलगटा की माला लेकर, एकान्तस्थान में पूर्व की ओर मुख करके पीले रंग के आसन पर बैठ कर स्थिरचित्त से रविवार के दिन प्रातःकाल १००० बार ऋद्धिमन्त्र का स्थिचित्त होकर जाप जपे और निर्धूम अग्नि में गूगल, चन्दन, कपूर श्रीर घृत ਸਿਧਿਰ धूप सेवे 1
उस विधि में ९ वर्ष तक प्रतिवर्ष रविवार व्रत करे तथा प्रतिवर्ष लगातार ४० रविवार के दिनों में उक्त ऋद्धि मन्त्र की जाप जपे । एकाशन, भूमिशयन तथा ब्रह्मचमं से रहे ।' ४ ।।
श्लोक ५ – स्फटिकमणि की माला लेकर, पूर्व की मोर मुख करके, एकान्त स्थान में सफेद आसन पर पद्मासन से बैठ कर श्रद्धापूर्वक ४९ दिन तक प्रतिदिन १००० बार ऋद्धि
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।१३३
यंत्र मंत्र ऋद्धि पूजन प्रादिहित [१७७ मंत्र को जो तथा निधूम अग्नि में मूगल, कुंदरू, कपूर, चन्दन और इलायचो मिश्रित धप क्षेपण करे ।।५।।
स्लोक ६-पबीज की माला लेकर, दक्षिण की पोर मुख करके, निर्जन स्थान में हरे रंग के पासन पर बैठ कर श्रद्धापूर्वक ४० दिन तक प्रतिदिन १००० वार ऋद्धि-मंत्र का जाप जपे तथा निधूम अग्नि में गरी, गूगल, लवंग और चन्दन मिश्रित ध्प क्षेपण करे :१६॥
श्लोक ७-लालमूगा की माला लेकर, नैऋत्य को मोर मुम्ब करके, गवि के समय एकान्त स्थान में जोगिया रंग के मासन पर बैठ कर, एकाग्रचित से २७ दिन तक प्रतिदिन १२०. वार ऋद्धि-मंत्र का जाप जपे तथा घूमरहिन अग्नि में गूगल, लोभान चन्दन और प्रियंगुलता मिश्रित धूप खवे ।।७।।
श्लोक --चांदी की मान्ना लेकर. ईशान की अोर मुम्क करके, कोलाहलरहित स्थान में डाभ के प्रायन पर बैठ कर स्थिरचित्त होकर १४ दिन तक प्रतिदिन १००० वार ऋद्धि-मत्र का जाप जपे और निधूम अग्नि में गूगल, कुंदरू और 'सफेद चन्दन मिश्रित धूप क्षेपण करे ॥८॥
लोक ९-रुद्राक्ष की माला लेकर प्राग्नेय की ओर मुख करके एकान्त निर्जन स्थान में काले ऊन की प्रासन पर पद्मासन से बैठ कर पूर्ण विश्वास सहित १४ दिद तक प्रतिदिन १००० वार ऋद्धि-मंत्र का जाप जपे तथा शिखारहित निर्धम माग्नि में गुगल, राहर और कुंदरू मिश्रित धूप क्षेपण करे ॥९॥
लोक १० सोने की माला लेकर, वायव्य की ओर भूख करके. पीले रंग के आसन पर बैठ कर १८ दिन तक प्रतिदिन श्रद्धासहित १००० वार ऋद्धि-मंत्र का जाप जपे तथा गूगल और चन्दन मिश्रित धूप क्षेपण करे ।।१०।।
--
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१७८ ]
श्री कल्याणमंदिरातोत्र सार्थ
श्लोक ११- सफेद चन्दन की माला लेकर, ईशान की ओर मुख करके, सफेद पासन पर बैठ कर १९ दिन तक प्रतिदिन स्थिरभाव से १००० बार ऋद्धि-मंत्र का जाप जपे तथा चन्दन, नागरमोथा, कपूरकचरी और धूत मिश्रित धूप खेवे ॥११॥ __श्लोक १२-स्फटिकमणि को माला लेकर, नैऋत्य की ओर मुख करके, सफेद प्रासन पर बैठ कर ७ दिन तक प्रतिदिन एकाग्रचित्त से १०८ बार ऋद्धि-मंत्र का जाप जपे तथा निर्धूम मग्नि में गरी, कपुर, गुगल और घत मिधिन धुप क्षेपण करे ।।१२॥ ___श्लोक १३--जायफल की माला लेकर, पश्चिम की प्रोस मुख करके, लाल रंग के प्रासन पर बैठकर भावसहित २७ दिन शप निदिन १०:५ आर सि गा मा या जपे तथा निधूम अग्नि में गूगल. चन्दन और घृत मिथित धूप क्षेपण करे ॥१३॥
