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________________ ४२ ] श्री कल्याणमदिर स्तोत्र मार्थ तस्कर भय विनाशक त्वं तारको जिन ! कथं भविना त एव, __त्वामुद्वन्ति हृदयेन यदुत्तरन्तः । यद्वा दतिस्तरति यज्जल मेव नन... ____ मन्तर्गतस्य ममतः - लिलामहः ।। १ ।। भक्त प्रापके भव-पयोधि' से, लिर जाते तुमको उधार । फिर कैसे कहलाते जिनवर, तुम भक्तों की दृढ पतवार ? || वह ऐसे, जैसे तिरती है, चर्म मसक जल के ऊपर । भीतर उसमें भरी वायु का, ही केवल यह विभो ! असर' ।। इलोकार्थ-हे भवपयोधितारक ! जिस तरह अपने भीतर भरी हुई पवन के प्रभाव से चर्म-मसक पानी के ऊपर तैरती हुई किनारे लग जाती है, उसी तरह मन-वचन काय से आपको अपने मन-मन्दिर में विराजमान कर आपका ही रातदिन चिन्सवन करने वाले भव्यजन संसार सागर में बेखटके (बिला बाधा के ) पार लग जाते हैं। भावार्थ-भव्यजन पापको अपने हृदय में धारण करके संसार-सागर से तिर जाते हैं, इसका मतलब यह नहीं है कि भव्यजन आप ( भगवान ) को सारने वाले हैं । यह तो उसी तरह की बात है जिस तरह से मसक अपने भीतर भरी हुई हवा के प्रभाव से पानी में तैरती है । अर्थात् मसक को तिरने में जैसे उसमें भरी हुई हवा कारण है, वैसे ही भव-समुद्र से भव्यजनों के तिरने में उनके द्वारा वार २ किया १- संसार समुद्र । २-हृदय में धारण करके । ३ - प्रभाव ।
SR No.090236
Book TitleKalyanmandir Stotra
Original Sutra AuthorKumudchandra Acharya
AuthorKamalkumar Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages180
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size2 MB
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