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________________ ४८ ] श्री कल्याणमंदिर स्तोत्र सार्थ लेकिन मानव अपनी आंखों देखहु यह पटतर संसार | क्यों न जला देता बन- उपवन, हिम-सा शोतल विकट ' तुपार ।। श्लोकार्थ - हे कोपदभन ! यदि आपने अपने क्रोध को पहिले ही नष्ट कर दिया तो फिर श्रापही बतलाइये कि आपने क्रोध के बिना कर्मरूपी चोरों का कैसे नाश किया ? अथवा इस लोक में बर्फ ( तुषार एकदम ठंडा होने पर भी क्या हरे-हरे वृक्षों वाले वन उपवनों को नहीं जला देता है ? अर्थात जला ही देता है ।। १३ ।। भ्र कोध निवार कियो मन ज्ञान्त, कर्म सुभट जीते किहि भांत? ॥ यह पटतर देखहु संसार, नील विरख ज्यों दहै तुषार || १३ - ऋद्धि ह्रीं यो रिक्वभयवज्जपाण चोहमपुब्वणं । मंत्र — ॐ ह्रीं प्रसिझाउसा सर्वदुष्टान् स्तम्भय स्तम्भय ग्रंथय श्रंश्य मूक मूकय मोहय मोहय कुरु कुरु ह्रीं दुष्टान् ठः ठः ठः स्वाहा 1 विधि - पूर्व दिशा की ओर मुख करके किसी एकान्त स्थान में बैठकर या २१ दिन तक प्रतिदिन मुट्ठी बाँधकर इस मंत्र का ११०० दार जप करने से सब तरह के दुष्ट-क्रूर व्यन्तरों के कष्टों से मुक्ति होती है। ॐ ह्रीं कर्मचोर विध्वंसकाय श्री जिनाय नमः | How couldst Thou indeed (manage to) destroy Karman-thieves, when Thou, oh Omnipresent one! hadst at the very २- पाला १ १ - दृष्टान्त । पूर्वधारी जिनों को नमस्कार हो । ३- हरे वृक्ष । ४ - बौदह
SR No.090236
Book TitleKalyanmandir Stotra
Original Sutra AuthorKumudchandra Acharya
AuthorKamalkumar Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages180
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size2 MB
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