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________________ यंत्र मंत्र ऋद्धि प्रादि सहित [४९ outset annihilated aliger ? Or why, does not the maag of snow though cold burn forests having dark-blue ( or fig ) tress ? (13) शत्रुस्नेह जनक त्वां योगिनो जिन ! सदा परमात्मरूप __ मन्वेषयन्ति हृदयाम्बूजकोष देशे । पूतस्य निर्मलरुमे यदि वा किमन्य दक्षस्य' सम्भवपदं ननु कणिकायाः ।।१४।। शुखस्वरूप अमल अविनाशी, परमातम सम ध्यावहिं तोय । निजमन कमल-कोष मधि ढूंढहि,सदा साधु तजि मिथ्या-मोह।। अतिपवित्र निर्मल सू-कांति यूत, कमलकणिका बिन नहिं प्रौर। निपजत कमलबीज उसमें ही, सब जग जानहिं और न ठौर।। श्लोकार्थः --हे तरण-तारण ! महर्षिजन परमात्मस्वरूप प्रापको सदा अपने हृदयाम्बूज के मध्यभाग में अपने ज्ञानरूपी नंत्र द्वारा खोजते हैं। ठीक ही है कि जिस प्रकार पवित्र, निर्मल कान्सियुक्त कमल के बीज का उत्पत्तिस्थान कमल की कणिका ही है, उसी प्रकार शुखात्मा के अन्वेषण का स्थान हृदय-कमल का मध्यभाग ही है ॥१४॥ मुनिजन हिये कमल निष टोहि, सिद्धरूपसम ध्यावहि तोहि । कमलकणिका बिन नहिं पौर, कमल-बीज उपजन की ठौर । १४ ऋद्धि-ॐ ह्रीं ग्रहं गमो भंसणभयझवणाण'पटुंगमहाणिमित्तकुसलाणं । ---...... - - - -सम्भदि इत्यपि पाठः । २-बाजामा। .. अष्टांगमहा. निमित्तविता में प्रवीण जिनों को नमस्कार हो । -
SR No.090236
Book TitleKalyanmandir Stotra
Original Sutra AuthorKumudchandra Acharya
AuthorKamalkumar Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages180
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size2 MB
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