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भूमिका कल्याणमन्दिरस्तोत्र और उसके रचयिता
बैनधर्म में जहां ज्ञान को महत्त्व दिया गया है वहाँ भक्ति को भी उल्लेखनीय स्थान मिला है। स्वामी समन्तभद्र जसे उभट आचार्यों ने अपने अनेक ग्रन्थ या यों कहिए कि रत्न करण्यकश्रावकाचार को छोड़कर शेष सभी उपलब्ध ग्रन्थ अरिहन्त भगवान के स्तवन में ही रचे हैं। उनके स्वयम्भूस्तोत्र देवागमस्तोत्र, युक्त्यनुशासनस्तोत्र और जिनशतक (स्तुतिविद्या) ये स्तोत्र-ग्रन्थ अर्हद्भक्ति के उत्कृष्ट नमूने हैं और भारतीय स्तोत्र-साहित्य में वेजोड़ एवं अद्वितीय कृतियों हैं। प्राचार्य मानतुङ्ग का भक्तामरस्तोत्र, आचार्य धनञ्जय कवि का विषापहारस्तोत्र, प्राचार्य वादिराज का एकोभावस्तोत्र, श्रीभूपालकवि (भोजराज महाराज)का जिनचतुषिशतिकास्तोत्र और प्राचार्य कुमुदचन्द्र का प्रस्तुत कल्याणमन्दिरस्तोत्र ये स्तुति-रचनाएँ भी प्रर्हद्भक्ति की प्रपूर्वधारा को वहाने वाली है।
भक्ति और उसका उद्देश्य संसारी प्राणी राग, द्वेष, लोभ, अहंकार, प्रज्ञान आदि अपने दोषों मे निरन्तर दुखी बना चला मा रहा है और कभी-कभी वह कर्म की चपेट में इतना पा जाता है कि वह घबड़ा उठता है और उस दुःख से छूटने के लिये ऐसी बगह अथवा ऐसी प्रात्मा की तलाश करता है-उस ओर अपना
भक्तामरस्ताव अद्वितीय हैं और भारता)