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श्री कल्याणमन्दिर स्तोत्र सार्थ
दुष्टताप्रतिरोधी यद्गर्जतिघनौघमदभ्रभीमं,
भ्रश्यत्तडिन्मुस'ल मांसलधोरघारम् । दत्येन मक्तमथ दुस्तरवारि द.
तेनैव तस्य जिन ! दुस्त रवारिकृत्यम् ॥३२॥ उमड़ घुपड़ कर गर्जत बहुविध, तड़कत बिजली भयकारी । बरमा अति घनघोर दत्य ने. प्रभ के सिर पर कर डारी। प्रभु का कछु न बिगाड़ सकी वह मूसल सी मोटी घारा। स्वयं कमठ ने हठधर्मी वश, निग्रह अपना कर डारा ।'
श्लोकार्य हे महाबल ! प्राप पर मुसलपार पानी वर्षा कर कमर ने जो महान उपमग किया था उससे प्रापका क्या बिगड़ा? परन्तु उसी ने स्वयं अपने लिये तलवार का घाव कर लिया । अर्थात ऐमा खोटा कृत्य करने के कारण स्वयं उमने . घोर पापकर्मों का बन्ध कर लिया ।। ३२ ॥ गरजतन्त घोर घन अन्धकार, चमकत विज्जु जल मुसल धार । वरषठ कमठ धर गान रुद्र, दुस्तर करत निज भवसमुद्र ।।
३२ ऋद्धि-ॐ ह्रीं अहं णमो अमदणासयाणं जल्लोसहिपत्ताणं ।
मंत्र- ॐ भ्रम भ्रम केशि भ्रम केशि भ्रम माते भ्रम माते भ्रम विभ्रम विभ्रम मुह्म मुह्य मोहय मोहय स्वाहा ।
t-शकारो पि क्वचित् । २-अल्लोषषि ऋद्धि प्राप्त जिनों को.नमस्कार हो।