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यत्र मंत्र ऋद्धि प्रादि सहित
मुक्ताकलापकलितो' न सितातपत्र--
व्याजास्त्रिधा धृततनु धवमभ्युपेतः ।।२६।। अखिल-विश्व में हे प्रभु ! तुमने, फैलाया है विमल-प्रकाश । मत: छोड़ कर स्वाधिकार को, ज्योतिर्गण आया तव पास ।। मणि-मुक्ताओं को झालर युत. प्रातपत्र' का मिष लेकर । त्रिविध-रूप घर प्रभु को सेबे,निशिपति तारान्वित होकर ।।
उलोकार्य-हे अपूर्वतेजपुञ्ज ! आपने तीनों लोकों को प्रकाशित कर दिया, अब चन्द्रमा किसे प्रकाशित करें ? इसीलिए वह तीन छत्र का वेष धारण कर अपना अधिकार वापिस लेने की इच्छा से आपकी सेवा में उपस्थित हुआ है। छत्रों में जो मोती लगे हैं वे मानों चन्द्रमा के परिवार स्वरूप सारागण ही ६॥
( यह छत्रत्रय प्रातिहार्य का वर्णन है ) तीन छत्र त्रिभुवन उदित, मुक्तागत छवि देत । त्रिविधरूप धरि मनहुँ सति, सेवत नखतसमेत ॥ २६ ऋद्धि-ॐ ह्रीं ग्रह णमो जयपदाईणं 'घोरतवाण।
मंत्र-ॐ ह्रीं श्रीं प्राङ्गरे महाविद्ये येन-येन केनचित मम पापं कृतं कारितम् अनुमतं वा सत् पापं तमेव गच्छतु ॐ ह्रीं श्रौं प्रत्यङ्गिरे महाविद्य स्वाहा ।
विधि-प्रातःकाल एकान्त स्थान में पूर्वदिशा की मोर मुख करके तथा सन्ध्या समय पश्चिम की ओर मुख करके
१- कलितोकछवसितात इत्यपि पाठः । २-छत्र। ३-नक्षत्रों सहित । ४-घोरतपधारी जिनों को नमस्कार हो।