सोक १४–रीठा की माला लेकर. दक्षिण को प्रोर मुख करके, काले रंग के आसन पर बैठ कर निश्चिन्त मन से मुल नक्षत्र से हस्त नक्षत्र पर्यन्त २५ दिन तक प्रतिदिन १००० वार ऋद्धि मंत्र का जाप जपे तथा निर्धम अग्नि में गूगल, लानमिर्च, गरी और नमक मिश्रित धूप क्षेपण करे ॥१४॥
लोक १५--लाल सूत को माला लेकर, उत्तर की ओर मुल करके, हरे रंग के पासन पर बैठ कर १४ दिन तक प्रतिदिन निश्चल मन से ऋद्धि-मंत्र का जाप जपे तया नि म मग्नि में कुदरू और गूगल मिश्रित धूम क्षेपण करे ।।१||
श्लोक १६ - स्फटिकमणि की माला लेकर, वायव्य की मोर मुख करके, सफेद आसन पर बैठकर ७ दिन तक प्रतिदिन
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यंत्र मन्त्र ऋद्धि पूजन आदि सहित १७६ १००० बार ऋद्धि-मंत्र का जाप जपे तथा निर्धूम अग्नि में गूगल मावा (खोवा) चन्दन और घृत मिश्रित धूप क्षेपण करे ॥१६॥
श्लोक १७-स्फटिकमणि की माला लेकर, नेऋण्य की ओर मुख करके, मफेद प्रासन पर बैठ कर श्रद्धासहित १४ दिन तक प्रतिदिन १००० बार ऋद्धि मंत्र का जाप जपे और निर्धम अग्नि में चन्दन, कपूर, इलायची तथा अत मिश्रित धूप पण करे । यंत्र पास रखे ॥१७!! ____ श्लोक १८–चन्दन की माला लेकर. अाग्नेय की योर मुख करके, काले रंग के मासन पर बैठ कर सुद्दढ़ मन से दिन तक प्रतिदिन १०८ वार ऋद्धि-मत्र का जाप जपे तथा निधूम अग्नि में गूगल और कुदरू मिश्रित धूप क्षेपण करे ।।१८।।
श्लोक १८ - चन्दन की माला लेकर, नैऋत्य की ओर मुख करके, हरे रम के प्रासन पर बैठ कर श्रद्धासहित ५ दिन तक प्रतिदिन १०८ बार ऋद्धि-मंत्र का जाप जपे तया प्रज्वलित निर्धूम अग्नि में चन्दन, अगर और घृत मिश्रित धूप क्षेपण करे।
श्लोक २०- रुद्राक्ष की माला लेकर, ईशान की भोर भूख करके एकान्त निर्जन स्थान में जोगिया (भगवां) रग के मासन पर बैठ कर श्रद्धापूर्वक ४६ दिन तक प्रतिदिन १००० वार ऋद्धि-मत्र का जाप जपे तथा निर्धूम अग्नि में गुगल और राहर मिभित धूप क्षेपण करे ॥२०॥
श्लोक २१-तुलसी की माला लकर. बायम्प की ओर मुख करके काम के प्रासन पर बैठकर भद्धासहित १४ दिन तक प्रतिदिन १००० वार ऋद्धि-मंत्र का जाप जपे तपा निघूम पग्नि में गूगल, छाइ छबीला और घृत मिश्रित घप क्षेपण करे ॥२१॥
क्लोक २२–तुलसी की माला लेकर, नैऋत्य की मोर मुख
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१८०
श्री कल्याणमन्दिर स्तोत्र सार्थ करके, एकान्त स्थान में डाभ के प्रासन पर बैठकर श्रद्धासहित २१ दिन तक प्रतिदिन १०८ बार ऋद्धि-मत्र का जाप जपे तथा गुगल, छाड़ रबीला और घृत मिश्रित ध प क्षेपण करें। इस विधि में भूमिशयन तथा एकाशन अवश्य करे ।।२२।।
श्लोक २३- लाल रेशम की माला लेकर.पूर्व की ओर मुख करके, एकान्तस्थान में लाल रंग के प्रासन पर बैट कर विश्वासपूर्वक २७ दिन तक प्रतिदिन १००० वार ऋद्धि-मत्र का जाप जप तथा मिधम अग्नि में चन्दन. कस्तूरी और सिलारस मिश्रित ध प क्षेपण करे । सोना या चांदी के पत्र पर यंत्र खुदवाकर पास रखे ॥२३॥
श्लोक २- लाल की नाला लंगर को ओर मुख करके, लाल रंग के आसन पर बैठ कर श्रद्धापूर्वक २७ दिन तक प्रतिदिन २००० वार ऋद्धि-मत्र का जाप जपे तथा नि म अग्नि में कपूर, कस्तुरी, शिलारस और सफद चन्दन मिश्रित धूप क्षेपण करे।
