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{ २१ । "अरे जरा दूर से चलो; क्या दिखता नहीं है, कि मैं याह्मण हैं ?" परन्तु वे तो प्राचार्य वृद्धवादी जी थे, जो इस कट्टर ब्राह्मण की श्रद्धा की परीक्षा को ही नाम सुन कर निकले थे, प्रसएव जानबूझकर पुनः घुटनी का धक्का मार ही तो दिया। फिर क्या था ? विवाद प्रारम्भ हो गया: जैसा कि प्राचार्य वृद्धवादी जी चाहते ही थे। वह कट्टर ब्राह्मण वेद पारङ्गत एवं कूटताकिक था। ‘एको ब्रह्म से लेकर सहनों श्लोक उसकी जिह्वा पर नाच उठे । प्राचार्य जी ने भी व्यवहार धर्म का स्वरूप कहा । निवान एक ग्वाला वहां से निकला और वही मध्यस्थ ठहराया गया इस अनसुलझे विवाद के लिये।
"ब्रह्म सस्पं जगन्मिथ्या ...... प्रादि कह कर ब्राह्मण से संस्कृत की अपनी पूर्ण विद्वसा सामने उड़ेल दी।
"देखो भाई जैसे प्रापकी ये गायें हैं, यदि ये कहीं चली आवें तो आपका क्या गया ? यदि आप उन्हें अपनी मानते ही महीं।" आदि कह कर वृद्धवादी जी ने ग्वाले की बुद्धि के अनुसार ही व्यावहारिक बात करके अपना पक्ष प्रकट किया।
ग्वाले की बुद्धि में संस्कृत श्लोकों की तुलना में अपने ही ऊपर कुछ घटाये व्यावहारिक दृष्टान्तों के कारण शीघ्र ही सब कुछ समझ में आ गया। इस भांति उसने बद्धवादी जी का ही समर्थन किया । तथापि ब्राह्मण सन्तुष्ट नहीं हुआ। होते-होते राजा के पास दोनों पहुँचे और उन्होंने भी प्राचार्य जी की ध्यावहारिकता के कारण उनके ही पक्ष में निर्णय दिया।......
निदान ब्राह्मण को उनका शिष्यपमा स्वीकार करना ही पड़ा और समयानुसार ये 'कुमुदचन्द्र' नाम से सुसंस्कृत किये गये । ऐसे ही श्रद्धावान, विद्वान पुरुष की खोज में तो वृद्धवादी जी निकले ही थे।