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यन्त्र मन्त्र ऋद्धि प्रादि सहित
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नय सप्त-भंग - तग्ग-मण्डित, पाप-ताप विनाशिनी । मी जयो प्राइवेजिनेन्द्र पातक, हरन जग-चूड़ामनी ॥
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चन्द्राचिचय-छवि-चारु चंचल, चमर-वृन्द सुहावने ढोलें निरन्तर यक्षनायक, कहत क्यों उपमा बने || यह नीलगिरि के शिखर मानो, मेघ भरि लागी घनी । सो जयो पारवं जिनेन्द्र पातक, हरन जग चामती ॥
होरा जवाहर चित बहुविध हेम-प्रासन राजये । तह जगत जनमनहरन प्रभुक्त नील वरन बिराजये ॥ यह जटिल वारिजमध्य मानौ, नीलमणिकर्णिका बनी। सो जयो पार्श्वजिनेन्द्र पातक, दृश्न जग - चूड़ामनी ||
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जगजीत मोह महान जोधा, जगत में पटहा दियो । सो शुक्ल- ध्यान - कृपानबल जिन, विकट बेरी वश कियो ।। ये बजत विजय महानदुन्दुभि जीत सूचं प्रभुतनी । सो जयो पर जिनेन्द्र पतिक, हरन जग चूड़ामनो
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हृदमस्थ पद में प्रथम दर्शन, ज्ञान चारित प्रादरे । अब तीन तेई छत्रछल सों करत खाया छवि भरे || प्रतिधवल रूप अनूप उन्नत सोमबिम्ब-प्रभा हनी । सो जयो पाश्र्वंजिनेन्द्र पातक, हरन जग-चूड़ामती ॥ द्यूति देखि जाकी चन्द्र लाजे, तेज सौं रवि लाजई । तव प्रभा मण्डल जोग जग में, कौन उपमा छाजई ।। इत्यादि अतुल विभूतिमंडित, सोहये त्रिभुवन धनी । सो जयो पार्श्व जिनेन्द्र पातक, हरन जग-चूड़ामनी ॥
या श्रगम महिमा सिन्धु वक्री, शक्र पार न पावहीं। तजि हास भय तुम दरस " मथुरा" भक्तिवश यश गावहीं ॥