मसाधना के अन्तिम दिन हवन करने के उपरान्त धावकों को २५ कुवारी कन्याओं को मोहन भाग तथा हलुवा का भोजन करावे । यंत्र को भुजा में बांध कर मत्र की साधना एकान्त स्थान में करे ॥२४॥ __ श्लोक २५ स्फटिकमणि की माला लेकर, पश्चिम की ओर मुख करके, सफेद रंग के प्रासन पर बैठ कर स्थिर चित्त से २१ दिन तक प्रतिदिन १००० वार ऋद्धि-मत्र का जाप जपे समा मिर्धम अग्नि में कपूर, चन्दन, इलायची और कस्तूरी मिश्रित ध प क्षेपण करे।
भोजपत्र पर अष्टगंध से यत्र लिखकर गले में बांधे और होली तथा दिवाली की रात में मंत्र को जगावे ॥२५ ।
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यंत्र मंत्र ऋद्धि पूजन आदि सहिन [१८१ श्लोक २६-लाल मूगा की माला लेकर, दक्षिण की प्रोर मुख करके, लाल रंग के आसन पर बैठ कर २७ दिन तक प्रतिदिन १०८ बार ऋद्धि-मत्र का जाप जपे तथा निर्धूम अग्नि में अगर, हाउवेर और छाड़-छबीला मिश्रित धूप क्षेपण करे।
श्लोक २७-काले सूत की माला लंकर, पूर्व की ओर मुख करके कालं ऊन की प्रासन पर बैठकर श्रद्धापूर्वक २१ दिन तक प्रति-दिन १००० वार ऋद्धि-मंत्र का जाप जपे तथा निर्धम अग्नि में गूगल, गरी, संघा नमक तथा वृत मिश्रित धर क्षेपण करे। प्रान्तम दिन भोजपत्र पर यंत्र लिख कर उसे पंचामृत में मिला कर नदी में प्रवाहित करे ॥२७॥
श्लोक २८-पीले सूत की माला लेकर, दक्षिण की ओर मुख करके, पीले रंग के पासन पर बैठ कर श्रद्धासहित २१ दिन तक प्रतिदिन १००० वार ऋद्धि-मंत्र का जाप जपे तथा निर्धम अपिन में चदन लवंग, कपूर, इलायचो तथा वृत मिश्रित धूप क्षपण करे ॥२८॥
श्लोक २९- विद्रम (मूगा, की लाल माला लेकर, पूर्व की योर मुख करके, लालरंग के पासन पर बैठ कर एकाग्रमन से २१ दिन तक प्रतिदिन ऋद्धि मंत्र का जाप जपे तथा निर्धम अग्नि में कस्तूरी शिलारस, अगर और सफेद चन्दन मिधित धूप क्षेपण करे ।।२९।।
दलोक २-रुद्राक्ष की माला लेकर, पूर्व की ओर मुख करके, काल रंग के प्रामन पर बैठ कर ६० दित तक प्रतिदिन ७०० बार ऋद्धि और मत्र का जाप जपे तथा निर्धम अग्नि में दशाङ्ग अथवा गूगल, लोभान एव घृत मिश्रित धूप क्षेपण करे ॥३०॥
लोक ३१--सूत को सफेद माला लकर, पूर्व की ओर मुख
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श्री ऋल्य णमंदिरस्तोत्र सार्थ
करके सफेद आपन पर बैठ कर १४ दिन तक प्रतिदिन १००० वार ऋद्धि-मंत्र का जाप जपे तथा निर्धम अग्नि में चन्दन, अगर और छाड़ छबीला मिश्रित धूप क्षेपण करे। १५ वें दिन घृत, अगर तथा पीले सरसों से हवन करे तदुपरान्त मिष्टान्न वितरण करे ।।३१।। ___ लोक ३२--पद्मबीज की माला लंबार नैऋत्य की प्रोर मुख करके, काल रंग के पासन पर बैठ कर २७ दिन तक प्रतिदिन १००० बार ऋद्धि-मंत्र का जाप जपे तया निर्धम अग्नि में गूगल, तगर, नागरमोथा और घृत मिश्रित धूप क्षेपण करे ।।३२
श्लोक ३३-रुद्राक्ष की माला लेकर, वायध्य की अोर मुख करके जोगिया रंग के आसन पर बैठ कर श्रद्धापूर्वक ७ दिन तक प्रतिदिन १००० वार ऋद्धि-मंत्र का जाप जपे तथा कपुरचन्दन, गरी, इलायचो और घृत मिश्रित धूप निर्धूम अग्नि में क्षपण करे ।।३३।। ___ श्लोक ३४--बिच्छुकांटा के फलों को माला लेकर, वायव्य की ओर मुख करके, काले रंग के प्रासन पर बठ कर मन, वचन, काय की चंचल प्रवृत्ति को रोक कर २१ दिन तक प्रतिदिन २१ वार ऋद्धि-मंत्र द्वारा मंत्रित सरसों को पानी में डाल पीर गूगल, सरसों, लालमिर्ष एवं घृत मिश्रित धूप की धूनी देवे ॥३॥
श्लोक ३५-चन्दन की माला लेकर, नैऋत्य की प्रोर मुख करके, कदलीपत्र क हरित आसन पर बैठ कर निश्चल मन से २१ दिन तक प्रतिदिन ७०० वार ऋसि-मन्त्र का जाप जपे तथा निम अग्नि में घृत और लोभान मिश्रित धूप क्षेपण करे। मंत्र का जाप ब्रह्मचर्यपूर्वक एकान्त स्थान में करे ॥३५ ।
लोक ३६.-पाट (सन) की माला लेकर, ईवान की प्रोर
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यंत्र मंत्र ऋद्धि पूजन आदि सहित १८३ मुख करके, हरे रंग के प्रासन पर बैठकर श्रद्धापूर्वक ७ दिन तक प्रतिदिन १००० वार ऋद्धि-मंत्र का जाप जपे तथा गूगल और दस भिदिन धू: गिरगिल में लगा रे ॥३६॥
श्लोक ३७-पूर्व की ओर मुख करके, लालरंग के प्रासन पर बैठ कर श्रद्धापूर्वक २१ दिन तक प्रतिदिन १०८ वास ऋद्धि-मंत्र का कनेर के फलों से जाप जपे तथा निर्धूम अग्नि में कपूर और कस्तूरी मिश्रित धूप क्षेपण करे।३७।
श्लोक ३८-सफेद काष्ठ की माला लेकर, सफेद रंग के प्रासन पर बैठकर १४ दिनतक प्रतिदिन १००० वार ऋद्धिमत्र का जाप जपे तथा निर्धम अग्नि में लवंग, कन्दरू, चन्दन
और घृत मिश्रित धप क्षेपण करे ।३८ । __ श्लोक ३९-कमल को माला लेकर ईशान की प्रोर मुख करके, हरे रंग के प्रासन पर बैठकर ७ दिनतक प्रतिदिन १००८ वार श्रद्धासहित ऋद्धि-मंत्र का जाप जपे तथा निर्धूम अग्नि में गूगल, गरी और घृत मिथित धूप क्षेपण करे । ३९॥
___ श्लोक ४०-रुद्राक्ष की माला लेकर, ईशान की ओर मुख करके, हरे रंग के पासन पर बैठ कर विकल्य रहित मन से १४ दिन तक प्रतिदिन १००० वार ऋद्धि-मत्र का जाप जपे तथा निर्ध म अग्नि में गरी और गूगल मिश्रित धूप क्षेपण करे ।।४०॥ __श्लोक ४५. कालं मूत की माला लेकर, पूर्व की योर मुख करके, काले रंग के आसन पर बैठ कर स्थिरचित से २१ दिनतक प्रतिदिन १००० वार ऋद्धि-मंत्र का जाप जपे तथा निर्धम अग्नि में नमक, मिर्च, गूगल और बृत मिश्रित धूप मे पण करे ।।४।।
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________________ [184 श्री कल्याणमन्दिरस्तोत्र सार्थ उलोक १२--कदलीफन की माला लेकर, उत्तर की घोर मुख करके, रंग विरंगी लूगी के ग्रासन पर बैठ कर 21 दिन तक प्रतिदिन 108 वार ऋद्धि-मंत्र का जाप जपे तथा निर्धम अग्नि में लवंग, कपूर, चन्दन, इलायची, शिलारस और घृत मिथित धूप मपण करे / पद्मावती देवी की मूर्ति का कम्मल रंग के वस्त्राभूषगों से शृङ्गार करे / / 42 / / दनोंक ४३--काले रंग के सूत की माला लकर प्राग्नेय की ओर मुख करके, काले कम्बल के आसन पर बैठ कर श्रद्धापूर्वक 14 दिन तक प्रतिदिन 1000 वार ऋद्धि-मंत्र का जाप जपे तथा निर्धम अग्नि में चन्दन. गुगल और लालमिर्च मिश्रित धूप क्षेषण करे // 4 // सोपा ४४--मु को मान। लंकार, पूर्व को पोर मुख करके लाल रंग के पासन पर बैठ कर श्रद्धापूवरे 40 दिन तक प्रतिदिन 1000 बार ऋद्धि-मत्र का जाप जपे लथा निर्धम अग्नि में कस्तूरी, चन्दन, शिलारस और कपूर मिश्रित धूप क्षेपण करे / एकाशन एवं भूमिशयन करे और यंत्र पास रखे / 44 / / अन्य समाप्ति मुद्रक